Thursday, 19 October 2017
संत निवृत्तीनाथ
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संत निवृत्तीनाथ
September 25, 2013
संत निवृत्तीनाथ संत ज्ञानेश्वरके बडे भाई तथा गुरु थे । गृहस्थीमें मन नहीं लग रहा था; अत: निवृत्तीनाथके पिताजी विठ्ठलपंत एक दिन घरसे बाहर निकले तथा सीधे काशीकी ओर निकल पडे । वहांपर रामानंद नामके सद्गुरू रहते थे । विठ्ठलपंतने उनके द्वारा संन्यासदीक्षा प्राप्त की । उनके पास रहकर वे अध्ययन एवं उनकी सेवा करने लगे ।
बादमें गुरूकी आज्ञानुसार विठ्ठलपंत आलंदी आए तथा उन्होंने फिरसे गृहस्थीका प्रारंभ किया । विठ्ठलपंतके चार बच्चे हुए । पहले निवृत्तीनाथ, दूसरे ज्ञानेश्वर, तीसरेसोपानदेव तथा चौथी मुक्ताबाई. `अपने बच्चोंको उन्होंने कालानुसार सारी शिक्षा दी ।’
विठ्ठलपंत पत्नी तथा बच्चोंसमेत त्र्यंबकेश्वर स्थित पर्वतपर गए । उस पर्वतपरघना जंगल था । पर्वतपर घूमते-घूमते एक शेर दौडता हुआ दिखाई दिया । उसे देखकर सब डर गए । विठ्ठलपंत भी पत्नी बच्चोंसमेत भाग गए । जंगलसे बाहर निकलने पर उनकी जानमें जान आई । किंतु निवृत्तीनाथ कहीं दिखाई नहीं दिए । बहुत ढूंढनेपर भी निवृत्तीनाथ नहीं मिले । ऐसे सात दिन गए तथा आठवें दिन निवृत्तीनाथ सामने आकर खडे हो गए । सबको बडी प्रसन्नता हुई । वे अधिक तेजस्वी दिख रहे थे । विठ्ठलपंतने पूछा, ‘‘अरे इतने दिन तुम कहां थे ?” निवृत्तीनाथने कहा, ‘‘ पिताजी, शेरसे डरकर भागते हुए मैं एक गुफामें घुसा । वहां एक स्वामीजी बैठे थे । उस अंधेरी गुफामें भी उनकी कांती मुझे स्पष्ट दिख रही थी । उनका नाम गहिनीनाथ था । उन्होंने मुझे योगकी शिक्षा दी तथा ‘इस संसारमें जो पीडित जीव हैं, उन्हें तुम सुखी करो ‘, ऐसा बताया ।”
बच्चोंके उपनयन संस्कारका समय आया । उपनयन हेतु उन्हें लेकर विठ्ठलपंतआलंदी आए किंतु आलंदीके निष्ठूर लागोंने उनसे कहा, ‘‘तुमने संन्यासाश्रम छोडकर फिरसे गृहस्थाश्रमका स्वीकार किया है । तुम्हें देह त्यागके प्रायश्चित्तके बिना दूसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं । यदि तुम वह प्रायश्चित्त लोगे, तो ही बच्चोंके उपनयन संस्कारहोंगे ।’’ यह उत्तर सुनकर विठ्ठलपंत घर गए । बच्चे गहरी नींदमें हैं, यह देखकर विठ्ठलपंत तथा रुक्मिणीबाईने अपने घरसे बिदा ली । वे सीधे प्रयाग गए तथा उन्होंने गंगामें जलसमाधी ली ।
दूसरे दिन सवेरे जगनेपर बच्चोंकी समझमें आया कि अपने माता-पिता घर छोडकर गए हैं । उनके सरसे माता-पिताका छत्र ही हट गया । सारा भार निवृत्तीनाथपर आया था । निवृत्तीनाथने ज्ञानदेव, सोपानदेव तथा मुक्ताबाईका माता-पिताकी तरह ममतासे पालन किया ।
आगे जाकर गुरु निवृत्तीनाथकी आज्ञासे ज्ञानेश्वरने संस्कृत भाषाकी श्रीमद्भगवद्गीता सबको समझने हेतु ‘ज्ञानेश्वरी’ यह अप्रतिम ग्रंथ मराठीमें लिखा । इसकेउपरांत ज्ञानेश्वरने ‘अमृतानुभव’ यह ग्रंथ लिखा । इसमें दस अध्याय तथा सात-आठसौ छंद हैं । उनमें गहन आध्यात्मिक अनुभव अंतर्भूत है । यह पूरे संसारके तत्त्वज्ञानसे एक अपूर्व ग्रंथ है ।
बच्चों, छोटी उम्रमें निवृत्तीनाथके माता-पिता घरबार छोडकर गए, किंतु वह घबराए नहीं और उन्होंने अपने भाई-बहनका पालन माता-पिताकी तरह किया । यहकेवल साधनाके कारण ही हो सका । अत: साधना करना कितना आवश्यक है, यह समझमें आया ही होगा ।
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आध्यात्मिक संज्ञाका अर्थ (भाग २)
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