Tuesday, 24 October 2017

जीव

मुख्य मेनू खोलें खोजें 2 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें जीव (हिन्दू धर्म) जीव शब्द का प्रयोग जीवित प्राणियों के लिए किया जाता है। जीव शब्द का प्रयोग जीव विज्ञान में सभी जीवन-सन्निहित प्राणियों के लिए किया जाता हैं। जैन ग्रंथों, हिन्दू धर्म ग्रंथो [वैदिक (औपनिषदिक)], बौद्धधर्म एवं सूफी धर्म ग्रंथो में इस शब्द का प्रयोग किया गया हैं। जीव विज्ञान संपादित करें मुख्य लेख : सजीव सजीव शब्द जीवविज्ञान में सभी जीवन-सन्निहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे: कशेरुकी जन्तु, कीट, पादप अथवा जीवाणु।[1] एक जीव में एक या एक से अधिक कोशिकाएँ होते हैं। जिनमें एक कोशिका पाया जाता है उसे एक कोशिकीय जीव है; एक से अधिक कोशिका होने पर उस जीव को बहुकोशिकीय जीव कहा जाता है। मनुष्य का शरीर विशेष ऊतकों और अंगों में बांटा होता है, जिसमें कोशिकाओं के कई अरबों की रचना में बहुकोशिकीय जीव होते हैं। धार्मिक परिपेक्ष संपादित करें जैन धर्म संपादित करें जैन दर्शन में जीव शब्द आत्मा के लिए भी प्रयोग किया जाता है। कुन्दकुन्द स्वामी का समयसार जीव (आत्मा) की प्रकृति समझाता है।[2] आचार्य उमास्वामी ने तीर्थंकर महावीर के मन्तव्यों को पहली सदी में सूत्रित करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है: "परस्परोपग्रहो जीवानाम्"। इस सूत्र का अर्थ है, 'जीवों के परस्पर में उपकार है'।[3] हिन्दू धर्म संपादित करें ब्रह्म एक ऐसी लोकोत्तर शक्ति है जो संपूर्ण ब्रह्मांड के कण-कण, क्षण-क्षण में व्याप्त है। यही लोकोत्तर शक्ति जब संसार की रचना करती है; सृष्टि का प्रवर्तन करती है; प्राणियों का संरक्षण करती है; उनका संहार करती है तो इसे ईश्वर की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। ब्रह्म शब्द शक्तिपरकएवं सत्तापरकलोकोत्तर तत्त्‍‌व का बोधक है। ईश्वर और भगवान जैसे शब्द ऐसे लोकोत्तर तत्त्‍‌व की सृष्टि विषयक भूमिका का बोध कराते हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक है। वह असीम है, पूर्णत:स्वतंत्र है। जीव की स्थिति ईश्वर से भिन्न होती है। जीव असंख्य है। ईश्वर और जीव विषयक ऐसी अवधारणा विश्व के अन्य धर्मों में भी मिलती है। यहूदी धर्म में याहवे (जहोवा) सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में माना जाता है। जहोवासंसार की रचना करता है; प्राणियों का पालन एवं अनुसंरक्षणकरता है। ईसाई धर्म में सर्वशक्तिमान सत्ता इलोई (गॉड) है। इलोईसंपूर्ण जगत् की रचना करता है। ईसाई धर्मानुयायी अपने सर्वशक्तिमान ईश्वर का भजन-पूजन करते हैं। इस्लाम में अल्लाह को सर्वशक्तिमान माना जाता है। पारसी धर्मानुयायी अहुरामज्दाको सर्वशक्तिमान मानकर उसकी पूजा करते हैं। कबीर भी लगभग ऐसी ही बात करते हैं- जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी। फूट घडा जल जलहिंसमाना यह तत कथौंगियानी।। अर्थात् कुएं में मिट्टी का घडा है। घडे में जल है। जब तक घडे की सत्ता है, तब तक वह जल से भिन्न अवश्य है पर जब घडे की पृथक सत्ता समाप्त हो जाती है, तब वह संपूर्ण जल का एक अविभाज्य अंग बन जाता है। यही स्थिति जीव और ब्रह्म की है। अज्ञान की जंजीर से जकडे जीव को ही ब्रह्म से पृथक अपनी सत्ता की भ्रांति होती है। जब अज्ञान का पर्दा हट जाता है, तब जीव को यह प्रकाश मिलता है कि वह तो स्वयं ब्रह्म है। उपनिषदों में ऐसी सूक्तियांयथा सोऽहमस्मि (मैं वही हूं), शिवोऽहम् (मैं शिव हूं), अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूं), अयमात्माब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है), तत्त्‍‌वमसि (तुम वही हो) जीव और ब्रह्म की अनन्यताका उद्घोष करती है। बौद्ध धर्म संपादित करें बौद्धधर्म में नित्य सत्ता का निषेध किया जाता है। इस धर्म में यह माना जाता है कि सब कुछ चलनशीलहै, गतिशील है। चलनशीलताऔर गतिशीलता की ही सत्ता नित्य है। नित्य सत्ता का निषेध करके ईश्वरीय सत्ता को मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि दोनों में तात्विकविसंगति है। इसी विसंगति के कारण बौद्धधर्म में ईश्वर जैसी किसी नित्य सत्ता का निषेध किया जाता है। वैसे, बौद्धधर्म परलोक में विश्वास करता है। इस धर्म में जीव की सत्ता तो है पर ईश्वर जैसे किसी नित्य तत्त्‍‌व के अभाव में दोनों के बीच भेद का प्रश्न ही नहीं उठता। इस धर्म में तथागत बुद्ध एवं ऐसे बोधिसत्त्‍‌वोंकी पूजा होती है जो निर्वाण की स्थिति में आ जाते हैं। जैन धर्म की मूल मान्यता है कि जगत्प्रवाहअनादि और अनंत हैं। इस धर्म में जगन्नियंता, जगत्स्त्र्रष्टाजैसी किसी लोकोत्तर सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता है। जैन धर्म की मूल मान्यता है कि जीव यदि क्रमिक आध्यात्मिक उन्नयन करता रहे तो वह स्वयं अर्हत् हो जाता है; ईश्वरत्वको प्राप्त हो जाता है। इस धर्म में चौबीस तीर्थंकरोंको अर्हत् माना जाता है। ईश्वर के रूप में इनकी पूजा होती है। जैनधर्ममें भी ईश्वर और जीव के बीच भेद का प्रश्न नहीं उठता क्योंकि यहां जीव की सत्ता तो है पर लोकोत्तर ईश्वर की सत्ता का अभाव है। सूफी धर्म में भी ईश्वर और जीव में अभेद है। एक सूफी था मंसूर। उसने अनलहक का उद्घोष किया। अनलहकका अर्थ होता है, मैं ब्रह्म हूं (अहं ब्रह्मास्मि)। स्पष्टत:सूफी दृष्टि भी औपनिषदिक दृष्टि के समान है। यहां भी ब्रह्म और जीव (खुदा और बंदा) के बीच अनन्यतामानी जाती है। यहां भी ईश्वर और जीव के बीच भेद का प्रश्न नहीं उठता। अद्वैतवादी औपनिषदिक परंपरा, श्रमण परंपरा (बौद्ध-जैन) एवं सूफी परंपरा के अनुयायी ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हैं। ज्ञातव्य है कि भक्तिमार्ग का पथिक सेवक-सेव्य भाव अपनाकर परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। इस मार्ग का पथिक स्वयं को सेवक और ईश्वर को सेव्य मानता है। इसी प्रकार ज्ञानमार्गका पथिक अपनी साधना के बल पर परम लक्ष्य (मोक्ष, निर्वाण, कैवल्य) की सिद्धि करता है; आत्मसाक्षातकरता है; परमसत्यका दर्शन करता है। अद्वैतमार्गानुगामीसाधक की दृष्टि में ईश्वर एवं जीव का भेद ही समाप्त हो जाता है। जीव ही ईश्वर का रूप धारण कर लेता है। सन्दर्भ संपादित करें ↑ "organism". Online Etymology Dictionary. http://www.etymonline.com/index.php?term=organism&allowed_in_frame=0. ↑ जैन २०१२, पृ॰ 3. ↑ जैन २०११, पृ॰ ७२. सन्दर्भ सूची संपादित करें जैन, विजय कुमार (२०१२), आचार्य कुन्दकुन्द समयसार, Vikalp Printers, ISBN 978-81-903639-3-8, Non-Copyright Check date values in: |date= (help) जैन, विजय कुमार (२०११), आचार्य उमास्वामी तत्तवार्थसूत्र, Vikalp Printers, ISBN 978-81-903639-2-1 Check date values in: |date= (help) इन्हें भी देखें संपादित करें जीव (organism) जीवन संवाद Last edited 10 months ago by अनुनाद सिंह RELATED PAGES ईश्वर जीव जैन दर्शन सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

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