Thursday, 9 November 2017
रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि
Skip to main content
Toggle navigation
Toggle navigation
Search form
Search
Search
Search
Home Shrimad bhagwat geeta Bhagavad Gita : अध्याय 5 श्लोक 5 - 22
Bhagavad Gita : अध्याय 5 श्लोक 5 - 22
Facebook
Twitter
Whatsapp
Saturday, November 14, 2015 - 12:02
बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
An intelligent person does not take part in the sources of misery, which are due to contact with the material senses. O son of Kuntī, such pleasures have a beginning and an end, and so the wise man does not delight in them.
तात्पर्य
भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है | मुक्तात्मा किसी नाशवान वास्तु में रूचि नहीं रखता | दिव्या आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ? पद्मपुराण में कहा गया है –
रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि |
इति राम पदे नासौ परं ब्रह्मा भिधीयते ||
“योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को भी राम कहा जाता है |”
भागवत में (५.५.१) भी कहा गया है –
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये |
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ||
“हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है | ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है | इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में ताप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको |”
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं | वो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं |
PURPORT
Material sense pleasures are due to the contact of the material senses, which are all temporary because the body itself is temporary. A liberated soul is not interested in anything which is temporary. Knowing well the joys of transcendental pleasures, how can a liberated soul agree to enjoy false pleasure? In the Padma Purāṇa it is said:
ramante yogino 'nante satyānanda-cid-ātmani
iti rāma-padenāsau paraṁ brahmābhidhīyate
"The mystics derive unlimited transcendental pleasures from the Absolute Truth, and therefore the Supreme Absolute Truth, the Personality of Godhead, is also known as Rāma."
In the Śrīmad-Bhāgavatam also it is said:
nāyaṁ deho deha-bhājāṁ nṛ-loke
kaṣṭān kāmān arhate viḍ-bhajāṁ ye
tapo divyaṁ putrakā yena sattvaṁ
śuddhyed yasmād brahma-saukhyaṁ tv anantam.
"My dear sons, there is no reason to labor very hard for sense pleasure while in this human form of life; such pleasures are available to the stool-eaters [hogs]. Rather, you should undergo penances in this life by which your existence will be purified, and, as a result, you will be able to enjoy unlimited transcendental bliss." (Bhāg. 5.5.1)
Therefore, those who are true yogīs or learned transcendentalists are not attracted by sense pleasures, which are the causes of continuous material existence. The more one is addicted to material pleasures, the more he is entrapped by material miseries.
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||
ये – जो; हि – निश्चय हि; संस्पर्श-जा – भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगाः – भोग; दुःख – दुःख; योनयः – स्त्रोत, कारण; एव – निश्चय हि; ते – वे; आदि – प्रारम्भ; अन्तवन्त – अन्तकाले; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न – कभी नहीं; तेषु – उनमें; रमते – आनन्द लेता है; बुधः – बुद्धिमान् मनुष्य |
Tags: KrishnaISKCONHareKrishnaBhagwadGitaPoornsamarpanPS
Related Articles
Bhagavad Gita : अध्याय 6 श्लोक 6 - 38
26-Dec-2015 - 16:25
675
0
Shrimad Bhagvat Gita: Chapter 2: Shloka 58
13-Jul-2015 - 09:55
375
0
Gita Saar
29-Jun-2015 - 09:15
267
0
Facebook
Twitter
Whatsapp
Recent Post
Today's Most Popular
All Time Most Popular
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment