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गोत्र की परिभाषा :- गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है । यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है ।
गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपनामहत्व है ।
1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है ।
2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है ।
3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।
4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।
5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।
गोत्रों की उत्पत्ति- रैगर जाति के गोत्रों की उत्पत्ति एक समय और एक स्थान पर नहीं हुई है । समय गुजरने के साथ गोत्रों में वृद्धि हुई है । बही भाट रैगरों के 356 गोत्र बताते है मगर वास्तव में 400 से अधिक गोत्र है । रैगरों के गोत्रों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई यह बता पाना बहुत ही कठिन है । एक समय और एक स्थान पर गोत्रों की उत्पत्ति नहीं हुई है । हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई इस सम्बंध में धार्मिक ग्रन्थों एवं समाजशास्त्रियों के अध्ययन का सहारा लेना पड़ेगा ।
धार्मिक आधार- महाभारत के शान्तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्यप, वशिष्ठ तथा भृगु । बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्यवस्था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे । उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था । एक क्षत्रिय या वैश्य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्चारण करता था । अत: सभी स्वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए । शूद्रों को छोड़कर अन्य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्य कारण है । शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्परागत अनन्तकाल तक सेवा करते रहे उन्होंने भी उन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है । भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चौहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए । राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले सूद तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई । रैगरों और जाटवों के गोत्रों में समानता का यही कारण है । गोत्रों की समानता के आधार पर रैगरों की उत्पत्ति जाटवों से मान लेना गलत है ।
समाजशास्त्रिय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति के निम्न आधार बताए हैं-
1. परिवार के मूल निवास स्थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ ।
2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने ।
3. परिवार के इष्ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए ।
4. कबिलों के महत्वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने ।
समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्त बताए गए गोत्रों की उत्पत्ति के आधार बहुत ही महत्वपूर्ण है । सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति उपरोक्त आधारों पर ही हुई है ।
(साभार - चन्दनमल नवल कृत रैगर जाति : इतिहास एवं संस्कृति)
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