Thursday, 30 March 2017
जनेउ महत्व

अपना भविष्य खुद जाने
 ▼
Thursday, 13 February 2014
जनेऊ क्यों पहनते हैं, जानिए :
जनेऊ क्यों पहनते हैं, जानिए

।।ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम।। अर्थात ब्राह्मण ब्रह्म (ईश्वर) तेज से युक्त हो।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार. गृ.सू. 2.2.11।
जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं।
'उपनयन' का अर्थ है, 'पास या सन्निकट ले जाना।' किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक 'उपनयन संस्कार' के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता। मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है। आओ जानते हैं जनेऊ के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ ही उसके स्वास्थ लाभ के बारे में।
कौन कर सकता है जनेऊ धारण...
हर हिन्दू का कर्तव्य : हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।
ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।
ब्रह्मचारी और विवाहित : वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।
जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में 'यज्ञोपवीत' कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।
पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।
जनेऊ धारण वस्त्र : जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।
मेखला, कोपीन, दंड : मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड के लिए लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।
जनेऊ धारण : बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।
गायत्री मंत्र : यज्ञोपवीत गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है। गायत्री महामंत्र की प्रतिमा- यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
ऐसे करते हैं संस्कार : यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व बालक का मुंडन करवाया जाता है। उपनयन संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर होम करते हैं। फिर विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। फिर दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।
फिर उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ।
इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात् वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है। शाम को खाना खाने के पश्चात् दंड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मैं पढ़ने के लिए काशी जाता हूं। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है
कब पहने जनेऊ : जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होता है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं।
।।यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।
अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।
* किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।
* विवाह तब तक नहीं होता जब तक की जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।
* जब भी मूत्र या शौच विसर्जन करते वक्त जनेऊ धारण किया जाता है।
जनेऊ संस्कार का समय : माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियां बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।
मुहूर्त : नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रवती अच्छे माने जाते हैं। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं।
पुनश्च: : पूर्वाषाढ, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, ज्येष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, पुष्य, रेवती और तीनों उत्तरा नक्षत्र द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दसमी, एकादसी, तथा द्वादसी तिथियां, रवि, शुक्र, गुरु और सोमवार दिन, शुक्ल पक्ष, सिंह, धनु, वृष, कन्या और मिथुन राशियां उत्तरायण में सूर्य के समय में उपनयन यानी यज्ञोपवीत यानी जनेऊ संस्कार शुभ होता है।
जनेऊ के नियम :
1. यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।
2. यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
3. जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएं भी यज्ञोपवीत संभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।
4.यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
5.देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
जनेऊ का धार्मिक महत्व : यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला, सहारा) भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है।
बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है।
धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। शास्त्रों अनुसार आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में माना गया है। अत: उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। आचमन अर्थात मंदिर आदि में जाने से पूर्व या पूजा करने के पूर्व जल से पवित्र होने की क्रिया को आचमन कहते हैं। इस्लाम धर्म में इसे वजू कहते हैं।
द्विज : स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म।
जनेऊ का वैज्ञानिक महत्व : वैज्ञानिक दृष्टि से जनेऊ पहनना बहुत ही लाभदायक है। यह केवल धर्माज्ञा ही नहीं, बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अत: इसको सदैव धारण करना चाहिए।
* चिकित्सकों अनुसार यह जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
* जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। इसी कारण जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
* मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें, जिनका संबंध पेट की आंतों से होता है, आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है, जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
* चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
* वैज्ञानिकों अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
* कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।
* कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।
* माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कमर तक स्थित है। जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
* जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से दूर रहने लगता है।
* विद्यालयों में बच्चों के कान खींचने के मूल में एक यह भी तथ्य छिपा हुआ है कि उससे कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है। इसलिए भी यज्ञोपवीत को दायें कान पर धारण करने का उद्देश्य बताया गया है।
सभी धर्मों में यज्ञोपति का संस्कर : संस्कार दूसरे धर्म में आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है। इस आर्य संस्कार को सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश अपनाया जाता रहा है। मक्का में काबा की परिक्रमा से पूर्व यह संस्कार किया जाता है।
सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध की प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। जैन धर्म में भी इस संस्कार को किया जाता है। वित्र मेखला अधोवसन (लुंगी) का सम्बन्ध पारसियों से भी है।
क्या आप बता सकते हैं कि जनेऊ क्यों पहनते हैं? यहां पढ़िए जनेऊ पहनने के कारण।
http://tinyurl.com/k9jq32t
ग्रहों के दुष्प्रभाव से पाएं मुक्ति...
आकाश में उपस्थित नवग्रह और सत्ताइस नक्षत्र हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर भरपूर प्रभाव डालते हैं। जब ये ग्रह किसी व्यक्ति के अनुकूल होते हैं तब वह तरक्की की सीढियां तेजी से चढता चला जाता है। उसक घर में सुख-शान्ति रहती है, पूरा परिवार स्वस्थ्य और प्रसन्न रहता है, लक्ष्मी उस पर मेहरबान रहती है।
जब ग्रह विपरीत होते हैं तब सब कुछ उलट जाता है, राजा को रंक बनते देर नहीं लगती। शनि ग्रह के दुष्प्रभाव और बृहस्पति के कोप से सभी परिचित हैं। वैसे सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, शुक्र, राहु, केतु आदि सभी ग्रह, सितारे और नक्षत्र सम्मिलित रूप से कोई अच्छा और कोई बुरा प्रभाव हर समय डालते ही रहते हैं। बुरा प्रभाव डाल रहे ग्रहों और सितारों के कोप को कम करके हम होने वाली हानियो को यदि पूरी तरह न भी रोक पाएं तो उसे कम तो कर ही सकते हैं। आवश्यकता है पूर्ण श्रद्धा भाव से इस अध्याय में वर्णित वांछित उपायों के प्रयोग की।
ग्रह पीडा निवारक स्नान
जालवन्ती, कुष्ठ, वला पियंगु, मुस्ता, सरसों, हल्दी, देवदारू, सरपंख और लोध- इन्हें गंगाजल में भिगोकर स्नान करने से समस्त ग्रहों की शान्ति होती है तथा शारीरिक पीडा दूर होती है। इन्हें यदि तीर्थजल में मिलाकर स्नान किया जाए तो अवश्य लाभ होता है।
ग्रह पीडा निवारण टोटके
बडी कटेरी के सात टुकडों को सफेद धागे में बांधकर, बच्चे के गले में पहना देने से सकुनी ग्रह की पीडा समाप्त हो जाती है।
बालछड की माला बनाकर गले में पहना देने से अथवा भुई आंवले की जड को सफेद सूत की सात गांठों में बांधकर गले में डाल देने से नेगमेय ग्रह से उत्पन्न कष्ट दूर हो जाते हैं।
सतावर के सात टुकडों में सूती धागे से अलग-अलग सात स्थानों पर गांठें देकर माला बनाएं और इसे शुभ मुहूत्त में सकुनी ग्रह से पीडित बच्चे के गले में पहना दें। ग्रह का दुष्प्रभाव पूरी तरह खत्म हो जाएगा।
ग्रह पीडा निवाशक तान्त्रक तावीज
जगत्सूते धाता हरिरवति रूद्र: क्षपयते।
तिरस्कुर्वन्ने तत्स्वमति वपुरीशस्तिरयति।।
सदापूर्व: सर्व तदिदतनु गृलाति च शिव।
स्तवाज्ञामालम्ब्य क्षणचलितयोभ्रूलतिकयों:।।
स्वच्छ होकर इस साçžवक और परम शक्तिशाली यन्त्र को अनार की कलम द्वारा गोरोचन व कुंकुम से भोजपत्र पर लिखें। फिर यन्त्र को किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करें और उसे दृष्टि के सम्मुख रखकर उक्त मन्त्र का 101 बार जप करें। तदुपरान्त यन्त्र को बांबे के तावीज में भरकर, तावीज को कंठ या भुजा में धारण करें। यह तावीज बडा प्रभावी है। इसके हर समय साथ रहने से दुष्ट ग्रहों का कुप्रभाव नहीं पडता और ग्रहों की शान्ति होती है। हर प्रकार की विपत्ति का नाश होता है।
नवग्रहों की नवरत्न अंगूठी
अनिष्ट ग्रहों के दुष्परिणाम के परिहार तथा उनकी संतुष्टि एवं शुभ फल प्राप्ति के लिए नवरत्न की अंगूठी स्वर्ण से बनवाकर धारण करनी चाहिए। किस रत्न के बाद कौन-सा रत्न स्थापित होगा इसके लिए शास्त्रीय निर्देश हैं। वृत्ताकार स्वर्ण मुद्रिका में अष्टदल कमल बनाकर उसके केन्द्र में माणिक्य की स्थापना करनी चाहिए। पूर्वदल में हीरा, अगि्न कोण में मोती, दक्षिण में मूंगा, नैर्ऋत्य में गोमेद, पश्चिम में नीलम, वायव्य में लहसुनिया, उत्तर में पुखराज, ईशान कोण में पन्ना स्थापति करना चाहिए। इस बारे में शास्त्रों का कथन है कि
वज्रं शुक्रब्जे सुमुक्ता प्रवासं भामेअगौ गोमेद मार्को सुनीलम्।
कैतो वैदूर्य गुरौ पुष्पकं ज्ञ पाचि प्राडं माणिक्यमर्के तु मध्ये।।
ग्रह पीडा निवारण हेतु संपूर्ण साधना
सामग्री - जलपात्र, घी का दीपक, नवग्रहयन्त्र, अगरबत्ती।
माला - स्फटिक माला।
समय - दिन या रात का कोई भी समय।
आसन - सफेद रंग का सूती आसन।
दिशा - पूर्व दिशा।
जप संख्या - इक्यावन हजार।
अवधि - जो भी संभव हो।
मन्त्र :-
ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरान्तकारी भानुशशी भूमि-सुतो बुधश्च।
गुरूश्चशुक्र: शनि राहु केतव: सर्वे ग्रहा शान्ति करा: भवन्तु।।
किसी भी रविवार से यह प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिए। सामने सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर नवग्रह यन्त्र स्थापित कर लेना चाहिए, उस पर केसर का तिलक कर घी का दीपक जलाकर मन्त्र जप पूरा होने पर उस यन्त्र को अपने घर के पूजा स्थान में स्थापित कर देने से सभी प्रकार के ग्रह-दोष समाप्त हो जाते हैं।
हवन के लिए अलग-अलग मन्त्र
ग्रहों की पीडा हेतु पूर्ण साधना के अन्तर्गत सभी ग्रहों को शान्त करने वाला मन्त्र और हवन का पूरा विधान दिया गया है। किसी भी ग्रह के कुपित होने पर भी इसी प्रकार हवन किया जाता है। परन्तु इसमें दो अन्तर होते हैं। ग्रह विशेष के लिए हवन करते समय उस ग्रह को प्रिय वृक्ष की लकडी का प्रयोग करते हैं। इसके साथ ही उस ग्रह से सम्बन्धित मन्त्र ही बोला जाता है। नीचे पहले इन ग्रहों से सम्बन्धित लकडियां और फिर उनके मन्त्र दिए जा रहे हैं-
सूर्य - मदार चंद्र - पलाश मंगल - खैर
बुध - अपमार्ग गुरू - पीपल शुक्र - गूलर
शनि - शर्मा राहु - दूर्वा केतु - कुशा
सूर्य - ओम ह्नौं ह्नीं ह्नौं स: सूर्याय स्वाहा।
चंद्र - ओम स्त्रौं स्त्रीं स्त्रौं स: सोमाय स्वाहा।
मंगल - ओम क्रौं क्रीं क्रौं स: भोमाय स्वाहा।
बुध - ओम ह्नौं ह्नीं स: बुधाय स्वाहा।
गुरू - ओम ज्ञौं ज्ञीं ज्ञौं स: बृहस्पतयै स्वाहा।
शुक्र - ओम ह्नौं ह्नीं ह्नौं स: शुक्राय स्वाहा।
शनि - ओम षौं षीं षौं स: शनैश्चयराय स्वाहा।
राहु - ओम छौं छीं छौं स: राहवे स्वाहा।
केतु - ओम फौं फीं फौं स: केतवे स्वाहा।
नमस्कार हेतु मन्त्र
किसी भी ग्रह की पूजा-आराधना, उसके मन्त्र का जप अथव हवन पूर्ण करने के बाद उस ग्रह को नमस्कार मन्त्र से नमस्कार करने के बाद ही पूजा पूर्ण करें-
सूर्य- ओम घृणि: सूर्याय नम:।
चंद्र - ओम सौं सोमाय नम:।
मंगल - ओम अं अंगारकाय नम:।
बुध - ओम बुं बुधाय नम:।
गुरू - ओम बृं बृहस्पतये नम:।
शुक्र - ओम शुं शुक्राय नम:।
शनि - ओम शं शनैश्चराय नम:।
राहु - ओम रां राहवे नम:।
केतु : ओम कं केतवे नम:।
नवग्रहों को प्रसन्न करने के लिए अथवा नवग्रह जनित पीडा को दूर करने के लिए नवग्रह स्तोत्र का पाठ करना उत्तम रहता है। व्यास विरचित नवग्रह स्तोत्र यहां दिया जा रहा है-
अलग-अलग ग्रहों के लिए वैदिक मन्त्र
नवग्रहों की शांति के लिए वैदिक मन्त्रों का जप सर्वोत्तम एवं सर्वाधिक फलदाई विधान है। किसी एक ग्रह के खराब होने पर भी उस ग्रह के वैदिक मन्त्र का जप-हवन करके अशुभत्व से बचा जा सकता है। यहां ग्रहों के वैदिक मन्त्र पृथक्-पृथक् दिए जा रहे हैं।
सूर्य - ओम आकृष्णेन रजसा वर्तमानों निवेशयन्त मृतं मृत्र्यच हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।
चंद्र - ओम इमं देवाअसपत्नं ओम सुवद्ध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठजाय महते जान राज्याकेन्द्र सेन्द्रियास इमममुष्य पुत्र पुत्र मस्यै व्विशअएष वोअमी राजा सोमोअस्माकं ब्राणानं ओम राजा।
मंगल - ओम अगि्नर्मूर्द्धा दिव: ककुत्पति: पृथिव्याअअयम्। अपा ओम रेता ओम सिजिन्वति।।
बुध - ओम उद्बुध्य स्वाग्ने प्रति जागृहि व्वमिष्टा पूर्ते स ओम सृजेयामयं च। अस्मिन्त्स धस्थे अध्युत्तरास्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्चय सोदत।।
बृहस्पति - ओम बृहस्पतेअअति यद्र्योअअर्हा द्युमद्धि भाति क्रतु मज्जनेषु। यदीदयच्छवसअऋत प्रजा तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम।।
शुक्र - ओम अन्नातपरिस्त्रुतो रसं ब्राrणा व्यपिवत्क्षत्रं पय: सोमं प्रजापति:। कृतेन सत्यमिन्द्रियं व्विपल ओम शुक्र मन्धस इन्द्रस्येन्द्रिय मिदं पयोअमृतं मधु।।
शनि - ओम शं नो देवीर भिष्टयअआपो भवन्तु पीतये। शं य्योराभिस्त्र वस्तुन:।।
राहु - ओम कया नश्चित्रअआभुव दूति सदा वृध: सखा। कया शचिष्ठया व्वृता।
केतु - ओम केतुं कृष्णवन्केतवे पेशो पर्याअअपेशसे। समुषद्भिर जायथा:।।
ग्रहों की पीडा निवारण तावीज
जिस प्रकार नवग्रहों के मन्त्र अलग-अलग हैं ठीक उसी प्रकार प्रत्येक ग्रह का अलग-अलग यन्त्र है। ग्रह विशेष पीडित होने पर उस ग्रह की शान्ति हेतु दान-पुण्य और हवन तो किया ही जाता है। उस ग्रह से सम्बन्धित यन्त्र को विधि-विधानपूर्वक लिखकर पूजा एवं प्रतिष्ठा कर लेने के पश्चात् यदि तावीज में रखकर धारण भी कर लिया जाए तब वह ग्रह जातक पर कृपालु होकर अपनी सभी बाधाएं तो हटा ही लेता है, कई बार सहायक भी सिद्ध होने लगता है।
सूर्य ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
उपरोक्त यन्त्र को अष्टगंध की स्याही और मोर के पंख से कागज पर लिखना चाहिए। लिखने का समय रविवार और होरा नक्षत्र में धारण करना चाहिए। इस यन्त्र के धारण करने से सूर्य ग्रह का आप पर कुप्रभाव लगभग समाप्त हो जाता है।
चन्द्र ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
उपरोक्त यन्त्र को अष्टगंध, अनार की कलम से भोजपत्र पर सोमवार के दिन रोहिणी नक्षत्र में धारण करें तो चन्द्रमा जनित कष्टों का शमन होता है।
मंगल ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
इस यन्त्र को मंगलवार को लाल चन्दन, अनार की कलम से भोजपत्र पर लिखें तथा मंगलवार के दिन ही होरा या अनुराधा नक्षण में धारण करें तो मंगल के द्वारा प्रदत्त कष्टों का शमन होता हैं।
बुध ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
उपरोक्त यन्त्र को बुधवार को अनार की कलम, अष्टगंध से भोजपत्र पर लिखें और उसी दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में धारण करें।
बृहस्पति ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
इस यन्त्र को गोरोचन से अनार की कलम से भोजपत्र पर वीरवार के दिन लिखें और उसी दिन तावीज में भरकर भरणी नक्षण में धारण करें।
शुक्र ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
इस यन्त्र का अष्टगंध से अनार की कलम द्वारा भोजपत्र पर शुक्रवार के दिन निर्माण करें तथा मृगशिरा नक्षत्र में धारण करें। इससे शुक्र द्वारा जनित कष्टों का निवारण होता है।
शनि ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
इस यन्त्र को शनिवार के दिन अष्टगंध एवं अनार की कलम से भोजपत्र पर लिखकर उसी दिन श्रवण नक्षत्र और शनि को होरा में धारण करें। शनि जनित कष्टों से छुटकारा दिलाने में यह यन्त्र परम सहायक है।
राहु ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
इस यन्त्र को रविवार को भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही और अनार की कलम द्वारा लिखें तथा उसी दिन रवि का होरा मे उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में धारण करें तो राहु द्वारा जनित सभी प्रकार की पीडाओं का निवारण होता है।
केतु ग्रह पीडा निवारण यन्त्र
शुक्ल पक्ष के रविवार के दिन इस यन्त्र को अष्टगंध की स्याही द्वारा अनार की कलम से लिखें तथा रविवार को पुष्य नक्षत्र तथा सूर्य की होरा में धारण करें तो केतु के कोप के कारण होने वाले सभी कष्टों से छुटकारा पाया जा सकता है।
नवग्रह दोष निवारण के मन्त्र
सूर्य -ओं ह्नां ह्नीं ह्नं स: सूर्याय नम:। सात हजार जप करना चाहिए।
चन्द्रमा - ओं श्रां श्रीं श्रुं स: चन्द्रमसे नम:। 11 हजार जप करना चाहिए।
मंगल - ओं क्रां क्रीं क्रुं स: भौमाय नम:। 10 हजार जप करना चाहिए।
बुध - ओं ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:। नौ हजार जप करना चाहिए।
गुरू - ओं ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम:। 16 हजार जप करना चाहिए।
शुक्र - ओं द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम।
शनि - ओं प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:।
राहु - ओं छां छौं स: राहवे नम:।
केतु - ओं स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं स: केतवे नम:।
नवग्रहों हेतु पृथक-पृथक दान
सूर्य - गेहूं, स्वर्ण स्क्तक्, वस्त्र, ताम्र पात्र, गोदान, घी, गुड, माणिक्य, मसूर।
चंद्र- शंख, चांदी, चामर, कपूर, मोती श्वेत वस्त्र, यज्ञोपवीत, दही, चावल।
मंगल - मंगा, प्रवास, गेहूं, मसूर, लाल बैल, रत्नवस्त्र, ताम्रपात्र कनेर पुष्प, स्वर्ण, गुड, चना, रक्त चंदन।
बुध - पन्ना, नील वस्त्र, कांसा फल, हाथीदांत, चंदी, मेष, स्वर्ण।
गुरू- अश्व, स्वर्ण, पीत बर, पीला धान, गौ, हीरा, स्वर्ण, चावल, उत्तम गंध, घी।
शनि - नीलम, तिल कुलथ, भैंस, लौहा, काली गाय, उडद, तेल, काला कंबल।
राहु - गोमेद, घोडा, नीला कपडा, कम्बल, तिल, तेल, लौह, ताम्र पात्र, स्वर्ण नाग।
केतु - लहसुनिया, तिल, तेल कम्बल, कस्तूरी, ऊन, काला वस्त्र।
ग्रहों की शन्ति हेतु रत्न
जो ग्रह आपको पीडित कर रहा है उसके आगे वर्णित रत्न को चांदी की अंगूठी में जडवाकर पहनने से बहुत लाभ हैं परन्तु रत्न शुद्ध और निर्दोष होना चाहिए।
सूर्य - माणिक्य
चंद्र - मुक्ता मोती
मंगल - प्रवाल-मूंगा
बुध - पन्ना गुरू - पुखराज
शुक्र - हीरा
शनि - नीलम
राहु - गोमेद
केतु - लहसुनिया
Note-यह ब्लॉग मैंने अपनी रूची के अनुसार बनाया है इसमें जो भी सामग्री दी जा रही है वह मेरी अपनी नहीं है कहीं न कहीं से ली गई है। अगर किसी के कॉपी राइट का उल्लघन होता है तो मुझे क्षमा करें।मैं हर इंसान के लिए ज्योतिष के ज्ञान के प्रसार के बारे में सोच कर इस ब्लॉग को बनाए रख रहा हूँ। DISCLAIMER This Blog is created to provide you the Tips & Tricks, Best General Tips & Knowledge, Religious Content in Hindi. The Articles in this blog are collected from various Newspapers, TV Channels and other sources and does not warrant or assume any legal liability or responsibility for the accuracy, completeness or usefulness of the information provided here.I am maintaining this blog with the thought of spreading the knowledge of Astrology to every human being Please check with a Vastu expert or an Astrologer before using any of the suggestions given in this Blog.To delete copyright contents if any please email us, we'll remove relevant contents immediately. ग्रह-तारे
nirup tripathi at 03:36
Share


‹
›
Home
View web version
Powered by Blogger.

Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment