Wednesday, 29 March 2017
गंगा उपाध्याय
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गंगेश उपाध्याय

गंगेश उपाध्याय
गंगेश उपाध्याय भारत के १३वी शती के गणितज्ञ एवं नव्य-न्याय दर्शन परम्परा के प्रणेता प्रख्यात नैयायिक थे। उन्होंने वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८०) की विचारधारा को बढाया।
परिचय संपादित करें
इनके संबंध में अनुमान किया जाता है कि ये तेरहवीं शती में हुए थे और मिथिला निवासी थे। नवद्वीप के नैयायिकों का कहना है कि उनका जन्म एक अत्यंत दरिद्र ब्राह्मण के घर हुआ था। बालकाल में उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने लिखाने का बहुत प्रयास किया पर जब कोई लाभ न हुआ तो उन्होंने उसे ननिहाल भेज दिया। गंगेश के मामा एक अच्छे विद्वान थे। उनके यहां अनेक शिष्य पढ़ते थे। उनके मामा और उनके शिष्यों ने भी उन्हें पढ़ाने सिखाने की चेष्टा की। पर वे भी असफल रहे। निदान उन्हें हुक्का भरने के काम में लगा दिया गया। इस प्रकार अति दीन भाव से वे कालयापन करते रहे।
एक दिन उनके मामा के एक शिष्य ने काफी रात गए उन्हें जगाया और हुक्का भर कर लाने का आदेश दिया। आँख मलते मलते वे उठे, चिलम पर तंबाकू रखा पर घर में खोजने पर कहीं भी आग नहीं मिली। मामा के घर के सामने एक विस्तृत मैदान था। उसके दूसरे छोर पर आग जलती दिखाई पड़ी। उस शिष्य ने डरा धमका कर गंगेश को वहाँ से आग लाने भेजा। वे भय से रोते रोते आग लेने पहुँचे तो देखते क्या हैं कि एक व्यक्ति शवसाधना कर रहा है। पहले तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए, बाद में उस व्यक्ति के पैरों पर गिर पड़े। जब उस व्यक्ति ने उनसे आने का कारण पूछा और उनकी दीनावस्था उसे ज्ञात हुई तो वह उन्हें अपने साथ ले गया। कहते हैं, उस शवसाधक की कृपा से वे कुछ ही दिनों में पंडित बनकर ननिहाल पहुँचे।
इधर लोगों ने समझा कि लड़का आग लेने गया था, वहीं भूतों ने उसे खा डाला है। उन्होंने उसकी खोज खबर की कोई चिंता नहीं की। उसे इस प्रकार अचानक प्रकट होते देख सब चकित हुए और मामा ने उन्हें गो (बैल) कह कर पुकारा। इसके उत्तर में उन्होंने तत्काल कहा।
किं गवि गोत्वं किं गविगोत्वं यदि गवि गोत्वं मयि नहि तत्त्वम्।
अगवि च गोत्वं यदि भवदिष्टं भवति भवत्यपि संप्रति गोत्वम्।।
(यदि गोत्व गो में होता है तो वह मैं नहीं हूं ; यदि गोभिन्न में गोत्व संभव है, तो यह बात अकेले मुझपर नहीं, यहां उपस्थित सभी लोगों पर लागू होती है)।
यह सुनकर मामा अवाक् रह गए। उसी दिन से गंगेश की ख्याति विद्वान के रूप में होने लगी।
तत्वचिन्तामणि संपादित करें
उनकी अक्षयकीर्ति उनका तत्वचिंतामणि है। उन्होंने गौतम के मात्र एक सूत्र 'प्रत्यक्षानुमानोपमान शब्दा: प्रमाणाति' की व्याख्या में इस ग्रंथ की रचना की है। यह न्याय ग्रंथ चार खंडों में विभाजित है - प्रत्यक्षखण्ड, अनुमानखण्ड, उपमानखण्ड और शब्दखण्ड। इसमें उन्होंने अवच्छेद्य-अवच्छेदक, निरूप्य-निरूपक, अनुयोगी-प्रतियोगी आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग कर एक नई स्वतंत्र लेखन शैली को जन्म दिया जिसका अनुसरण परवर्ती अनेक दार्शनिकों ने किया है। तत्वचिंतामणि के पश्चात् जितने न्यायग्रंथ लिखे गए वे सब नव्यन्याय के नाम से प्रख्यात हैं।
तत्वचिंतामणि पर जितनी टीकाएँ जितने विस्तार के साथ लिखी गई हैं उतनी किसी अन्य ग्रंथ पर नहीं लिखी गई। पहले इसकी टीका पक्षधर मिश्र ने की; तदनंतर उनके शिष्य रुद्रदत्त ने एक अपनी टीका तैयार की। और इन दोनों से भिन्न वासुदेव सार्वभौम, रघुनाथ शिरोमणि, गंगाधर, जगदीश, मथुरानाथ, गोकुलनाथ, भवानंद, शशधर, शितिकंठ, हरिदास, प्रगल्भ, विश्वनाथ, विष्णुपति, रघुदेव, प्रकाशधर, चंद्रनारायण, महेश्वर और हनुमान कृत टीकाएँ हैं। इन टीकाओं की भी असंख्य टीकाएँ लिखी गई हैं।
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संवाद
Last edited 9 months ago by Rajath kumar singh 12
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