Monday, 23 October 2017
हरिॐ तत् सत्
पूर्ण/परम अक्षर ब्रह्म कबीर साहेब (सबका मालिक एक) KABIR IS GOD ॐ तत् सत् ।
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AUG
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Posted 30th August 2015 by rohtash kumar Dandyan
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30
ॐ के अकेले मन्त्र से मोक्ष सम्भव नहीं
ॐ ये ब्रह्म / काल का मंत्र है इस अकेले मन्त्र के जाप से मौक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। आपको पूर्ण तत्त्व दर्शी गुरू से अन्य मंत्रों को प्राप्त करके नियमोँ का पालन करते हुए उनके जाप से मौक्ष सम्भव है।
Posted 30th August 2015 by rohtash kumar Dandyan
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AUG
22
ॐ तत् सत् ।
ॐ तत् सत् ।
पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर को प्राप्त करने का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करने से है । अध्यात्मिक जीवन में मोक्ष मिल जाने का अर्थ है कि अब वह जीव / प्राणी या आत्मा/ soul किसी भी मृत्युलोक में जन्म नहीं लेगी और उसको जन्म मरण से हमेशा हमेशा के लिये मुक्ति मिल गयी है /छुटकारा मिल गया है। इसके लिये व्यक्ति को एक तत्त्व दर्शी सद्गुरु की खोज करके सारनाम प्राप्त करना होगा जो कि एक रहस्य (गुप्त ) होता है और उसको विधि पूर्वक और शुद्ध मन से और शुद्ध तन के द्वारा अजपा जाप करना होता है जो कि जीवन भर करना पड़ता है।
इसी गुप्त मंत्र / शब्द को संकेत में ॐ तत् सत् दर्शया / बताया गया है,चूँकि यह गुप्त रखा जाता है इस कारण से ऐसा बताया गया है । यह तीन मंत्रो या नामों में होता है। एक ॐ जो कि ब्रह्म का मंत्र है यह गुप्त नहीं है इसलिये इसको ज्यों का त्यों बताया गया है। दूसरा जो तत् जिसका अर्थ जैसा है या जिस रूप में है और तीसरा सत् जिसका अर्थ है कि वो सत्य है व पूर्ण रूप से शुद्ध /पवित्र है और वो सबका पिता/निर्माता /मालिक / परमेश्वर GOD है ये पूरी तरह से गुप्त रखने होते हैं तभी प्रभावित होते हैं इसलिये इनको संकेत में बताया गया है। गीता में भी यही ॐ तत् सत् लिखा हुआ है।
सत् साहेब ।
Posted 22nd August 2015 by rohtash kumar Dandyan
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AUG
22
कबीर साहेब
कबीर साहेब को ये संसार एक कवि के रूप में और परमात्मा के भक्त के रूप में और कुछ छोटी सोच के लोग उनको एक धाणक /जुलाहा और मुस्लमान मानते हैं। लेकिन सत्य को कम लोग ही जानते और मानते हैं । कबीर साहेब जी धरती पर १३९८ से १५१८ तक रहे। आज तक उनके जन्म और मृत्यु के बारे में कोई भी ठोस और सही तथ्य नहीं दे पाया और न ही कोई प्रमाण दे पाया।
लेकिन उन्होंने अपनी ''साखियों'' और ''कबीर सागर''(सूक्ष्म वेद) में यह सिद्ध किया है कि कबीर ही पूर्ण ब्रह्म है जिसको ये संसार भक्ति के माध्यम से, जो कि उसके गुप्त मंत्र /सत्यनाम /सारनाम (शब्द) के विधि और नियम पूर्वक सुमरिन /जाप करने से ही प्राप्त हो सकता है और मैं सवयं भी उसी की भक्ति में / सुमरिन में रहता /करता हूँ । तभी उस परमेश्वर , उस GOD , अल्हा हु अकबर / कबीर जो भी अलग अलग नामों से जाना जाता है , को पाया जा सकता है / प्राप्त किया जा सकता है।
सत् साहेब ।
अन्य लेखकों और विद्वानों के मत :
कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।
कबीर के माता- पिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर "नीमा' और "नीरु' की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।
कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है -
"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'
कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ। एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।
जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।
कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
"कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।'
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-
`मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'
उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।
कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।
कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-
`हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, `हरि जननी मैं बालक तोरा'
उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।
कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:
"अबकहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।''
कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:
"जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।''
अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
`बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'
वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?
सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं।
कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।
११९ वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।
Posted 22nd August 2015 by rohtash kumar Dandyan
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