Tuesday 29 August 2017

अपरा विद्या

मुख्य मेनू खोलें  खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखें अपरा विद्या पेज समस्याएं उपनिषद् की दृष्टि में अपरा विद्या निम्न श्रेणी का ज्ञान मानी जाती हैं। मुण्डक उपनिषद (1/1/4) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है- (1) परा विद्या (श्रेष्ठ ज्ञान) जिसके द्वारा अविनाशी ब्राह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है (सा परा, यदा तदक्षरमधिगम्यते), (2) अपरा विद्या के अंतर्गत वेद तथा वेदांगों के ज्ञान की गणना की जाती है। उपनिषद् का आग्रह परा विद्या के उपार्जन पर ही है। ऋग्वेद आदि चारों वेदों तथा शिक्षा, व्याकरण आदि छहों अंगों के अनुशीलन का फल क्या है ? केवल बाहरी, नश्वर, विनाशी वस्तुओं का ज्ञान, जो आत्मतत्व की जानकारी में किसी तरह सहायक नहीं होता। छांदोग्य उपनिषद् (7/1/2-3) में नारद-सनत्कुमार-संवाद में भी इसी पार्थक्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। मंत्रविद् नारद सकल शास्त्रों में पंडित हैं, परंतु आत्मविद् न होने से वे शोकग्रस्त हैं। मन्त्रविदेवास्मि नात्मवित्‌... रिति शोक-मात्मवित्‌। अत: उपनिषदों का स्पष्ट मंतव्य है कि अपरा विद्या का अभ्यास करना चाहिए जिससे इसी जन्म में, इसी शरीर से आत्मा का साक्षात्कार हो जाए (केन 2/23)। यूनानी तत्वज्ञ भी इसी प्रकार का भेद-'दोक्सा' तथा 'एपिस्टेमी'- मानते थे जिनमें से प्रथम साधारण विचार का तथा द्वितीय सत्य क संकेतक माना जाता था। Last edited 3 months ago by चक्रबोट RELATED PAGES मुण्डकोपनिषद् एकांतिक ब्रह्मविद्या  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

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