Wednesday 30 August 2017

राजा विक्रमादित्य

अधिकांश विद्वान उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को काल्पनिक राजा मानते हैं क्योंकि राजा विक्रमादित्य का कोई शिलालेख या ताम्रपत्र नहीं मिलता न ही कोई महल या किला मिलता है। विद्वानो का मानना है कि यह आदर्श राजा की छवि को संस्कृत साहित्य में गढा गया, एक ऐसा राजा जिसमें सारे सदगुण हों, जो प्रजा पालक हो,न्यायवान हो,प्रजावत्सल हो, वीर पराक्रमी हो। ये सब गुण लेखको ने राजा विक्रमादित्य के लिये लिखे हैं, उसे उज्जैन का राजा बताया गया है। उज्जैन में एक टीला मिला है जिसको विक्रमादित्य का टीला बोल देते हैं, बस इसको ही पहला व अन्चिम प्रमाण मानकर राजा हुआ था,ऐसा मान लेना बेवकूफी है। आखिर ऐसे टीले देश के किस गाँव या कस्बे में नहीं है ।

अब यदि राजा विक्रमादित्य नहीं हुए तो ये विक्रम संवत किसने चलाया । यह बडा सवाल है। अव्वल तो प्राचीन काल के किसी शिलालेख या गणना में विक्रम संवत का उपयोग नहीं हुआ, हाँ एकाएक इस संवत का उपयोग इसके बनने के लगभग एक हजार बाद कई बार हुआ। अब जिस राजा ने ये शुरू किया, उसी ने कोई विक्रम संवत की गणना का कोई सबूत नहीं छोडा मगर ऐसा क्या हुआ कि कई सौ साल बाद इसका उपयोग होने लगा। 
बहुत से विद्वान विक्रम संवत को कुषाण सम्राट कुजुल करा कडफिसिस से जोडते हैं जिन्होने शको को हराया था, कुषाण गुर्जरो का राजवंश था। कुजुल करा कडफिसिस को ग्रीक बैक्ट्रियन में लिखा गया जिसका संस्कृत अर्थ विद्वानो ने गुर्जर श्री विक्रमादित्य  है। सम्राट कुजुल करा कडफिसिस महान चक्रवर्ती गुर्जर सम्राट कनिष्क महान के पितामह थे। इस थ्योरी के जनक सौ डेढ सौ साल पहले कई अंग्रेजी व भारतीय विद्वान रहे। मगर इस थ्योरी को भी बडी मान्यता नहीं मिली।
तो किसने शुरू किया विक्रम संवत ????

अधिकांश विद्वान तर्कपूर्ण आधार पर इस संवत का जन्म शक सम्राट ऐजिस को मानते हैं। शको की पुष्टि आधुनिक भारत में जाट यौद्धाओ के रूप में का जाती है तो इसका मतलब है कि यह संवत जाट भाइयो के पूर्वज महान राजा ऐजिस ने शुरू किया था जिसे उन्होने मालवा के किसी स्थानीय राजा को हराकर शुरू किया। इसीलिये कई विद्वान इसे ऐजिस संवत भी कहते हैं। इस थ्योरी को ज्यादातर विद्वान व इतिहासकार मानते हैं।
जाट भाइयो को आगे आकर अपने जाट सम्राट ऐजिस द्वारा शुरू हुए इस संवत को  ऐजिस विक्रम संवत के रूप में मनाना चाहिये। यह जाट राजाओ की विरासत है।
कुछ गिने चुने विद्वान मानते हैं कि मालव संवत को ही गुप्तकाल में राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम पर रखा गया व ब्राह्मणो ने कुषाणो के शक संवत व बौद्धो के बौद्ध संवत को किनारे करने के लिये ऐजिस या मालव संवत को विक्रम संवत का नाम देकर एक काल्पनिक राजा विक्रमादित्य की थ्योरी गढ ली।
राजा विक्रमादित्य वैसे भी भारत में कई राजा हुए। यह एक विशेष पदवी है जो प्रजाप्रिय राजा को व वीर राजा को दी गयी।
अब उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता व प्रमाणिकता पर दृष्टिपात करते हैं।
जैसा कि आजकल के भाट न चारण कहते हैं कि वे भृतहरि व रानी मैनावती के भाई थे। भृतहरि को गुरू गोरखनाथ का समकालीन माना जाता है, कहा जाता है कि जब राजा भृतहरि गुरू गोरखनाथ से प्रभावित होकर सन्यास ले लेते हैं तो उनके छोटे भाई विक्रमादित्य उज्जैन के राजा बनते हैं। गुरू गोरखनाथ को नाथ संम्प्रदाय का सूसे बडा संत माना जाता है जिनके गुरू मछेन्द्रनाथ बताये जाते हैं। बस राजा विक्रमादित्य के सच व झूठ का यहीं से पता चल जाता है । एक ओर तो विक्रम संवत 2073 साल पहले का है वहीं दूसरी ओर नाथ संम्प्रदाय का जन्म ही तेरहवी सदी में हुआ । सन्तो की परंपरा में गुरू गोरखनाथ व भृतहरि को मुस्लिम काल खासकर लोदीकाल का माना गया है। अह यह कैसे हो सकता है कि एक राजा जिसे दो हजार साल पहला बताया जाता है वह जन्मा ही एक हजार साल पहले हो। यह सब कारस्तानी भाटो की है जिन्होने मुस्लिम काल में इस थ्योरी को गढा। क्योंकि हिन्दुओ के सारे अखाडे ही एक हजार साल के भीतर जन्में, उन्हीं अखाडो में आता है नाथ संम्प्रदाय ।
तय है कि यह सब कोरा झूठ है।
आजकल कुछ लोग राजा विक्रमादित्य के साथ परमार भी लिख देते हैं। यह मालवा के परमार लोगो के दिमाग की नयी उपज है। पहले तो परमार वंश पर ही दृष्टि डालते हैं, परमार वंश के राजा उपेन्द्र परमार को कन्नौज के गुर्जर सम्राट नागभट द्वितीय आठवी सदी में पहली बार अपनी पहली राजधानी उज्जैन के आसपास का राजा बनाते हैं। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारो को गुर्जरो के हूण राजवंश के टूटने से बना नया राजवंश माना जाता है। परमार जो कि चित्तौड के थे,उन्हें भी हूणो की उपशाखा माना जाता है जो पहले अपने ध्वज पर मोर का निशान रखते थे, वे मोरी कहलाये जो चित्तौड के छठी सदी में राजा भी रहे, आगे चलकर ये हूणवंशी गुर्जर ही परमार नाम से ही मालवा के राजा बनते हैं। इन्हें वहाँ के सामन्त के रूप में हूणो की दूसरी शाखा प्रतिहारो द्वारा राजा बनाया गया। अब भला जो राजा ही आठवी सदी में बने हो वे विक्रम को परमार कैसे बता सकते हैं। इन्होने झूठी वंशावली तैयार करवाके खुद को विक्रमादित्य से।जोड लिया। यह नीति आजकल बडे जोर शोर से चल रही है। कभी खुद परमारो ने अपने शिलालेख या पुस्तक में खुद को विक्रमादित्य से नहीं जोडा मगर आजतल खुद को मिथकीय चरित्रो से जोडने की परंपरा खूब फल फूल रही है। यह भी उसी कडी का हिस्सा है।

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