Thursday 31 August 2017

काव्य-साहित्य की उत्पत्ति एवं विकास

Skip to main content Guest About Us Academics Guest Faculty Students Library Others Contact Us Alumni HomeCoursesUndergraduate CoursesB.A.(Program)Part-1Discipline CoursesSanskrit E-BooksSM-3 Sanskrit SM-3  3 पाठ 2 संस्Ñत में काव्य-साहित्य की उत्पत्ति एवं विकास पाठ 2 संस्Ñत में काव्य-साहित्य की उत्पत्ति एवं विकास महाकाव्य का लक्षण साहित्य-दर्पणकार महाकवि विश्वनाथ के अनुसार योग्यता, आकांक्षा एवं आसत्तियुक्त पदोच्चय ही वाक्य है। 'वाक्यं रसात्मकंकाव्यम अर्थात रसात्मक वाक्य ही काव्य है। इस प्रकार के वाक्यों का समूह ही महावाक्य (महावन की भांति) अथवा महाकाव्यकहलाता है। सामान्यतया जो पध रचना आलंकारिको के नियमों का ठीक-ठीक पालन करती है उसे महाकाव्य समझा जाता है। महाकाव्य शब्द का प्रयोग पध काव्य के लिए होता था। आध्ुनिक विद्वान महाकाव्य को (ब्वनतज.मचपब) राज्यसभा काव्यकहते हैं। कर्इ विद्वानों ने महाकाव्य के लिए Ñत्रिम वीरचरित (।तजपपिबपंस मचपब) अथवा भूषणात्मक वीरचरित (व्तदंउमदजंसमचपब) शब्दों का प्रयोग किया है। महाकाव्य से अभिप्रेत है एक विशेष प्रकार की पध रचना जो एक ओर तो इतिहास तथा पुराण से भिन्न हो और दूसरी ओर ऐतिहासिक काव्य से भी पृथक हो। इतिहास तथा पुराण का खण्डों तथा अèयायों में विभाजन होता है किन्तु महाकाव्य का केवल सर्गों में ही। पुराण में कोर्इ प्रमुख केन्द्रीय विषय नहीं होता है किन्तु महाकाव्य में प्रमुख केन्द्रीय विषय की ही प्रधनता रहती है और वर्णन स्थल इसके अखण्ड अंश होते हैं। महाकाव्य में अवान्तर कथाएँ नहीं होती हैं। 1. भामह (700 र्इ.) ने भामहालंकार (11823) में 2. दण्डी (7वी शती) ने काव्यादर्श (1422) में, अगिनपुराण (अèयाय 337) में और 3. विश्वनाथ (1350 र्इ.) ने साहित्य दर्पण (6315-325) में महाकाव्य के लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। साहित्यदर्पण में प्राप्त महाकाव्य का लक्षण सर्वाõीण और व्यापक है। विश्वनाथ ने महाकाव्य का लक्षण देते हुए कहा है- महाकाव्य संक्षिप्त न हो और सर्गों में विभक्त होना आवश्यक है। एक सर्ग में तीस से दो सौ पधों की संख्या हो। महाकाव्य में कम से कम आठ सर्ग और अधिक से अधिक तीस सर्ग होने चाहिए। इसका नायक देवता, कुलीन क्षत्रिय या एक ही वंश के अनेक कुलीन राजा हो सकते हैं। महाकाव्य का प्रारम्भ आशी:, नमसिक्रया अथवा कथावस्तुनिर्देश से होना चाहिए। विषय ऐतिहासिक किसी जनश्रुति से लिया गया हो। उíेश्य, ध्र्म, अर्थ, काम, मोक्ष में से कोर्इ एक हो। इसमें सूर्योदय, चन्द्रोदय, )तु, पर्वत, समुद्र, नगर, उधान, जलक्रीड़ा, मध्ुपान रीतिकेलि, पर्व, उत्सव, अनुरागियों के वियोग अथवा संयोग, विवाह, पुत्राजन्म, यु(, यात्राा, नायकविजय, मंत्राणामृगया इत्यादि का ललित वर्णन होना चाहिए। इसमें रसों, पावों और अलंकारों का समावेश हो। प्रधन रसश्रृंगार वीर अथवा शान्त हो और अन्य रसों का समावेश गौण रूप से हो। छन्द आकर्षक हों और सारा सर्ग एक छन्द से व्याप्त हो किन्तु सर्गान्त का पध अन्य छन्द में हो। सर्ग के अन्त में भावी कथा का संकेत भी होता है। महाकाव्य का नाम कवि, कथानक नायक या प्रतिनायक के नाम पर होना चाहिए। महाकाव्य में नायक ध्ीरोदात्त होना चाहिए। ध्ीरोदात्त नायक आत्मश्लाघा न करने वाला क्षमावान, अतिगम्भीर, हर्ष, शोकादि से अनभिभूत, सिथर, दृढ़व्रत और प्रà होता है। महाकाव्यों का उदभव )ग्वेद के आख्यान सूक्तों, इन्द्र, विष्णु, वरुण और उषा आदि के स्तुति मंत्राों तथा नाराशंसी और गाथाओं से हुआ है। ब्राह्राण आदि ग्रन्थों में इन आख्यानों का बृहद रूप मिलता है, यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में परिवर्तित हो गया। जूनागढ़ के एक शिलालेख में रुद्रामा की परिष्Ñत काव्य रचना प्राप्त होती है। इसी प्रकार इलाहाबाद के शिलालेख में समुद्रगुप्त का नाम न केवल कवियों के आश्रयदाता के रूप में अपितु कवि के रूप में भी मिलता है। राजकीय शिलालेखों की सत्ता ही काव्य साहित्य की सत्ता का प्रबल प्रमाण है। कालिदास से पूर्व काल में, रामायण रचयिता महर्षि वाल्मीकि को यथार्थत: आदिकवि और रामायण को आदि-काव्य कहा गया है। पाणिनि (450 र्इ. पू.) का नाम भी पातालविजय तथा जाम्बवतीविजय नामक दो महाकाव्यों से सम्ब( है। पाणिनि-अèयारोपित कुछ पध बहुत ही काल्पनिक हैं- गते¿धर््रात्रो परिमन्दमन्दं गर्जनित यत्प्रावृषि कालमेघा:। अपश्यती वत्समिवेन्दुविम्बं तच्छर्वरी गौरिव हुंकरोति।। वार्तिककार वदररुचि (350 र्इ. पू.) का नाम भी स्वर्गारोहण नामक काव्य के कत्र्ता के रूप में लिया जाता है। महाभाष्यकारपतंजलि (150 र्इ. पू.) ने भी महानन्द काव्य की रचना की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राÑत काव्य के बहुत सारे अंश की परिवृ(ि र्इ. पू. द्वितीय शताब्दी और प्रथम शताब्दी के बीच हुर्इ है। हाल की सतसर्इ तथा गुणाढय की बृहत्कथा इसके उदाहरण हैं। शिलालेख भी अलंÑत काव्यशैली के नमूने हैं। यधपि वे लौकिक (श्रेण्य) संस्Ñत में लिखे गये हैं किन्तु कुछ शिथिलता उनमें भी विधमान है। शिलालेखों में वर्णनस्थल उच्चकोटि के हैं और वे कवि की योग्यता का भी प्रदर्शन करते हैं। गिरनार के शिलालेख में साधरणतया, स्पष्टता, माध्ुर्य, विविध्ता सौन्दर्य, काव्योचित परिभाषा की उन्नति आदि कर्इ गुण पाये जाते हैं। अत: यह सि( होता है कि कालिदास से पहले ही संस्Ñतकाव्य और काव्य शास्त्रा विधमान थे। इसके अतिरिक्त,कालिदास स्वयं अपने पूर्ववर्ती रोमिल्ल सोमिल्ल आदि का नामोल्लेख करते हैं। संस्Ñत काव्य के मूल्यांकन के समय हमें यह èयान रखना होगा कि इसका क्रमिक विकास किस वातावरण में हुआ। बौ(मत का निराशावाद ध्ीरे-ध्ीरे लुप्त हो गया और आनन्द व प्रमोद जोर पकड़ने लगा। अत: इन Ñतियों में रति की प्रधनता रही। पुष्पसायक कामदेव की भकित सर्वत्रा पफैलने लगी। परिणाम यह हुआ कि पारिभाषिक शास्त्रा भी काव्य से ओत-प्रोत हो गये। संस्Ñतकाव्य न केवल राजपरिवार सम्बन्ध्ी कथाओं से ओत-प्रोत रहा अपितु वात्स्यायन कामसूत्रा से भी अत्यधिक प्रभावितहुआ। इन काव्यों में वर्णित मनोरंजन व विकास के साध्न कामसूत्रा के लिए गये है। इस काल के काव्य सि(ान्त व अभ्यासक्रमपर अलंकार शास्त्रा के ग्रन्थों का अगाध् प्रभाव पड़ा है। नारी सौन्दर्य का सूक्ष्म वर्णन इस काव्य की एक और विशेषता है जो कभी-कभी इनिद्रय विषयक होने के कारण निन्ध समझा जाता है। यधपि इस तरह की अभिरुचि सौन्दर्य मीमांसा के विकसित लोकाचार की ओर संकेत करती है, किन्तु यह अवश्य मानना पड़ेगा कि ऐसे वर्णन कर्इ जगह शोचनीय हुए हैं। ऐसी कविताएँ रसिक सâदयों के लिए लिखी गर्इ है इसका तात्पर्य यह है कि ऐसी कविताएँ दक्षता से एक अभ्यस्त और निष्णात विशेषज्ञ के लिए लिखी गर्इ है। वे कल्पना की अपेक्षा विद्वता का अधिक प्रदर्शन करती हैं। भाषा का असहज व किलष्ट प्रयोग कभी कभी अर्थग्रहण में बाध्क बन गया है। यहाँ तक कि कर्इ कवियों ने अपनी कविताओं को केवल विद्वानों के लिए, न कि मन्द बु(िजनों के लिए लिखने का गर्व किया है। इन कविताओं का क्षेत्रा भी सीमित रहा है क्योंकि इनका विषय रूढि़ब( है। इन कवियों ने कभी-कभी रीति और शब्द-रचना की अत्यधिक अभिरुचि के कारण विषय और कथावस्तु की उपेक्षा की है। असंगत और सामान्य वर्णन कथाप्रवाह के बाध्क बन गये हैं। काव्य के स्वीÑत आदर्शों के अनुवर्तन के उत्साह में कवियों ने अनुचित दृश्यों व विषयों के वर्णन करने का प्रयत्न किया है। यह भी कहा जाता है कि कविताएँ कवि के निजी अनुभवों को प्रकट नहीं करती है और एक वर्ग अथवा गण के सामान्य अनुभवों का प्रदर्शन करती है। अत: संस्Ñत काव्य रचनाएँ न रह कर सामान्य आदर्श रचनाएँ बन गयी है। उनके नियमब( व औपचारिक स्वरूप की खूब प्रशंसा की गर्इ है। संस्Ñत कवि संस्Ñत शब्दों के माध्ुर्य में निमग्न होते रहते हैं। संस्Ñत में शब्द रचना पर्याप्त महत्त्व है। काव्य का लालित्य लम्बे-लम्बे समस्त पदों की देन है। ऐसा होने पर भी इन काव्यों के कर्इ गुणों को भी स्वीकार करना होगा। पुरुषोचित तथा साहसिक गुणों के वर्णन में और जीवन के सामान्य भावों अथवा अन्तर्वेग के प्रदर्शन में ये काव्य श्रेष्ठ हैं। इन काव्यों की Ñत्रिमता प्राÑतिक दृश्यों के अदभुत भावों पर आधरित हैं जो सुपरिचित और वास्तविक हैं। कर्इ कवि निरीक्षण की नवीनता का प्रदर्शन करते हैं। भावप्रधनता तथा अदभुत कल्पना रीति की संपूर्णता तथा निरूपण की सूक्ष्मता सहित काव्य के आवश्यक अंग समझे गये हैं। अविनीत उपभोग के लिए यह नहीं है। गध भी इसके बाद संग्रह और अलंक्रिया के कारण काव्यात्मक समझा जाता है। अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि काव्य शैली की आवश्यक विशेषताएँ, अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग, किसी एक प्रकार के दृश्यों का वर्णन, रति भाव के दर्शन की प्रधनता, शब्द रचना की Ñत्रिमता और प्रÑति वैशिष्टय के लिए आदरभाव आदि में निहित है। काव्य संस्Ñतकाव्य का स्वर्णयुग हिन्दू ध्र्म एवं संस्Ñति के सुवर्ण काल गुप्तवंश के साथ ही आरम्भ होता है जिसके प्रवर्तक चन्द्रगुप्त प्रथम (320 र्इ.) थे। समुद्रगुप्त का नामोल्लेख कवि के रूप में पहले ही हो चुका है। समुद्रगुप्त के अनन्तर चन्द्रगुप्त द्वितीय भी साहितियक रुचि के पुरुष थे। कालिदास ने अपनी Ñतियों का निर्माण कब किया, यह कहना यधपि कठिन है पिफर भी बहुत सारे समालोचक विद्वान उनको गुप्त कालीन ही स्वीकार करते हैं। कालिदास कविकुल गुरु महाकवि कालिदास ने तीन नाटकों अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोवंशोयम तथा मालविकागिनमित्राम के अतिरिक्त,रघुवंश, कुमारसम्भव, )तुसंहार और मेघदूत की रचना की है। उसके समय और व्यकितत्व के विषय में निशिचत रूप से कुछ भी पता नहीं है। पिफर भी कालिदास ने अपनी Ñतियों में अपने समय के सारे भारतवर्ष का और इसके विभागों का नामोल्लेख किया है। उनका महाकाव्य रघुवंश अठारह सर्गो में लिखा हुआ महाकाव्य है। इसमें रघुकुल का वर्णन है। कथा और काव्यों में कालिदास ऐसी परमकोटि को प्राप्त हुए हैं जो उनसे पहले या बाद में और कोर्इ प्राप्त नहीं कर सका है। रघुवंश का विषय विविध् और व्यापक है जिससे कालिदास को अपनी कल्पना शकित प्रदर्शन करने का पूर्ण सुअवसर प्राप्त हुआ है। रघुवंश सूत्राब( काव्य की अपेक्षा चित्राों की एक तेजोराशि है। कालिदास सुघटित वर्णनों के लिए आख्यान विषयक अभिरुचि का हनन कभी नहीं करते हैं। âदयंगमता और अभिरुचि के लिए उनकी अपनी निशिचतता है। सचमुच कालिदास में भी अन्य संस्Ñत कवियों की तरह, अपने पात्राों की 'सर्वथाभद्र पात्राों के रूप में चित्राण करने की प्रवृत्ति विधमान है। पिफर भी यह मानना होगा कि इन आदर्श पात्राों का अपना व्यकितत्व है। रघुवंश में कर्इ विषय अदभुत कवि कल्पनाश्रित रीति और संगीत की शकित से आपस में ग्रथित हैं। यह कहना अत्युकित नहीं होगा कि कुछ अपवादों को छोड़कर कालिदास को शब्दाडम्बर के Ñत्रिम प्रयोग में अभिरुचि नहीं है। उसकी Ñतियाँ मानव भावनाओं से परिपूर्ण हैं। कालिदास की एक और Ñति कुमारसम्भव महाकाव्य है जिसके आठ सर्ग हैं। रचना सम्पूर्ण नहीं है जिसका कोर्इ ज्ञात कारण नहीं है। इसके आगे के सर्ग भी मिलते हैं परन्तु वे किसी अज्ञात के द्वारा लिखे गये समझ जाते हैं। काव्य मुख्य कथा से आरम्भ होता है। प्रथम सर्ग में हिमालय का वर्णन बहुत ही रमणीय है। यह काव्य प्रचुर वैचित्रय कल्पना की उज्ज्वलता तथा भावों की अभिव्यकित के कारण आध्ुनिक अभिरुचि के अनुकूल है। कुमारसम्भव में एक ओर वसन्त )तु की रमणीयता तथा सभोगश्रृंगार का हर्षोल्लास है तो दूसरी ओर प्रियतमा की मृत्यु से छाया हुआ घोर विषाद। आनन्दवधर््नाचार्य का कथन है कि कर्इ आलोचकों ने देवताओं के रतिभाव के वर्णनों की आलोचना की है। यह विषय आध्ुनिक अभिरुचि के अनुकूल प्रतीत नहीं होता है क्योंकि मानवीय भावनाओं को आलौकिक रूप दिया गया है। इस Ñति के आदर्श पर वाल्मीकि का प्रभाव पड़ा है। तारकासुर का वर्णन रावण के वर्णन से प्रभावित है। यह काव्य अध्ूरा क्यों रहा यह समस्या बहुत ही उलझी हुर्इ है। हो सकता है कि यह हस्तलिखित प्रति में नष्ट हो गया हो या सम्भव है कि कवि ने इस काव्य को अपने समकालीन पणिडतों की आलोचना के कारण अध्ूरा ही छोड़ दिया हो। चूँकि रघुवंश बाद की रचना है, यह कहना युकितसंगत नहीं होगा कि कवि की मृत्यु के कारण यह काव्य पूरा नहीं हो सका, नि:संदेह कवि द्वितीय भाग पूरा करने की प्रतिज्ञा पहले भाग में कर चुके हैं। महाकवि कालिदास के विचार महाकवि कालिदास की रचनाओं में तत्कालीन वेदादिशास्त्रा प्रतिपादित-ध्र्म के सि(ान्त मिलते हैं। वह चार वर्णों और चार आश्रमों के पक्षपाती हैं। उन्होंने आदर्श ब्राह्राण और आदर्श क्षत्रिय का वर्णन किया है। जीवन के चार पुरुषार्थों ध्र्म, अर्थ, काम और मोक्ष-में उनका पूर्ण विश्वास है। यधपि कालिदास ने प्रेम संबंध्ी चित्राों को चित्रित किया है परन्तु वे इंदि्रयपरक नहीं है। शास्त्राों के अनुसार पुत्रा प्रापित आवश्यक है। कालिदास ने रघुवंश के आरम्भ में स्पष्ट कहा है रघुवंशी पुत्रा प्रापित के लिए गृहस्थ जीवन को स्वीकार करते थे। ऐसा ज्ञात होता है कि कालिदास ब्रह्राा, विष्णु और शिव तीनों देवों की पारमार्थिक एकता का तथा जगत-प्रÑति के बारे में सांख्य और योगदर्शन के सि(ान्तों को मानने वाले हैं। उन्होंने कर्इ बार तीन गुणों का उल्लेख किया है तथा कुछ योगासनों का भी निरूपण किया है। प्रो. कीथ का कथन है कि कालिदास में मानव âदय के द्वंद्वों का कोर्इ समाधन सम्भव नहीं है। उनके अनुसार कालिदास ब्राह्राण ध्र्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस कारण से कर्इ पाश्चात्य विद्वान कालिदास की रचनाओं की आलोचना करते हैं किन्तु भारतीय सâदय को कालिदास की Ñतियां अत्यधिक प्रभावित करती हैं जिनमें कर्म तथा पुनर्जन्म सि(ान्तों में पूर्ण विश्वास प्रकट किया गया है। महाकवि कालिदास की शैली कविकुल गुरु कालिदास संस्Ñत साहित्य के एक स्वर से सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। निर्दोषता और लालित्य में वे अश्वघोष से भी उत्Ñष्ट हैं और उत्तरकालीन कवियों की अपरिमितता से मुक्त हैं। दण्डी का कथन है कि ''कालिदास ने वैदर्भी रीति को अपनाया है तथा èवनि साम्य का èयान रखते हुए शब्दों का प्रयोग साधरण अर्थ में किया है। कालिदास सर्वसाधरणजनों के कवि हैं। यधपि उन्होंने भूपालों और देवों के बारे में लिखा है पिफर भी जनसाधरण के लिए भी लिखाहै। राजाओं का चित्राण शूरवीरों के रूप में किया गया है। उनका जीवन जन सामान्य के लिए एक आदर्श है तथा वे देश की समृ(ि के लिए काम करते हैं। पुरोहितों का चित्राण भी महत्वास्पद है। वे अपने नृपों और उनके अनुयायियों को हितावह उपदेश देते हैं। देवों का वर्णन करते समय कालिदास ने उनको मानवीय रंग से रंजित किया है। कालिदास के लिए संसार पाप और व्यथा का स्थान नहीं है। यहाँ सौन्दर्य तथा हर्ष विराजमान है। उन्होंने प्रÑति के परम आनन्ददायी रूप का वर्णन किया है। सौन्दर्य की उनकी अपनी कल्पनाएं हैं। कालिदास के अनुसार सौन्दर्य वर्णनातीत है, केवल âदय से ही उसका अनुभव हो सकता है। कालिदास की प्रशंसा पूर्वीय तथा पशिचमीय विद्वानों ने समान रूप से की है। प्राÑतिक सौन्दर्य का मानवीय भावनाओं के साथ एकीकरण करने के लिए कालिदास प्रशंसा के पात्रा हैं। उसने ऐसे अनुपम काव्य का निर्माण किया है जिसमें मानव-हितवाद,अदभुत-कल्पनावाद तथा प्रÑति प्रेम का चित्राण है। काव्य के प्रधन अंग शब्द रचना, कल्पना और èवनि आदि सभी उनकीरचनाओं में रमणीय रूप से विधमान है। कालिदास में श्रुतिकटु तथा असंस्Ñत कुछ भी नहीं पाया जाता। उनके काव्य की एक और विशेषता यह है कि वे वाच्य की अपेक्षा èवनि का अधिक प्रयोग करते है। कुमारसम्भव के निम्नलिखित पध से उनकीव्यंजनाशकित का पता चलता है। जिसमें पार्वती संभ्रान्त सिथति में दिखार्इ गर्इ है- एवं वादिनी देवषौं पाश्र्वे पितुरधेमुखी। लीलाकमलपत्रााणि गणयामास पार्वती।। (कुमारसंभव 6-84) कर्इ आलोचकों के अनुसार निम्नलिखित पध में 'राजा शब्द व्यंग्यार्थ से परिपूर्ण है- वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वßी विशुद्वामपि यत्समक्षम मां लोकवादश्रवणादहासी: श्रुतस्य ततिकं सदृशं कुलस्य।। कालिदास ने उपमाओं की विषय सामग्री उपयुक्त विषयानुकूल वातावरण से ही ली है। अतएव वे उपमा सम्राट कहाए तथा परम्परा उपमाओं के लिए कालिदास का ही नैपुण्य स्वीकारती है-उपमा कालिदासस्य। उनकी उपमाएं असाधरण एवं मनोरम होती है। उनमें लिंग साम्य, भावसाम्य और रमणीयता का अदभुत समन्वय है। वे सर्वांगीण और व्यापक हैं। उनमें काव्य शास्त्रा, दर्शन, व्याकरण और वेदों में प्राप्त भावों और सि(ान्तों का सुन्दर प्रतिपादन है। निम्नलिखित पध में कालिदास की उपमा का सौन्दर्य अपूर्व है, जिसके आधर पर उनकी 'दीपशिखा उपाधि दी गर्इ थी- संचारिणी दीपशिखेव रात्राौ यं यं व्यतीयाय पतिम्बरा सा, नरेन्द्रमार्गाटट इव प्रपेदे विषर्णभावं स स भूमिपाल:। कालिदास अपनी उपमाओं के लिए ही नहीं अर्थान्तरन्यास के लिए भी प्रसि( हैं। कहा भी जाता है 'अर्थान्तरस्य विन्यासे कालिदासो विशिष्यते। इनका विषय वैविèय, वैदुष्य, कलात्मक प्रवीणता और मनोज्ञता दृष्टव्य है। कभी-कभी उनके रूपक नि:संदेहव्याकरण आदि की दृषिट से असहज रहते हैं। कालिदास न केवल कल्पना में अपितु पर्वतों, नदियों तथा मानवविचारों के सुस्पष्टचित्राण में भी उत्Ñष्ट हैं। उनमें वैचित्रय और वैविèय दोनों हैं। वे अत्यन्त सजीव और स्वाभाविक हैं। कालिदास छन्दों के प्रयोग में बड़े निपुण हैं और नाना छन्दों के प्रयोग में पूर्ण कौशरल दिखाते हैं। लौकिक संस्Ñत के प्राय: सभी आवश्यक छन्दों का उन्होंने प्रयोग किया है। उन्हें छोटे छन्द अधिक प्रिय हैं, उनमें भी उपजाति अनुष्टुप सर्वाधिक प्रिय छन्द हैं, बड़े छन्दों का प्राय: सर्गान्त में प्रयोग किया है। उनके समान के कवि के आज तक प्राप्त न होने से अनामिका अनामिका ही रह गयी-''प्रधापि तत्तुल्यक्वेरभावादनामिका सार्थवती बभूव। कालिदासोत्तर कवि अश्वघोष महाकवि अश्वघोष भी संस्Ñत के महान कवियों में से एक हैं। कर्इ विद्वान अश्वघोष का समय कालिदास से पूर्व मानते हैं। वे एक महाकवि, नाटककार तथा दार्शनिक थे किन्तु उनकी ख्याति उनके काव्य के लिए अधिक है। पचास साल पूर्व तक अश्वघोष का केवल नाम मात्रा ही ज्ञात था किन्तु अब उनकी Ñतियां प्रकाशित हुर्इ हैं। उनके निजी जीवन के बारे में बहुत कम ज्ञान है। इतना तो हम जानते हैं कि वे बौ( भिक्षु थे और उनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था। यधपि उनकी Ñतियाँ पाणिडत्य का प्रदर्शन करती हैं किन्तु वे अपने आपको संस्Ñत काव्य में प्रवीण स्थापित करते हैं। सम्भव है कि वे ब्राह्राण कुल में उत्पन्न हुए हों और बाद में बौ( ध्र्म की दीक्षा ली हो। चीनी परम्परा के अनुसार वे कनिष्क के समकालीन थे अत: उनका समय प्रथम शताब्दी र्इ. माना जाता है। यधपि वे बौ( मत के हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायी थे किन्तु उन्होंने बु( के व्यकितगत प्रेम तथा भकित पर बल दिया है जिसने बाद में महायान भकित के लिए मार्ग प्रदर्शन किया। उनके पाणिडत्य ने उनके काव्य को समृ( कर दिया है किन्तु उनकी Ñति की शैली सादगी से ओतप्रोत है अत: वह केवल मात्रा साहितियक होने नहीं पायी है। उत्तरकालीन बौ( ध्र्म में अश्वघोष को एक गधकाव्य लेखक माना गया है और कर्इ ध्र्म ग्रन्थों का रचयिता भी। ऐसी संदिग्ध् Ñतियों में महायान-श्र(ोत्पाद-शास्त्रा का नाम लिया जाता है। दूसरी ऐसी ही Ñति वज्रसूचि है। एवमेव गाणिडव-स्तोत्रागाथा का भी उल्लेख किया जाता है। यहाँ पर हमारा प्रयोजन अश्वघोष के दो महाकाव्यों-बु(चरित तथा सौन्दरनन्द से है। बु(चरित की एक हस्तलिखित प्रति मिलती है जिसमें तेरह सर्ग और चौदहवें सर्ग के केवल चार पध हैं। इस ग्रन्थ का अनुवाद चीनी भाषा में (414-421 र्इ. में) हो चुका है और इतिंसंग ने इसे अश्वघोष की रचना बतलाया है। केवल चीनी अनुवाद ही नहीं तिब्बती अनुवाद भी हमें बतलाता है कि असली बु(चरित में 28 सर्ग थे। कहानी बु( निर्माण तक पूर्ण है। बु(चरित यथार्थत: ऐसे कवि की रचना है जो बु( और उसके सि(ान्तों का परमभक्त है। अश्वघोष अपनी धर्मिक भावनाओं को काव्यात्मक स्वयंप्रवृत्त अन्तर्वेग से विलीन करने में सपफल हुए है। सर्वार्थसि(ि की नगर की गलियों व बाजारों के मèय यात्राा, कमनीय कामिनियों का उसे देखने के लिए इकटठा होना, बीमारी जरा तथा मृत्यु का चित्राण यह सब प्रशंसा के योग्य हैं। सि(ार्थ का मकरèवज के साथ संग्राम-चित्राण महाकाव्य के एक उत्पादन-तत्त्व संग्राम-चित्राण को पूर्ण करता है। यह Ñति केवल बौ( मत के सि(ान्तों का चित्राण मात्रा अथवा घटनाओं का वर्णन मात्रा ही नहीं है अपितु बौ( आख्यान का वास्तविक काव्यात्मक निरूपण है। अठारह सर्गों में सुरक्षित सौन्दरनन्द में ऐतिहासिक महाकाव्य की प(ति का अनुसरण करते हुए बु( के सौतेले भार्इ नन्द और सुन्दरी की कथा दी गर्इ है। और बतलाया गया है कि बु( ने नन्द को, जो सुन्दरी के प्रेम में डूबा हुआ था, किस प्रकार अपने सम्प्रदाय का अनुगामी बनाया। इसकी कथा महावग्ग तथा निदान कथा से ली गर्इ है। उनमें जो विपय दिया गया है यह काव्य की रचना में बहुत कम सहायक है किन्तु अश्वघोष ने अपने कवित्व से उस न्यून सामग्री को वास्तविक काव्य में परिणत कर दिया है। इसमें अत्यधिक आख्यानात्मक आकर्षण है। अहंकार के अवगुणों की निन्दा की गर्इ है। यहां पर नि:संदेह, उपदेशक अश्वघोष कवि अश्वघोष से उत्Ñष्ट हैं। किन्तु इसके काव्यात्मक तथा धर्मिक प्रवृत्ति के द्वन्द्व के मèय ही उनके काव्य की वास्तविकता झलकती है। जो कुछ वे कहना चाहते हैं उसमें महत्त्वपूर्ण विश्वास रखने से अश्वघोष सहज और सरल हो पाये है और उनकी Ñति में धराप्रवाहता आ गर्इ है। यधपि अश्वघोष के काव्य में उत्तरकालीन काव्य की परिष्Ñतता का अभाव है किन्तु इसकी पूर्ति भावनाओं की नवीनता, शब्द रचना साधरण तथा सरल निष्ठा की उदारता से हुर्इ है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि अश्वघोष अपने समय के ब्राह्राण तथा बौ( पाणिडत्य से अनभिज्ञ थे। उससे अधिक वह काव्यकला के प्रदर्शन में कुशल थे। वे स्वयं घोषित करते हैं कि वे जनसाधरण के लिए लिख रहे हैं न केवल विद्वत्सभा के लिए, शानित प्रापित के लिए न कि काव्यकला प्रदर्शन के लिए। वे स्वभाव से कवि हैं तथा प्रशिक्षण से अत्यधिक शिष्ट व संस्Ñत हैं किन्तु निष्ठा से धर्मिक भक्त हैं। इस तरह की संहति से उनके भावों को सत्यता व अÑत्रिमता प्राप्त हुर्इ है जो कि बाद की कविता में दुर्लभ है। अत: उनके आख्यान कभी नीरस नहीं हैं, घटनाओं का चयन असम्ब( नहीं है, तथा शब्द रचना व भाषा परिश्रम साèय नहीं है। उनकी कविता परिब( संगीत से स्पफुटित हो उठी है चाहे उसमें सुव्यवसिथत स्वरमाध्ुर्य न हो। उनकी विषय सामग्री तथा काव्यात्मक गुण अत्ध्धिक प्रभाव डालने वाले हैं क्योंकि वे रीति तथा कला प्रदर्शन पर बल नहीं देते। नि:सन्देह अश्वघोष का अनुसरण उत्तरकालीन कवियों ने नहीं किया। तुचोवो¿मश्वघोषो यो बौ(दर्शनमर्मध्ुक कवितावनितासार: सो¿संगो¿पि ससõदृक।। अश्वघोष वैदर्भी रीति के कवि हैं। वे रामायण, महाभारत और कालिदास की शैली से अधिक प्रभावित हैं, अत: उनकी शैली में प्रसाद और माध्ुर्य का बाहुल्य है। उनका दर्शनशास्त्रा और व्याकरण पर असाधरण अधिकार हैं, अत: वे दर्शनों के सूक्ष्म तत्त्वों की अत्यन्त सरल और सुबोध् भाषा में रखने में समर्थ है। व्याकरण के पाणिडत्य के कारण वे कहीं-कहीं पर शब्द-चित्राों का चित्रा सा प्रस्तुत करते हैं। कुछ स्थलों पर ऐसे क्रियापदों का प्रयोग है जिनसे एक-दो नहीं, चार-चार अर्थ निकलते हैं (सौन्दरनन्द-1-15) उन्होंने अनुप्रास और यमक के अतिरिक्त उपमा और अर्थान्तरन्यास अलंकारों का बहुत सुन्दरता से प्रयोग किया है। संयोग और विप्रलम्भ श्रृंगार तथा करुण रस का मनोहर प्रतिपादन है। भाषा-सौष्ठव भावों के अनुसार भाषा में उतार-चढ़ाव तथा संतुलित भाषा का प्रयोग अश्वघोष की विशेषता है। इसी भाषा-सौष्ठव के कारण कहीं-कहीं लयात्मकता भी दृषिटगोचर होती है बु( के उपदेश से प्रतिबु( नन्द की अवस्था एक विरक्त भिक्षु की सी है। क्या ही सुन्दर भाषा में उसका वर्णन है- न मे प्रियं किंचन नाप्रियं मे न मे¿नुरोधे¿सित कुतो विरोध्:। तयोरभावात सुखितो¿सिम सधो हिमातपाभ्यामिव विप्रमुक्त:।। अश्वघोष ने गूढ़ से गूढ़ भावों को सरल और सुबोध् भाषा में व्यक्त किया है। कहीं-कहीं कूट शैली का भी आश्रय लिया गया है। भावाभिव्यकित अश्वघोष ने कहीं-कहीं अत्यन्त मार्मिक भावों की अभिव्यकित की है। शु(ोध्न की आत्म-शु(ि का सुन्दर वर्णन है कि उन्होंने तीर्थ-जल से शरीर को और गुणरूपी जल से मन को पवित्रा किया। उन्होंने वेदोक्त सोमरस का पान किया और हार्दिक सुख की रक्षा की- ''सस्नौ शरीरं पवितुं मनश्च तीर्थम्बुभिश्चैव गुणाम्बुभिश्च। वेदोपदिष्टं सममात्मजं च सोमं पपौ शानितसुखं च हार्दम।। (बु( 2.37) -रस परिपाक अश्वघोष ने श्रृंगार के दोनों पक्षों का वर्णन किया है। संभोग श्रृंगार का सुन्दर उदाहरण नन्द सुन्दरी के अनुराग वर्णन में मिलता है। नन्द और सुन्दरी एक दूसरे पर किनर-किनरी के तुल्य अनुरक्त थे और वे रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध् होकर विषय-भोग में लिप्त रहते थे। ''भावानुरक्तौ गिरिनिर्झरस्थो तौ किंनरीकिंपुरुषावोभौ। चिक्रीडतुश्चाभि विरेजतुश्च रूपाश्रिया¿न्योन्यमिवाक्षिपन्तौ।। (सौन्दर. 4.10) वर्णन वैचित्रय अश्वघोष ने आश्रम, नदी, वन, वृक्षादि प्राÑतिक वस्तुओं, बु(-मार यु(, श्रृंगार, करुण और वीर आदि रसों और स्वर्ग-निर्वाण आदि का मार्मिक वर्णन अत्यन्त प्रभावोत्पादक ढं़ग से किया है। वर्णनों में यथार्थता, सजीवता, स्वाभाविकता और चित्राात्मकता है। अश्वघोष के प्रिय छन्द अनुष्टुप और उपजाति है। बु(चरित और सौन्दरनन्द में अधिकांश सर्गो में उपजाति का प्रयोग हुआ है। उसके बाद अनुष्टुप का प्रयोग हुआ है। सर्गान्त श्लोकों में वंशस्थ, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता, और शादर्ुल विक्रीडित के प्रयोग है। अश्वघोष अनेक विषयों के ज्ञाता थे। उन्होंने व्याकरण, दर्शन, पुराण, राजनीति, नीतिशास्त्रा, आयर्ुवेद कामशास्त्रा और बौ(साहित्य का गंभीर अèययन, मनन और चिन्तन किया था। उदार आशय होते हुए भी कालिदास अपने काव्य में किसी एक निशिचत लक्ष्य को लेकर नहीं चलते हैं किन्तु अश्वघोष की कविता में कोर्इ एक निशिचत लक्ष्य उपलब्ध् होता है। सौन्दरनन्द की अनितम पंकितयों में वे कहते हैं, इस Ñति का विषय मोक्ष प्रापित है, शानित है न कि लौकिक सुख प्रापित। इसी लक्ष्य में इसका आरम्भ किया गया है। मोक्ष साध्नों के अतिरिक्त जिन विषयों का समावेश किया गया है वे कविता के साध्न हैं, ताकि शहद में समिमश्रित कड़वी औषधि की तरह पान करते हुए यह Ñति âदय को अभिमत प्रतीत हो। कालिदास में इस तरह के लक्ष्य का कोर्इ उल्लेख नहीं मिलता है। इसके अतिरिक्त कालिदास ने जीवन के उज्ज्वल पक्ष को अपनाया है किन्तु अश्वघोष जीवन के अनुज्जवल पक्ष पर बल देते हैं। इसका कारण यही है कि दोनों भिन्न-भिन्न धर्मिक सि(ान्तों पर विश्वास रखते थे। भारवि महाकवि भारवि के जीवन के विषय में विश्वस्त सूत्रा से कुछ भी ज्ञात नहीं है। दण्डी द्वारा रचित अवनित-सुन्दरी कथा के अनुसार भारवि दणिडन के प्रपितामह थे तथा पुलकेशिन द्वितीय के छोटे भार्इ (615 र्इ. के लगभग) के सभा पणिडत थे। अवनित सुन्दरी कथा में यह भी उल्लेख है कि भारवि सिंह विष्णु के आदि कवि थे सिंह विष्णु का शासन काल 575-600 र्इ. के मèय है। सिंह विष्णु से मिलने के समय भारवि 20 वर्ष के थे अत: भारवि का जन्म समय 560 र्इ. के लगभग सि( होता है। बाá साक्ष्य से ज्ञात होता है कि वह 634 र्इ. में पैदा हुए थे। काशिका-वृत्ति में इनकी रचना में से उदाहरण दिए गए हैं। वे कालिदास से प्रभावित है और डन्होंने माघ के ऊपर अपना प्रभाव डाला है। ऐहोल शिलालेख के (634 र्इ.) लेखक रविकीर्ति ने अपने आपको कालिदास और भारवि का समकक्ष कवि बताया है अत: भारवि की अपर सीमा 634 र्इ. है। अत: हम भारवि का समय 500 र्इ. से 550 र्इ. मान सकते हैं। भारवि अपने अर्थ गौरव के लिए लोक प्रसि( हैं ''भारवरेर्थगौरवम। भारवि का वैदुष्य व्यापक है। उन्होंने जीवन की ऊंच-नीच सभी अवस्थाओं का वैयकितक अनुभव प्राप्त किया था। अत: उनके सैकड़ों सुभाषितों में वेद, दर्शन, नीति, राजनीति, पुराण, ज्योतिष, कामशास्त्रा, Ñषि, काव्य-शास्त्रा, अलंकारशास्त्रा एवं नाटयशास्त्राआदि का अगाध् पाणिडत्य मिलता है। भारवि का नीतिशास्त्राीय ज्ञान बहुत व्यापक था जैसे-''असाध्ुयोग हि जयान्तराया: प्रमाथिनीनां विपदां पदानि। उनके राजनीति विषयक ज्ञान का भी कोर्इ अन्त नहीं था-''व्रजनित ते मूठधिय: पराभवं भवनित मायाविषु ये न मायिन:। भारवि के किराताजर्ुनीय का विषय महाभारत के वनपर्व से लिया गया है, जब पाण्डव द्रौपदी सहित वनवास की अवस्था में रहते थे। अजर्ुन से कहा जाता है कि वह हिमालय पर जाकर कठिन तपस्या द्वारा देवों को प्रसन्न करके उनसे दिव्यास्त्रा प्राप्त करें। सीध्ी-सादी कहानी अठारह सर्गों में उपलब्ध् है। इसका कारण भारवि के Ñत्रिम वर्णनों की प्रचुरता है। भारवि निबन्ध् अथवा रीति वैलक्ष्यण्य के अनुयायी हैं। आदि से अन्त तक उनका काव्य साहसिक व वीर उपादानों से युक्त है। युधिषिठर शानितप्रिय है तथा भीमसेन उ(ृत शूरबीर। वेदव्यास दोनों के बीच मèयवर्ती होकर परामर्श देते हैं। भारवि की शैली उदात्त एवं भव्य है। शैली की सादगी उनके विषयों के उपयुक्त नहीं है। विचारों की गम्भीरता तथा भाषा के गौरव के लिए भारवि की प्रशंसा की गर्इ है किन्तु उसकी शब्दरचना अस्पष्ट नहीं है। जब युधिषिठर भीम से कहता है तो प्रतीत होता है कि भारवि अपनी ही शैली का बखान कर रहे हैें- स्पुफटता न पदैरपाÑता न च न स्वीÑतमर्थगौरवम। रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामथ्र्यमपोहितं यवचित।। 'पदों ने स्पुफटता छोड़ी नहीं है, अर्थगौरव को अस्वीकार नहीं किया गया है। प्रतिवचन की अपनी अर्थता रचित की गर्इ है (अर्थात कहीं भी पुनरुकित नहीं है)। पिफर भी अर्थ की एकता अथवा वचन-सामथ्र्य को तिला×जलि नहीं दी गर्इ है। भारवि उपदेश नहीं देते हैं। वे वीरता का प्रवचन करते हैं किन्तु आदेश के रूप में नहीं। किराताजर्ुनीम के आरम्भ में दुर्योध्न के राज्य का वर्णन किया गया है। इससे भारवि की राज्य प्रपंचो की जानकारी की सूक्ष्मता का पता चलता है। भारवि वैराग्य तथा संन्यास की निन्दा करते हैं। वे वीर चरित के द्वारा उपदेश देते है। भारवि ने संसार का रूप सौन्दर्य देखा है। भारवि का ध्र्म कविता में स्पष्ट है, अर्थात उनका ध्र्म पराक्रम की आराध्ना का ध्र्म है। भारवि ने भाषा, भाव, काव्य सौन्दर्य, रस परिपाक, वर्णन वैचित्रय, अलंकार प्रयोग, विविध् छन्दो-योजना और शास्त्राीय पाणिडत्य का सुन्दर प्रदर्शन किया है। उनकी भाषा में प्रौढ़ता, ओज और प्रवाह है। उनकी शब्द योजना भावानुकूल है। भारवि ने मानवी प्राÑति का सूक्ष्मरूप से अèययन किया है तथा वे मानव व्यवहार के सपफल प्रदर्शक हैं। उनका चरित्रा-चित्राणउत्Ñष्ट है। द्रौपदी तथा भीम के वक्तव्य इसके साक्ष्य है। युधिषिठर, जो मूल कथानक में सुपराजेय है इस काव्य में शूरवीरदिखाया गया है। भीम जो मूल कथानक में साहिसी शूरवीर है, यहां पर राजनीति के विषय में एक सुन्दर भाषण देता है। जहां तक भाषा की सामग्री का प्रश्न है वह प्राचीन ग्रन्थों से ली गर्इ है। ऐसा प्रतीत होता है कि भीम की द्रौपदी के प्रति प्रबल उकित के द्वारा, भारवि अपने देशवासियों को विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए प्रवृत्त होने का प्रोत्साहन देते हैं। अत: भारवि को मानव प्रÑति का तथा शूरवीरता का कवि कहा जा सकता है। भारवि ने रमणीयता की अपेक्षा साहसिकता पर अधिक बल दिया है। अलंकारों के प्रयोग में उनका नैपुण्य दर्शनीय है। 15 वें सर्ग में चित्राालंकारों की बहुरंगी छटा है। कहीं पदादि यमक हैं, कहीं गोमूत्रिका बध् है कहीं सर्वतोभद्र, कहीं एक ही श्लोक उल्टा सीध एक सा है, कहीं पूर्वाधर्् ओरउत्तराधर्् एक सा है, कहीं द्वयर्थक, त्रयर्थक तो कहीं चार अर्थ वाले श्लोक हैं। न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु। नुन्नो¿नुन्नो ननुन्नोनो नानेन नुन्नुननुत।। ऐसे प्रयोगों के होने पर भी भारवि की शैली में लम्बे-लम्बे समास नहीं हैं। सबको मिला-जुला कर देखा जाय तो इसकी शैली में किलष्टता का दोष नहीं है। भारवि निपुण वैयाकरण थे। वे अप्रसि( नियमों के प्रयोग में अपने व्याकरण ज्ञान का परिचय देते हैं। विभिन्न छन्दों का प्रयोग करने में वे पूर्ण सि( हैं। कभी-कभी उन्होंने कठिन और अप्रयुक्त छन्दों का भी प्रयोग किया है। उनका अर्थ गौरव, अर्थ गाम्भीर्य एवं अर्थ की सार्वकालिकता सार्वदेशिकता एवं सार्वजनीत्त्व में है। पद-पद पर अर्थ गौरव उनके नैपुण्य और गम्भीर चिन्तन का परिचायक है। जिस प्रकार उनके अर्थ उनके काल में स्वकार्य थे, उसी प्रकार आज भी है और भविष्य में भी रहेंगे। भटिट महाकवि भटिट भी एक प्रसि( कवि हैं। वे व्याकरण और काव्य शास्त्रा के महान पणिडत थे। इनके काव्य का नाम 'रावणवध् है जिसको साधरणतया भटिटकाव्य कहते हैं। इसके 22 सर्गों में लंका विजय और राम के अभिषेक तक की कथा वर्णित है। कोर्इ-कोर्इ कहते हैं कि भटिट तथा वत्सभटिट दोनों एक ही व्यकित के नाम हैं। अन्य मत के अनुसार भतर्ुहरि भी भटिट हैं। किन्तु यह सि(ान्त माननीय नहीं हो सकता। अधिक सम्भावना यही है कि भटिट कोर्इ पृथक ही व्यकित है। भटिट को हम 600 र्इ. से 700 र्इ. तक के समय में रख सकते है। भारतीय लेखक भटिट-काव्य को महाकाव्य मानते हैं। इस काव्य में 22 सर्ग हैं। इसमें रामायण की कथा भी वर्णित है और व्याकरण के नियमों के उदाहरण भी दिये गये हैं। भटिट का कहना है कि यह रचना व्याकरण का अभ्यास करने वालों के लिए एक दीपक के समान है। हम भटिट के इस उíेश्य को एक ओर करके काव्य के रूप में भी पढ़ सकते हैं। किन्तु उनकी यह चेतावनी सत्य ही है कि पणिडतों के लिए वह काव्य हर्ष का विषय है और अपणिडतों की समझ से बाहर है। काव्यात्मक अभिरुचि इस सिथति को न्याय नहीं समझती है। किन्तु हमें यह मानना होगा कि यह काव्य, संसार के साहित्य में अपूर्व Ñति है जो व्याकरण के नियमों व रूपों के विवरण के लक्ष्य को रख कर लिखा गया है। भटिट अपने वर्णनों में तथा वक्तव्य में विविध्ता लाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु उनकी मौलिकता नगण्य है तथा श्रमसाèय भाषा का प्रयोग काव्य रचना का बाध्क बन गया है। कवि को पद रचना में स्वतन्त्राता प्राप्त नहीं है क्योंकि वे उसी प्रकार की पद रचना का प्रयोग करते हैं जिससे व्याकरण के नियम व रूपों का प्रयोग हो। ऐसे विषय को लक्ष्य में रखकर ही यदि काव्य लिखा जाय तो मनुष्य की भावनाएं तथा विचार गौण हो जाते हैं पिफर भी भटिट को यह श्रेय देना चाहिए कि उसके आख्यान दीर्घ नहीं है, अप्रासंगिक विषयों को भरमार नहीं है तथा भाषा की जटिलता नहीं है। कवित्व और भाव पक्ष की न्यूनता नहीं है। उसमें सरसता, सरलता और सâदयता के साथ-साथ पाणिडत्य और चित्राालंकार प्रयोग भी है। भटिट में वर्ण की अपूर्व क्षमता है। उनके सरस और सुन्दर भावों वाले श्लोक सुन्दर हैं। कवि का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी दर्शनीय है (215)। व्याकरण के मनोरम उदाहरण भटिट की प्रौढ़ता के परिचायक हैं। (13, 1327, 214) माघ महाकाव्यों के इतिहास में माघ का स्थान बड़ा उच्च है। माघ के पिता का नाम दत्तकसर्वाश्रय और पितामह का सुप्रभदेव था जो राजा वर्मलात का मंत्राी था। वसन्तगढ़ से 625 र्इ. का एक शिलालेख मिला है जिसमें वर्मलात का नाम आया है। इस प्रमाण के आधर पर हम माघ का काल सातवीं शताव्दी के उत्तर में कहीं रख सकते हैं। उन्होंने काशिका के भाष्य लिखने वाले न्यासकार का उल्लेख किया है। माघ ने अपने महाकाव्य के कथानक का विषय महाभारत से लिया है। भारवि ने शिव की स्तुति की है तथा माघ ने विष्णु की। कालिदास आदि कवियों के ग्रन्थों के समान माघ का ग्रन्थ 'शिशपालवध् महाकाव्य में गिना जाता है जिसे माघकाव्य भी कहते हैं। कर्इ बातों में वह अपने पुरस्सर भारवि से भी बढ़ गए हैं। प्राचीन भारतीय उकित के अनुसार ''कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थ गौरव तथा दण्डी का पदलालित्य प्रशंसनीय हैं किन्तु माघ में ये तीनों गुण विधमान हैं। ''माघे सनित त्रायो गुण:। माघ का वैदुष्य एकांगी न होकर सर्वांगीण हैं उसमें कालिदास के तुल्य सुन्दर उपमा का प्रयोग ही नहीं है, अपितु भारवि के तुल्य अर्थगौरव और दंडी के तुल्य पद-लालित्य भी है। माघ का यह दृषिटकोण रहा है कि उनकी कविता में उनके समय तक प्रचलित सभी गुण आ जायें जिससे किसी भी दृषिट से देखने पर उनका काव्य एकांगी या न्यून न हो। इसीलिए एक ओर उपमा अलंकार का सुन्दर प्रयोग किया गया है तो दूसरी ओर अर्थान्तरन्यासों की छटा दिखार्इ देती है। एक ओर भाषा सौष्ठव है तो दूसरी ओर भाव-गांभीर्य। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि 'माघे सनित त्रायो: गुणा: का यह अर्थ कदापि नहीं होगा कि माघ उपमा प्रयोग में कालिदास से, अर्थगौरव में भारवि से तथा पदलालित्य में दंडी से बढ़कर हैं या उनके समकक्ष हैं। इस उकित का अभिप्राय है कि कालिदास आदि में एक-एक गुण मुख्यरूपेण है, पर माघ में ये तीनों गुण समषिट रूप में विधमान हैं। इसी कारण यह कथन युकितसंगत है कि- उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम। दणिडन पदलालित्यम माघे अनित त्रायो गुणा:।। माघ का भाषा पर असाधरण अधिकार है। वह प्रसंगानुसार सरल से सरल और कठिन से कठिन पदावली के प्रयोग से पटु है। अत: कहीं प्रसाद है, कहीं माध्ुर्य और कहीं ओज। इसी प्रकार कहीं श्रृंगार के विविध् भावों का सौन्दर्य हैं, तो कहीं वीर रस का प्रस्पफुरण। भाव-सौन्दर्य और प्रसाद तथा माध्ुर्य का सुन्दर समन्वय एकत्रा देखिये। ''क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति, तदेव रूपं रमणीयताया:। यह भी कहा गया है कि भारवि का आकर्षण तभी तक रहा जब तक माघ का उदय नहीं हुआ था। माघ ने संस्Ñत शब्दकोष का पूर्ण उपयोग किया है। माघ को भारवि तथा भटिट से प्रेरणा प्राप्त हुर्इ है। उसकी भाषा भारवि की जैसी विशद है किन्तु वाक्य रचना कुछ कठिन है। शिशुपालवध् में Ñष्ण के हाथों शिशुपाल के मारे जाने का वर्णन है। महाभारत में यह कहानी बहुत ही सादी है और कोर्इ काव्यात्मक गुण नहीं है। किन्तु माघ ने इसमें सुघटित वर्णनों से अनेक सुन्दर सुधर कर दिये हैं तथा इसे एक महाकाव्य में परिणत कर दिया है। पहले दो सर्गों में कुछ गति है, तीसरे सर्ग से ग्याहरवें सर्ग तक सेना, क्रीड़ा, कामिनियों का प्रेमोल्लास, )तु आदि का वर्णन है। माघ ने अपने पाणिडत्य का प्रदर्शन किया है जो उन्होंने कर्इ स्रोतो से प्राप्त किया है। माघ द्वारा यमक अलंकार का प्रयोग पाणिडत्यपूर्ण हुआ है। उन्हें व्याकरण तथा शब्दकोष पर पूर्ण अधिकार है। माघ राजनीतिक ज्ञान का भी प्रदर्शन करते हैं। माघ और भारवि में प्रÑति की विविध्ता तथा रागरकितमा है किन्तु जीवन नहीं है। वे प्रÑति के सौन्दर्य से परिचित है किन्तु उसकी अनुभूति से नहीं। माघ काव्य कला और व्याकरण दोनों में समान रूप से पटु है। शिशुपालवध् में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों ही उज्जवल हैं। उनके काव्य में वीर और श्रृंगार दोनों ही रसो का सुन्दर परिपाक हुआ है। वे एक साथ ही अर्थालंकारों और चित्राालकारों के प्रयोग में निपुण है। उनकी भाषा में परिष्कर, लालित्य प्रवाह और असाधरण लाच है। उनकी भाषा में भावाभिव्यकित की पूर्ण क्षमता है। माघ के काव्य में प्रसाद माध्ुर्य और ओज गुणाेंं का संतुलित रूप मिलता है। माघ ने कहीं अपनी अपूर्व कल्पना का परिचय दिया है (उदाहरण शिशु. 420), कहीं-कहीं पर भाव गम्भीर्य और शास्त्राीय उपमाओं के कारण दुरुहता आ गर्इ है। वास्तव में भारवि ने जिस रीति समुदाय का प्रवतन किया था वह भटिट से होते हुए माघ पर परिपूर्ण हुआ। श्रीहर्ष पाँच सर्वोत्Ñष्ट महाकाव्यकर्ताओं की परम्परा में अनितम महाकवि श्रीहर्ष हैं। कालिदास भारवि तथा माघ स्वयं अपनी विशेषता रखते हैं। श्रीहर्ष भिन्न प्रकार की विशेषता का प्रतिनिधित्व करते हैं। श्रीहर्ष का लिखा हुआ महाकाव्य नैषध्ीयचरित है। नैषध् नल का दूसरा नाम है। इस काव्य में 22 सर्ग है और नल तथा दमयन्ती के प्रेम की कहानी इस महाकाव्य का मुख्य विषय है। यह Ñति भी अध्ूरी ही लिखी गयी है। कहा जाता है कि यह महाकाव्य पणिडतों के लिए एक बलवधर््क औषधि है। 'नैषध् विद्वदौषध्म-श्रीहर्ष ने नैषध् में अपनी व्यत्पत्ति के प्रदर्शन का जो उपक्रम किया है, उससे पद-पद पर किलष्टता और दुरूहता आ गर्इ है। विभिन्न शास्त्राीय सि(ान्तों के वर्णन, शिलष्ट और किलष्ट प्रयोग तथा बहुलता के प्रकाशन ने काव्य के गागर में सागर भर दिया है। नैषध् में विशेष योग्यता प्राप्त करना विविध्-शास्त्राज्ञता का परिचाययक है। श्रीहर्ष ने नैषध् में श्लेषयुक्त प्रयोगों के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय, वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त आदि के अठिन सि(ान्तों का भी यत्रा-तत्रा वर्णन किया है। उन विभिन्न सि(ान्तों को ठीक से न जानने वाले पाठक के लिये अर्थावगम दु:साèय हो जाता है। इसी कारण केवल पाश्चात्य विद्वानों के लिये ही नहीं, भारतीय विद्वानों के लिए भी नैषध् टेढ़ी खीर ही है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि नैषध् का भाव-पक्ष निर्बल हो गया और कला-पक्ष प्रबल। यह तथ्य एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। श्रीहर्ष ने अपवर्गो तृतीया सूत्रा पर व्यंग्य करते हुए कहा कि अपवर्ग (मोक्ष) के लिए तृतीय (स्त्राी पुरुष से भिन्न नपुंसक) ही उपयुक्त है- ''उभयो प्रÑति: कामे सज्जेदिति मुनेर्मन:। अपवर्गे तृतीयेति भणत: पाणिनेरपि।। श्रीहर्ष ने संस्Ñत काव्यों के रीतिकाल में द्वयर्थक या त्रयर्थक पध की रचना की एक नर्इ दिशा को जन्म दिया है। प×चनली प्रसंग में उन्होंने पांच अर्थों वाले श्लोकों की रचना की है। उनकी कल्पना शकित अत्यन्त उर्वर है। उनमें कालिदास की कल्पना, भारवि का अर्थगौरव, माघ का पाणिडत्य सभी एक साथ प्राप्त होते हैं यदि भारवि की ख्याति को माघ ने निष्प्रभ कर दिया तो श्रीहर्ष की काव्य सुषमा ने माघ को भी निरस्त कर दिया। कहा भी गया है कि- तावद भा भारवेर्भाति यावन्माघस्य नोदय:। उदिते नैषध्े काव्ये क्व माघ: क्व च भारवि।। कवि होने के अतिरिक्त श्रीहर्ष बड़ा दार्शनिक भी था। अपने खण्डनखण्डखाध में इसने न्याय दर्शन का खण्डन करके वेदान्त की उपपत्तिसत्ता सि( की है। नैषध् में दर्शन, विज्ञान तथा अन्य शास्त्राांगों का मिश्रण कविता में किया गया है। इसमें प्रÑति तथा मानव भावों के सुघटित वर्णन हैं। दर्शन का निरूपण उसके काव्य को हानि पहुँचाने की अपेक्षा लाभप्रद सि( हुआ है। यधपि कामशास्त्रा तथा दर्शन का निरूपण साथ हुआ है पिफर भी इन दोनों में कोर्इ विरोध् नहीं दिखार्इ देता है। नैषध् महाकाव्य में पदलालित्य (शब्दों अथवा भावों की सुकोमलता) मुख्य गुण है-''नैषध्े पदलालित्यम। श्रीहर्ष की भाषा विशद है। उसमें प्रौढ़ता और दुरूह से दुरूह भावों को प्रकट करने की असाधरण क्षमता है। भाषा प्रा×जल, सरस, प्रवाह युक्त, èवन्यात्मक एवं लयात्मक है। रस के अनुकूल भाषा में प्रसाद माध्ुर्य और ओजगुण का समन्वय है। श्रीहर्ष में भावाभिव्यकित की अपूर्व शकित है। उनकी कल्पना भावों को मनोरम और सुकुमार बना देती है। यधपि उनमें कालिदास जैसा रस परिपाक नहीं है तथापि भाव प्रवणता का प्राचुर्य है। उनके काव्य में अलंकाराें का प्रयोग स्वाभविक रूप से हुआ है। उसने सहज रूप में यमक और श्लेष का प्रयोग किया है और वे उसके काव्य में नैसर्गिक लगते हैं। उन्होंने केवल प्रासांगिक विषयों का ही वर्णन किया है। उनके वर्णनों में पाणिडत्य है। 22 सर्गों के बाद आगे क्यों नहीं लिखा, यह ज्ञात नहीं है, किन्तु काव्य स्वाभाविक रूप से नहीं चलता है। प्रशस्त तथा उत्Ñष्ट काव्य के सभी आवश्यक तत्त्व इसमें मौजूद हैं तथा यह संगीत और गौरव से परिपूर्ण है। अलंकारों का प्रयोग विचारों में सौन्दर्य लाने वाला है। कथानक की गति कुछ मंद है जिससे काव्य को गौरव प्राप्त हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष का विश्वास है मानव में न केवल भावनाएं है अपितु बु(ि भी है। श्रीहर्ष में कला और बौ(िकता का संगम पाया जाता है। यह अभिप्राय नहीं है कि श्रीहर्ष ने शब्दाडम्बर से मुक्त कविता नहीं लिखी है, देखिए एक उदाहरण- मदेकपुत्राा जननी जरातुरा नवप्रसूतिर्वरटा तपसिवनी। गतिस्तयोरेष जनस्तमर्दयन्नहो विध्ेस्त्वां करुणा रुण(ि नो।। श्रीहर्ष की नवीनताएं श्रीहर्ष ने नैषध् में कुछ एसे प्रयोग किये हैं, जो आज भी बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त हैं- 'जनानने क: करमर्पयिष्यति? ''आसितं नादत्त।। श्रीहर्ष ने वार्तालाप के प्रसंगों में नाटकीयता लाने का प्रयत्न किया है-''दृष्ट दृष्टम, तदवद व्रवीषि न इत्यादि। श्रीहर्ष ने अनेक नये शब्दों का योगदान भी किया जैसे-''भूजानि (राजा) सूननायक (कामदेव) अप्रतीतचर (पहले से अज्ञात) अधिगाभुका (जानने वाली) इत्यादि। कुछ अप्रसि( कवि 1. मेण्ठ यह महाकवि काश्मीर के निवासी थे। इन्होंने हयग्रीववध् लिखा है। इसमें भगवान विष्णु के द्वारा हयग्रीव के वध् की कथा है। यह महाकवि छठी शताब्दी के अनितम भाग में हुए होंगे। 2. भीम इस महाकवि ने रावणाजर्ुनीय लिखा है। इसमें 27 सर्ग हैं और रावण तथा कार्तवीर्याजर्ुन के परस्पर यु( की कथा है। कवि का मुख्य उíेश्य व्याकरण के नियमों का व्याख्यान करना है। इनका समय र्इसा की सातवीं शताब्दी के आस-पास है। 3. शिवस्वामी इन्होंने कप्पफनाभ्युदय लिखा है। इसकी कथा अवदानशतक में आर्इ हुर्इ एक कथा पर आश्रित है और इसमें दक्षिण के किसी राज्य कप्पफन के बौ(ध्र्म की दीक्षा लेने का वर्णन है। कवि पर भारवि और माघ का प्रभाव पड़ा दिखार्इ देता है। इसमें कर्इ रोचक वर्णन हैं। शिवस्वामी बौ( थे, जिसने काश्मीर-पति अवनितवर्म के आश्रय में रह कर यह काव्य लिखा था। 4. रत्नकार महाकवि रत्नाकर भी काश्मीर के निवासी थे। रत्नाकर ने हरविजय लिखा है। इसमें अन्ध्क के ऊपर प्राप्त की हुर्इ भगवान शिव की विजय का वर्णन है। यह 50 सर्गो का एक विपलकाय महाकाव्य है। इसे 850 र्इ. के आस-पास रत्नाकर ने लिखा। वे रीतिवादी कवि हैं। 5. मÄख महाकवि मÄख कश्मीर के रहने वाले थे और बारहवीं शताब्दी में हुए। यह विख्यात काव्याशास्त्राी रूय्यक के शिष्य थे। मÄख के श्रीकष्ठचरित काव्य में 25 सर्ग हैं। इसमें श्रीकण्ठ अर्थात भगवान शिव द्वारा त्रिपुरासुर की पराजय का वर्णन है। इसमें नीति पर कर्इ प्रवचन हैं तथा तत्कालीन शिष्ट समाज का वर्णन भी है। इस काव्य में विद्वानों की सभाओं का अत्यधिक रूचिकर वर्णन है। ऊपर लिखित काव्यों के अतिरिक्त संस्Ñत साहित्य में लगभग सौ और काव्य प्राप्त होते हैं। हर एक काव्य का अपना असितत्व है यधपि बाद में काव्य यंत्रावत लिखे प्रतीत होते हैं, उनकी रचना शैली में भी अपना व्यकितत्व है। आध्ुनिक काल में भी कुछ कवियों ने कालिदास का अनुकरण करने का प्रयास किया है। जैसे गंगादेवी द्वारा रचित मथुराविजय। इसमें भाषा की सादगी तथा लालित्य विधमान है।  Skip Table of contents TABLE OF CONTENTS 1 विषय सूची 2 पाठ-1 संस्Ñत में लौकिक संस्Ñत साहित्य 3 पाठ 2 संस्Ñत में काव्य-साहित्य की उत्पत्ति एवं विकास 4 पाठ 3 संस्Ñत में खण्डकाव्य (गीति काव्य) का उदभव विकास 5 पाठ 4 संस्Ñत में गध काव्य का उदभव एवं विकास 6 पाठ 4 संस्Ñत में गध काव्य का उदभव एवं विकास 7 पाठ 5 रामायण का महत्त्व एवं रचना काल 8 पाठ 6 रामायण के मूलस्रोत 9 पाठ 7 महाभारत का महत्त्व तथा अर्थ 10 पाठ 8 महाभारत का रचना काल 11 पाठ 9 महाभारत के टीकाकार एवं हरिवंश महाभारत का परिशिष्ट 12 छात्र-उत्तर-पत्र 1 13 छात्र-उत्तर-पत्र 2 14 छात्र-उत्तर-पत्र 3 15 छात्र-उत्तर-पत्र 4 16 छात्र-उत्तर-पत्र 5 17 छात्र-उत्तर-पत्र 6 Skip Administration ADMINISTRATION Book administration Print book Print this chapter About SOL About Us Administrative Staff Departments Organisation Chart Photo Gallery Alumni Academics Forms & Proforma Academic Staff Timings Contact Us DU Home FAQ How to reach Feedback Students Guidelines UG Exam Guidelines PG Exam Guidelines Exam Result Archive SMS service Provisional Certificate Marksheet Video Lectures Library Forms Helpdesk Others Advertisements Purchase Policies Policy on Sexual Harassment Disclosure of information under section IV(1)(b) of RTI - 2005 PIO and Appellate Authority Accounts Degree Disclaimer|Webmail|FAQs|Feedback ©2017 School of Open Learning,University of Delhi    

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