Friday, 13 October 2017

मानसिक गायत्री-जप और सूर्यार्घ्य विहित है

मुख्य मेनू खोलें Wikibooks खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखें पुराण और इतिहास पुराण और इतिहास भारतीय इतिहास संकलन समिति गोरक्षप्रान्त, उत्तर प्रदेश सम्पादक मण्डल प्रदीप कुमार राव मिथिलेश कुमार तिवारी ओमजी उपाध्याय रत्नेश कुमार त्रिपाठी महेश नारायण त्रिगुणायत इन्द्रा पब्लिकेशन्स नयी दिल्ली-गोरखपुर ISBN 978.81.921516.03 प्रथम संस्करण, गुरुपूर्णिमा, 2012 परामर्श प्रो. माता प्रसाद त्रिपाठी प्रो. अशोक श्रीवास्तव श्री बाल मुकुन्द पाण्डेय सम्पादक मण्डल प्रदीप कुमार राव मिथिलेश कुमार तिवारी ओमजी उपाध्याय रत्नेश कुमार त्रिपाठी महेश नारायण त्रिगुणायत मूल्य मूल्य रु. 50/- प्रकाशक इन्द्रा पब्लिकेशन्स * जी-19, द्वितीय तल_ विजय चौक लक्ष्मीनगर, दिल्ली-110092 : +91-9911042001 * इन्द्रा निकेतन, दक्षिणी हुमायूँपुर गोरखपुर, 273001, +91-7668402925 e-mail: indrapublications@gmail.com नमस्तस्मै मुनीशाय तपोनिष्ठाय धीमते। वीतरागाय कवये व्यासायामिततेजसे॥ तं नमामि महेशानं मुनिं धर्मविदां वरम्। श्यामं जटाकलापेन शोभमानं शुभाननम्॥ मुनीन सूर्यप्रभान् धर्मान् पाठयन्तं सुवर्चसम्। नानापुराणकर्तारं वेदव्यासं महाप्रभम्॥ (बृहद्धर्मपुराण, 1.1.23-25) जो तपोनिष्ठ, मुनीश्वर, अमित तेजस्वी, महाकवि, राग से सर्वथा शून्य तथा अत्यन्त निर्मल बुद्धि से संयुक्त एवं महामुनि शिवस्वरूप, श्यामवर्ण के हैं, जिनका मुखमण्डल जटाजूट से सुशोभित है, और जो ध र्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं तथा सूर्य के सामान प्रभा वाले मुनियों को धर्मशास्त्रों का पाठ पढ़ाने वाले हैं, ज्योतिर्मय हैं, अत्यन्त कान्तिमान हैं, सभी पुराणों तथा उपपुराणों के रचयिता हैं, उन महाप्रभु वेदव्यास को बारम्बार नमस्कार है। भारतीय इतिहास संकलन योजना मुद्रक कमल ऑफसेट प्रिन्टर्स दुर्गाबाड़ी, गोरखपुर-273001 साम्राज्यवादी एवं साम्यवादी इतिहासकारों द्वारा बन्धक बनाये गये भारतीय इतिहास को वैश्विक इतिहास के मंच पर तथ्यों-प्रमाणों के साथ मुक्त कराकर भारत के वास्तविक इतिहास लेखन को समर्पित प्रतिष्ठित, तपस्वी एवं राष्ट्रभक्त इतिहासकारों- प्रो0 शिवाजी सिंह प्रो0 सतीशचन्द्र मित्तल डॉ0 राजेन्द्र सिंह कुशवाहा प्रो0 ठाकुर प्रसाद वर्मा डॉ0 कुँवर बहादुर कौशिक के दीर्घायु होने की कामना के साथ उनके शुभाभिनन्दन में समर्पित। 6  ;सम्पादकीय सामाजिक-मानविकी विषयों में ‘इतिहास’ विषय का अनेक दृष्टियों एवं कारणों से अपना अलग महत्त्व है। अन्य विषयों से यह विषय और महत्त्वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि यह विषय सभी राष्ट्रों-समाजों का अस्तित्व, उनकी पहचान, उनकी विरासत का उद्घाटन करते हुए उस राष्ट्र-समाज के मान-सम्मान, उसकी श्रेष्ठता-न्यूनता आदि का विवेचन प्रस्तुत करता है। इतिहास के ही पन्नों से वह राष्ट्र एवं समाज अपने पूर्वजों, अपने अतीत एवं अपनी विरासत की श्रेष्ठतम विशेषताओं पर गर्व करता है तो कमियों से सीख लेता है। अतीत से भी प्रशस्त वर्तमान के निर्माण के लिए वह राष्ट्र एवं समाज अपने अतीत की विशिष्टताओं से प्रेरणा ग्रहण करता है। सभ्यताओं के श्रेष्ठतावादी संघर्ष में इन्हीं कारणों से ‘इतिहास’ महत्त्वपूर्ण हो जाता है। परिणामतः ‘इतिहास रचना’ में इतिहासकार एवं उसकी दृष्टि की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इतिहास क्या है? इतिहास लेखन में तथ्य एवं इतिहासकार की भूमिका क्या है? इन प्रश्नों पर अनवरत विचार होता रहा है। इतिहास की मनगढ़न्त व्याख्या करने वाले इतिहासकार भी यही दावा करते हैं कि इतिहास विज्ञान है और इतिहास लेखन की पद्धति वैज्ञानिक होनी चाहिए। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के समर्थक साम्यवादी इतिहासकारों की जमात भी यही ढोल पीटती है, किन्तु वास्तविकता में राज्याश्रित इतिहास, पाल्य इतिहासकारों द्वारा राज्य की रुचि, उसके उद्देश्य की पूर्ति के लिए निर्मित दृष्टि के अनुसार खींचे गये साँचे के अनुरूप तथ्य संग्रह कर लिखा गया इतिहास होता है, क्योंकि राज्याश्रित इतिहास लेखन शासन द्वारा पहले से तय किये गये एजेण्डे के अनुरूप होता है। साम्यवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध इतिहासकारों पर भी यही बात लागू होती है। यद्यपि कि सच यही है कि ‘इतिहास’ विज्ञान नहीं है, वह विज्ञान हो भी नहीं सकता, उसका विज्ञान होना ही उसे अप्रासंगिक बना देता है। विज्ञान भौतिक पदार्थों की रचना का शास्त्र है, इतिहास मानव रचना का शास्त्र है। विज्ञान यन्त्र बनाने का शास्त्र है तो इतिहास चेतना निर्मित करने का शास्त्र है। विज्ञान सभ्यता-निर्मिति का शास्त्र है तो इतिहास संस्कृतियों की निर्मिति एवं उसकी सातत्यता बनाये रखने का शास्त्र है। वर्तमान समाज को गढ़ने के लिए अतीत से मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रेरणा-स्रोत होना ही इतिहास को प्रासंगिक बनाता है। ऐसे में इतिहास रचना के अन्तर्गत समकालीन इतिहासकार द्वारा तथ्यों पर आधारित अतीत के राष्ट्र-समाज एवं उसके अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का वह वास्तविक चित्र प्रस्तुत करना होता है जिससे कि वह राष्ट्र-समाज अपना वर्तमान अतीत से भी बेहतर गढ़ सके और वर्तमान से भी बेहतर भविष्य निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सके अथवा उसका सपना देख सके। अतः किसी भी राष्ट्र-समाज द्वारा इतिहास की रचना इसी दृष्टि से की जानी चाहिए तभी उसकी प्रासंगिकता है। अतः इतिहास रचना में जितना महत्त्वपूर्ण ‘तथ्य’ है उतना ही महत्त्वपूर्ण भूमिका ‘इतिहासकार’ की है। वह शास्त्र जिसकी रचना में मानव मस्तिष्क और चेतना का उपयोग होगा, वह शास्त्र रचने वाले व्यक्ति की सोच, उसके मानस के प्रभाव से अछूता रहेगा यह काल्पनिक हो सकता है वास्तविक नहीं। इतिहासकार के दृष्टि की प्रभावी भूमिका के कारण ही ‘इतिहास लेखन’ एवं ‘इतिहास रचना’ सदैव विवादास्पद रही है। विशेषतः ‘भारत का इतिहास’ अंग्रेज शासकों, उनके पाल्य इतिहासकारों एवं स्वतन्त्र भारत में उनके उत्तराधिकारी इतिहासकारों द्वारा ‘विशेष उद्देश्य’ एवं ‘विशेष दृष्टि’ से लिखा गया। रही-सही कमी पूरा किया स्वतन्त्र भारत के साम्यवादी इतिहासकारों की दृष्टि ने। वस्तुतः भारत का इतिहास पाश्चात्य के श्रेष्ठतावाद की कुण्ठा एवं साम्यवादी इतिहासकारों के ऐतिहासिक भौतिकवाद का शिकार हुआ। परिणामतः भारत का विपुल धार्मिक साहित्य, यथा- वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, स्मृतियाँ, अष्टाध्यायी, अर्थशास्त्र, रामायण, महाभारत, आदि का ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उपयोग इतिहासकारों द्वारा सुविधानुसार किया गया। अर्थात् यदि भारत को गाली देना है तो उपर्युक्त ग्रन्थ के सन्दर्भित उल्लेख तथ्य हैं, किन्तु भारत की गौरव-गाथा के सन्दर्भ में उन्हीं ग्रन्थों के उल्लेख इन इतिहासकारों द्वारा कपोल-कल्पित घोषित किये जाते रहे। एक ही ग्रन्थ एक सन्दर्भ में ‘प्रमाण’ बना तो दूसरे सन्दर्भ में वही ग्रन्थ ‘बकवास’ कह दिया गया। इतिहासकारों की इसी दृष्टि-दोष के शिकार ‘भारतीय इतिहास’ के अनेक उज्ज्वल अध्याय यद्यपि कि राष्ट्रवादी इतिहासकारों के प्रयासों से प्रकाशित हुए तथापि भारत का सम्पूर्ण इतिहास आज भी दोषपूर्ण है, इतिहासकारों के दृष्टि-दोष का शिकार है। भारत की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने की दृष्टि से असफल है। ब्रिटिश शासकों एवं साम्राज्यवादी-साम्यवादी इतिहासकारों द्वारा भारत का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन का इतिहास जान-बूझकर विकृत किया गया। इतिहास रचना में तथ्य को महत्त्वपूर्ण मानने वाले, तथ्याधारित प्रामाणिक इतिहास-रचना की घोषणा करने वाले इतिहासकारों ने ही ‘तथ्यों’ के चुनाव, उनकी व्याख्या में अपनी दृष्टि को महत्त्वपूर्ण माना और जो चाहा उसके अनुसार तथ्यों का संकलन किया। भारत के विपुल साहित्य से प्राप्त उज्ज्वल पक्षों को परम्परा, प्रगति-विरोधी एवं कल्पित कहकर उन्हें भारतीय इतिहास का हिस्सा ही नहीं बनने दिया। डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘पश्चिमी एशिया एवं ऋग्वेद’ की भूमिका लिखते हुए श्री श्याम कश्यप ने ठीक ही लिखा है कि- "इधर हम लोग समकालीनता के प्रति उत्साह से कुछ इस कदर आक्रान्त हैं कि इतिहास और परम्परा का तिरस्कार ‘आधुनिक’ होने की प्रथम शर्त बन गया है। साहित्य, कला, संस्कृति से लेकर शिक्षा तक सभी क्षेत्रों में इसी फैशन की छूत फैली हुई है।" भारतीय इतिहास को भारत-विरोधी दृष्टि में कैद करने वाले इतिहासकारों की भूमिका को प्रकारान्तर से रेखांकित करते हुए प्रो. शिवाजी सिंह अपनी पुस्तक ‘प्राग्वैदिक आर्य और सरस्वती-सिन्धु सभ्यता’ के आमुख में हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए लिखते हैं- "हमारी इतिहास-चेतना का निर्माण जिस इतिहास के आधार पर होता है उसके दो रूप हैं। एक इतिहास वह है जो किसी देश-काल के सन्दर्भ में घटित हुआ है। यह ऐतिहासिक यथार्थ है, इतिहास का सच, जो सदैव एक ही होता है और बदला नहीं जा सकता। दूसरा इतिहास यह है जो इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है या लिखा जा रहा है। यह विविध प्रकार का दिखाई देता है और अक्सर संशोधित होता रहता है। घटित और लिखित इतिहासों के बीच इस विसंगति से अक्सर सम्भ्रमात्मक स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिनसे इतिहास-चेतना के समुचित निर्माण में बाधा पड़ती है। किन्तु यह विसंगति क्यों, ऐतिहासिक यथार्थ एक, पर व्याख्याएँ अनेक क्यों? .....इतिहास निरूपण के सर्वोपरि नियामक तथ्य और प्रमाण हैं, इतिहासकार नहीं। इतिहास की स्वाभाविक संरचना में व्यतिक्रम तब प्रारम्भ होता है जब कोई इतिहासकार या इतिहासकारों का कोई समूह एक न्यायाधीश का रूप धारण किये हुए भी एक अधिवक्ता की तरह आचरण करने लगता है, जिसका उद्देश्य सत्य का निश्चयन नहीं अपितु अपने ग्राहक का पक्षपोषण होता है। वह तथ्यों और प्रमाणों की अनदेखी करने, उन्हें दबाने अथवा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का अभ्यस्त हो जाता है। फलतः इतिहास का विरूपीकरण होने लगता है। भारतीय इतिहास में जो विकृतियाँ दृष्टिगत होती हैं वे सब इन्हीं ‘अधिवक्ता छाप’ इतिहासकारों की देन है। राजनीतिक स्वार्थों और पूर्वाग्रहों से अभिप्रेरित एवं प्रतिबद्ध इन इतिहासकारों में प्रमुख हैं एक तो वे उपनिवेशवादी-मिशनरी लेखक जिन्होंने भारत में अपने राजनीतिक-धार्मिक वर्चस्व की स्थापना के लिए इस देश के इतिहास को विकृत किया, और दूसरे वे मार्क्सवादी विचारक जिनकी मताग्रही संकीर्ण सोच यह स्वीकार नहीं कर पाती कि मूलतः आध्यात्मिक नींव पर आधारित भारतीय संस्कृति के इतिहास की सम्यक व्याख्या भौतिकवादी दृष्टि से सम्भव नहीं है। अधिवक्तृता में ये इतिहासकार पारंगत रहे हैं और उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त रहा है। समाज में वे प्रायः आधिकारिक इतिहासकारों के रूप में प्रायोजित रहे हैं।" वस्तुतः ब्रिटिश भारत में उपनिवेशवादी-मिशनरी इतिहासकारों को राज्याश्रय प्राप्त था तो स्वतन्त्र भारत (नेहरू-इन्दिरा-सोनिया के भारत) में मार्क्सवादी इतिहासकार राजकीय संरक्षण में पुष्पित-पल्लवित हैं और भारत के सभी प्रमुख शिक्षण-प्रशिक्षण एवं उनसे सम्बन्धित संस्थानों पर वर्चस्व बनाए हुए हैं। उनके प्रभाव शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाये जाने वाले इतिहास के पाठ्यक्रमों के निर्माण एवं इतिहास रचना में आज भी देखा जा सकता है। सनातन युग से भारतीय समाज में आस्था के केन्द्र वेद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियों की इनके द्वारा मनमानी व्याख्या- उदाहरणार्थ वैदिक आर्य गोमांस खाते थे, हनुमान एक बन्दर था जो लंका के घरों में ताक-झांक करता था, इत्यादि- कर प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार होने का स्वांग रचा जाता है। इतिहास को वैज्ञानिक, तथ्यपूर्ण, निष्पक्ष होना चाहिए, का डंका पीटने वाले इन इतिहासकारों द्वारा ही ‘भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद्’ की सरकारी संस्था पर कब्जा कर ‘भारतीय इतिहास’ लेखन को ‘हिन्दू विरोध’ या यह कहा जाय कि ‘भारत विरोध’ पर केन्द्रित कर दिया गया। इसी अभियान के साथ ‘साम्यवाद’ के पक्षधर इतिहासकारों एवं राजनीतिक शक्ति का एक ऐसा संघ गठित एवं विकसित हुआ, जिसमें सम्मिलित होना ही आधिकारिक इतिहासकार होने का प्रमाण-पत्र पाना था। परिणामतः ‘भारत के इतिहास लेखन’ में भारतीयता विरोधी तथ्यों को ढूँढ़ने अथवा तथ्यों की भारतीयता विरोधी व्याख्या करने की होड़ मची रही। इन तथ्यों की पुष्टि अरुण शौरी द्वारा लिखी गयी पुस्तक- एमिनेन्ट हिस्टोरियन्स, देयर टेक्नॉलॉजी, देयर लाइन, देयर फ्राड - के प्रामाणिक विवरण से स्पष्ट हो जाता है। अरुण शौरी ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् की स्थापना से लेकर सन् 1998 तक इस संस्था को गिरवी रखकर साम्यवादी विचारधारा पर केन्द्रित इतिहास रचना करने वाले तथाकथित आधिकारिक इतिहासकारों का सरकारी दस्तावेजों के प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। ये तथ्य ही ‘भारतीय इतिहास’ की रचना करने एवं उन्हें पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किये जाने की योजना-रचना बनाने वाले कर्णधार इतिहासकारों का वास्तविक चेहरा सामने ला देते हैं और तब यह बात और साफ हो जाती है कि भारत का इतिहास जान-बूझकरषड्यन्त्रपूर्वक तोड़-मरोड़कर भारत-विरोधी सांचे में लिखा गया। डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘पश्चिमी एशिया एवं ऋग्वेद’ की भूमिका में इसी बात को स्वीकारते हुए श्याम कश्यप लिखते हैं- "भारत पर आर्यों के आक्रमण के गलत सिद्धान्त..... की नींव पर ही सारी कपोल-कल्पनाओं के महल खड़े किये गये हैं। इस खोखली नींव के एक बार भहराकर गिर जाने के बाद प्राचीन भारत के इतिहास का सारा रूपवादी ढाँचा ध्वस्त हो जाता है और तथाकथित सर्वमान्य धारणाएँ कोरी दन्तकथाएँ साबित हो जाती हैं।.....ये धारणाएँ और मान्यताएँ कभी सर्वमान्य रहीं भी नहीं। यह बात दीगर है कि भारत के स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के तमाम पाठ्यक्रमों से लेकर इतिहासवेत्ताओं तक आमतौर से इन एकपक्षीय धारणाओं को ही सर्वमान्य बताकर इतिहास का एक गलत और हास्यास्पद ढाँचा सामने रखा जाता रहा है।.....इन धारणाओं के पीछे उपनिवेशवादी स्वार्थों की निहित भूमिका रही है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऋग्वेद की मनमानी व्याख्या ...के प्रयास किये जाते रहे हैं। यह सभी कुछ एक सोचे-समझे और सुनियोजित साम्राज्यवादीषड्यन्त्र का हिस्सा रहा है।" अर्थात् ब्रिटिश शासन में जो भूमिका साम्राज्यवादी इतिहासकारों की थी स्वतन्त्र भारत में वही भूमिका साम्यवादी इतिहासकार निभा रहे हैं। परिणामतः आजादी के साढ़े छः दशक बाद भी भारत का पूर्वाग्रह रहित भारत केन्द्रित वास्तविक इतिहास भारत की सरकारी अनुदान से संचालित संस्थाओं द्वारा नहीं लिखा जा सका। अपितु इसके विपरीत भारतीय जनता के खून-पसीने की कमाई पर मौज करने वाले सरकारी संरक्षण प्राप्त इतिहासकारों के एक गिरोह द्वारा ‘वैज्ञानिक इतिहास लेखन’ के नाम पर भारत के अतीत का माखौल उड़ाने वाला इतिहास लिखा जाता रहा। इन तथाकथित प्रतिष्ठित तथा प्रगतिशील इतिहासकारों द्वारा ‘हिन्दू विरोधी-मुस्लिम समर्थक’ इतिहास का ढाँचा तैयार किया गया। इनके द्वारा लिखित ‘भारत के इतिहास’ से यह बात सिद्ध हो गयी कि ‘इतिहास लेखन’ में इतिहासकारों की भूमिका तथ्य और प्रमाण से महत्त्वपूर्ण है। इतिहासकार का ‘मानस’ अथवा उसकीषड्यन्त्रकारी दृष्टि तथ्यों की व्याख्या अपने अनुरूप कर इतिहास का स्वरूप बदल सकती है। कई बार ऐसा जान-बूझकर किया जाता है तो कभी-कभी ऐसा अनजाने में इतिहासकार के मानस के अनुसार होता है। इस बात को और स्पष्ट रूप से समझाने के लिए एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक होगा। ज्योतिष शास्त्र पर चर्चा के दौरान एक बार श्री अजय ओझा ने कहा कि ज्योतिष की गणनाओं का निष्कर्ष ज्योतिषी के सोच, उसकी समझ अथवा उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है। जैसे कि एक बार ब्रह्मा ने अपने दो शिष्यों बृहस्पति और शुक्र को दर्शन एवं ज्योतिष का ज्ञान कराने के बाद व्यावहारिक प्रशिक्षण हेतु एक गाँव में भेजा। दोनों गाँव में घूमते-घूमते एक बुढ़िया के दरवाजे पर रुके। बुढ़िया का बेटा ज्ञानार्थ काशी गया हुआ था। बुढ़िया यह जानना चाहती थी कि उसका बेटा घर कब लौटेगा। दोनों ऋषियों को देखकर बुढ़िया ने अपना प्रश्न किया और ऋषिद्वय को पानी पिलाने हेतु कुएँ से जल निकालने लगी। जल निकालते समय रस्सी टूट गयी और जल-पात्र कुएँ के पानी में जा गिरा। इस घटना के साक्षी बृहस्पति ने कहा कि- तुम्हारा बेटा अब इस लोक में नहीं है जबकि शुक्र ने कहा कि तुम्हारा पुत्र ढाई घड़ी में तुम्हारे पास आ रहा है। दोनों का निष्कर्ष रस्सी के टूट जाने पर ही आधारित था। बृहस्पति का कहना था कि रस्सी टूट गयी अतः तुमसे तुम्हारे बेटे का सम्बन्ध टूट चुका है जबकि शुक्र कह रहे थे कि जल से उसका हिस्सा दूर खींचा जा रहा था किन्तु अलग हुआ जल रस्सी टूट जाने से अपने उद्गम में तुरन्त जा मिला। तथ्य एक ही है निष्कर्ष दो हैं। यद्यपि कि इस दो निष्कर्ष मेंषड्यन्त्र नहीं है। ऐसे ही इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो नासमझी में अथवा दशकों से बनाये गये विकृत इतिहास के साँचे से भ्रमित अनजाने मेंषड्यन्त्रकारी इतिहासकारों के गिरोह का समर्थक हो जा रहा है। भारतीय इतिहास लेखन के समक्ष यह कठिन चुनौती है। भारतीय इतिहास को विकृत करने वाले गिरोहबन्द इतिहासकार भारत का पूर्वाग्रह मुक्त वास्तविक इतिहास लिखेंगे यह कल्पना ही बेमानी है किन्तु बड़ी संख्या में इतिहासकारों का वह समूह जो इनके भ्रमजाल का शिकार है, उन्हें इनकेषड्यन्त्र से मुक्त कर भारत का तथ्यपूर्ण, वास्तविक एवं भारत केन्द्रित इतिहास लेखन की ओर प्रेरित किया जा सकता है। यह कार्य संगठित होकर योजनापूर्वक दीर्घकालिक नियोजन के साथ ही सम्भव है। भारतीय इतिहास संकलन योजना ने इस दिशा में भगीरथ प्रयास प्रारम्भ किये हैं। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के प्रयास का परिणाम भी सामने आ रहा है। भारतीय इतिहास का प्रतिमान बदलने लगा है तथापि इस दिशा में अभी बहुत दूर तक चलना शेष है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भारतीय इतिहास लेखन की इन्हीं उपर्युक्त विसंगतियों का शिकार भारत के विपुल ऐतिहासिक स्रोत पुराण हुए। पुराणों में अपनी विशिष्ट शैली में विविध कथानकों के माध्यम से प्राचीन भारत का इतिहास सुरक्षित है। साम्राज्यवादी एवं साम्यवादी इतिहासकारों ने अपनी दृष्टि एवं अपने उद्देश्य के अनुरूप निर्धारित साँचे में ठीक बैठने वाले तथ्य तो पुराणों से ग्रहण किये, किन्तु पुराणों में प्राप्त समस्त ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग कर भारतीय राज्य एवं समाज का समग्र चित्र प्रस्तुत करने का कभी प्रयास नहीं किया। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना ने गत दो वर्षों से पुराणों में प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पौराणिक भारत के इतिहास-लेखन का कार्य प्रारम्भ किया है। इस दृष्टि से पुराणों की ऐतिहासिक दृष्टि से समीक्षा, उनका अध्ययन, उनमें प्राप्त तथ्यों का संकलन पूरे देश में चल रहा है। किन्तु इस बात की सावधानी रखनी होगी कि साम्राज्यवादी एवं साम्यवादी इतिहासकारों की तरह ही कहीं भारत केन्द्रित इतिहास लेखन ही दूसरे अतिवाद के छोर पर न जा टिके। अर्थात ‘हमारा जो भी है वह अच्छा है’ की दृष्टि से भी लिखा गया भारत का पूर्वाग्रह युक्त इतिहास अस्वीकृत होगा। इतिहास तथ्य आधारित ही होना चाहिए। किन्तु राष्ट्र समाज की प्रेरणा के लिए उपयोगी होना चाहिए। तथ्यों का प्रस्तुतीकरण पूर्वाग्रह युक्त हो किन्तु उसकी व्याख्या राष्ट्र-समाज हित में एवं सकारात्मक ही होनी चाहिए। इसी योजना के अन्तर्गत भारतीय इतिहास संकलन समिति गोरक्ष प्रान्त द्वारा ऐतिहासिक स्रोत के रूप में पुराणों की समीक्षा एवं उनमें भरे-पड़े ऐतिहासिक तथ्यों का भारतीय इतिहास लेखन में उपयोग की दृष्टि से अब तक तीन कार्यशालाएँ की जा चुकी हैं। पहली कार्यशाला 14 मार्च, 2010 ई. को दिग्विजयनाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गोरखपुर में सम्पन्न हुई। कार्यशाला का वृत्त प्रकाशित हुआ। कार्यशाला एवं उसके प्रकाशन को अकादमिक क्षेत्र मिले समर्थन से प्रोत्साहित भारतीय इतिहास संकलन समिति गोरक्षप्रान्त द्वारा ‘पुराणान्तर्गत इतिहास’ विषय पर दो और कार्यशालाएँ हुईं जिनमें युवा इतिहासकारों एवं शोध विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया। पहली कार्यशाला 7 अगस्त, 2011 ई. को राजा रतनसेन डिग्री कालेज बाँसी, सिद्धार्थनगर में तथा दूसरी कार्यशाला 11 मार्च, 2012 ई. को महाराणा प्रताप पी. जी. कॉलेज जंगल धूसड़, गोरखपुर में सम्पन्न हुई। दोनों कार्यशालाओं में पुराणों पर प्रस्तुत शोध-पत्रों को इस ग्रन्थ में प्रकाशित किया जा रहा है। कुछ अन्य प्रमुख संकलित आलेख भी इस ग्रन्थ में सम्मिलित किये गये हैं। प्रकाशित किये जा रहे अनेक शोध-पत्रों में यद्यपि कि इतिहास की दृष्टि से विवेचना की कमी है, तथ्यों के संकलन एवं उनकी उद्देश्यपरक व्याख्या में क्रमबद्धता का अभाव है, युवा इतिहासकारों की न्यायाधीश जैसी सम्यक दृष्टि का पैनापन कम है, अनेक शोध-पत्र मात्र पुराणों में किये गये उल्लेखों के संकलन मात्र हैं तथापि यह प्रकाशन इस मायने में महत्त्वपूर्ण होगा कि पुराणों में उल्लिखित विविध पक्षों पर पाठकों, शोधार्थियों एवं अन्य अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करेगा और वे पुराणों में प्राप्त विपुल ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक नवीन अध्यायों का उद्घाटन करने में जुटेंगे। भारतीय इतिहास लेखन में पुराणों में प्राप्त ऐतिहासिक स्रोत के उपयोग से भारतीय इतिहास लेखन के एक नये युग का सूत्रपात होगा। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में गत सत्र के ‘पुराणान्तर्गत इतिहास’ विषय पर राजा रतनसेन डिग्री कॉलेज बाँसी में आयोजित कार्यशाला का प्रमुख योगदान है। वह कार्यशाला सम्पन्न कराने में महाविद्यालय के प्रबन्धक एवं विधायक माननीय राजकुमार जयप्रताप सिंह जी एवं प्राचार्य डॉ. हरेश प्रताप सिंह के अमूल्य योगदान के हम हृदय से आभारी हैं। पुराणान्तर्गत इतिहास पर आयोजित कार्यशाला में अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. शिवाजी सिंह एवं राष्ट्रीय संगठन मन्त्री श्री बालमुकुन्द जी, प्रो.अशोक श्रीवास्तव एवं श्रद्धेय गुरुवर डॉ. कुँवर बहादुर कौशिक के हम कृतज्ञ हैं जिनकी उपस्थिति एवं मार्गदर्शन के बिना कार्यशाला की सफलता सम्भव नहीं थी। मैं सम्पादक मण्डल के समस्त सहयोगियों एवं कार्यशाला में सम्मिलित समस्त विषय विशेषज्ञों तथा शोधार्थियों का भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। मुझे विश्वास है कि यह प्रकाशन पुराणों पर कार्य करने वाले शोधार्थियों को प्रेरणा देने की दिशा में एक छोटे से दीप का कार्य अवश्य करेगा। गुरुपूर्णिमा, 2012 (प्रदीप कुमार राव) अनुक्रम 1. पुराण श्रीमद्ब्रह्मानन्द सरस्वती 17 2. पुराणों में धर्म और सदाचार स्वामी करपात्रीजी महाराज 19 3. सिद्धों की पौराणिक प्रासंगिकता महन्त अवेद्यनाथजी महाराज 22 4. हमारे पुराण - एक समीक्षा अ. द. पुसालकर 25 5. विष्णुपुराण में राज्य एवं समाज बाल मुकुन्द पाण्डेय 39 6. विष्णुपुराण और भारत डॉ. कुँवर बहादुर कौशिक 45 7. श्रीविष्णुपुराण में वर्णित ......... डॉ. रत्नेश कुमार त्रिपाठी 55 8. पौराणिक राजवंश डॉ. प्रदीप कुमार राव 60 9. विष्णुपुराण में वर्णित मनु एवं..... लोकेश कुमार प्रजापति 73 10. पुराणों में विलक्षण विद्याएँ डॉ. रामप्यारे मिश्र 78 11. पुराणों में इतिहास संकल्पना डॉ. मिथिलेश कुमार तिवारी 85 12. पुराणों में विज्ञान रेनू यादव 89 13. पुराभवम् पुराणम् डॉ. किरन देवी 95 14. पौराणिक इतिवृत्त एवं पुरातत्त्व डॉ. अजय कुमार मिश्र 100 15. पुराणों का वैदिक धरातल स्वेजा त्रिपाठी 104 16. पुराण परिचय डॉ. प्रज्ञा मिश्रा 109 17. शैव धर्म से सम्बद्ध देवियाँ पुराणों..... डॉ. रत्न मोहन पाण्डेय 112 18. पुराणों में राजा की भूमिका डॉ. अखिलेश कुमार मिश्र 116 19. पुराणों की ऐतिहासिक विवेचना डॉ.संगीता शुक्ल 122 20. मध्यकालीन इतिहास का प्रमुख स्रोत डॉ. चन्द्रमौलि त्रिपाठी 129 21. पुराणों में नदियों का संक्षिप्त इतिहास डॉ. बृज भूषण यादव 133 22. पुराणों में नगर योजना डॉ. राम गोपाल शुक्ल 143 23. पुराण-वेद-इतिहास राजेश कुमार शर्मा 146 24. ऐतिहासिक स्रोत के रूप में ..... नीतू द्विवेदी 149 25. भारतीय इतिहास लेखन और..... राजेन्द्र देव मिश्र 154 26. पुराण विद्या कृतिका शाही 158 27. विष्णुपुराण में भारतीय समाज डॉ. भारती सिंह 167 28. भारतीय इतिहास का प्रस्थान बिन्दु.... गुंजन अग्रवाल 173 पुराण पुराणों में धर्म और सदाचार सिद्धों की पौराणिक प्रासंगिकता हमारे पुराण - एक समीक्षा विष्णुपुराण में राज्य एवं समाज विष्णुपुराण और भारत श्रीविष्णुपुराण में वर्णित नारी और शूद्र्र्र पौराणिक राजवंश विष्णु पुराण में वर्णित मनु एवं उनकी वंशावली पुराणों में विलक्षण विद्याएँ पुराणों में इतिहास-संकल्पना पुराणों में विज्ञान पुराभवम् पुराणम् पौराणिक इतिवृत्त एवं पुरातत्त्व पुराणों का वैदिक धरातल पुराण-परिचय शैव धर्म से सम्बद्ध देवियाँ , पुराणों के सन्दर्भ में पुराणों में राजा की भूमिका : एक अवलोकन पुराणों की ऐतिहासिक विवेचना मध्यकालीन इतिहास का प्रमुख स्रोतः भविष्य पुराण पुराणों में नदियों का संक्षिप्त इतिहास पुराणों में नगर योजना पुराण-वेद-इतिहास ऐतिहासिक स्रोत के रूप में भागवत पुराण का मूल्यांकन भारतीय इतिहास लेखन और इतिहास-पुराण परम्परा पुराण विद्या विष्णुपुराण में भारतीय समाज भारतीय इतिहास का प्रस्थान-बिन्दु एवं भगवान् बुद्ध की पौराणिक (ऐतिहासिक) तिथि स्रोत Last edited ७ months ago by JayprakashBot Wikibooks सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। 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