शास्त्रों के अभिवचन
यज्ञोपवीत द्विजत्व का चिन्ह है। कहा भी है-
♥मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम्।
अर्थात्-पहला जन्म माता के उदर से और
दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है।
♥आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते
गर्भमन्त:।
त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं
जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवा:।।
अथर्व 11/3/5/3
अर्थात्-गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से
मनुष्य का पहला जन्म होता है। दूसरा जन्म
विद्या रूपी माता और आचार्य रूप
पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और
विद्याभ्यास द्वारा होता है।
‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में लिखा है
कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में
नौ देवता निवास करते हैं।
(1) ओउमकार
(2) अग्नि
(3) अनन्त
(4) चन्द्र
(5) पितृ
(6) प्रजापति
(7) वायु
(8) सूर्य
(9) सब देवताओं का समूह।
वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये
यज्ञोपवीत में 9 शक्तियों का निवास
होता है। जिस शरीर पर ऐसी समस्त
देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है,
उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय
साधना ही समझना चाहिए।
‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में यज्ञोपवीत के
संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है-
♥ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्।
कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण
गायत्र्याचाभि मन्त्रितम्।।
अर्थात्-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे
का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म,
उपासना इन तीनों काण्डों से
तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से
अभिमंत्रित कर उसे ब्रह्म गाँठ लगा दी। इस
प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत
बनकर तैयार हुआ।
यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस
प्रकार मिलता है-
♥येनेन्द्राय बृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं
नेनत्वा।
परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय
वलायि वर्चसे।।
पारस्कर गृह सूत्र 2/2/7
‘‘जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत
दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और
सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत
पहना जाय।’’
♥देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये
निषेदु:।
भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे
व्योमन्।।
ऋग्वेद 10/101/4
अर्थात-तपस्वी ऋषि और देवतागणों ने
कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है। यह
शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन
की प्रेरणा देती है। इस यज्ञोपवीत को धारण
करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं।
♥यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं
पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु
तेज:।।
-ब्रह्मोपनिषद्
अर्थात- यज्ञोपवीत परम पवित्र है,
प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है।
यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने
वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है।
♥त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य
जनि मान्यग्ने:।
अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि:
शुक्रो अर्थो रोरुचान:।।
-4/1/7
अर्थात- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण
है। 1. सत्य व्यवहार की आकांक्षा
2. अग्नि जैसी तेजस्विता
3. दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके
द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है।
नौ धागों में नौ गुणों के प्रतीक हैं।
1. अहिंसा
2. सत्य
3. अस्तेय
4. तितिक्षा
5. अपरिग्रह
6. संयम
7. आस्तिकता
8. शान्ति
9. पवित्रता।
1. हृदय से प्रेम
2. वाणी में माधुर्य
3. व्यवहार में सरलता
4. नारी मात्र में मातृत्व की भावना
5. कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति
6. सबके प्रति उदारता और सेवा भावना
7. गुरुजनों का सम्मान एवं अनुशासन
8. सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्संग
9. स्वच्छता, व्यवस्था और
निरालस्यता का स्वभाव।
यह भी नौ गुण बताये गये हैं। अभिनव संस्कार
पद्धति में श्लोक भी दिये गये हैं।
यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं
मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम
पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना।
अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस
आदर्शवादिता के अनुरुप ही खड़ा करना। इस
उत्तरदायित्व के अनुभव करते रहने
की प्रेरणा का यह प्रतीक सत्र धारण किये रहने
प्रत्येक हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य
माना गया है। इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए
समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है।
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