Saturday, 14 October 2017

राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा।उ०का०९५/६।

Open main menu Wikisource Search EditWatch this page रामचरितमानस:उत्तरकाण्ड 1 मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥ नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि॥ जातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन॥ भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक॥ भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित॥ रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर॥ सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम॥ कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन॥ कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन॥ दोहा- प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम। सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम॥५१॥ गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा॥ राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा॥ राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी॥ जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥ बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥ उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥ कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी॥ सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी॥ धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी॥ दोहा- तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह। जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह॥५२(क)॥ नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर। श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर॥५२(ख)॥ राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥ जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ॥ भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥ बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥ श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥ ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती॥ हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा॥ तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई॥ दोहा- बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह। बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह॥५३॥ नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी॥ धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई॥ कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई॥ ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ॥ तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी॥ धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी॥ सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया॥ सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई॥ दोहा- राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर। नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर॥५४॥ यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा॥ तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी॥ गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी॥ तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई॥ कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा॥ गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई॥ धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी॥ सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥ उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥ दोहा- ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ। सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ॥५५॥ मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि॥ प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा॥ दच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना॥ मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा॥ तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें॥ सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा॥ गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी॥ तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए॥ तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला॥ सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा॥ दो०–सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग। कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग॥५६॥ तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई॥ माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका॥ रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं॥ तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा॥ पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई॥ आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा॥ बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा॥ राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना॥ सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला॥ जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा॥ दोहा- तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास। सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥५७॥ गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा॥ अब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू॥ जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा॥ इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो॥ बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥ प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती॥ ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा॥ सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं॥ दो०–भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम। खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम॥५८॥ नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥ खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई॥ ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं॥ सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया॥ जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआई बिमोह मन करई॥ जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥ महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥ चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा॥ दोहा- अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान। हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान॥५९॥ तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ॥ सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥ मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता॥ हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥ अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥ तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥ बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥ तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी॥ दोहा- परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास। जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास॥६०॥ तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥ सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥ मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥ तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥ सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥ जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥ नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई॥ जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥ दोहा- बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग। मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥६१॥ मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥ उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला॥ राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥ राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥ जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥ मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥ ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥ होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना॥ कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥ प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥ दोहा- ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान। ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥६२(क)॥ मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन। अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान॥६२(ख)॥ गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा॥ देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ॥ करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना॥ बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए॥ कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥ आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा॥ अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥ करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥ दोहा- नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज। आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज॥६३(क)॥ सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस। जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस॥६३(ख)॥ सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥ देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥ अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि॥ सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥ सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता॥ भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥ प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी॥ पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा॥ प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥ दोहा- बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह। रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह॥६४॥ बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥ पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा॥ बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥ बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥ सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥ करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी॥ पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥ भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥ दोहा- कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग॥ बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग॥६५॥ कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥ पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥ पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥ खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना॥ दसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥ पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥ पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥ बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥ दोहा- प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग। पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग॥६६(क)॥ कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास। बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास॥६६(ख)॥ जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए॥ बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥ सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा॥ लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥ बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥ आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई॥ सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥ मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥ दोहा- सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार। गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥६७(क)॥ निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार। कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार॥६७(ख)॥ निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥ रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका॥ सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी॥ पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥ जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥ कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका॥ कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥ सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥ सोरठा- -गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित। भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥६८(क)॥ मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि। चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन। ६८(ख)॥ देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥ सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥ जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई॥ जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥ सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई॥ निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥ संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥ राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥ दोहा- सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग। पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग॥६९(क)॥ श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास। पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥६९(ख)॥ बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥ सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥ तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया॥ पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥ तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥ नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥ मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही॥ तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥ दोहा- ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार। केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥७०(क)॥ श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि। मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥७०(ख)॥ गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥ जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥ मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥ चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥ कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥ सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी॥ यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥ सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं॥ दोहा- ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड॥ सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥७१(क)॥ सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥७१(ख)॥ जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥ सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥ सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा॥ ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता॥ अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता॥ निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥ प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥ इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं॥ दोहा- भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप। किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥७२(क)॥ जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ। सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ॥७२(ख)॥ असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी॥ जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी॥ नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥ जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा॥ नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा॥ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी॥ हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा॥ मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी॥ ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं॥ दोहा- काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप। ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप॥७३(क)॥ निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ। सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ॥७३(ख)॥ सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई॥ जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥ राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥ ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥ सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥ संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥ ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी॥ जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं॥ दोहा- जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर। ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥७४(क)॥ तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि। तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥७४(ख)॥ राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥ जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीं॥ तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥ जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥ इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥ निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥ लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा॥ दोहा- लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ। जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ॥७५(क)॥ एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर। सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥७५(ख)॥ कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक॥ नृपमंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥ बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥ बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥ मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥ नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥ ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी॥ चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई॥ दोहा- रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर। उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर॥७६॥ अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥ कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥ कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥ ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥ नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥ बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥ पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥ रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥ मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥ किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥ दोहा- आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं। जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥७७(क)॥ प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह। कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥७७(ख)॥ एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥ सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥ नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना॥ ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥ जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥ माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी॥ परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥ मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥ दोहा- रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान। ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥७८(क)॥ राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ॥ सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥७८(ख)॥ ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥ हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥ ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर॥ भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥ तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥ जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥ तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥ जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥ दोहा- ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात। जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥७९(क)॥ सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि। गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥७९(ख)॥ मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥ मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥ उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥ अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥ कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥ अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥ सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥ सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥ दोहा- जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ। सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥८०(क)॥ एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक। एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥८०(ख)॥ एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥८०(ख)॥ लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥ नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला॥ देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥ महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥ अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥ अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥ दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥ प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥ दोहा- भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान। अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन॥८१(क)॥ सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर। भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर॥८१(ख) भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका॥ फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥ निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ॥ देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥ राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥ तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना॥ करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥ उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥ दोहा- देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर। बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥८२(क)॥ सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम। कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥८२(ख)॥ देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई॥ धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥ प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी॥ कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥ कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा॥ प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥ भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी॥ सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥ दोहा- सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास। बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥८३(क)॥ काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि। अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥८३(ख)॥ ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥ आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥ सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ॥ प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥ भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे॥ भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥ जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू॥ मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी॥ दोहा- अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव। जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥८४(क)॥ भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम। सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥८४(ख)॥ एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक॥ सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥ सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी॥ जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥ रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई॥ सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥ जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥ दों०-माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि। जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥८५(क)॥ मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग। कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥८५(ख)॥ अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥ निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥ मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥ तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥ तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥ तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥ पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥ भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥ भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥ दोहा- सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग। श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग॥८६॥ एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा॥ कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥ कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई॥ कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥ सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना॥ एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते॥ अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया॥ तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया॥ दोहा- पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ। सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥८७(क)॥ सोरठा- -सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय। अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब॥८७(ख)॥ कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥ प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥ सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥ प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥ बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई॥ सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा॥ देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई॥ गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना॥ सोरठा- -जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद। अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन॥८८(क)॥ सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ। ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥८८(ख)॥ मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला॥ राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥ तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥ यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥ निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा॥ राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥ जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥ प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥ सोरठा- -बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु। गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥८९(क)॥ कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु। चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥८९(ख)॥ बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥ राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥ बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥ श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥ बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा॥ सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई॥ निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥ कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥ दोहा- बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु। राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥९०(क)॥ सोरठा- -अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल। भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥९०(ख)॥ निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥ कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥ महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥ निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥ तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥ तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥ रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥ सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥ दोहा- मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास। ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास॥९१(क)॥ काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत। धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत॥९१(ख)॥ \ प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला॥ तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन॥ हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥ कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना॥ सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई॥ बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता॥ धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना॥ भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा॥ छंद- निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै। जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै॥ एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं। प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं॥ दोहा- रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ। संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥९२(क)॥ सोरठा- -भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन। तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥९२(ख)॥ सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए॥ नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥ पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥ पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा॥ गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥ संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥ तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥ तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना॥ दोहा- ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि। बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि॥९३(क)॥ प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि। कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि॥९३(ख)॥ तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा॥ ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥ कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥ राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥ नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥ मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई॥ अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥ अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी॥ सोरठा- -तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन। मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल॥९४(क)॥ दोहा- प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग। कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग॥९४(ख)॥ गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा॥ धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी॥ सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई॥ सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥ जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना॥ सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा॥ एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई॥ जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई॥ सोरठा- -पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं। अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥९५(क)॥ पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर। कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥९५(ख)॥ स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥ सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥ राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥ राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥ तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥ प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥ नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥ कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥ देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउँ अबहिं की नाई॥ सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥ दोहा- प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस। सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस॥९६(क)॥ पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल॥ नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥९६(ख)॥ तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई॥ सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥ धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥ जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥ अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा॥ कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई॥ अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥ सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥ दोहा- कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ। दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥९७(क)॥ भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म। सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥९७(ख)॥ बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी॥ द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥ मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥ मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥ सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥ जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥ निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥ जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥ दोहा- असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं। तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥९८(क)॥ सोरठा- -जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ। मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥९८(ख)॥ नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई॥ सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना॥ सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥ गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥ सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥ गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥ हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥ मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥ दोहा- ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात। कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥९९(क)॥ बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि। जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥९९(ख)॥ पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥ तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर॥ आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥ कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥ जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा॥ नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी॥ ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥ बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥ सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥ सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥ दोहा- भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग। करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥१००(क)॥ श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक। तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥१००(ख)॥ संबंधित कड़ियाँ बाहरी कडियाँ Last edited 8 months ago by Satdeepbot Wikisource Content is available under CC BY-SA 3.0 unless otherwise noted. 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