Tuesday 29 August 2017

विद्या

Skip to content Skip to main navigation Skip to 1st column Skip to 2nd column SUSANSKRIT  खोज... मुख्य पृष्ठआशयचिंतनसुभाषितसंस्कृतबाल सुरभिसूक्तियांविशेषवेब संसाधन विद्या श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि   श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि । संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि वुद्धिः किल कामधेनुः ॥ शुद्ध बुद्धि सचमुच कामधेनु है, क्यों कि वह संपत्ति को दोहती है, विपत्ति को रुकाती है, यश दिलाती है, मलिनता धो देती है, और संस्काररुप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है । Write comment (0 Comments) हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता   हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता । कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥ जो चोरों के नजर पडती नहि, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहि होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ? Write comment (0 Comments) ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव   ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते । दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥ यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहि सकता, जिसे चोर ले जा नहि सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहि होता । Write comment (0 Comments) विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च   विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये । आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥ शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या – ये दो प्राप्त करने योग्य विद्या हैं । इन में से पहली वृद्धावस्था में हास्यास्पद बनाती है, और दूसरी सदा आदर दिलाती है । Write comment (0 Comments) सर्वद्रव्येषु विद्यैव   सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् । अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥ सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहि जा सकता; उसका मूल्य नहि हो सकता, और उसका कभी नाश नहि होता । Write comment (0 Comments) विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं   विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥ विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहि । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है । Write comment (0 Comments) मातेव रक्षति पितेव हिते   मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् । लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम् किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥ विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहि करती ? Write comment (0 Comments) सद्विद्या यदि का चिन्ता   सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे । शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥ सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहि । तोता भी "राम राम" बोलने से खुराक पा हि लेता है । Write comment (0 Comments) न चोरहार्यं न च राजहार्यं   न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥ विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहि सकता, राजा ले नहि सकता, भाईयों में उसका भाग नहि होता, उसका भार नहि लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है । Write comment (1 Comment) अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं   अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति । व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ॥ हे सरस्वती ! तेरा खज़ाना सचमुच अवर्णनीय है; खर्च करने से वह बढता है, और संभालने से कम होता है । Write comment (0 Comments) << प्रारंभ करना < पीछे 1 2 3 4 5 अगला > अंत >> पृष्ठ 2 का 5 सुभाषित अभय ऐक्य भक्ति बुद्धिमान चरित्र पूजन दान दया धर्म दुर्जन गृहस्थी गुरु ज्ञान ईश्वर काल कर्म मन मूर्ख परोपकार राजधर्म राष्ट्र सज्जन संतोष सत्संग सत्य शील सुख-दुःख स्वभाव स्वार्थ तप उद्यम विद्या विनय अन्य सदस्य मेनु पोस्ट करें रजिस्ट्रेशन और लेखन पाक्षिक चिंतन हिन्दी टाइपपॅड सम्पर्क करें Copyright © 2005 - 2017 SuSanskrit. Designed by JoomlArt.com Joomla! is Free Software released under the GNU General Public License.  [+]  Type in 

No comments:

Post a Comment