Wednesday, 29 March 2017
स्वामी रामानंद

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स्वामी रामानंद

वैष्णवाचार्य स्वामी रामानंद का जन्म 1299 ई. में प्रयाग में हुआ था। इनके विचारों पर गुरु राघवानंद के विशिष्टा द्वैत मत का अधिक प्रभाव पड़ा। अपने मत के प्रचार के लिए इन्होंने भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा कीं। तीर्थाटन से लौटने पर अनेक गुरु-भाइयों ने यह कहकर रामानंद के साथ भोजन करने से इंकार कर दिया कि इन्होंने तीर्थाटन में छुआछूत का विचार, नहीं किया होगा। इस पर रामानंद ने अपने शिष्यों को नया संप्रदाय चलाने की सलाह दी। रामानंद संप्रदाय में ये बातें सम्मिलित हैं-
द्विभुजराम की परम उपासना,
'आउम् रामाय नाम:' इस संप्रदाय का मन्त्र है।
संप्रदाय का नाम 'श्रीसंप्रदाय' तथा 'वैरागी संप्रदाय' भी है।
इस संप्रदाय में आचार पर अधिक बल नहीं दिया जाता। कर्मकांड का महत्त्व यहाँ बहुत कम है। इस संप्रदाय के अनुयायी 'अवधूत' और 'तपसी' भी कहलाते हैं। रामानंद के धार्मिक आंदोलन में जाति-पांति का भेद-भाव नहीं था। उनके शिष्यों में हिंदुओं की विभिन्न जातियों के लोगों के साथ-साथ मुसलमान भी थे। भारत में रामानंदी साधुओं की संख्या सर्वाधिक है।
सामान्य व्यक्ति के लिये आदर्श
महापुरुषों का जीवन सामान्य व्यक्ति के लिये आदर्श होता है। महापुरुष स्थूल शरीर के प्रति इतने उदासीन होते हैं। कि उन्हें उसका परिचय देने की आवश्यकता ही नहीं जान पड़ती। भारतीय संस्कृति में शरीर के परिचय का कोई मूल्य नहीं है।
श्री रामानन्दाचार्य जी का परिचय व्यापक जनों को केवल इतना ही प्राप्त है कि उन तेजोमय, वीतराग, निष्पक्ष महापुरुष ने काशी के पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठको अपने निवास से पवित्र किया।
आचार्य का काशी-जैसी विद्वानों एवं महात्माओं की निवास भूमि में कितना महत्त्व था, यह इसी से सिद्ध है कि महात्मा कबीरदास जी ने उनके चरण धोखे से हृदय पर लेकर उनके मुख से निकले 'राम'- नाम को गुरु-मन्त्र मान लिया।
आचार्य ने शिव एवं विष्णु के उपासकों में चले आते अज्ञान मूलक द्वेष भाव को दूर किया। अपने तप: प्रभाव से यवन-शासकों के अत्याचार को शान्त किया और श्री अवध चक्रवर्ती दशरथ नन्दन राघवेन्द्र की भक्ति के प्रवाह से प्राणियों के अन्त: कलुष का निराकरण किया।
द्वादश महाभागवत आचार्य के मुख्य शिष्य माने गये हैं। इनके अतिरिक्त कबीर, पीपा, रैदास आदि परम 'विरागी' महापुरुष आचार्य के शिष्य हो गये हैं। आचार्य ने जिस रामानन्दीय सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, उसने हिन्दू-समुदाय की आपत्ति के समय रक्षा की। भगवान का द्वार बिना किसी भेदभाव के, बिना जाति-योग्यता आदि का विचार किये सबके लिये खुला है, उन्होंने उदघोष किया था-सर्वे प्रपत्तेधिकारिणो मत्ताः, सब उन मर्यादा पुरुषोत्तम को पुकारने के समान अधिकारी हैं- इस परम सत्य को आचार्य ने व्यावहारिक रूप में स्थापित किया है।
जन्म-तिथि
रामभक्ति के प्रथम आचार्य स्वामी रामानन्द की जन्म-तिथि के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है। डा. फर्कुहर उनका जीवन-काल 1400 ई. से 1470 ई. के बीच मानते हैं। पं. रामचन्द्र शुक्ल ने ईसा की 15 वीं शती के पूर्वाद्ध तथा 16 वीं शती के प्रारम्भ के मध्यकाल में उनका उपस्थित होना कहा है। 'अगस्त्य संहिता' तथा साम्प्रदायिक ग्रन्थों के अनुसार रामानन्द का जन्म सन् 1299 ई. में हुआ था। डा. फर्कुहर के मत का आधार है कबीरदास तथा रैदास की जन्म सम्बन्धी किंवदन्तियाँ। पं. रामचन्द्र शुक्ल ने रामानन्द, तकी तथा सिकन्दर लोदी को समकालीन माना है और उन्होंने रामार्चन पद्धति तथा रघुराज सिंह के साक्ष्य को भी स्वीकार किया है किन्तु ये सभी आधार निसंन्दिग्ध नहीं हैं। इस कारण विद्वानों का अधिकांश वर्ग 'अगस्त्य संहिता' तथा साम्प्रदायिक मत को ही स्वीकर करता है। इस सम्बनध में भक्तमाल तथा रामानन्दी मठों की प्राप्त गुरु-परम्पराएँ भी 'अगस्त्य संहिता' के मत का ही समर्थन करती है।
जन्म-स्थान
रामानन्द के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी उत्तर-दक्षिण का अन्तर है।
फर्कुहर तथा मैकलिफ उन्हें दाक्षिणात्य मानते हैं, मैकालिफ ने मेलकोट (मैसूर) को उनका जन्म-स्थान बतलाया है।
'अगस्त्य संहिता' तथा साम्प्रदायिक विद्वान प्रयाग को इनका जन्म-स्थान बतलाते हैं। प्रथम मत के पक्ष में प्रमाणों का अभाव है, दूसरे मत को सम्प्रदाय की आस्था एवं विश्वास का बल प्राप्त है अत: इसको ही सही माना जाना चाहिये।
'अगस्त्य संहिता' में रामानन्द के पिता का नाम पुण्यसदन माँ का नाम सुशीला कहा गया है।
'भविष्य पुराण' में पुण्य सदन के स्थान पर देवल और 'प्रसंग पारिजात' में सुशीला के स्थान पर मुरवी नाम मिलते हैं किन्तु रामानन्द सम्प्रदाय में 'अगस्त्य संहिता' का मत ही मान्य है।
मैकलिफ रामानन्द को गौड़ ब्राह्मण मानते हैं किन्तु 'अगस्त्य संहिता' में उन्हें कान्य-कुब्ज कहा गया है।
रामानन्द के नाम
रामानन्द के पूर्व नाम के सम्बन्ध में भी अनेक मत प्रचलित हैं।
'रसिक प्रकाश भक्तमाल' के टीकाकार जान की रसिक शरण ने उनका पूर्व नाम रामदत्त दिया है।
'वैष्णव धर्म रत्नाकार' में उन्हें राम भारती कहा गया है,किन्तु
'अगस्त्य संहिता' तथा 'भविष्य पुराण' में उनका नाम रामानन्द ही मिलता है। यही मत साम्प्रदायिक विद्वानों का भी मान्य है। किंवदन्ती है कि रामानन्द के गुरु पहले कोई दण्डी सन्न्यासी थे, बाद में राघवानन्द स्वामी हुए।
'भविष्य पुराण', 'अगस्त्य संहिता' तथा 'भक्तमाल' के अनुसार राघवानन्द ही रामानन्द के गुरु थे। अपनी उदार विचारधारा के कारण रामानन्द ने स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित किया। उनका केन्द्र मठ काशी के पंच गंगाघाट पर था, फिर भी उन्होंने भारत के प्रमुख तीर्थों की यात्राएँ की थीं और अपने मत का प्रचार किया था।
एक किंवदन्ती के अनुसार छुआ-छूत मतभेद के कारण गुरु राघवानन्द ने उन्हें नया सम्प्रदाय चलाने की अनुमति दी थी।
दूसरा वर्ग एक प्राचीन रामावत सम्प्रदाय की कल्पना करता है और रामानन्द को उसका एक प्रमुख आचार्य मानता है। डा. फर्कुहर के अनुसार यह रामावत-सम्प्रदाय दक्षिण भारत में था और उसके प्रमुख ग्रन्थ 'वाल्मीकि-रामायण' तथा 'अध्यात्म रामायण' थे। साम्प्रदायिक मत के अनुसार एक मूल 'श्री सम्प्रदाय' की आगे चलकर दो शाखाएँ हुई एक में लक्ष्मी नारायण की उपासना की गयी, दूसरी में सीताराम की। कालान्तर में पहली शाखा ने दूसरी को दबा लिया, रामानन्द ने दूसरी शाखा को पुर्न जीवित किया। रामानन्द के प्रमुख शिष्य-
अनन्तानन्द
कबीर
सुखानन्द
सुरसुरानन्द
पद्मावती
नरहर्यानन्द
पीपा
भावानन्द
रैदास
धना सेन और
सुरसुरी आदि थे।
मृत्यु
रामानन्द की मृत्यु तिथि भी उनकी जन्म-तिथि के अनुसार ही अनिश्चित है। 'अगस्त्य संहिता' में सन् 1410 ई. को उनकी मृत्यु-तिथि कहा गया है। सन् 1299 ई. को उनकी जन्म-तिथि मान लेने पर यही तिथि अधिक उपयुक्त जान पड़ती है। इससे स्वामी जी की आयु 111 वर्ष ठहरती है, जो नाभाकृत 'भक्तमाल' के साक्ष्य "बहुत काल वपु धारि कै प्रणत जनन को पर दियो" पर असंगत नहीं है।
रचनाएँ
रामानन्द द्वारा लिखी गयी कही जाने वाली इस समय निम्नलिखित रचनाएँ मिलती हैं-
'श्रीवैष्णव मताव्ज भास्कर'
'श्रीरामार्चन-पद्धति'
'गीताभाष्य'
'उपनिषद-भाष्य'
'आनन्दभाष्य '
'सिद्धान्त-पटल'
'रामरक्षास्तोत्र'
'योग चिन्तामणि'
'रामाराधनम्'
'वेदान्त-विचार'
'रामानन्दादेश'
'ज्ञान-तिलक'
'ग्यान-लीला'
'आत्मबोध राम मन्त्र जोग ग्रन्थ'
'कुछ फुटकर हिन्दी पद'
'अध्यात्म रामायण'।
इन समस्त ग्रन्थों में 'श्री वैष्णवमताब्ज भास्कर' तथा श्री रामार्चन पद्धति' को ही रामानन्द कृत कहा जा सकता है। पं. रामटहल दास ने इनका सम्पादन कर इन्हें प्रकाशित कराया है। इन ग्रन्थों की हस्त-लिखित प्रतियाँ उपलब्ध नहीं है। 'श्री वैष्णवमताब्ज भास्कर' में स्वामीजी ने सुर-सुरा नन्द द्वारा किये गये नौ प्रश्न-तत्त्व क्या हैं, श्री वैष्णवों का जाप्य मन्त्र क्या है, वैष्णवों के इष्ट का स्वरूप, मुक्ति के सुलभ साधन, श्रेष्ठ धर्म, वैष्णवों के भेद, उनके निवास स्थान, वैष्णवों का कालक्षेप आदि के उत्तर दिये हैं। दर्शन की दृष्टि से इसमें विशिष्टाद्वैत का ही प्रवर्त्तन किया गया है। 'श्रीरामार्चन पद्धति' में राम की सांग ता षोडशो पचार पूजा का विवरण दिया गया है। राम टहलदास द्वारा सम्पादित दोनों ग्रन्थ संवत 1984 (सन 1927 ई.) में सरयू वन (अयोध्या) के वासुदेव दास (नयाघाट) द्वारा प्रकाशित किये गये। भगवदाचार्य ने संवत 2002 (सन् 1945 ई.) में श्री रामानन्द साहित्य मन्दिर, अट्टा (अलवर) में 'श्री वैष्णवमताब्ज भास्कर' को प्रकाशित किया। शेष ग्रन्थों में 'गीता भाष्य' और 'उपनिषद भाष्य' की न तो कोई प्रकाशित प्रति ही मिलती है और न हस्त लिखित प्रति ही प्राप्त है। यही स्थिति 'वेदान्त विचार', 'रामाराधनम्' तथा 'रामानन्दादेश' की भी है। 'आनन्दभाष्य' स्वामी राम प्रसाद जीकृत 'जानकी भाष्य' का सारांश एवं आधुनिक रचना है। 'सिद्धान्त पटल', 'राम रक्षास्तोत्र' तथा 'गोगचिन्तामणि' तपसी-शाखा द्वारा प्रचलित किये गये ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार 'आत्मबोध' तथा 'ध्यान तिलक' तथा अन्य निर्गुण परक फुटकल पद कबीर-पन्थ में अधिक प्रचलित हैं और उनकी प्रामाणिकता अत्यन्त ही सन्दिग्ध है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित 'रामानन्द की हिन्दी रचनाएँ' पुस्तक में संगृहीत फुटकल समस्त पदों में ' हनुमान की आरती' को छोड़कर शेष सभी पद निर्गुण मत की प्रतिष्ठा करते हैं। लगता है निर्गुण पन्थियों ने रामानन्द के नाम पर इन रचनाओं को प्रचलित कर दिया है। इनका कोई प्रचार रामानन्द-सम्प्रदाय में नहीं हे। 'भजन रत्नावली' (डाकोर) में रामानन्द के नाम से चार हिन्दी पर मिलते हैं, एक में अवध बिहारी राम का वर्णन है, दूसरे में सखाओं के साथ खेलते हुए राम का, तीसरे में राम की आरती का वर्णन है और चौथे में रघुवंशी राम के मन में बस जाने का वर्णन है। इन पदों का प्राचीन हस्त लिखित रूप नहीं मिलता, इनकी भाषा भी नवीन है। अत: ये प्रामाणिक नहीं कही जा सकतीं। इस सम्बन्ध में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जिन रचनाओं का सम्प्रदाय में कोई प्रचार न हो और न जिनकी हस्त लिखित पोथियाँ ही साम्प्रदायिक पुस्तकालयों में उपलब्ध हों, उनकी प्रामाणिकता नितान्त ही सन्दिग्ध होती है। सम्प्रदायों के इतिहास में भी यह बात देखने में आयी है कि समय-समय पर उनमें नयी विचार धाराएँ आती गयी हैं और उन्हें प्रामणिकता की छाप देने के लिए मूल प्रवर्त्तक के नाम पर ही उन विचारों का प्रवर्त्तन करने वाली रचनाएँ गढ़ ली जाती हैं। कभी-कभी नयी रचनाएँ न गढ़कर लोग नये ढंग से मान्य एवं प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्या ही कर बैठते हैं। इन सभी दृष्टियों से 'श्री वैष्णवमताव्ज भास्कर' तथा 'श्री रामार्चन पद्धति' को ही रामानन्द की प्रामाणिक रचनाएँ मानना उचित होगा। 'आनन्द भाष्य' की प्रकाशन रघुवरदास वेदान्ती ने अहमदाबाद से 1929 ई. तथा शेष हिन्दी रचनाओं का प्रकाशन काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 1952 ई. में किया।
महत्त्व
रामानन्द का महत्त्व अनेक दृष्टियों से हैं। वे रामभक्ति को साम्प्रदायिक रूप देने वाले सर्वप्रथम आचार्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से मध्ययुग तथा उसके अनन्तर प्रचुर रामभक्ति साहित्य की रचना हुई। कबीर और तुलसीदास, दोनों का श्रेय रामानन्द को ही है। रामानन्द ने भक्ति का द्वार स्त्री और शूद्र के लिए भी खोल दिया, फलत: मध्ययुग में एक बड़ी सबल उदार विचारधारा का जन्म हुआ। सन्त साहित्य की अधिकांश उदार चेतना रामानन्द के ही कारण है। यही नहीं, रामानन्द की इस उदार भावना से हिन्दू और मुसलमानों को भी समीप लाने की भूमिका तैयार कर दी। हिन्दी के अधिकांश सन्त कवि, जो रामानन्द को ही अपने मूल प्रेरणा-स्रोत मानते हैं, मुसलमान ही थे। रामानन्द की यह उदार विचारधारा प्राय: समूचे भारतवर्ष में फैल गयी थी और हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं का मध्ययुगीन रामभक्ति-साहित्य रामानन्द की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रेरणा से लिखा गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
[सहायक ग्रन्थ- रामानन्द सम्प्रदाय-बदरीनारायण श्रीवास्तव।]
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