Tuesday 29 August 2017

अनिर्वचनीय ख्यातिवाद -आदि शंकराचार्य का भ्रम विचार इस नाम से जाना जाता है,

मुख्य मेनू खोलें  खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखें अनिर्वचनीय ख्यातिवाद भ्रम सम्बन्धी विचार को ख्याति विचार कहते है।  अनिर्वचनीय ख्यातिवाद संपादित करें ----- आदि शंकराचार्य का भ्रम विचार इस नाम से जाना जाता है, इनके अनुसार ब्रह्म अविधा अहि, अविधा तथा इन्द्रियादिदोष के कारण सीपी मॅ रजत की प्रतीति होती है उनके अनुसार अविधा के दो पक्ष है सिद्धांत संपादित करें 1 आवरण 2 विक्षेप आवरण शक्ति वस्तु के यथार्थ स्वरूप को ढक लेती है विक्षॆप शक्ति वस्तु को किसी अन्य वस्तु रूपमें प्रकाशित करती है यह प्रक्रिय अध्यास कहलाती है अध्यासमेंअधिष्टान तथा अध्यस्त में तादात्म्य सबंध स्थापित हो जाता है भ्रम- ज्ञानमें दोनोंमेंसे किसी एक की प्रतीति होती है, भ्रम में केवल अध्यस्त प्रतीति होती है , ज्ञानमेंकेवल अधिष्ठान की प्रतीति होती है शकंराचार्य के अनुसार सीपी के रजत रूप ज्ञानमें सीप अधिष्ठान तथा रजत अध्यस्त है इस भ्रांत ज्ञानमें रजत सत नही है क्यॉकि कालांत मे इसका बाध हो जाता है पुनः यह बन्ध्यापुत्र की भांति असत भी नही है क्योंकि वर्तमान मॆ इसकी प्रतीति होती है इसे जैन मत के समान सत असत भी नही मान सकते है क्योंकि ऐसा मानने पर आत्म विरोधाभास की स्थिति पैदा होगी इस प्रकार भ्रम का स्वरूप सत तथा असत से विलक्षण होने के चलते यह अनिर्वचनीय ख्यातिवाद कहलाता है यहाँ उल्लेखनीय है कि सीपी का रजत रूप मे ज्ञान होना ही केवल भ्रम नही है अपितु सीपी कि सीपी के रूप मे वास्तविक तथा सत समझना भी भ्रम है यहाँ सीपीमें रजत का ज्ञान व्यक्तिगत भ्रम है यह प्रतिभास के स्तर पर होता है इसे तुराविधा कहते हैं दूसरी तरफ सीपी को सीपी मान लेना समष्टिगत भ्रम है यह व्यवहार का स्तर है इसे मूलाविधा कहते है ये दोनों प्रकार के भ्रम अनिर्वचनीय है यहाँ पहले भ्रम का खण्डन व्यवहार से जबकि दूसरे का परमार्थ से होता है आलोचना संपादित करें 1 रामानुज के अनुसार भ्रम को अनिर्वचनीय कहना भी उस के निर्वचन के समान है अतः अनिर्वचनीयता की धारणा आत्म विरोधाभासी है 2 रामानुज के अनुसार कोई वस्तु या तो सत होती है या असत, अनिर्वचनीय जैसी कोई तीसरी कोटि नही होती है 3 सीपी मे रजत का ज्ञान प्रातिभासिक स्तर पे सत है, अर्थात यह कुछ क्षणो हेतु सत है ऐसी स्थिति मे इस को भ्रम नही कहा जा सकता है 4 ब्रह्म की समस्या का विवेचन करने हेतु अविधा का सहारा लेते है, सत पे आवरण डालना और असत को उस पर विक्षेपित करना ये माया के दो कार्य है परंतु अविधा की स्वयं अपनी सत्ता नही है इस स्थिति मॅ वह आवरण –विक्षॆप जैसे कार्य नही कर सकती है RELATED PAGES मायावाद विद्या और अविद्या ख्यातिवाद Last edited 1 year ago by an anonymous user  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

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