Thursday 31 August 2017

सांख्य दर्शन

सांख्य दर्शन


भारतीय दर्शन की एक सामान्य विशेषता है उसका मानव केन्द्रित होना। सांख्य दर्शन भी मानव केन्द्रित है। तत्त्व गणना या विवेचना साध्य नहीं है। यह साधन है मानव के अन्तर्निहित और स्पष्ट उद्देश्य की प्राप्ति का। उद्देश्य संसार के दु:खों से स्वयं को मुक्त करने की मानवी प्रवृत्ति ही रही है। अत: तदनुरूप ही सांख्याचार्यों ने उन विषयों की विवेचना को अधिक महत्व दिया, जिनसे उनके अनुसार उद्देश्य की प्राप्ति हो सके। मानव मात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। संसार में दु:ख है- इस ज्ञान के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, दुख से मुक्ति हेतु प्रवृत्ति भी प्रमाणापेक्षी नहीं है। दु:खनिवृत्ति के मानवकृत सामान्य प्रयासों से तात्कालिक निवृत्ति तो होती है लेकिन ऐकान्तिक और आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं होता। दु:ख क्यों होता है, कैसे उत्पन्न होता है, मानव दु:ख से क्यों मुक्त होना चाहता है- आदि प्रश्न गंभीर चिन्तनापेक्षी और उत्तरापेक्षी हे। यह चिन्तन और तदनुसार उत्तर ही दु:ख निवृत्ति में साधक हो सकते हैं। यह क्षेत्र ही 'ज्ञान' का है। अत: सांख्याचार्य अपनी दार्शनिक विवेचना का आरंभ ही दु:ख-विवेचना से करते हैं।
अथ त्रिविधदु:खात्यन्तिकनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ:,
दु:खत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ॥
दु:खनिवृत्ति की जिज्ञासा ज्ञाता-जिज्ञासु की अभीप्सा है कुछ जानने की। लेकिन कुछ जाना जा सकता है, जाना गया कुछ सत्य है, प्रामाणिक है- ऐसा मानने के लिए ज्ञान की सीमा और ज्ञान की साधनभूत कसौटियों का निर्धारण आवश्यक है। यही प्रमाण मीमांसा का क्षेत्र है।
सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं।
इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। 'कपिल दर्शन' में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है।  'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है।

सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं। 'हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविध रूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।
संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते।
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥
प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं।  'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शांति पर्व में कहा गया है-
दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:।
कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥
अर्थात जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है।

सांख्य दर्शन प्राचीनता और परम्परा

महाभारत में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूप वर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शन विशेष के लिए नहीं वरन मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्य दर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है।

सांख्य का प्रमुख दोष उसका द्वैतवाद है। प्रकृति और पुरुष को दो नितान्त भिन्न और स्वतंत्र तत्त्व मानना सांख्य की प्रमुख भूल है। यदि पुरुष और प्रकृति दो स्वतंत्र और निरपेक्ष तत्व हैं तो उनका किसी प्रकार संयोग नहीं हो सकता और संयोग के अभाव में सर्ग नहीं हो सकता।
क्या द्वैतवाद को दोष कहा जा सकता है? सृष्टि में जहां तक मानवी बुद्धि के तर्क विचार-प्रणाली का क्षेत्र है वहां तक न्यूनतम द्वैत ही स्थापित है। सांख्यदर्शन तर्कबुद्धि और युक्तिसंगत चिन्तन-प्रणाली है। प्रत्यक्ष से सृष्टि में जड़ चेतन सिद्ध होता है। सृष्टि में व्यक्त जड़ चेतन परस्पर इतने भिन्न हैं कि इनमें किसी एक को मूल कारण मानने का कोई युक्तिसंगत आधार तो हो ही नहीं सकता। हां, यह माना जा सकता है कि जड़ और चेतन कामूल कारण अन्य कोई ऐसा तत्व हो सकता है जिससे इन दोनों की उत्पत्ति होती हो, जो न तो जड़ कहा जा सकता है और न चेतन। लेकिन तब उसमें जड़ और चेतन की उत्पत्ति का उपादान भूत कुछ अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। दर्शन के अब तक के साहित्य में जड़ चेतन से भिन्न किसी तीसरे तत्व की स्वीकृति का कोई प्रमाण नहीं मिलता। सृष्टि का मूल कारण जड़ या चेतन एक ही कारण किसी भी युक्ति से सिद्ध नहीं होता। हां, मान लेने की बात अलग है। मूल कारण यदि बुद्धि की तर्क प्रणाली से परे का विषय है और उसे केवल मान लेना ही संभव है तब प्रत्यक्षानुमान से गम्य आधार पर तदनुसार मानना ही युक्ति संगत है। जड़ से चेतन या चेतन से जड़ की उत्पत्ति अकल्पनीय है। अत: जड़ चेतन द्वैतवाद ही युक्तिसंगत है। यह दोष लेशमात्र भी नहीं है।
प्रकृति और पुरुष दो सर्वथा भिन्न और स्वंतत्र तत्व हैं- ऐसा मानने पर उनमें संयोग संभव नहीं है, इस प्रकार की आलोचना भी सांख्यमत को सही रूप में न समझ पाने के कारण ही है। सांख्यमत में प्रकृति और पुरुष अपनी सत्ता के लिए परस्पराश्रित नहीं है। न प्रकृति पुरुष को उत्पन्न करती है ओर न पुरुष प्रकृति को। सत्ता की दृष्टि से स्वंतत्र और भिन्न होने हुए भी ये प्रथक नहीं रहते। ये दोनों तत्त्व परस्पर असंयुक्त रहते हैं- ऐसा सांख्य कभी नहीं कहता। अत: संयोग संभव है या नहीं- ऐसा प्रश्न ही निर्मूल है। संयोग तो है। जब संयोग है तो निश्चय ही प्रकृति और पुरुष में इसकी योग्यता भी है। अभिव्यक्ति के लिए दोनों तत्त्व परस्परापेक्षी हैं- यह सांख्य का स्पष्ट मत है।

डॉ॰ चन्द्रधर शर्मा लिखते हैं कि प्रकृति अचेतन है और पुरुष उदासीन है और इन दोनों को मिलाने वाला कोई तत्त्व नहीं है। अत: दोनों का मिलन असम्भव है। इस प्रकार की आलोचना प्रकृति-पुरुष के अन्य लक्षणों को अनदेखा करके ही की जा सकती है। पुरुष में भोक्तृभाव और कैवल्यार्थप्रवृत्त् को सांख्यमत में स्वीकार किया गया है। अत: पुरुष की उदासीनता को विशेष अर्थ में ही समझना होगा। उदासीनता का पुरुष में उल्लेख कर्तृत्व निषेधपरक है।
डॉ॰ मुसलगांवकर ने ठीक ही कहा है-'सूत्रकार ने आत्मा को उदासीन अर्थात् अकर्ता कहकर उसके अपरिणामित्वरूप है अद्रष्टृत्वरूप नहीं'। सांख्य को निरीश्वर मानने पर संयोग का कारण पुरुष के भोक्तृस्वरूप तथा प्रकृति का विषयरूप होना बताया जा सकता है। प्राचीन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि सांख्यमत में पुरुष (जीवात्मचेतना) प्रकृति में संयोग हेतु तीसरा तत्त्व मान्य है। दोनों स्थितियों में प्रकृति-पुरुष-संयोग तो है। इनके क्रमश: अचेतन तथा उदासीनता के साथ जो अन्य लक्षण बताये गये हैं। उनसे इनके मिलन की संभावना स्पष्ट है। सांख्य ने प्रकृति में कर्तृत्व तथा पुरुष में भोक्तृत्व का आरोप करके कर्मवाद को ठुकरा दिया है और कृतनाश और अकृतागम के दोषों को निमन्त्रण दिया है।
इस आलोचना का आधार सांख्य पर असांख्यीय मतारोपण ही हो सकता है। प्रकृति में जिस कर्तृत्व को सांख्यदर्शन में स्वीकार किया गया है वह नानावधि अनेकरूप व्यक्त का कर्तृत्व है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है। तीनों गुणों के परस्पर संघात की अनेकविधता के कारण सृष्टि में भी अनेकता, विषमता है। इस अनेकता और विषमता का कारण त्रिगुण है। पुरुष चूंकि अत्रिगुण और अपरिणामी अविकारी है अत: विषमता या अनेकता का वह उपादान नहीं बन सकता। पुरुष अचेतन सृष्टि का प्रयोक्ता है। प्रयुक्त्यनुसार भोग है। अविवेकवश वह प्रकृति-कर्तृत्व को अपना कर्तृत्व मान बैठता है। इसलिए दु:ख भोगता है। वास्तव में पुरुष का भोग प्रकृति के कर्तृत्व के कारण नहीं वरन स्वयं पुरुष के भोक्तृस्वरूप के कारण है। अत: कर्मवाद का उल्लंघन सांख्यदर्शन में नहीं है। फिर; कर्मवाद में कर्म का जो रूप है वह प्रकृति कर्ममात्र नहीं वरन कर्म का पुरुष-सम्बन्धरूप है। इस सम्बन्ध के द्वारा ही फल का रूप भी निर्धारित होता है। अत: कृतनाश और अकृतागत की प्रसक्ति ही नहीं होती।
सांख्यदर्शन की एक भूल की चर्चा करते हुए डॉ॰ शर्मा कहते हैं- सांख्य विशुद्ध चैतन्य स्वरूप पुरुष में तथा अन्त:करण प्रतिबिम्बित चैतन्य रूप जीव में भेद नहीं करता। बन्धन, संसरण और मोक्ष जीवों के होते हैं, किन्तु सांख्य पुरुष और जीव के भेद को भूलकर पुरुष को अनेक मानता है। साक्षी और निर्विकार पुरुष में भोक्तृत्व की कल्पना करता है। नित्य पुरुष को जन्म मरणशील मानता है।*
इस प्रसंग में भी सांख्यदर्शन में भूल या दोष नहीं है। जीव और पुरुष में भेद तो है, लेकिन यह भेद अस्तित्वभेद नहीं है। बिना पुरुषसंयुक्ति प्रतिबिम्बन या सन्निधि के जीव की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। केवल अन्त:करणोपाधि जीव नहीं कहा जाता। संसरण आदि में अन्त:करणादि तो वाहन रूप साधन है। संसरण तो पुरुष ही का होता है। पुरुष के नित्य निर्विकार होने में और संसरणशील होने में कोई विरोध नहीं है। अन्त:करणयुक्त होने पर पुरुष विकृत नहीं होता। वह चैतन्य स्वरूप ही रहता है। नित्य पुरुष के जन्ममरण का अर्थ पुरुष का उत्पत्ति-विनाश नहीं हैं। शरीर में व्यक्त होना जन्म है और ऐसा न होना अर्थात स्थूल शरीर अलग हो जाना मृत्यु। जन्म और मृत्यु शरीर में प्रवेश करने और निकल जाने को कहते हैं। प्रवेश करने वाले तत्त्व की नित्यता की इसमें हानि नहीं होती है।
सांख्य दर्शन भारत के ही नहीं विश्व के दार्शनिक चिन्तन के इतिहास में प्राचीनतम दर्शन है। केवल दर्शन ही नहीं ज्ञान की अन्य भारतीय विधाओं पर सांख्यदर्शन का प्रचुरता से प्रभाव परिलक्षित होता है। सांख्य के प्रकृति, पुरुष, विधाओं पर सांख्यदर्शन का प्रचुरता से प्रभाव परिलक्षित होता है। सांख्य के प्रकृति, पुरुष, त्रिगुण, महत आदि पारिभाषिक शब्दों का संस्कृत साहित्यकारों की रचनाओं में भी यथार्थ प्रयोग दिखता है। सांख्य जड़-चेतन-भेद से द्वैतवादी तथा अजाविनाशी तत्त्वों के भेद से त्रैतवादी है।

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