Thursday, 31 August 2017

देवता

देवता
'देव' शब्द में 'तल्' प्रत्यय लगाकर 'देवता' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। अत: दोनों में अर्थ-साम्य है। निरूक्तकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, 'जो कुछ देता है वही देवता है अर्थात देव स्वयं द्युतिमान हैं- शक्तिसंपन्न हैं- किंतु अपने गुण वे स्वयं अपने में समाहित किये रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं। देवता देवों से अधिक विराट हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति अपनी शक्ति, द्युति, गुण आदि का वितरण करने की होती है। जब कोई देव दूसरे को अपना सहभागी बना लेता है, वह देवता कहलाने लगता है।


पाणिनि दोनों शब्दों को पर्यायवाची मानते हैं:  देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा। यो देव: सा देवता इति। जब देव वेद-मन्त्र का विषय बन जाता है, तब वह देवता कहलाने लगता है जिससे किसी शक्ति अथवा पदार्थ को प्राप्त करने की प्रार्थना की जाय और वह जी खोलकर देना आंरभ करे, तब वह देवता कहलाता है। वेदमन्त्र विशेष में, जिसके प्रति याचना है, उस मन्त्र का वही देवता माना जाता है


देवताओं के नाम


अमरकोश के अनुसार देवताओं के 26 नाम हैं- अमर निर्जर देव त्रिदश विबुध सुर सुपर्वन सुमनस त्रिदिवेश दिवौकस आदितेय दिविषद लेख
अदितिनन्दन आदित्य ॠभु अस्वप्न अमर्त्य अमृतान्धस बर्हिर्मुख क्रतुभुज गीर्वाण दानवारि वृन्दारक दैवत देवता।


मुख्य देवता

यजुर्वेद के अनुसार मुख्य देवताओं की संख्या बारह हैं-

अग्निदेवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवतावसवो देवता, रुद्रा देवता, आदित्या देवता मरुतो देवता।विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्दैवतेन्द्रो देवता वारुणों  देवता।


अग्नि- स्वयं अग्रसर होता है, दूसरों को भी करता है।

सूर्य- उत्पादन करने वाला तथा उत्पादन हेतु सबको प्रेरित करने वाला।

चंद्र- आह्लादमय- दूसरों में आह्लाद का वितरण करने वाला।

वात- गतिमय- दूसरों को गति प्रदान करने वाला।

वसव- स्वयं स्थिरता से रहता है- दूसरी को आवास प्रदान करता है।

रुद्र- उपदेश, सुख, कर्मानुसार दंड देकर रूला देता है, स्वयं वैसी ही परिस्थिति में विचलित नहीं होता।

आदित्य- प्राकृतिक अवयवों को ग्रहण तथा वितरण करने में समर्थ।

मरूत- प्रिय के निमित्त आत्मोत्सर्ग के लिए तत्पर तथा वैसे ही मित्रों से घिरा हुआ।

विश्वदेव- दानशील तथा प्रकाशित करने वाला।

इन्द्र- ऐश्वर्यशाली देवताओं का अधिपति।

बृहस्पति- विराट विचारों का अधिपति तथा वितरक।

वरुण- शुभ तथा सत्य को ग्रहण कर असत्य अशुभ को त्याग करने वाला तथा दूसरे लोगों से भी वैसा ही व्यवहार करवाने वाला।

श्राद्ध कर्म- एक संक्षिप्त विधि

श्राद्ध कर्म- एक संक्षिप्त विधि


1 सर्वप्रथम ब्राह्मण का पैर धोकर सत्कार करें।
2 हाथ धोकर उन्हें आचमन कराने के बाद साफ़ आसन प्रदान करें।
3 देवपक्ष के ब्राह्मणों को पूर्वाभिमुख तथा पितृ-पक्ष व मातामह-पक्ष के ब्राह्मणों को उत्तराभिमुख बिठाकर भोजन कराएं।
4 श्राद्ध विधि का ज्ञाता पुरुष यव-मिश्रित जल से देवताओं को अर्ध्य दान कर विधि-पूर्वक धूप, दीप, गंध, माला निवेदित करें।
5 इसके बाद पितृ-पक्ष के लिए अपसव्य भाव से यज्ञोपवीत को दाएँ कन्धे पर रखकर निवेदन करें, फिर ब्राह्मणों की अनुमति से दो भागों में बंटे हुए कुशाओं का दान करके मंत्रोच्चारण-पूर्वक पितृ-गण का आह्वान करें तथा अपसव्य भाव से तिलोसक से अर्ध्यादि दें।
6 यदि कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण या कोई भूखा पथिक अतिथि रूप में आ जाए तो निमंत्रित ब्राह्मणों की आज्ञा से उसे यथेच्छा भोजन निवेदित करें।
7 निमंत्रित ब्राह्मणों की आज्ञा से शाक तथा लवणहीन अन्न से श्राद्ध-कर्ता यजमान निम्न मंत्रों से अग्नि में तीन बार आहुति दें-
प्रथम आहुतिः- “अग्नये काव्यवाहनाय स्वाहा”
द्वितीय आहुतिः- “सोमाय पितृमते स्वाहा”
8 आहुतियों से शेष अन्न को ब्राह्मणों के पात्रों में परोस दें।
9 इसके बाद रुचि के अनुसार अन्न परोसें और अति विनम्रता से कहें कि ‘आप भोजम ग्रहण कीजिए”।
10 ब्राह्मणों को भी तद्चित और मौन होकर प्रसन्न मुख से सुखपूर्वक भोजन करना चाहिए तथा यजमान को क्रोध और उतावलेपन को छोड़कर भक्ति-पूर्वक परोसते रहना चाहिए।
11 फिर ऋग्वेदोक्त ‘रक्षोघ्न मंत्र’ ॐ अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषद इत्यादि ऋचा का पाठ कर श्राद्ध-भूमि पर तिल छिड़कें तथा अपने पितृ-रुप से उन ब्राह्मणों का ही चिंतन करे तथा निवेदन करें कि ‘इन ब्राह्मणों के शरीर में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज तृप्ति लाभ करें।

सांख्य दर्शन

सांख्य दर्शन


भारतीय दर्शन की एक सामान्य विशेषता है उसका मानव केन्द्रित होना। सांख्य दर्शन भी मानव केन्द्रित है। तत्त्व गणना या विवेचना साध्य नहीं है। यह साधन है मानव के अन्तर्निहित और स्पष्ट उद्देश्य की प्राप्ति का। उद्देश्य संसार के दु:खों से स्वयं को मुक्त करने की मानवी प्रवृत्ति ही रही है। अत: तदनुरूप ही सांख्याचार्यों ने उन विषयों की विवेचना को अधिक महत्व दिया, जिनसे उनके अनुसार उद्देश्य की प्राप्ति हो सके। मानव मात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। संसार में दु:ख है- इस ज्ञान के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, दुख से मुक्ति हेतु प्रवृत्ति भी प्रमाणापेक्षी नहीं है। दु:खनिवृत्ति के मानवकृत सामान्य प्रयासों से तात्कालिक निवृत्ति तो होती है लेकिन ऐकान्तिक और आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं होता। दु:ख क्यों होता है, कैसे उत्पन्न होता है, मानव दु:ख से क्यों मुक्त होना चाहता है- आदि प्रश्न गंभीर चिन्तनापेक्षी और उत्तरापेक्षी हे। यह चिन्तन और तदनुसार उत्तर ही दु:ख निवृत्ति में साधक हो सकते हैं। यह क्षेत्र ही 'ज्ञान' का है। अत: सांख्याचार्य अपनी दार्शनिक विवेचना का आरंभ ही दु:ख-विवेचना से करते हैं।
अथ त्रिविधदु:खात्यन्तिकनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ:,
दु:खत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ॥
दु:खनिवृत्ति की जिज्ञासा ज्ञाता-जिज्ञासु की अभीप्सा है कुछ जानने की। लेकिन कुछ जाना जा सकता है, जाना गया कुछ सत्य है, प्रामाणिक है- ऐसा मानने के लिए ज्ञान की सीमा और ज्ञान की साधनभूत कसौटियों का निर्धारण आवश्यक है। यही प्रमाण मीमांसा का क्षेत्र है।
सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं।
इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। 'कपिल दर्शन' में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है।  'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है।

सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं। 'हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविध रूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।
संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते।
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥
प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं।  'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शांति पर्व में कहा गया है-
दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:।
कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥
अर्थात जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है।

सांख्य दर्शन प्राचीनता और परम्परा

महाभारत में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूप वर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शन विशेष के लिए नहीं वरन मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्य दर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है।

सांख्य का प्रमुख दोष उसका द्वैतवाद है। प्रकृति और पुरुष को दो नितान्त भिन्न और स्वतंत्र तत्त्व मानना सांख्य की प्रमुख भूल है। यदि पुरुष और प्रकृति दो स्वतंत्र और निरपेक्ष तत्व हैं तो उनका किसी प्रकार संयोग नहीं हो सकता और संयोग के अभाव में सर्ग नहीं हो सकता।
क्या द्वैतवाद को दोष कहा जा सकता है? सृष्टि में जहां तक मानवी बुद्धि के तर्क विचार-प्रणाली का क्षेत्र है वहां तक न्यूनतम द्वैत ही स्थापित है। सांख्यदर्शन तर्कबुद्धि और युक्तिसंगत चिन्तन-प्रणाली है। प्रत्यक्ष से सृष्टि में जड़ चेतन सिद्ध होता है। सृष्टि में व्यक्त जड़ चेतन परस्पर इतने भिन्न हैं कि इनमें किसी एक को मूल कारण मानने का कोई युक्तिसंगत आधार तो हो ही नहीं सकता। हां, यह माना जा सकता है कि जड़ और चेतन कामूल कारण अन्य कोई ऐसा तत्व हो सकता है जिससे इन दोनों की उत्पत्ति होती हो, जो न तो जड़ कहा जा सकता है और न चेतन। लेकिन तब उसमें जड़ और चेतन की उत्पत्ति का उपादान भूत कुछ अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। दर्शन के अब तक के साहित्य में जड़ चेतन से भिन्न किसी तीसरे तत्व की स्वीकृति का कोई प्रमाण नहीं मिलता। सृष्टि का मूल कारण जड़ या चेतन एक ही कारण किसी भी युक्ति से सिद्ध नहीं होता। हां, मान लेने की बात अलग है। मूल कारण यदि बुद्धि की तर्क प्रणाली से परे का विषय है और उसे केवल मान लेना ही संभव है तब प्रत्यक्षानुमान से गम्य आधार पर तदनुसार मानना ही युक्ति संगत है। जड़ से चेतन या चेतन से जड़ की उत्पत्ति अकल्पनीय है। अत: जड़ चेतन द्वैतवाद ही युक्तिसंगत है। यह दोष लेशमात्र भी नहीं है।
प्रकृति और पुरुष दो सर्वथा भिन्न और स्वंतत्र तत्व हैं- ऐसा मानने पर उनमें संयोग संभव नहीं है, इस प्रकार की आलोचना भी सांख्यमत को सही रूप में न समझ पाने के कारण ही है। सांख्यमत में प्रकृति और पुरुष अपनी सत्ता के लिए परस्पराश्रित नहीं है। न प्रकृति पुरुष को उत्पन्न करती है ओर न पुरुष प्रकृति को। सत्ता की दृष्टि से स्वंतत्र और भिन्न होने हुए भी ये प्रथक नहीं रहते। ये दोनों तत्त्व परस्पर असंयुक्त रहते हैं- ऐसा सांख्य कभी नहीं कहता। अत: संयोग संभव है या नहीं- ऐसा प्रश्न ही निर्मूल है। संयोग तो है। जब संयोग है तो निश्चय ही प्रकृति और पुरुष में इसकी योग्यता भी है। अभिव्यक्ति के लिए दोनों तत्त्व परस्परापेक्षी हैं- यह सांख्य का स्पष्ट मत है।

डॉ॰ चन्द्रधर शर्मा लिखते हैं कि प्रकृति अचेतन है और पुरुष उदासीन है और इन दोनों को मिलाने वाला कोई तत्त्व नहीं है। अत: दोनों का मिलन असम्भव है। इस प्रकार की आलोचना प्रकृति-पुरुष के अन्य लक्षणों को अनदेखा करके ही की जा सकती है। पुरुष में भोक्तृभाव और कैवल्यार्थप्रवृत्त् को सांख्यमत में स्वीकार किया गया है। अत: पुरुष की उदासीनता को विशेष अर्थ में ही समझना होगा। उदासीनता का पुरुष में उल्लेख कर्तृत्व निषेधपरक है।
डॉ॰ मुसलगांवकर ने ठीक ही कहा है-'सूत्रकार ने आत्मा को उदासीन अर्थात् अकर्ता कहकर उसके अपरिणामित्वरूप है अद्रष्टृत्वरूप नहीं'। सांख्य को निरीश्वर मानने पर संयोग का कारण पुरुष के भोक्तृस्वरूप तथा प्रकृति का विषयरूप होना बताया जा सकता है। प्राचीन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि सांख्यमत में पुरुष (जीवात्मचेतना) प्रकृति में संयोग हेतु तीसरा तत्त्व मान्य है। दोनों स्थितियों में प्रकृति-पुरुष-संयोग तो है। इनके क्रमश: अचेतन तथा उदासीनता के साथ जो अन्य लक्षण बताये गये हैं। उनसे इनके मिलन की संभावना स्पष्ट है। सांख्य ने प्रकृति में कर्तृत्व तथा पुरुष में भोक्तृत्व का आरोप करके कर्मवाद को ठुकरा दिया है और कृतनाश और अकृतागम के दोषों को निमन्त्रण दिया है।
इस आलोचना का आधार सांख्य पर असांख्यीय मतारोपण ही हो सकता है। प्रकृति में जिस कर्तृत्व को सांख्यदर्शन में स्वीकार किया गया है वह नानावधि अनेकरूप व्यक्त का कर्तृत्व है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है। तीनों गुणों के परस्पर संघात की अनेकविधता के कारण सृष्टि में भी अनेकता, विषमता है। इस अनेकता और विषमता का कारण त्रिगुण है। पुरुष चूंकि अत्रिगुण और अपरिणामी अविकारी है अत: विषमता या अनेकता का वह उपादान नहीं बन सकता। पुरुष अचेतन सृष्टि का प्रयोक्ता है। प्रयुक्त्यनुसार भोग है। अविवेकवश वह प्रकृति-कर्तृत्व को अपना कर्तृत्व मान बैठता है। इसलिए दु:ख भोगता है। वास्तव में पुरुष का भोग प्रकृति के कर्तृत्व के कारण नहीं वरन स्वयं पुरुष के भोक्तृस्वरूप के कारण है। अत: कर्मवाद का उल्लंघन सांख्यदर्शन में नहीं है। फिर; कर्मवाद में कर्म का जो रूप है वह प्रकृति कर्ममात्र नहीं वरन कर्म का पुरुष-सम्बन्धरूप है। इस सम्बन्ध के द्वारा ही फल का रूप भी निर्धारित होता है। अत: कृतनाश और अकृतागत की प्रसक्ति ही नहीं होती।
सांख्यदर्शन की एक भूल की चर्चा करते हुए डॉ॰ शर्मा कहते हैं- सांख्य विशुद्ध चैतन्य स्वरूप पुरुष में तथा अन्त:करण प्रतिबिम्बित चैतन्य रूप जीव में भेद नहीं करता। बन्धन, संसरण और मोक्ष जीवों के होते हैं, किन्तु सांख्य पुरुष और जीव के भेद को भूलकर पुरुष को अनेक मानता है। साक्षी और निर्विकार पुरुष में भोक्तृत्व की कल्पना करता है। नित्य पुरुष को जन्म मरणशील मानता है।*
इस प्रसंग में भी सांख्यदर्शन में भूल या दोष नहीं है। जीव और पुरुष में भेद तो है, लेकिन यह भेद अस्तित्वभेद नहीं है। बिना पुरुषसंयुक्ति प्रतिबिम्बन या सन्निधि के जीव की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। केवल अन्त:करणोपाधि जीव नहीं कहा जाता। संसरण आदि में अन्त:करणादि तो वाहन रूप साधन है। संसरण तो पुरुष ही का होता है। पुरुष के नित्य निर्विकार होने में और संसरणशील होने में कोई विरोध नहीं है। अन्त:करणयुक्त होने पर पुरुष विकृत नहीं होता। वह चैतन्य स्वरूप ही रहता है। नित्य पुरुष के जन्ममरण का अर्थ पुरुष का उत्पत्ति-विनाश नहीं हैं। शरीर में व्यक्त होना जन्म है और ऐसा न होना अर्थात स्थूल शरीर अलग हो जाना मृत्यु। जन्म और मृत्यु शरीर में प्रवेश करने और निकल जाने को कहते हैं। प्रवेश करने वाले तत्त्व की नित्यता की इसमें हानि नहीं होती है।
सांख्य दर्शन भारत के ही नहीं विश्व के दार्शनिक चिन्तन के इतिहास में प्राचीनतम दर्शन है। केवल दर्शन ही नहीं ज्ञान की अन्य भारतीय विधाओं पर सांख्यदर्शन का प्रचुरता से प्रभाव परिलक्षित होता है। सांख्य के प्रकृति, पुरुष, विधाओं पर सांख्यदर्शन का प्रचुरता से प्रभाव परिलक्षित होता है। सांख्य के प्रकृति, पुरुष, त्रिगुण, महत आदि पारिभाषिक शब्दों का संस्कृत साहित्यकारों की रचनाओं में भी यथार्थ प्रयोग दिखता है। सांख्य जड़-चेतन-भेद से द्वैतवादी तथा अजाविनाशी तत्त्वों के भेद से त्रैतवादी है।

योग विद्या

योग विद्या : स्वरूप परिचय

योग' आर्य जाति की प्राचीनतम विद्या है, जिसमें विवाद को प्रश्रय नहीं मिला है। योग ही सर्वोत्तम मोक्षोपाय है। भव ताप सन्तप्त जीव को ईश्वर से मिलाने में योग ही भक्ति और ज्ञान का प्रधान साधन है। चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है- 'योगश्चित्तवृत्ति-निरोध:।' यद्यपि उपलब्ध योगसूत्रों के रचयिता महर्षि पतञ्जलि माने जाते हैं, किन्तु योग पतञ्जलि से भी प्राचीन अध्यात्म-प्रक्रिया है। संहिताओं, ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में अनेकत्र इसका संकेत एवं विवेचन उपलब्ध है। योग सांख्य-अभिमत तत्त्व को स्वीकारता है, परन्तु ईश्वर की सत्ता मानकर उसे छब्वीसवाँ तत्त्व मानता है। इसीलिए योग को सेश्वर सांख्य भी कहा जाता है। योग दर्शन सूत्र रूप है। इन सूत्रों के रचयिता महर्षि पतञ्जलि हैं। इन्होंने 195 सूत्रों में सम्पूर्ण योग दर्शन को विभाजित किया है।

‘योग’ अत्यन्त व्यापक विषय है। वेद, उपनिषद, भागवत आदि पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, अलंकार आदि ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं है, जिसमें 'योग' का उल्लेख न मिलता हो। पतंजलि कृत दर्शन में योग की व्यापक चर्चा होने के कारण उनका शास्त्र 'योग दर्शन' के नाम से विभूषित हुआ। योग की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ हैं। विश्लेषण के आधार भिन्न-भिन्न होने से वह अनेकविध नामों से पुकारा जाने लगा। 'योगसिद्धान्तचन्द्रिका' के रचयिता नारायणतीर्थ ने ‘योग’ को क्रिया योग, चर्या योग, कर्म योग, हठ योग, मन्त्र योग, ज्ञान योग, अद्वैत योग, लक्ष्य योग, ब्रह्म योग, शिव योग, सिद्धि योग, वासना योग, लय योग, ध्यान योग तथा प्रेमभक्ति योग द्वारा साध्य माना है एवं अनेक योगों से ध्रुवीकृत योग अर्थात समाधि को राजयोग नाम से अभिहित किया है।

योग शब्द से सारे सभ्य जगत्‌ में लोग परिचित हैं। ऐसी अवस्था में ऐसा प्रतीत होता है कि इसका वाच्यार्थ स्पष्ट होगा और इसकी परिभाषा सुनिश्चित होगी। परंतु ऐसा नहीं है। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों का भी चर्चा मिलता है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि योग की परिभाशा करना कितना कठिन काम है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो।

गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योग: कर्मसु कौशलम्' कर्मो में कुशलता को योग कहते हैं। स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध, चित्त की वृत्तियों के निरोध = पूर्णतया रुक जाने का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्त्त्वि का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्यों का क्या अर्थ होगा: योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो । विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्या विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।
इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिसपर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।

पतंजलि को कपिलोक्त सांख्यदर्शन ही अभिमत है। थोड़े में, इस दर्शन के अनुसार इस जगत्‌ में असंख्या पुरुष हैं और एक प्रधान या मूल प्रकृति। पुरुष चित्‌ है, प्रधान अचित्‌। पुरुष नित्य है और अपरिवर्तनशील, प्रधान भी नित्य है परंतु परिवर्तनशील। दोनों एक दूसरे से सदा पृथक हैं, परंतु एक प्रकार से एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत्‌ या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात्‌ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध की, अंत में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। इन सबके संयोग वियोग से इस विश्व का खेल हो रहा है। संक्षेप में, यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परंतु पुरुष ज्यों का त्यों रहता है। फिर भी एक बात होती है। जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उसपर उनका रंगीन प्रतिबिंब पड़ता है, इसी प्रकार पुरुष पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिंब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। आज अपने को धनी, निर्धन, बलवान्‌ दुर्बल, कुटुंबी, सुखी, दु:खी, आदि मान रहा है। अपने शुद्ध रूप से दूर जा पड़ा है। यह उसका भ्रम, अविद्या है। प्रधान से बने हुए इन पदार्थो ने उसके रूप को ढँक रखा है, उसके ऊपर कई तह खोल पड़ गई है। यदि वह इन खोलों, इन आवरणों को दूर फेंक दे तो उसका छुटकारा हो जायगा। जिस क्रम से बँधा है, उसके उलटे क्रम से बंधन टूटेंगे। पहले महाभूतों से ऊपर उठना होगा। अंत में प्रधान की ओर से मुँह फेरना होगा। यह बंधन वास्तविक नहीं है, परंतु बहुत ही दृढ़ प्रतीत होते हैं। जिस उपयोग से बंधनों को तोड़कर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम योग है। सांख्य के आचार्यो का कहना है: यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थ:-जैसे भी हो सके पुरुष और प्रधान के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं।


योग का यही दार्शनिक धरातल है: अविद्या के दूर होने पर जो अवस्था होती है उसका वर्णन विभिन्न आचार्यों और विचारकों के विभिन्न ढंग से किया है। अपने अपने विचार के अनुसार उन्होंने उसको पृथक नाम भी दिए हैं। कोई उसे केवल्य कहता है, कोई मोक्ष, कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी हे यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह-जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं है। थोड़े से शब्दों में एक और बात का भी चर्चा कर देना आवश्यक है। असंख्य पुरुषों के साथ पतंजलि के पुरुष विशेष नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। सांख्या के आचार्य ऐसा नहीं मानते। वस्तुत: मानने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि योगदर्शन में से वह थोड़े से सूत्र में कोई अंतर नहीं पड़ता। योग की साधना की दृष्टि से ईश्वर को मानने न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की सत्ता को माननेवाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान रूप से अधिकार रखते हैं।


विद्या और अविद्या, बंधन और उससे छुटकारा, सुख और दु:ख सब चित्त में हैं। अत: जो कोई अपने स्वरूप में स्थिति पाने का इच्छुक है उसको अपने चित्त को उन वस्तुओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठात्‌ प्रधान और उसके विकारों की ओर खींचती हैं और सुख दु:ख की अनुभूति उत्पन्न करती हैं। इस तरह चित्त को हटाने तथा चित्त के ऐसी वस्तुओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं हुआ करता। ज्यों ज्यों व्यक्ति योग की साधना में प्रवृत्त होता है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़ता है और ज्यों ज्यों वेराग्य बढ़ता है त्यों त्यों साधना में प्रवृत्ति बढ़ती है। जेसा पतंजलि ने कहा है: दृष्ट और अनुश्रविक दोनों प्रकार के विषयों में विरक्ति, गांधी जी के शब्दों में अनासक्ति, होनी चाहिए। स्वर्ग आदि, जिनका ज्ञान हमको अनुश्रुति अर्थात्‌ महात्माओं के वचनों और धर्मग्रंथों से होता है, अनुश्रविक कहलाते हें। योग की साधना को अभ्यास कहते हैं। इधर कई सौ वर्षो से साधुओं में इस आरम्भ में भजन शब्द भी चल पड़ा है।
चित्त जब तक इंद्रियों के विषयों की ओर बढ़ता रहेगा, चंचल रहेगा। इंद्रियाँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य वस्तु से संपर्क कराती रहेंगी। कितनों से वियोग भी कराती रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदि के उद्दीप्त होने के सैकड़ों अवसर आते रहेंगे। सुखश् दु:ख की निरंतर अनुभूति होती रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके विकारों के साथ जो बंधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़तर होते चले जाएँगे। अत: चित्त को इंद्रियों के विषयों से खींचकर अंतर्मुख करना होगा। इसके अनेक उपाय बताए गए हैं जिनके ब्योरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। साधारण मनुष्य के चित्त की अवस्था क्षिप्त कहलाती है। वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर फेंका फिरता है। जब उसको प्रयत्न करके किसी एक विषय पर लाया जाता है तब भी वह जल्दी से विषयंतर की ओर चला जाता है। इस अवस्था को विक्षिप्त कहते हैं। दीर्ध प्रयत्न के बाद साधक उसे किसी एक विषय पर देर तक रख सकता है। इस अवस्था का नाम एकाग्र है। चित्त को वशीभूत करना बहुत कठिन काम है। श्रीकृष्ण ने इसे प्रमाथि बलवत्‌-मस्त हाथी के समान बलवान्‌-बताया है।


चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ीसंस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ीसंस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इंद्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है जैसा कभी कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ीसंस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभयास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। पतंजलि ने इतना ही कहा है: स्थिर सुखमासनम्‌: जिसपर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है कि आसनसिद्धि के लिये स्वास्थ्य संबंधी कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
युक्ताहार बिहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दु:खहा।।

खाने, पीने, सोने, जागने सभी का नियंत्रण करना होता है। प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के संबंध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदंड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आखों से देखी जा सकती है। करीब करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करनेवालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये औरऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ीसंस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्रणयाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत्‌ हो जाती हैं।

प्राणयाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात्‌ इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है। प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसंग में यह उपदेश दिया जा चुका है परंतु प्राणायम तक पहँचकर इसकों विशेष रूप से दुहराने की आवश्यकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग है। खेद की बात है कि कुछ अभयासी यहीं रुक जाते हैं। जो लोग आगे बढ़ते हैं उनके मार्ग को तीन विभागों में बाँटा जाता है: धारणा, ध्यान और समाधि। इन तीनों को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा वह उपाय है जिससे चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। यहाँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परंतु वस्तुत: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कुछ का चर्चा उपनिषदों में आया है। वैदिक वाड्मय में विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। किसी मंत्र के जप, किसी देव, देवी या महात्मा के विग्रह या सूर्य, अग्नि, दीपशिखा आदि को शरीर के किसी स्थानविशेष जेसे ्ह्रदय, मूर्घा, तिल अर्थात दोनों आँखों के बीच के बिंदु, इनमें से किसी जगह कल्पना में स्थिर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय किए जायँ वे सभी धारणा के अंतर्गत हैं। जेसा कि कुछ उपायों को बतलाने के बाद पतंजलि ने यह लिख दिया है यथाभिमत ध्यानाद्वा-जो वस्तु अपने को अच्छी लगे उसपर ही चित्त को एकाग्र करने से काम चल सकता है। किसी पुराण में ऐसी कथा आई है कि अपने गुरु की आज्ञा से किसी अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी भैंस के माध्यम से चित्त को एकाग्र करके समाधि प्राप्त की थी।
धारणा की सबसे उत्तम पद्धति वह है जिसे पुराने शब्दों में नादानुसंधान कहते हैं। कबीर और उनके परवर्ती संतों ने इसे सुरत शब्द योग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार चंचल मृग वीणा के स्वरों से मुग्ध होकर चौकड़ी भरना भूल जाता है, उसी प्रकार साधक का चित्त नाद के प्रभाव से चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाता है। वह नाद कौन सा है जिसमें चित्त की वृत्तियों को लय करने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास कैसे किया जाता है, ये बातें तो गुरुमुख से ही जानी जाती हैं। अंतर्नाद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ओंकार, कहते हैं। प्रणव वस्तुत: अनुच्चार्य्य है। उसका अनुभव किया जा सकता है, वाणी में व्यंजना नहीं, नादविंदूपनिषद् के शब्दों में:
ब्रह्म प्रणव संयानं, नादों ज्योतिर्मय: शिव:।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव।।

प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। आदि शब्द आंकार को परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है। योगियों में सर्वत्र ही इसकी महिमा गाई गई है। बाइबिल के उस खंड में, जिसे सेंट जान्स गास्पेल कहते हैं, पहला ही वाक्य इस प्रकार हैं, आरंभ में शब्द था। वह शब्द परमात्मा के साथ था। वह शब्द परमात्मा था। सूफी संत कहते हैं हैफ़ दर बंदे जिस्म दरमानी, न शुनवी सौते पाके रहमानी दु:ख की बात है कि तू शरीर के बंधन में पड़ा रहता है और पवित्र दिव्य नाद को नहीं सुनता।

चित्त की एकाग्रता ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों की शक्ति से परिचित नहीं है। उनसे न तो काम लेता है और न लेना चाहता है। यह बात सुनने में आश्चर्य की प्रतीत होती है, पर सच है। मान लीजिए, हमारी चक्षु या श्रोत्र इंद्रिया की शक्ति कल आज से कई गुना बढ़ जाय। तब न जाने ऐसी कितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी जिनको देखकर हम काँप उठेंगे। एक दूसरे के भीतर की रासायनिक क्रिया यदि एक बार देख पड़ जाय तो अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति की ओर से घृणा हो जायगी। हमारे परम मित्र पास की कोठरी में बैठे हमारे संबंध में क्या कहते हैं, यदि यह बात सुनने में आ जाय तो जीना दूभर हो जाय। हम कुछ वासनाओं के पुतले हैं। अपनी इंद्रयों से वहीं तक काम लेते हैं जहाँ तक वासनाओं की तृप्ति हो। इसलिये इंद्रियों की शक्ति प्रसुप्त रहती है परंतु जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का न्यूनाधिक शमन होता है तब इंद्रियाँ निर्बाध रूप से काम कर सकती हैं और हमको जगत्‌ के स्वरूप के वास्तविक रूप का कुछ परिचय दिलाती हैं। इस विश्व में स्पर्श, रूप, रस और गंध का अपार भंडार भरा पड़ा है जिसकी सत्ता का हमको अनुभव नहीं हैं। अंर्तर्मुख होने पर बिना हमारे प्रयास के ही इंद्रियाँ इस भंडार का द्वार हमारे सामने खोल देती हैं। सुषुम्ना में नाड़ियों की कई ग्रंथियाँ हैं, जिनमें कई जगहों से आई हुई नाड़ियाँ मिलती हैं। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। इनमें से विशेष रूप से छह चक्रों का चर्चा योग के ग्रंथों में आता है। सबसे नीचे मुलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाँ सुषुम्ना का आरंभ होता है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो तिल के स्थान पर है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। थोड़ा और ऊपर चलकर सुषुम्ना मस्तिष्क के नाड़िसंस्थान से मिल जाती है। मस्तिष्क के उस सबसे ऊपर के स्थान पर जिसे शरीर विज्ञान में सेरेब्रम कहते हैं, सहस्रारचक्र है। जैसा कि एक महात्मा ने कहा है:
मूलमंत्र करबंद विचारी सात चक्र नव शोधै नारी।।

योगी के प्रारंभिक अनुभवों में से कुछ की ओर ऊपर संकेत किया गया है। ऐसे कुछ अनुभवों का उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में भी किया गया है। वहाँ उन्होंने कहा है कि अनल, अनिल, सूर्य, चंद्र, खद्योत, धूम, स्फुलिंग, तारे अभिव्यक्तिकरानि योगे हैंश् यह सब योग में अभिव्यक्त करानेवाले चिह्न हैं अर्थात्‌ इनके द्वारा योगी को यह विश्वास हो सकता है कि मैं ठीक मार्ग पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समाधि तक पहुँचते पहुँचते योगी को जो अनुभव होते हैं उनका वर्णन करना असंभव है। कारण यह है कि उनका वर्णन करने के लिये साधारण मनुष्य को साधारण भाषा में कोई प्रतीक या शब्द नहीं मिलता। अच्छे योगियों ने उनके वर्णन के संबंध में कहा है कि यह काम वैसा ही है जैसे गूँगा गुड़ खाय। पूर्णांग मनुष्य भी किसी वस्तु के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता, फिर गूँगा बेचारा तो असमर्थ है ही। गुड़ के स्वाद का कुछ परिचय फलों के स्वाद से या किसी अन्य मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर दिया भी जा सकता है, पर जैसा अनुभव हमको साधारणत: होता ही नहीं, वह तो सचमुच वाणी के परे हैं।

समाधि की सर्वोच्च भूमिका के कुछ नीचे तक अस्मिता रह जाती है। अपनी पृथक सत्ता अहम्‌ अस्मि = मैं हूँ = यह प्रतीति रहती है। अहम्‌ अस्मि = मैं हूँ की संतान अर्थात निरंतर इस भावना के कारण वहाँ तक काल की सत्ता है। इसके बाद झीनी अविद्या मात्र रह जाती है। उसके शय होने की अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है जिसमें अविद्या का भी क्षय हो जाता है और प्रधान से कल्पित संबंध का विच्छेद हो जाता है। यह योग की पराकाष्ठा है। इसके आगे फिर शास्त्रार्थ का द्वार खुल जाता है। सांख्य के आचार्य कहते हैं कि जो योगी पुरुष यहाँ तक पहुँचा, उसके लिये फिर तो प्रकृति का खेल बंद हो जाता है। दूसरे लोगों के लिये जारी रहता है। वह इस बात को यों समझाते हैं। किसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यक्ति उसे देख रहे हैं। एक व्यक्ति उनमें ऐसा भी है जिसको उस नृत्य में कोई अभिरुचि नहीं है। वह नर्तकी की ओर से आँख फेर लेता है। उसके लिये नृत्य नहीं के बराबर है। दूसरे के लिये वह रोचक है। उन्होंने कहा है कि उस अजा के साथ अर्थात नित्या के साथ अज एकोऽनुशेते = एक अज शयन करता है और जहात्येनाम्‌ भुक्तभोगाम्‌ तथान्य:-उसके भोग से तृप्त होकर दूसरा त्याग देता है।

अद्वैत वेदांत के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात्‌ ओर आसीन: संभवात्‌ जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है।

साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन्‌ इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात्‌ प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कह