Thursday 31 August 2017

गीता में वर्णित मानसिक पर्यावरण

Shri Prbhu Pratibha Tuesday, 1 January 2013 गीता में वर्णित मानसिक पर्यावरण की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उपादेयता छाया पाण्डेय आज मानव जाति पर्यावरण-असन्तुलन, आर्थिक-संकट, बाल-शोषण, नारी-उत्पीणन, जातिवाद, आतंकवाद, बढ़ती जनसंख्या, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद आदि समस्याओं का सामना कर रही है; यदि ये समस्याएँ हल न हुयीं तो मनुष्यता को सामूहिक विनाश की ओर बढ़ने से नहीं रोका जा सकता। ये सारी स्थितियाँ मानसिक रोगों को जन्म दे रही है। आधुनिक काल में नैतिकता का अत्यधिक पतन हो रहा है, मनुष्य के नैतिक मूल्यों की गिरावट चरम सीमा तक आ पहुँची है और जैसा कि हम जानते हैं कि हमारी मानसिक प्रवृत्तियाँ जड़ चेतन सभी को प्रभावित करती हैं इस प्रकार पर्यावरण के प्रदूषित होने की प्रक्रिया हमारे कलुषित मन से ही प्रसूत हो रही है। भगवद्गीता यह शिक्षा देती है कि कलुषित चेतना को शुद्ध करना है, शुद्ध चेतना होने पर सारे कर्म ईश्वर की इच्छानुसार होंगे और इससे हम सुखी हो सकेंगे। शुद्ध कर्म भक्ति कहलाते हैं। भक्ति में कर्म सामान्य होते हुए भी कलुषित नहीं होते- इसी बात का वर्णन गीता के तृतीय अध्याय में इस प्रकार किया गया है- यस्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। 3/7 आज के भौतिकवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति भाँति-भाँति की चिंताओं एवं मानसिक अशांति से ग्रस्त है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र ही नहीं मानव जाति एवं प्रकृति के संबंधों में भी कड़वाहट और दरार पड़ती जा रही है। पूरे सामाजिक वातावरण में बिखराव आ रहा है, इन सभी के मूल कारणों एवं उनके सही समाधान को भगवद्गीता समाहित किए हुए है। गीता की दृष्टि में व्यक्ति के स्वभाव में सुधार ही सामाजिक पर्यावरण के सुधार का उपाय है। भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख है- सात्विक, राजसिक, तामसिक इसी प्रकार आहार के भी तीन भेद किये गये हैः क्योंकि शरीर खाए हुए भोजन से ही बनता है, इसीलिए भोजन के प्रकार का बहुत महत्व है, इनका विशद् विवेचन 17वें अध्याय में किया गया है। यदि इन उपदेशों का ठीक से पालन करें। तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध एवं सात्विक हो जायेगा और यह भौतिक जगत् भी अत्यधिक पावन हो जायेगा। भगवद्गीता के 15वें अध्याय में सम्पूर्ण भौतिक पर्यावरण के ईश्वरत्व की ओर संकेत किया गया है1 यथा- यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।। 15/12 इन वाक्यों से समझ सकते हैं कि, सूर्य सम्पूर्ण मण्डल को प्रकाशित कर रहा है, सूर्य का प्रकाश परमेश्वर के आध्यात्मिक तेज के कारण है। सूर्योदय के साथ ही मनुष्य के कार्यकलाप प्रारम्भ हो जाते हैं वे भोजन पकाने के लिए अग्नि जलाते हैं और फैक्ट्रियाँ चलाने के लिए भी अग्नि जलाते हैं, अग्नि की सहायता से अनेक कार्य किये जाते है अतएव सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की सहायता के बिना कोई जीव नहीं रह सकता। चन्द्रमा समस्त वनस्पतियों का पोषण करता है, चन्द्रमा के प्रभाव से फल एवं सब्जियाँ सुस्वादु बनती हैं। वास्तव में मानव-समाज भगवत् कृपा से काम करता है, सुख से रहता है और भोजन का आनन्द लेता है अन्यथा मनुष्य जीवित न रहता- पुष्णामि चैषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।। 15/13 मनुष्यों को इस प्राकृतिक सम्पदा को उस परम सत्ता की देन समझकर इसकी सुरक्षा करनी चाहिए एवं इसके प्रति श्रद्धा भाव से युक्त होना चाहिए जिससे सम्पूर्ण पर्यावरण चक्र सुन्दरतम रूप को धारण कर सकेगा। श्रद्धा को गीता में इस प्रकार विवेचित किया गया है- सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरूषो यो यच्छूद्धः स एव सः।। 17/3 श्रद्धा मानवता पर पड़ने वाला आत्मा का दबाव है। यह वह शक्ति है, जो मानवता को न केवल ज्ञान की दृष्टि से अपितु आध्यात्मिक जीवन की समूची व्यवस्था की दृष्टि से उत्कृष्टतर की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है। प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों की हेतु कही जाती है और जीव इस संसार में विविध सुख-दःुख के भोग का कारण कहा जाता है, इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है।2 यदि जीव प्रकृति की अलौकिकता से परिचित हो जाए, तो प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चिर-अभिलाषित आकांक्षा समाप्त हो जाए और ज्यों-ज्यों वह प्रभुत्व जताने की इच्छा को कम करता जायेगा त्यों-त्यों उसी अनुपात में वह आनन्दमय जीवन का आस्वादन करेगा। मानव समाज में समस्त पतनों का मुख्य कारण प्राकृतिक नियमों के प्रति लापरवाही है, यह मानव जीवन का सर्वोच्च अपराध है। मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कत्र्तव्य है और क्या अकत्र्तव्य उसे ऐसे विधि-विधानों के अनुसार कर्म करना चाहिए।3 गीता में स्वयं भगवान् कृष्ण ने भी कहा है कि- यदि मैं नियतकर्म न करू तो ये सारे लोक नष्ट हो जायेंगे। उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।3/24 मनुष्य लोभ व उपभोक्तावाद की वृत्ति के वश में होकर विज्ञान द्वारा प्रस्तुत की गई शक्ति से प्रकृति के द्वारा उपलब्ध संसाधनों की आवश्यकता से कहीं अधिक दोहन किया है। उससे जिस प्रकार का पर्यावरण खतरा उत्पन्न हुआ उसने भावी-पीढि़यों के लिए पृथ्वी को नरक बना दिया है। भगवद् का उपदेश हमें इस पर्यावरण से उत्पन्न संकट का सामना करने में मदद करता है। पर्यावरण के संकट का सामना करने के लिए आवश्यकताओं को सीमित करना आवश्यक है। गीता का उपदेश हमें अपनी आवश्यकताएँ संतुलित करने में मदद करता है। चैथे अध्याय में कहा गया है कि- हे अर्जुन। यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिल्कुल न खने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यन्त जागने वाले को ही सिद्ध होता है। यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले और यथा योग्य शयन करने व जागने वाले का ही सिद्ध होता है।4 इसके अतिरिक्त गीता में यज्ञ के द्वारा प्रकृति में संतुलन लाने का उपदेश किया गया है। गीता में कहा गया है कि- प्रजापति ब्रह्म ने यज्ञ का विधान करते हुए कहा है कि यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें। इस प्रकार आपस में कत्र्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे।5 इस प्रकार गीता में मानसिक प्रवृत्तियों की स्वच्छता व निर्मलता से इस भौतिक पर्यावरण को दूषित होने से बचाने की शिक्षा प्रदान की गई है। गीता में लोकसंग्रह अर्थात् संसार की एकता पर जो बल दिया गया है, उसकी मांग है कि, हम अपने जीवन की सारी पद्धति को बदलें। प्रत्येक व्यक्ति को उस स्थान से ऊपर की ओर उठना होगा। जहाँ कि वह खड़ा है। जो व्यक्ति ऐसा कर लेगा वह किसी से ईष्र्या नहीं करेगा, न किसी वस्तु की उसे लालसा रहेगी, वह प्रकृति के बन्धनों से छूट जायेगा।6 वह उस दिव्य स्वभाव को प्राप्त कर लेगा जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है, और इसी शरीर में आध्यात्मिक सुख को प्राप्त कर सकेगा- जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते। 14/20 परन्तु जो उच्चतर गुणों तक ऊपर न उठ कर निरन्तर तमोगुण में ही बने रहते हैं उनका भविष्य अत्यन्त अंधकारमय हो जाता है। ऊध्र्वगच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा।। 14/18 संदर्भ 1. श्रीमद्भगवद्गीता - 15/12, 13, 14, 2. श्रीमद्भगवद्गीता - 13/21, 22 3. श्रीमद्भगवद्गीता - 16/24 4. श्रीमद्भगवद्गीता - 4/16,17 5. श्रीमद्भगवद्गीता - 3/10, 11 6. श्रीमद्भगवद्गीता - 14/25 7. श्रीमद्भगवद्गीता - गीता प्रेस, गोरखपुर। छाया पाण्डेय वरिष्ठ शोध अध्येता, संस्कृत विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ Shri Prbhu Pratibha at 22:18 Share  ‹ › Home View web version Powered by Blogger. 

No comments:

Post a Comment