Wednesday, 25 October 2017
जो कबिरा काशी मरे...
Kankaalmaalini
mystery & power
31 JANUARY 2016
जो कबिरा काशी मरे...
आज मैं आपको कबीर के विश्वास से संबंधित एक महत्वपूर्ण बात बताना चाहता हूं। कबीरदास के गांव के बारे में प्रसिद्ध था कि वहां मरने से मुक्ति नहीं मिलती है। बगल में ही काशी थी। काशी के बारे में कहा जाता है कि यह भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित है। काशी एक पवित्र नगरी है और प्रलय के समय भी यह बची रहती है। यहां मरने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। तो कबीरदास की उम्र हुई और वे बीमार रहने लगे। जब उनके चाहने वालों को लगा कि अब कबीर अधिक दिनों तक नहीं बचेंगे तो वे काफी उदास हो गए। उनमें से कइयों ने कबीर को काशी चले जाने की सलाह दी। कहा कि आप तो धर्म-कर्म वाले आदमी हैं, संत हैं। यदि इस गांव में आपकी मौत हो गई तो जन्मों तक आपको मुक्ति नहीं मिलेगी। इस पर कबीरदास ने कहा कि वे अपने गांव को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे। इसी समय उन्होंने इस प्रसिद्ध दोहे को लोगों के सामने प्रस्तुत किया, 'जो कबिरा काशी मरे तो रामहिं कवन निहोरा। अर्थात अगर काशी में मरने से ही मोक्ष मिल जाता तो जीवन भर राम-राम करने का क्या फायदा। और यदि काशी में ही मरना था तो प्रभु के नाम को जपने का भी कोई लाभ नहीं। ऐसा था कबीरदास का विश्वास।
anand singh at 1/31/2016 04:24:00 AM
Share
29 JANUARY 2016
माटी कहे कुम्हार से (आनंद वचन)
संत कबीर के भजनों में एक अजीब सी कशिश रहती है, अलग तरह का आकर्षण। यह हमें जीवन की सामान्य घटनाओं के आध्यात्मिक और सही पहलू से अवगत कराती है। ऐसा नहीं है कि इन बातों को कबीरदास ने ही कहा है। पहले भी कई संतों ने ऐसे ही अनमोल वचन कहे हैं। पेश हैं कबीर के कुछ दोहे।
----
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूगी तोहे ।
भावार्थ : मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तुम मुझे क्या रौंदते हो। एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन मैं तुम्हें रोंदूंगी। मतलब कि यह शरीर भी एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा और मिट्टी ही शरीर को रौंद कर अपने अंदर दफन कर लेगी। यह कबीर का निर्गुण है। निर्गुण हमें संसार के सुखों से सावधान रहने को कहता है। एक तरह से यह करने के बाद हम संसार के छल-प्रपंचों से भी दूर रखने का काम करती है।
----
आये हैं तो जायेंगे, राजा रंक फकीर,
एक सिंहन चढ़ले, एक बंधे जंजीर।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में अलग-अलग पंथ और समुदाय हैं। लेकिन, तीन श्रेणी के लोग हर धर्म-समुदाय में मिल जाएंगे-राजा, रंक और फकीर। जो इस धरती पर आया है उसका यहां से जाना भी निश्चित है। लेकिन, अपने कर्मों के हिसाब से कोई सिंहासन पर बैठ कर जाता है तो किसी को जंजीरों में बांध कर ले जाया जाता है। इस कारण इस धरती पर कर्म की ही महत्ता होती है। हमें बेहतर कर्म करने चाहिए। ऐसा जीवन जीना चाहिए जिससे मौत से भय समाप्त हो जाए।
----
दुर्बल को ना सतायिये, जाकी मोटी हाय,
मरी खाल की सांस से लौह भसम हो जाए ।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि निर्बल को कभी नहीं सताना चाहिए। उसकी हाय काफी असरदार होती है। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया है कि लुहार की धौंकनी चमड़े की बनी होती है। इसे उन्होंने मरी खाल कहा है। उन्होंने कहा है कि लुहार जब इस मरी खाल से फूंक मारता है तो लोहा तक पिघल जाता है। जब मरी खाल की सांस में इतना असर हो सकता है तो गरीबों की हाय की सोचिए। कहा भी गया है, आह गरीबा कहर खुदा।
----
चलती चक्की देख के दिया कबीर रोये,
दो पाटन के बीच में बाकी बचा ना कोई ।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि चक्की को चलते हुए देख कर उन्हें रोना आ जाता है। गांव-देहात में महिलाएं अनाज आदि पीसने के लिए चक्की का प्रयोग करती हैं। यह दो पाटों वाली होती है। इसके दोनों पाटों के बीच में अनाज चूर होकर आटे में बदल जाता है। कबीर कहते हैं कि इन दो पाटों के बीच में कोई साबुत नहीं बचता है। यहां उन्होंने चक्की को संसार का रूप माना है। चलती चक्की से मतलब है कि संसार में समय तेजी से दौड़ रहा है और कोई भी प्राणी इस संसार रूपी चक्की से नहीं बच सका है।
----
दु:ख में सुमिरन सब करे, सुख में करे ना कोई,
जो सुख में सुमिरण करे, दु:ख कहे को होए ।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि भगवान को दु:ख में सब याद करते हैं। लेकिन, दु:ख में कोई उन्हें याद नहीं करता है। यदि सुख में लोग भगवान को याद करें तो फिर उन्हें दु:ख का कारण नहीं होगा। कहने का मतलब यह है कि प्रभु का मार्ग दु:खों से मुक्ति का मार्ग है। यदि हम प्रभु के बताए रास्ते पर चलेंगे तो पाप कर्मों से दूर रहेंगे। इसके बाद हमारे कर्म यदि सही रहेंगे तो दु:खों का कोई कारण नहीं रहेगा।
----
पत्ता टूटा डाल से ले गयी पवन उडाय,
अबके बिछड़े कब मिलेंगे दूर पड़ेंगे जाय।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि डाल से एक पत्ता टूटता है और हवा के झोंके उसे दूर बहा कर ले जाते हैं। ये दोनों यानी पेड़ और टूटा हुआ पत्ता अब कभी नहीं मिल सकते हैं। पत्ता हवा के झोंकों के कारण पेड़ से काफी दूर चला जाएगा। यानी, यह संसार एक पेड़ है और जीव उसका पत्ता। हवा का झोंका समय चक्र है। इसी समय चक्र के कारण आदमी इस संसार में अपने घर-परिवार को छोड़ कर जाता है और उनसे फिर कभी नहीं मिल सकता है।
----
कबीर आप ठगायिये और ना ठगिये कोय,
आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दु:ख होए।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि यदि आप ठगा गए तो कोई बात नहीं। लेकिन, किसी दूसरे को नहीं ठगना चाहिए। यदि आप ठगा गए तो सुख होता है लेकिन, यदि आपने किसी दूसरे को ठग लिया है तो यह दु:ख का कारण है। एक तरह से कबीरदास ने लोगों को सच्चाई के साथ जीवन व्यतीत करने की सलाह दी है।
anand singh at 1/29/2016 01:43:00 AM
Share
जिन खोजा तिन पाइयां (आनंद वचन)
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी ढूंढऩ गई, रही किनारे बैठ।।
आप जो खोजना चाहते हैं, उसे पाने के लिए आपको गहरे पानी में उतरना ही होगा। संत कबीरदास का यह दोहा आज भी प्रासंगिक है। जीवन से लेकर अध्यात्म तक के क्षेत्र की कुंजी है। आज कल सस्ती और आसान आध्यात्मिकता का चलन जोरों पर है। हम टीवी पर प्रवचन देख लेते हैं, पास में चल रहे सत्संग कार्यक्रम में शरीक हो जाते हैं तो हम धार्मिक हो गए। और यदि गुरु महाराज को पांच-दस हजार रुपये का चंदा दे दिया तो मंच से यह उद्घोषणा की जाती है कि आप तो सांसारिक मोह-माया से छूट गए। मानो आपद साक्षात मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। लोगों को ऐसी आध्यात्मिकता से सावधान रहने की जरूरत है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-एक घड़ी, आधी घड़ी, आधो में पुनि आध। तुलसी संगति साधु की हरे कोटि अपराध।। लेकिन, आज कल के सत्संग को सत्संग की जगह कुछ और कहना ही उचित होगा। सत्संग के नाम पर भव्य तैयारियां की जाती हैं, चंदा वसूला जाता है। जो लोग आपके विचारों को नहीं सुनना चाहते हैं, उन्हें जबरन सुनाने के लिए लाउडस्पीकर लगाए जाते हैं। मैं कुछ सत्संगों में गया हूं। सोचा था, यहां आकर प्रभु की प्राप्ति के मार्ग बताए जाएंगे। सांसारिक दु:खों से छूटने का मार्ग प्राप्त होगा। इसी आस में टीवी पर भी धाार्मिक चैनलों को सर्फ किया। लेकिन, प्रवचन ऐसा कि राम कहिए। सास-बहू के झगड़े को गुरु महाराज इतना रस लेकर सुनाते हैं मानों उन्हें इसी में भगवान की भक्ति दिख रही हो। घर-परिवार की समस्याओं पर अपनी राय देते हैं। यदि किसी का लड़का प्रेम विवाह करने जा रहा हो तो मां-बाप को ऐसा भड़का देते हैं कि परिवार में दरार पडऩी तय है। प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि हर जगह पर साधु नहीं मिलते। लेकिन, यहां तो हर चैनल पर, हर मुहल्ले-कॉलोनी में साधु विराजमान हैं। इनमें से कुछ के प्रवचन के टिकट तो लाखों रुपये में बिकते हैं। जो सर्वसुलभ और संसार से दूर नहीं वह कैसा साधु है। यह हमारी प्राचीन भारतीय ऋषि परंपरा का अपमान है। यदि भगवान को खोजना है तो लोगों को अपने अंदर खोजना चाहिए। गुरु आडंबर से रहित सरल हो तभी उन्हें गुरु मानना चाहिए। अन्यथा, आज-कल के गुरु दु:खों से दूर करने के बजाय पैसे ऐंठने में काफी माहिर होते हैं। ऐसे-ऐसे देवी देवताओं के नाम सुनने में आ रहे हैं जिनके बारे में कभी किसी ने सुना भी नहीं होगा। तरह-तरह की साधनाओं के नाम पर भक्तों के कष्टों को दूर करने का बीड़ा उठाया जाता है और भक्तों की परेशानियां घटने के बजाय बढ़ती ही जाती हैं। यदि भगवान के पास दु:खों को दूर करने की शक्ति होती तो राम और कृष्ण अपने दु:खों से कब का छुटकारा पा लेते। रामकृष्ण परमहंस को साक्षात मां काली के दर्शन होते थे लेकिन गले के कैंसर से वे बेहाल रहते थे। यदि भगवान को पाना है तो अपने अंदर खोजने की कोशिश करनी चाहिए। कबीरदास ने कहा है-मोको कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में, ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबा-कैलाश में।
anand singh at 1/29/2016 01:05:00 AM
Share
28 JANUARY 2016
प्रत्यंगिरा तंत्र
रक्षा और शत्रुविध्वंस में बेजोड़ हैं प्रत्यंगिरा
शत्रु की प्रबल से प्रबलतम तांत्रिक क्रियाओं को वापस लौटने वाली एवं रक्षा करने वाली दिव्य शक्ति है प्रत्यंगिरा। विरोधियों/दुश्मनों केप्रयोग तथा किये-कराये को नाश करने के लिए इस तंत्र का प्रयोग किया जाता है। यह स्वतःसिद्ध है। अतः इसके प्रयोग के लिए इसे पुनः सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। बेहतर परिणाम के लिए इसके प्रयोग से पूर्व एक बार ग्यारह हजार मंत्रों का जप कर लिया जाए तो अच्छा होगा। इस मंत्र से कई कठिन और मारक प्रयोग किए जा सकते हैं लेकिन बिना कुशल गुरु के निर्देश व देखरेख के ऐसा कदापि न करें, अन्यथा भारी नुकसान हो सकता है। इसलिए सामान्य साधक इसका प्रयोग सिर्फ आत्मरक्षा के लिए करें। प्रतिदिन21 मंत्रों का जप करने से विरोधी कभी आप पर हावी नहीं हो सकेंगे। आइये प्रत्यंगिरा के कुछ मंत्रों को जानें एवं अपनी रूचि अनुसार इनको साधें :
ध्यान
नानारत्नार्चिराक्रान्तं वृक्षाम्भ: स्त्रवर्युतम् Iव्याघ्रादिपशुभिर्व्याप्तं सानुयुक्तं गिरीस्मरेत् IIमत्स्यकूर्मादिबीजाढ्यं नवरत्न समान्वितम् Iघनच्छायां सकल्लोलम कूपारं विचिन्तयेत् IIज्वालावलीसमाक्रान्तं जग स्त्री तयमद्भुतम् Iपीतवर्णं महावह्निं संस्मरेच्छत्रुशान्तये IIत्वरा समुत्थरावौघमलिनं रुद्धभूविदम् Iपवनं संस्मरेद्विश्व जीवनं प्राणरूपत: IIनदी पर्वत वृक्षादिकालिताग्रास संकुला Iआधारभूता जगतो ध्येया पृथ्वीह मंत्रिणा IIसूर्यादिग्रह नक्षत्र कालचक्र समन्विताम् Iनिर्मलं गगनं ध्यायेत् प्राणिनामाश्रयं पदम् II
माला मंत्र
ॐ ह्रीं नमः कृष्णवाससे शतसहस्त्रहिंसिनि सहस्त्रवदने महाबलेSपराजितो प्रत्यंगिरे परसैन्य परकर्म विध्वंसिनि परमंत्रोत्सादिनि सर्वभूतदमनि सर्वदेवान् वंध बंध सर्वविद्यां छिन्धि क्षोभय क्षोमय परयंत्राणि स्फोटय स्फोटय सर्वश्रृंखलान् त्रोटय त्रोटय ज्वल ज्वालाजिह्वे करालवदने प्रत्यंगिरे ह्रीं नमः।
विनियोग
अस्य मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि अनुष्टप् छंद: देवीप्रत्यंगिरा देवता ॐ बीजं, ह्रीं शक्तिं, कृत्यानाशने जपे विनियोग:I
ध्यान
सिंहारुढातिकृष्णांगी ज्वालावक्त्रा भयंकरराम् Iशूलखड्गकरां वस्त्रे दधतीं नूतने भजे II
अन्य मंत्र
1-ॐ ह्रीं कृष्णवाससे नारसिंहवदे महाभैरवि ज्वल- ज्वल विद्युज्जवल ज्वालाजिह्वे करालवदने प्रत्यंगिरे क्ष्म्रीं क्ष्म्यैम् नमो नारायणाय घ्रिणु: सूर्यादित्यों सहस्त्रार हुं फट्I
2-ॐ ह्रीं यां कल्ययन्ति नोSरय: क्रूरां कृत्यां वधूमिवI तां ब्रह्मणाSपानिर्नुद्म प्रत्यक्कर्त्तारमिच्छतु ह्रीं ॐ
ध्यान
खड्गचर्मधरां कृष्णाम मुक्तकेशीं विवाससम्Iदंष्ट्राकरालवदनां भीषाभां सर्वभूषणाम्I ग्रसन्तीं वैरिणं ध्यायेत् प्रेरीतां शिवतेजसाI
विपरीत प्रत्यंगिरा
शत्रु द्वारा बारम्बार तन्त्र क्रियाओं के किये जाने पर शत्रु यदि रुकने की बजाए और गहरे तन्त्र आघात देने लगें, प्राण हरण पर ही उतर आएँ अर्थात मानव संवेदनाओं की सीमा को लाँघ कर घिनौनी हरकतों पर उतर आएँ तो उसकी क्रिया को उस पर वापिस इस तरह से लौटना की शत्रु को आपके दर्द का एहसास हो इसे विपरीत प्रत्यंगिरा कहा जाता है I प्रत्यंगिरा और विपरीत प्रत्यंगिरा में ये भेद है की प्रत्यंगिरा शक्ति तो सिर्फ वापिस लौटती है किन्तु विपरीत प्रत्यंगिरा शत्रु को ही वापिस चोट पहुंचाती है और खुद कीनिश्चित रूप से रक्षा करती है I इस प्रयोग के बाद शत्रु आप पर दोबारा यह प्रयोग कभी नहीं कर सकता I उसकी वह शक्ति खत्म हो जाती है I
मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं प्रत्यंगिरे मां रक्ष रक्ष मम शत्रून् भंजय भंजय फें हुं फट् स्वाहा I
विनियोग :
अस्य श्री विपरीत प्रत्यंगिरा मंत्रस्य भैरव ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, श्री विपरीत प्रत्यंगिरा देवता ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोग: I
मालामंत्र
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ कुं कुं कुं मां सां खां पां लां क्षां ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं बां धां मां सां रक्षां कुरु I ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ स: हुं ॐ क्षौं वां लां धां मां सा रक्षां कुरु I ॐ ॐ हुं प्लुं रक्षा कुरु I ॐ नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै विद्याराज्ञी त्रैलोक्य वंशकरि तुष्टिपुष्टिकरि सर्वपीड़ापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वशस्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा I परमंत्र तंत्र यंत्र विषचूर्ण सर्वप्रयोगादीन् अन्येषां निवर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेSस्तु कपालिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति मनसा वाचा कर्मणा ये देवासुर राक्षसास्तिर्यग्योनि सर्वहिंसका विरुपकं कुर्वन्ति मम मंत्र तंत्र यन्त्र विषचूर्ण सर्वप्रयोगादीनात्म हस्तेन।
anand singh at 1/28/2016 11:59:00 PM
Share
कबीर के भजन
रहना नहीं देश विराना है....
रहना नहीं देश विराना है....
यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है |
रहना नहीं देश विराना है....
यह संसार काँटों की बाड़ी, उलझ उलझ मर जाना है |
रहना नहीं देश विराना है....
यह संसार झाड़ और झांकर, आग लगी बरी जाना है |
रहना नहीं देश विराना है....
कहत कबीर सुनो भाई साधु, सतगुरू नाम ठिकाना है |
मन लागो मेरो यार फकीरी में...
मन लागो मेरो यार फकीरी में || टेक ||
जो सुख पायो नाम भजन में, सो सुख नहीं अमीरी में|
भला-बुरा सबकी सुन लीजे, कर गुजरान गरीबी में|मन लागो...
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भली बनी आई सबुरी में|
हाथ में कुण्डी, बगल में सोटा, चारों दिशा जागीरी में|
आखिर तन ये खाक मिलेगा, कहा फिरत मगरुरी में|मन लागो...
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिले सबुरी में|मन लागो...
घूँघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे |
घट-घट रमता राम रमैया, कटुक वचन मत बोल रे | तोहे पिया...
रंग महल में दीप बरत है, आसन से मत डोल रे | तोहे पिया...
कहत कबीर सुनो भाई साधु, अनहद बाजत ढोल रे | घूँघट...
अनाड़ी मन कब ते भजोगे हरि नाम
अनाड़ी मन कब ते भजोगे हरि नाम ||टेक||
बालपन सब खेली गम यो, जवानी में व्यप्यो काम |
वृद्ध भये, तन काँपन लागो, लटकन लाग्यो चाम || अनाड़ी...
लाठी टेकत चलत मार्ग में, सह्यो जात नहिं धाम |
कानन बहिर, नयन नही सूझे, दांत भये बेकाम || अनाड़ी...
घर की नारी बिमुख होय बैठी, पुत्र करत बदनाम |
बरबरात है बिरथा बुढा, अटपट आठों जाम || अनाड़ी…
खटिया में भुई करि दै है, छुटि जै है धन धाम |
कहें कबीर काह तब करिहो, परि है यम से काम || अनाड़ी…
कछु लेना ना देना, मगन रहना
कछु लेना ना देना, मगन रहना || टेक||
पांच तत्व का बना पिंजरा, जामे बोले मेरी मैना | कछु...
गहरी नदिया नाव पुरानी, केवटिया से मिले रहना | कछु...
तेरो पिया तोरे घट में बसत है, सखी खोलकर देखो नैना | कछु...
कहें कबीर सुनो भाई साधो, गुरु चरणन में लिपट रहना | कछु...
क्यों करत गुमाना|
क्यों करत गुमाना|
क्या देख मन भया दिवाना, छोड़ी भजन माया लिपटाना || टेक ||
पंचम महल देख मति भूले, अंत खाक मिलि जाना |
कफ, पित, वायु, मल, मूत्र भरे है, सोई देख नर करत गुमाना ||
राजा, राज छोड़ के जैहै, खेती करत किसाना |
योगी, यती, सती, सन्यासी, ये सब काल के हाथ बिकाना ||
मातु, पिता, सुत, बन्धु, सहोदर, ये सब अपने स्वारथ आना |
अंत समय कोई काम न आवै, प्राण नाथ जब करहीं पयाना ||
भजन प्रताप अमर पद पाइय, शोक, मोह, चिंता नहिं आना |
कहें कबीर सुनो भाई साधो, गुरु चरण पर राखो ध्याना ||
चोला छुटि गयो
चोला छुटि गयो, जनम सब धोखे में खोय दियो || टेक ||
द्वादश वर्ष बालापन बीता, बीस में जवान भयो |
तीस बरस माया के प्रेरे, देश विदेश गयो ||
चालीस बरस अंत जब लागे, बाढो मोह नयो |
धन अरु धाम, पुत्र के कारण, निशिदिन सोच भयो ||
बरस पचास कमर भाई टेढ़ी, सोचत खाट पड्यो |
लड़िका बौहर बोली, बुढाऊ मरि ना गयो ||
बरस साठ, सत्तर के भीतर, केश सफेद भयो |
कफ, पित्त, वात, घेर लियो है, नयनन नीर बह्यो ||
न गुरु भक्ति, न साधु की सेवा, न शुभ कर्म कियो |
कहें कबीर सुनो भाई साधो, चोला छुटि गयो ||
anand singh at 1/28/2016 11:27:00 PM
Share
देवी सरस्वती ने सुलझाया विवाद
विक्रमादित्य के दरबार में दो प्रसिद्ध विद्वान थे-कालीदास और भवभूति। एक बार दोनों के बीच इस बात को लेकर विवाद छिड़ गया कि बड़ा विद्वान कौन है। जब आपस में दोनों इस विवाद का निपटारा नहीं कर पाए तो उन्होंने विक्रमादित्य के सामने इस समस्या को रखी। विक्रमादित्य दोनों विद्वानों का सम्मान करते थे। काफी सोच-विचार कर उन्होंने कहा कि देवी सरस्वती से ही इस समस्या को हल करवा लें। दोनों विद्वान मां सरस्वती का आवाहन करना जानते थे। उन्होंने एक कलश में मां सरस्वती का आवाहन किया। पूछा कि दोनों में बड़ा विद्वान कौन है। कलश से आवाज आई-भवभूति। फिर कालीदास ने क्रोध में उठा कर कलश पटक दिया और पूछा, जब भवभूति बड़े विद्वान हैं तो मैं क्या हूं। कलश से आवाज आई, जो मैं हूं, वही तुम हो।
anand singh at 1/28/2016 02:04:00 AM
Share
27 JANUARY 2016
दु:ख से जुड़ा है समय चक्र
दु:ख की घडिय़ां काफी लंबी होती हैं। सुख में समय नहीं होता। सुख का समय इतनी जल्दी बीतता है कि हमें पता भी नहीं चलता। शायद इसी कारण कहा गया है कि अंतरिक्ष के ब्लैक होल में समय रुक जाता है। इस संबंध में आचार्य रजनीष उर्फ ओशो ने काफी बढिय़ा उदाहरण दिया है। कहा है, रात घर में कोई खाट पर पड़ा है मरने के लिए, तो रात बहुत लंबी हो जाती है। घड़ी में तो उतनी ही होगी, कैलेंडर में उतनी ही होगी, लेकिन वह जो खाट के पास बैठा है, जिसका प्रियजन मर रहा है, उसके लिए रात इतनी लंबी, इतनी लंबी हो जाती है कि लगता है कि चुकेगी कि नहीं चुकेगी? यह रात खत्म होगी कि नहीं होगी? सूरज उगेगा कि नहीं उगेगा? यह रात कितनी लंबी होती चली जाती है! और घड़ी उतना ही कहती है। और तब देखनेवाले को लगेगा कि घड़ी आज धीरे चलती है या रुक गई है! कैलेंडर की पंखुड़ी उखडऩे के करीब आ गई है, सुबह होने लगी है, लेकिन ऐसा लगता है कि लंबा, लंबा...। बर्टेंड रसेल ने कहीं लिखा है कि मैंने अपनी जिंदगी में जितने पाप किए, अगर सख्त से सख्त न्यायाधीश के सामने भी मुझे मौजूद कर दिया जाए, तो मैंने जो पाप किए वे, और जो मैं करना चाहता था और नहीं कर पाया, वे भी अगर जोड़ लिए जाएं, तो भी मुझे चार-पांच साल से ज्यादा की सजा नहीं हो सकती। लेकिन जीसस कहते हैं कि नरक में अनंत काल तक सजा भोगनी पड़ेगी। तो यह न्याययुक्त नहीं है। क्योंकि, मैंने जो पाप किए, जो नहीं किए वे भी जोड़ लें, क्योंकि मैंने सोचे, तो भी सख्त से सख्त अदालत मुझे चार-पांच साल की सजा दे सकती है, और यह जीसस की अदालत कहती है कि अनंत काल तक नरक में सडऩा पड़ेगा। यह जरा ज्यादती मालूम पड़ती है। कहने का मतलब है कि दुख की घडिय़ां लंबी होती हैं। नरक में अगर आपको एक क्षण भी रहना पड़ा तो वह आपको अनंत काल का मालूम पड़ेगा। वहां इतना अधिक दु:ख है कि समाप्त ही नहीं होता। सुख तो क्षणिक होता है। इसी कारण कबीरदास जी कहते हैं-
कबीरा हंसना दूर कर रोने से कर प्रीत।
बिना रोए क्या पाइए, प्रेम, प्यार या मीत।।
anand singh at 1/27/2016 11:04:00 PM
Share
इक बंजारा गाए, जीवन के गीत सुनाए (अपना दर्द)
'कदम-कदम पर होनी बैठी अपना जाल बिछाए/इस जीवन की राह में जाने कौन कहां रह जाए।Ó यह दुनिया दु:खों से भरी हुई है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैंने सिर्फ इसे अनुभव किया है। इसे सृष्टि की रचना के समय आदिदेव भगवान शिव ने भी कहा था। वे ब्रह्मा की बनाई दु:ख-दर्द से भरी जिंदगी से संतुष्ट नहीं थे। लेकिन, उनकी बात नहीं सुनी गई। परिणाम आज हम सबके सामने है। भगवान बुद्ध ने भी यही कहा। तथागत ने कहा था कि दुनिया दु:खों से परिपूर्ण है। यदि कहीं सच्चा सुख मिलता है तो वह संसार और सांसारिकता को त्याग कर मिलता है। यहां कोई अपना नहीं है। यदि आप कुछ अपना समझ रहे हैं तो वह सपना है। दुनिया की राह में काफी झमेले हैं। जो जन्म लेता है, उसका मरना निश्चित है। फिर भी मनुष्य ना जाने किस अहंकार के वशीभूत होकर सांसारिक प्रपंचों में उलझता जा रहा है। ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से निकल भागता योगी, धुनी बना कर उसे तापता अनासक्त रसभोगी। यह आसक्ति ही दु:खों का कारण है। एक सच मेरे गुरु ने कहा था-कभी किसी से कोई आशा मत रखना। आशा ही दु:खों का कारण है। लेकिन, यह जीवन, हर कदम पर आशाओं का संसार बनाता जाता है। एक आशा टूटती है तो दूसरी जन्म ले लेती है। अच्छा, यह काम नहीं हुआ तो वह काम जरूरत होगा। लेकिन, वैसा होता नहीं है। तंत्र साधना में एक मार्ग है, वाममार्ग। भगवान शिव ने कहा है कि वाममार्ग अत्यंत गुह्य और योगियों के लिए भी अगम्य है। आखिर यह वाम मार्ग क्या है। मेरी नजर में यही सच्चा मार्ग है। वाम मार्गी दुनिया से विपरीत चलता है। बाकी सारे मार्ग दुनिया में सुख की चाह कराने वाले हैं जो कभी मिलता नहीं है। वाममार्ग दुनिया को दु:खमय मानता है। जिन चीजों से दुनिया घृणा करती है, उन चीजों से वाममार्गी प्रेम करता है। वह श्मशाान में अपना ठिकाना बनाता है, ताकि कभी अहंकार पैदा ना हो सके। एक श्मशान के बाहर लिखा था-
(मंजिल तो तेरी यही थी
बस उम्र बीत गई आते-आते
क्या मिला तुझे इस दुनिया में आकर
अपनों ने ही तुझे जला दिया जाते-जाते।)
................
........... सोच रहा हूं मैं, आप भी सोचिए।
anand singh at 1/27/2016 03:47:00 AM
Share
26 JANUARY 2016
वृक्ष से हुआ था देवी सरस्वती का प्राकट्य
सृष्टि की रचना करने के बाद ब्रह्मा जी संतुष्ट नहीं थे। उनकी सृष्टि में चारों ओर मौन छाया रहता था। इस कारण सृष्टि नीरस होने लगी थी। तब ब्रह्मदेव ने अपनेे कमंडल से धरती पर जल छिड़का। पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कलकल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। वसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी। वसंत पंचमी या श्रीपंचमी एक हिन्दू त्योहार है। प्राचीन भारत में इस पर्व को ऋषि पंचमी के नाम से भी जाना जाता था। इस दिन पीले वस्त्र पहनने का रिवाज है। प्राचीन भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। इस मौसम में ना तो अधिक शीतलता का अनुभव होता है और ना ही अधिक उष्णता का। प्रकृति फूल-पत्तों से सज सी जाती है। तितलियां मंडराने लगती हैं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पांचवें दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती थी। यह वसंत पंचमी का त्योहार कहलाता था। शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से जाना जाता है।
इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।
anand singh at 1/26/2016 11:04:00 PM
Share
25 JANUARY 2016
जिंदा हो सकता है रावण, श्रीलंका में है ममी!
कहा जाता है कि रावण की लाश एक ममी के रूप में आज भी सुरक्षित है। कई लोगों ने इस पर खोज कर इसे प्रामाणिकता देने की भी कोशिश की है। अब श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहां रावण की सोने की लंका थी और जहां रावण के मरने के बाद उसका शव रखा गया है। रावण से जुड़े ऐसे 50 स्थान ढूंढ लिए गए हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व है। यह मान्यता है कि रावण की मौत के बाद वफादार सैनिक उसका शव लेकर भाग खड़े हुए थे। उन्होंने रावण के शव को इस आशा में ममी का रूप दे दिया कि भविष्य में रावण जिंदा हो जाएगा। ऐसा माना जाता है कि रैगला के जंगलों के बीच एक विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने घोर तपस्या की थी। उसी गुफा में आज भी रावण का शव सुरक्षित रखा हुआ है। रैगला के घने जंगलों और गुफाओं में कोई नहीं जाता है, क्योंकि यहां जंगली और खूंखार जानवरों का बसेरा है। यहां भयानक नाग भी रावण के शव की रखवाली करते हैं। रैगला के इलाके में रावण की यह गुफा 8 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। जहां 17 फुट लंबे ताबूत में रखा है रावण का शव। इस ताबूत के चारों तरफ लगा है एक खास लेप जिसके कारण यह ताबूत हजारों सालों से जस का तस रखा हुआ है। यह भी जानना जरूरी है कि उस समय शैव संप्रदाय में समाधि देने की रस्म थी। रावण शैवपंथी था। यह भी मान्यता है कि रावण के शव के नीचे उसका खजाना दबा हुआ है।
anand singh at 1/25/2016 03:48:00 AM
Share
राधा-कृष्ण के प्रेम में बलिदान की शक्ति
लीला की समाप्ति के पश्चात बैकुंठ लोक में कृष्ण और राधा अचानक एकदूसरे के सामने आ गए
विचलित से कृष्ण-
प्रसन्नचित सी राधा...
कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्काई
इससे पहले कि कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल उठी-
"कैसे हो द्वारकाधीश?"
जो राधा उन्हें कान्हा-कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया।
फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया
और बोले...
" राधे, मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!
आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो
सच कहूँ राधा
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बूंदें निकल आती थी..."
बोली राधा -
"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि मैं तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थी जो तुम याद आते
इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल न जाओ
इसलिए रोती भी नहीं थी
द्वारकाधीश, प्रेम के अलग होने पर आपने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं?
कुछ कड़वे सच, कुछ कड़वे प्रश्न, सुन पाओ तो सुनाऊं?
कभी सोचा कि इस तरक्की में तुम कितने पिछड़़ गए
क्या क्या गंवाया और कहां से कहां पहुंच गए?
आपने यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की
और समुद्र के खारे पानी तक पहुंच गए?
एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर भरोसा कर लिया
और दसों उँगलियों पर चलने वाली बांसुरी को भूल गए?
कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी?
सुदर्शन चक्र विनाश के काम आने लगी
कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ?
कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता
युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं
कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता
आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्नद्रष्टा, भविष्यद्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो
पर तुमने क्या निर्णय किया?
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी
और खुद को पांडवों के साथ कर लिया?
सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालक होता है
उसका रक्षक होता है
आप जैसा महाज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी।
क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे
आज भी धरती पर जाकर देखो
अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को
ढूंढते रह जाओगे
हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उसके महत्व की बात करते है
मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं,
प्रेम वाले कान्हा की पूजा करते हैंं
गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है,
पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" करते है"
anand singh at 1/25/2016 02:01:00 AM
Share
दुर्गा साधना : कुञ्जिका-स्तोत्र और गुप्त-सप्तशती
सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा
कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’
प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ
फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके
बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
कुञ्जिका-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्॥ 4॥
अथ मंत्र
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल
प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
इस ‘कुञ्जिका-मन्त्र’ का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार ‘स्तव-पाठ’ के
अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर ‘कुञ्जिका स्तोत्र’ का पाठ करे।
।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि
जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।
गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०
स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३
anand singh at 1/25/2016 01:45:00 AM
Share
‹
›
Home
View web version
ABOUT ME
anand singh
From the drop of the ocean which has seemed in it
View my complete profile
Powered by Blogger.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment