Thursday 31 August 2017

धर्म सूत्र : विहंगम दृष्टि

धर्म सूत्र : विहंगम दृष्टि

धर्म सूत्र सम्प्रति गृह्यसूत्रों की शृंखला के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के समान ही, माना जाता है कि प्रत्येक शाखा के धर्मसूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वर्तमान समय में सभी शाखाओं के धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धि का एक कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवलित हो गया। इसका दूसरा कारण यह माना जाता है कि सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्मसूत्रों का संभवत: प्रणयन ही नहीं किया गया, क्योंकि इन शाखाओं के द्वारा किसी अन्य शाखा के धर्मसूत्रों को ही अपना लिया गया था। पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दिया है।

धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य आदि का विधान है। जैसा कि नाम से ही विदित है कि धर्मसूत्रों में व्यक्ति के धर्मसम्बन्धी क्रियाकलापों पर विचार किया गया है, किन्तु धर्मसूत्रों में प्रतिपादित धर्म किसी विशेष पूजा-पद्धति पर आश्रित न होकर समस्त आचरण व व्यवहार पर विचार करते हुए सम्पूर्ण मानवजीवन का ही नियन्त्रक है।

'धर्म' शब्द का प्रयोग वैदिक संहिताओं तथा उनके अनुवर्ती साहित्य में प्रचुर मात्रा प्रयुक्त  है। यहाँ पर यह अवधेय है कि अनुवर्ती साहित्य में धर्म शब्द का वह अर्थ संहिता की दृष्टिसे सीमित होकर आचार निष्ठ हो गया है ।  संहिताओं में धर्म शब्द विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त है। अथर्ववेद में पृथिवी के ग्यारह धारक तत्त्वों की गणना ‘पृथिवीं स्धारयन्ति’ कहकर की गयी है। इसी प्रकार ॠग्वेद* में ‘तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्’ कहकर यही भाव प्रकट किया गया है। इस प्रकार यह धर्म किसी देशविशेष तथा कालविशेष से सम्बन्धित न होकर ऐसे तत्वों को परिगणित करता है जो समस्त पृथिवी अथवा उसके निवासियों को धारण करते हैं। वे नियम शाश्वत हैं तथा सभी के लिए अपरिहार्य हैं।

धर्म और धर्म सूत्र

छान्दोग्य उपनिषद में धर्म के तीन स्कन्ध गिनाए गये हैं। इनमें यज्ञ, अध्ययन तथा दान प्रथम, तप द्वितीय तथा आचार्यकुल में वास तृतीय स्कन्ध है।

धर्म का मूल वेद को माना जाता है। मनु ने तो इस विषय में 'धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:' तथा 'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' आदि घोषणा करके वेदों को ही धर्म का मूल कहा है।* गौतम धर्मसूत्र में तो प्रारम्भ में ही 'वेदों धर्ममूलम'।* ‘तद्विदां च स्मृतिशीले’* सूत्रों द्वारा यही बात कही गयी है। ये दोनों सूत्र मनुस्मृति के 'वेदोंऽखिलो धर्ममूलम स्मृतिशीले च तद्विदाम्' श्लोकांश के ही रूपान्तर मात्र हैं। इसी प्रकार वासिष्ठ धर्मसूत्र* में भी 'श्रुतिस्मृतिविहितो धर्म:' कहकर धर्म के विषय में श्रुति तथा स्मृति को प्रमाण माना है। बौधायन धर्मसूत्र में श्रुति तथा स्मृति के अतिरिक्त शिष्टाचरण को भी धर्म का लक्षण कहकर मनुस्मृति में प्रतिपादित श्रुति, स्मृति तथा शिष्टाचरण को ही सूत्र रूप में निबद्ध किया है। इस प्रकार धर्म के लक्षण में श्रुति के साथ स्मृति तथा शिष्टाचरण को भी सम्मिलित कर लिया गया। दर्शनशास्त्र में धर्म का लक्ष्य लोक-परलोक की सिद्धि* कहकर अत्यन्त व्यापक कर दिया गया तथा समस्त मानव-जीवन को ही इसके द्वारा नियन्त्रित कर दिया गया। वैशेषिक दर्शन के उक्त लक्षण का यही अर्थ है कि समस्त जीवन का, जीवन के प्रत्येक श्वास एवं क्षण का उपयोग ही इस रीति से किया जाए कि जिससे अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सिद्धि हो सके। इसमें ही अपना तथा दूसरों का कल्याण निहित है। धर्म मानव की शक्तियों एवं लक्ष्य को संकुचित नहीं करता अपितु वह तो मनुष्य में अपरिमित शक्ति देखता है जिसके आधार पर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सिद्धि नामक लक्ष्य इतना महान है कि इससे बाहर कुछ भी नहीं है। इसे प्राप्त करने की नि:सीम सम्भावनाएँ मनुष्य में निहित हैं। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक पक्ष पर धर्म विचार करता है तथा अपनी व्यवस्था देता है।

धर्म सूत्र का महत्व

धर्मसूत्रों का महत्व उनके विषय-प्रतिपादन के कारण है। सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम-पद्धति है। धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-व्यवस्था के आधार पर ही विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें वर्णों के कर्तव्यों तथा अधिकारों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। धर्मसूत्रकार आपत्काल में भी मन से ही आचार-पालन पर बल देते हैं। अयोग्य तथा दूषित व्यक्ति से परिग्रह का सर्वथा निषेध किया गया है। वर्णों एवं आश्रमों के कर्तव्य-निर्धारण की दृष्टि से भी धर्मसूत्र पर्याप्त महत्व रखते हैं। धर्मसूत्रों में आश्रमों का महत्व पर्याप्त है अत: धर्मसूत्रों में एतद्विषयक पर्याप्त निर्देश दिये गये हैं।

सभी आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम है तथा उसका आधार है विवाह। धर्मसूत्रों में विवाह पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यहाँ पर यह विशेष है कि अष्टविध विवाहों में सभी धर्मसूत्रकारों ने न तो एक क्रम को अपनाया तथा न ही उनकी श्रेष्ठता के तारतम्य को सभी ने स्वीकार किया। प्रतोलोम विवाह की सर्वत्र निन्दा की गयी है। विवाहोपरान्त पति-पत्नी के धार्मिक कृत्य एक साथ करने का विधान है। धन-सम्पत्ति पर दोनों का समान रूप से अधिकार माना गया है। गृहस्थ के लिए पञ्च महायज्ञ तथा सभी संस्कारों की अनिवार्यता यहाँ पर प्रतिपादित की गयी है।

धर्मसूत्रकार का स्पष्ट मन्तव्य है  कि मर्यादा-उल्लंघन से समाज में वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। धर्मसूत्रकारों ने वर्णसंकर जातियों को भी मान्यता प्रदान करके उनकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण कर दिया तथा वर्णव्यवस्था का पालन कराकर वर्णसंकरता को रोकने का दायित्व राजा को सौंप दिया गया। गौतम धर्मसूत्र* में जात्युत्कर्ष तथा जात्यपकर्ष का सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया गया है।

इस प्रकार वर्णाश्रम के विविध कर्तव्यों का प्रतिपादन करके इसके साथ पातक, महापातक, प्रायश्चित्त, भक्ष्याभक्ष्य, श्राद्ध, विवाह और उनके निर्णय, साक्षी, न्यायकर्ता, अपराध, दण्ड, ॠण, ब्याज, जन्म-मृत्युविषयक अशौच, स्त्री-धर्म आदि ऐसे सभी विषयों पर धर्मसूत्रों में विचार किया गया है, जिनका जीवन में उपयोग है।

आचारः परमो धर्म:

आचार ही मानव का आधार है; वही धर्म का तत्व है, इस बात को धर्मशास्त्रकार भली-भाँति जानते थे। मनुस्मृति में तो आचार पर यहाँ तक बल दिया गया है कि उसे ही 'परम धर्म' कह दिया गया तथा कहा गया है कि आचारभ्रष्ट व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकता। इसी प्रकार का विचार वसिष्ठ धर्मसूत्र* में व्यक्त किया गया है। हमें धर्म को अपने व्यवहार में उतारना चाहिए, न कि केवल शब्दमात्र में। यद्यपि सदाचार का पालन अत्यन्त अपरिहार्य है। तभी समाज स्थिर रह सकता है, किन्तु इसके साथ ही यह तथ्य भी स्मरणीय है कि सदाचार का पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य है। सतत प्रयत्न करते रहने पर भी आचरण-भ्रष्टता सम्भव है तथा कुछ व्यक्ति जानबूझकर भी समाज-विरोधी तथा शास्त्र-विरोधी आचरण कर देते हैं। आचारहीनता किसी भी कारण से हो, ऐसा व्यक्ति पतित कहलाता है।

धर्मसूत्रकार के मन्तव्य में  ऐसे व्यक्ति को दुराचरण अथवा उसके अपराध का दण्ड तो मिलना ही चाहिए, किन्तु यदि वह मन से अपने पापकर्म पर पाश्चाताप करता है तो पुन: उसे श्रेष्ठ बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए न कि सदैव के लिए ही उसके जीवन को अन्धकारमय बना देना चाहिए। इसी उद्देश्य से धर्मसूत्रकारों ने दुष्टाचारी के लिए अनेक प्रकार के दण्डों एवं प्रायाश्चितों का विधान किया जाता है जिससे वह व्यक्ति शुद्ध हो सके। धर्मसूत्रों की दृष्टि में अपराधी व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं हैं, बल्कि वह स्नेह एवं सहानुभूति का पात्र है।

धर्मसूत्रकारों की स्थापना  के मूल में कर्म सिद्धान्त हैं, जिसके अनुसार किया हुआ कोई भी शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होता, अपितु अच्छे-बुरे किसी न किसी फल को अवश्य ही उत्पन्न करता है। उन कर्मों का फल चाहे इसी जन्म में मिल जाए, चाहे अगले जन्म में, किन्तु वह मिलेगा अवश्य। इसलिए वर्तमान तथा भावी दोनों ही जन्म शुद्ध हो सकें, यही धर्मसूत्रकारों का यत्न है। आचारशास्त्र के मूल में कर्मसिद्धान्त ही है। यही पाप को दूर करने की प्रेरणा देता है। वर्णाश्रम धर्म के साथ ही धर्मसूत्रों में राजधर्म का भी गहन विवेचन किया गया है। राजा में दैवीय अंश की कल्पना की गयी है। धर्मसूत्रों में राजा के कर्तव्य, अधिकार एवं समाजविरोधी तत्वों के लिए दण्ड-व्यवस्था पर भी विचार किया गया है। धर्म तथा अर्थ के विरोध की स्थिति में राजा को धर्म का ही पक्ष लेना चाहिए। राजा के लिए युद्धादि के नियमों का उल्लेख भी इन ग्रन्थों में किया गया है यथा ब्राह्मण, पीठ दिखाने वाला, भूमि पर बैठने वाला ये अवध्य कहे गये हैं। इस प्रकार धर्मसूत्र राजशास्त्र के प्रमुख विषयों तथा उपादानों की सामान्य विवेचना प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार अपने समय में वर्णाश्रम के कर्तव्यों का निर्धारण करके धर्मसूत्रकारों ने समाज को उचित दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।

धर्मसूत्र तथा धर्मशास्त्र में भेद

(1) अधिकतर धर्मसूत्र या तो किसी सूत्रचरण से सम्बद्ध कल्प के भाग है या गृह्यसूत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, जबकि धर्मशास्त्र किसी भी सूत्रचरण से सम्बन्धित नहीं हैं।

(2) धर्मशास्त्र पद्यमय हैं, जबकि धर्मसूत्र गद्य या गद्य-पद्य में होते हैं।

(3) धर्मसूत्रों में अपनी शाखा के वेद अथवा चरण के प्रति विशेष आदर विशेष  है, जबकि धर्मशास्त्रों में ऐसा नहीं है।

(4) धर्मसूत्रों में विषय-विवेचन का कोई निश्चित क्रम नहीं रहता, जबकि धर्मशास्त्रों में सभी विषयों का आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त इन तीन भागों में विभाजन करके क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित विवेचन  है।

प्रमुख धर्मसूत्र

गौतम धर्मसूत्र
बौधायन धर्मसूत्र
वसिष्ठ धर्मसूत्र
आपस्तम्ब धर्मसूत्र
हारीत धर्मसूत्र
विष्णु धर्मसूत्र
हिरण्यकेशि धर्मसूत्र
वैखानस धर्मसूत्र

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