Friday, 31 March 2017
संध्या वंदना
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संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'|

'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में संध्या वंदन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है संध्या वंदन करना। संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।

संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पाँच वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्या काल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।
यह समय मौन रहने का भी है। इस समय के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि का त्याग कर दिया जाता है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
वेदज्ञ और ईश्वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना के चार प्रकार है- (1)प्रार्थना (2)ध्यान, (3)कीर्तन और (4)पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।
(1)प्रार्थना : प्रार्थना को उपासना और आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम है। वेदज्ञ प्रार्थना ही करते हैं। वेदों की ऋचाएँ प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएँ ही तो है। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।
(2)ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश। साक्षी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है।
(3)कीर्तन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम है। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय संगीत का उल्लेख मिलता है।
(4)पूजा-आरती : पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। अत: पूजा-आरती के भी नियम है।
हिंदू कर्तव्यों में सर्वोपरी है संध्या वंदन। संध्या वंदन में सर्वश्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वंदना कहते थे। इसे करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है। आगे जानेंगे हम वैदिक प्रार्थनाओं का रहस्य।
घर में रखें कितनी मूर्तियां...
गृहे लिंगद्वयं नाच्यं गणेशत्रितयं तथा।
शंखद्वयं तथा सूर्यो नार्च्यो शक्तित्रयं तथा॥
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्राम शिलाद्वयम्।
तेषां तु पुजनेनैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही॥
अर्थ- घर में दो शिवलिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्य, तीन दुर्गा मूर्ति, दो गोमती चक्र और दो शालिग्राम की पूजा करने से गृहस्थ मनुष्य को अशांति होती है।
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