यथार्थ सन्देश👇
*~ ~ ~ मूर्ति पूजा ~ ~ ~*
शिशु के चेतन, अवचेतन मन पर संस्कारों के दूरगामी परिणाम की शोध कर भारतीय मनीषीयों ने गर्भाधान संसकार की परिकल्पना कर ली। _*उन्होंने पाया कि गर्भस्थ बालक भी सुनता है, समझता है और आचरण मे ढाल लेता है।*_ अभी कुछ दिन पूर्व एक सज्जन ढाई-तीन वर्ष के एक बालक को लेकर आये, जो रामचरितमानस का ‘’नमामीशीम् निर्वाणरूपं’’ वाली शिव स्तुति पढ़ रहा था। उन्होंने कहा कि यह बिना सिखाये पढ़ रहा है। जब यह गर्भ में था तो मैं प्रतिदिन इसकी माँ को यह स्तोत्र प्रात:सायं सुनाया करता था और वह बड़े मनोयोग से तल्लीन होकर सुनती थी।
*इसी प्रकार का कथानक महाभारत में अभिमन्यु का है, जिसने गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह-भेदन कला का ज्ञान अर्जन किया था।*
_*महर्षि अष्टावक्र की कथा भी ऐसी ही है।* उनके वेदपाठी पिता शिष्यो को श्रुतज्ञान दे रहे थे, उनकी माँ भी तल्लीन होकर सुन रही थीं। *पाठ में त्रुटि होने पर गर्भस्थ शिशु ने टोका।* पिता जी क्रुद्ध हो गये- इतना टेढ़ा! अभी जन्मा भी नहीं मुझे ललकार रहा है। *शाप दिया कि आठ अंगोंसे टेढ़े हो जाओ।* वही बालक अष्टावक्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपनिषदों में उनकी अनेक कथाएँ हैं।_ कहते हैं उन्होंने अपने पिता को विदेहराज जनक की कैद से मुक्त कराया था।
अस्तु, बच्चे गर्भाधान से ही सीखना प्रारम्भ कर देते हैं। _*इसीलिये पूर्वजों ने इसी समय से एक परमात्मा का संस्कार बच्चे-बच्चे में डालना आरम्भ किया।*_
इसके बाद जातकर्म, मुण्डन संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार आदि षोडस संस्कारों के माध्यम से केवल एक बात ही बतायी जाती है कि- *'सहस्त्रशीर्षा पुरुष:’,* अर्थात वह परमात्मा अनन्त हाथ, पैर, मुखवाला है। उसके तेज के एक अंश मात्र से इस सृष्टि का सृजन और पालन है।
पूर्व महर्षियों ने _*उसी एक परमात्मा को मानस यज्ञ द्वारा विदित किया।* ब्रह्मा ने जिसका ध्यान किया, इन्द्र ने जिसकी स्तुति की वही एक सत्य है, उसे धारण करो। बस इतना ही कर्मकाण्ड में बताया जाता है।_
काण्ड का अर्थ है घटना। जन्म एक घटना है, विवाह भी एक घटना है। _*इसी प्रकार जीवनपर्यन्त प्रमुख-प्रमुख अवशरों पर एक परमात्मा की शोध के लिये उत्प्रेरित करना, इस भावना का बीजारोपण करना भारतीय पुरोहितों का आध्यात्मिक अवदान (व्यवस्था) है।*_
शिशु कक्षाओं में *‘क’* माने कबूतर, *‘ख’* माने खरगोश, *‘ए’* फार एप्पल, *‘बी’* फार बैट पढ़ाया जाता है प्रत्येक अक्षर समझने के लिये बड़े-बड़े चित्रोंकी पुस्तक में भरमार होती है। *‘भेड़िया नन्हीं लाल चुन्नी की नानी बन बैठा’-* जैसी कहानियाँ कुतुहलवर्धन मात्र के लिये होती हैं।
वही बच्चे जब माध्यमिक कक्षाओं में जाते हैं तो महाराणा का भाला और चेतक, अकबर का साम्राज्य जैसे कुछ स्वल्प ऐतिहासिक मानचित्र रह जाते हैं।
वही छात्र स्नातक, परास्नातक और शोध कक्षाओं में पहुँचने पर मोटी-मोटी पुस्तके पढ़ डालता है, जिसमें एक भी चित्र नहीं रहता। _*वहाँ न कबूतर है न एप्पल। क्योंकि चित्रों के माध्यम से जिस आकृति का बोध कराना था उसे करा दिया, वर्ण पकड़ में आ गया तो चित्रो की उपयोगिता समाप्त हो गयी।*_
ठीक इसी प्रकार *ये मूर्तियाँ आध्यात्मिकता की परिचयाक्षर हैं,* आरम्भिक उपकरण हैं, प्राथमिक कक्षाएँ हैं, किन्तु मरने की घड़ी तक यदि _*ए फार एप्पल ही पढ़ते रहे तो शोचनीय है।*_ इससे आगे भी कक्षाएँ हैं। _*इसी प्रकार मंदिर जाना भी उचित है* किन्तु जीवनपर्यन्त जाना कायरता है।_
🌹 *श्री परमात्मने नम:*🌹
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*गीता* आदिशास्त्र है, सनातन का मूल धर्मशास्त्र है के आलोक में धार्मिक भ्रान्तियां पनप ही नहीं सकतीं, के समाज से लोप होने के कारण ही हम आज सिमटते हुए भारत में भी अल्पसंख्यक/बहुसंख्यक विवाद में उलझे हुए है।
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