Friday, 31 March 2017

ब्रह्म गाँठ

  प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि पृष्ट संख्या: 123 ब्रह्म सन्ध्या (२) शिखा बन्धन आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें गाँठ लगानी चाहिए, जो सिरा नीचे से खुल जाय ।। इसे आधी गाँठ कहते हैं। गाँठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते रहना चाहिए ।। शिखा, मस्तिष्क के केन्द्र बिन्दु पर स्थापित है। जैसे रेडियो के ध्वनि- विस्तारक केन्द्रों में ऊँचे खम्भे लगे होते हैं और वहाँ से ब्राडकास्ट की तरंगें चारों ओर फेंकी जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क का विद्युत भण्डार शिखा स्थान पर है। इस केन्द्र में से हमारे विचार, संकल्प और शक्ति- परमाणु हर घड़ी बाहर निकल- निकल कर आकाश में दौड़ते रहते हैं। इस प्रवाह से शक्ति का अनावश्यक व्यय होता है और अपना मानसिक कोष घटता है। इसका प्रतिरोध करने के लिए शिखा में गाँठ लगा देते हैं। सदा गाँठ लगाये रहने से अपनी मानसिक शक्तियों का बहुत- सा अपव्यय बच जाता है। सन्ध्या करते समय विशेष रूप से गांठ लगाने का प्रयोजन यह है कि रात्रि को सोते समय यह गांठ प्रायः शिथिल हो जाती है या खुल जाती है। फिर स्नान करते समय केश- शुद्धि के लिए शिखा को खोलना पड़ता है। सन्ध्या करते समय अनेक सूक्ष्म तत्व आकर्षित होकर अपने अन्दर स्थित होते हैं, वे सब मस्तिष्क केन्द्र से निकल कर बाहर न उड़ जायें और कहीं अपने को साधना के लाभ से वञ्चित न रहना पड़े, इसलिए शिखा में गाँठ लगा दी जाती है। फुटबाल के भीतर की रबड़ में एक हवा भरने की नली होती है, इसमें गाँठ लगा देने से भीतर भरी हुई वायु बाहर नहीं निकलने पाती। साइकिल के पहियों में भरी हुई हवा को रोकने के लिए भी एक छोटी वालट्यूब नामक रबड़ की नली लगी होती है, जिसमें होकर हवा भीतर तो जा सकती है, पर बाहर नहीं आ सकती। गाँठ लगी हुई शिखा से भी यही प्रयोजन पूरा होता है। वह बाहर के विचार और शक्ति- समूह को ग्रहण तो करती है, पर भीतर के तत्वों को अनावश्यक व्यय नहीं होने देती ।। आचमन से पूर्व शिखा बन्धन इसलिए नहीं होता, क्योंकि उस समय त्रिविध शक्ति का आकर्षण जहाँ जल द्वारा होता है, वहाँ मस्तिष्क के मध्य केन्द्र द्वारा भी होता है। इस प्रकार शिखा खुली रहने से दुहरा लाभ होता है। तत्पश्चात् उसे बाँध दिया जाता है। (३) प्राणायाम संध्या का तीसरा कोष है प्राणायाम अथवा प्राणाकर्षण। गायत्री की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए पूर्व पृष्ठों में यह बताया जा चुका है कि सृष्टि दो प्रकार की है- (१) जड़- अर्थात् परमाणुमयी (२) चैतन्य अर्थात् प्राणमयी ।। निखिल विश्व में जिस प्रकार परमाणुओं के संयोग- वियोग से विविध प्रकार के दृश्य- उपस्थित होते रहते हैं, उसी प्रकार चैतन्य प्राण सत्ता की हलचलें चैतन्य जगत की विविध घटनाएँ घटित होती हैं। जैसे वायु अपने क्षेत्र में सर्वत्र भरी हुई है, उसी प्रकार वायु से भी असंख्यगुना सूक्ष्म चैतन्य हमारा मानव क्षेत्र बलवान् तथा निर्बल होता है ।। इस प्राणतत्व को जो जितनी मात्रा में अधिक आकर्षित कर लेता है, धारण कर लेता है, उसकी आंतरिक स्थिति उतनी ही बलवान् हो जाती है। आत्म- तेज, शूरता, दृढृता, पुरूषार्थ, विशालता, महानता, सहनशीलता, धैर्य, स्थिरता सरीखे गुण प्राण शक्ति के परिचायक हैं। जिनमें प्राण कम होता है, वे शरीर से स्थूल भले ही हों पर डरपोक, दब्बू, झेंपने वाले, कायर, अस्थिर मति, संकीर्ण, अनुदार, स्वार्थी, अपराधी मनोवृत्ति के घबराने वाले, अधीर, तुच्छ, नीच विचारों में ग्रस्त एवं चंचल मनोवृत्ति के होते हैं ।। इन दुर्गुणों के होते हुए कोई व्यक्ति महान् नहीं बन सकता। इसलिए साधक को प्राण शक्ति अधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करने की आवश्यकता होती है। जिस क्रिया द्वारा विश्वव्यापी प्राणतत्व में से खींचकर अधिक मात्रा में प्राणशक्ति को हम अपने अन्दर धारण करते हैं, उसे प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम के समय मेरूदण्ड को विशेष रूप से सावधान होकर सीधा कर लीजिये, क्योंकि मेरूदण्ड में स्थित इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों द्वारा प्राणशक्ति का आवागमन होता है और यदि रीढ़ टेढ़ी झुकी रहे, तो मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक प्राण की धारा निर्वाध गति से न पहुँच सकेगी। अतः प्राणायाम का वास्तविक लाभ न मिल सकेगा ।। प्राणायाम के चार भाग हैं- (१) पूरक, (२) अन्तर, कुम्भक, (३) रेचक, (४) बाह्य कुम्भक ।। वायु को भीतर खींचने का नाम पूरक, वायु को भीतर, रोके रहने का नाम, अन्तर कुम्भक, वायु को बाहर निकालने का नाम रेचक और बिना श्वास के वायु बाहर रोके रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। इन चारों के लिए गायत्री मंत्र के चार भागों की नियुक्ति की गई ।। पूरक के साथ ‘ॐ भूर्भुवः स्व’ अन्तर कुम्भक के साथ ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ रेचक के साथ ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ बाह्य कुम्भक के साथ ‘धिया योनः प्रचोदयात्’ मन्त्र भाग का जाप होना चाहिए। (अ) स्वस्थ चित्त से बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए। नेत्रों को बन्द या अधखुले रखिये। अब श्वास को धीरे- धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिये और ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इस मंत्र भाग का मन ही मन उच्चारण करते चलिये और भावना कीजिये कि ‘विश्वव्यापी दुःखनाशक, सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण- शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूँ।’ इस भावना और इस मंत्र के साथ धीरे- धीरे श्वास खींचिये और जितनी अधिक वायु भीतर भर सकें भर लीजिये ।। (ब) अब वायु को भीतर रोकिये और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इस भाग का जप कीजिये, साथ ही भावना कीजिये कि नासिका द्वारा खींचा हुआ वह प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी है। उसका तेज मेरे अङ्ग- प्रत्यंग में, रोम- रोम में भरा जा रहा है ।। इस भावना के साथ पूरक की अपेक्षा आधे समय तक वायु को भीतर रोके रखें। (स) अब नासिका द्वारा वायु धीरे- धीरे बाहर निकालना आरम्भ कीजिए और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ इस मंत्र भाग को जपिये तथा भावना कीजिए कि ‘यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगना चाहिए जितना कि वायु खींचने में लगाया था। (द) जब भीतर की सब वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था, उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना सांस लिये रहें और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ इस मन्त्र भाग को जपते रहें। साथ ही भावना करें कि ‘भगवती वेदमाता आद्य- शक्ति गायत्री हमारी बुद्धि को जाग्रत कर रही है।’ यह एक प्राणायाम हुआ। अब इसी प्रकार पुनः इन क्रियाओं की पुनरूक्ति करते हुए दूसरा प्राणायाम करें। सन्ध्या में यह पांच प्राणायाम करने चाहिए, जिससे शरीर स्थिर प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान नामक पांचों प्राणों का व्यायाम प्रस्फुरण और परिमार्जन हो जाता है। पृष्ट संख्या: 123  gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp   गायत्री द्वारा सन्ध्या- वन्दन ब्रह्म सन्ध्या दैनिक उपासना की सरल किन्तु महान् प्रक्रिया गायत्री उपासना का विधि- विधान गुरू वन्दना पूजा सामग्री का विसर्जन गायत्री की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वसुलभ ध्यान गायत्री- साधना से पापमुक्ति पापनाशक प्रायश्चित कुमुहूर्त और अशकुनों का परिहार गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि महिलाओं के लिए गायत्री उपासना महिलाओं के लिए कुछ विशेष साधनाएं मनोनिग्रह और ब्रह्मप्राप्ति के लिए गायत्री का अर्थ चिन्तन- अर्थ- भावना का साधन माता से वार्तालाप करने की साधना आत्म- कल्याण जप के साथ पय- पान का ध्यान विश्व- कल्याण जप के साथ आत्मार्पण का ध्यान परम तेज- पुंज ज्योति अवतरण- साधना उपासना ही नहीं साधना भी शक्ति पुरश्चरण साधना एक वर्ष की उद्यापन साधना कुछ विशेष साधनाएँ गायत्री मंत्र लेखन - एक महान साधना गायत्री चालीसा पाठ अनुष्ठान लघु गायत्री प्रज्ञा आलोक पाएँ भी- बाँटे भी समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे           अंग्रेजी संस्करण प्रज्ञाअभियान पाक्षिक देव संस्कृति विश्वविद्यालय अखण्ड ज्योति पत्रिका ई-स्टोर दिया ग्रुप समग्र साहित्य - आनलाइन पढें आज का सद्चिन्तन वेब स्वाध्याय भारतिय संस्कृति ज्ञान परिक्षा अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (भारत) shantikunj@awgp.org +91-1334-260602 अन्तिम परिवर्तन : १५-०२-२०१३ Visitor No 25425 सर्वाधिकार सुरक्षित Download Webdoc(3157)

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