Monday, 21 August 2017

मूल बंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध

 All World Gayatri Pariwar  Allow hindi Typing 🔍 PAGE TITLES January 1986 मूल बंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध उत्तम परिपाटी यह है कि विचारों को विचारों से काटा और सुधारा जाये। जीवन में मन की प्रमुखता है। उसी को बंधन और मोक्ष का निमित्त कारण माना गया है। गीताकार का कथन है कि मन ही बन्धन बाँधता है वही उनसे छुड़ाता भी है। सुधरा हुआ मन ही सर्वश्रेष्ठ मित्र है और वही कुमार्गगामी होने पर परले सिरे का शत्रु हो जाता है। इसलिए मन को अध्यात्म बनाकर अपनी संकल्प शक्ति के सहारे मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए और भव बंधुओं से सहज ही छूट जाना चाहिए। जिनका मनोबल इस योग्य नहीं होता कि चिन्तन और मनन के सहारे आत्म सुधार और आत्म विकास का प्रयोजन कर सके। उनके लिए वस्तुपरक एवं क्रियापरक कर्मकाण्डों का आश्रय लेना ही उपयुक्त पड़ता है। अपने दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ निकालना और उन्हें सुधारने तक आत्म-शोधन तक की साधना में निरत रहना होता है। विचारों से विचारों को काटने की प्रणाली अपनानी पड़ती है। पर इस सबके लिए बलिष्ठ मनोबल चाहिए। उसमें कमी पड़ती हो तो वस्तुओं से, वातावरण से, सहयोग से एवं क्रियाओं में सुधार कार्य को अग्रगामी बनाना पड़ता है। धार्मिक कर्मकाण्डों की संरचना इसी निमित्त हुई है कि उन हलचलों को प्रत्यक्ष देखते हुए- आधार अवलम्बन अपनाकर साधक अपनी श्रद्धा को परिपक्व कर सके। संकल्प बल में बलिष्ठता ला सके उस प्रयोजन को पूरा कर सके तो विचारों से विचारों की काट करने का आधार न बन पड़ने की दशा में अपनाया और लक्ष्य की दिशा में बढ़ा जा सकता है। एक टाँग न होने पर उसकी पूर्ति लकड़ी टाँग लगाकर की जाती है। उसी प्रकार उपाय उपचारों के माध्यम से भी आन्तरिक समस्याओं के सुलझाने में सहायता मिल सकती है। पूजा परक कर्मकाण्डों की तरह योगाभ्यास की क्रिया प्रक्रिया भी उसी प्रयोजन की पूर्ति करती है। इतने पर भी यह निश्चित है कि कर्म काण्डों या साधनाओं के साथ संकल्प बल का समावेश होना ही चाहिए। इसके अभाव में वे क्रिया-कृत्य मात्र कौतुक कौतूहल बनकर रह जाते हैं। कृत्य उपचारों का प्रतिफल उनके साथ जुड़ी हुई भावनाओं की सहायता निश्चित रूप से घुली रहे, अन्यथा योगाभ्यास के नाम पर किये जाने वाले कृत्य भी एक प्रकार के व्यायाम ही बनकर रह जाते हैं और उनका प्रभाव शरीर श्रम के अनुरूप ही नगण्य स्तर का होता है। तीन ग्रन्थि से आबद्ध आत्मा को जीवधारी, प्राणी या नर पशु माना गया है। वही भव बन्धनों में बँधा हुआ कोल्हू के बैल की तरह परायों के लिए श्रम करता रहा है। ग्रन्थियों को युक्ति पूर्वक खोलना पड़ता है। बन्धनों को उपयुक्त साधनों से काटना पड़ता है। योगाभ्यास के साधना प्रकरण में भव बन्धनों में जकड़ने वाली तीन ग्रन्थियों को खोलने के लिए क्रिया पक्ष तीन अभ्यास भी बताये गये हैं। इनका सम्बन्धित क्षेत्रों का व्यायाम भी होता है और परिष्कार भी। साथ में श्रद्धा विश्वास का समावेश रखा जाये तो उनका प्रभाव गहन अन्तराल तक जा पहुँचता है। बन्धनों को बाँधने वाले- खोलने या तोड़ने वाले- तीन साधन बताये गये हैं। वे करने में सुगम किन्तु प्रतिफल की दृष्टि से आश्चर्यजनक हैं। ब्रह्म ग्रन्थि के उन्मूलन के लिए मूलबंध। विष्णु ग्रन्थि खोलने के लिए उड्डियानबंध और रुद्र ग्रन्थि खोलने के लिए जालन्धर बन्ध की साधनाओं का विधान है। इन्हें करते रहने से बन्धन मुक्ति प्रयोजन में सफलता सहायता मिलती है। मूलबंध की क्रिया को ध्यान पूर्वक समझने का प्रयास किया जाये तो वह सहज ही समझ में भी आ जाती है और अभ्यास में भी। मूलबंध के दो आधार हैं। एक मल मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना। इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना। दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाये और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाये। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है। संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाये। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियां भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है। यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसककर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुंच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है। दूसरा बन्ध उड्डियान है। इसमें पेट को फुलाना और सिकोड़ना पड़ता है। सामान्य आसन में बैठकर मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठना चाहिए और पेट को सिकोड़ने फुलाने का क्रम चलाना चाहिए। इस स्थिति में सांस खींचें और पेट को जितना फुला सकें, फुलायें फिर साँस छोड़ें और साथ ही पेट को जितना भीतर ले जा सकें ले जायें। ऐसा बार-बार करना चाहिए साँस खींचने और निकलने की क्रिया धीरे-धीरे करें ताकि पेट को पूरी तरह फैलने और पूरी तरह ऊपर खिंचने में समय लगे। जल्दी न हो। इस क्रिया के साथ भावना करनी चाहिए कि पेट के भीतरी अवयवों का व्यायाम हो रहा है उनकी सक्रियता बढ़ रही है। पाचन तंत्र सक्षम ही रहना साथ ही मल विसर्जन की क्रिया भी ठीक होने जा रही है। इसके साथ भावना यह रहनी चाहिए लालच का अनीति उपार्जन का, असंयम का, आलस्य का अन्त हो रहा है। इसका प्रभाव आमाशय, आँत, जिगर, गुर्दे, मूत्राशय, हृदय फुफ्फुस आदि उदर के सभी अंग अवयवों पर पड़ रहा है और स्वास्थ्य की निर्बलता हटती और उसके स्थान पर बलिष्ठता सुदृढ़ होती है। तीसरा जालन्धर बंध है। इसमें पालथी मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सके उतने पर ही सन्तोष करना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा। इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाये। सांस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क शोधन का ‘कपाल भाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिए कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है। तीन ग्रन्थियों को बन्धन मुक्त करने में उपरोक्त तीन बन्धों का निर्धारण है। क्रियाओं को करते और समाप्त करते हुए मन ही मन संकल्प दुहराना चाहिए कि चह सारा अभ्यास बन्धन मुक्ति के लिए वासना, तृष्णा और अहन्ता को घटाने मिटाने के लिए किया जा रहा है। भव बन्धनों से मुक्ति जीवित अवस्था में ही होती है। मुक्ति मरने के बाद मिलेगी ऐसा नहीं सोचना चाहिए। जन्म-मरण से छुटकारा पाने जैसी बात सोचना व्यर्थ है। आत्मकल्याण और लोक मंगल का अभ्यास करने के लिए कई जन्म लेने पड़ें तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ राजा राम मोहन राय (Kahani) लोगों का मैल धोने लगा (kahani) एक प्रसिद्ध संन्यासी तन्मयता के अभाव में (Kahani) See More    नव सृजन संकल्प समारोह, नागपुर नव सृजन संकल्प समारोह, नागपुर दिनांक 26, 27, 28 जनवरी 2018यौवन जीवन का वसंत है तो युवा देश का गौरव है। दुनिया का इतिहास इसी यौवन की कथा-गाथा है। कवि ने कितना सत्य कहा है - दुनिया का इतिहास केवल ये ही बतलाता है , "जिस ओर जवानी जाती है , उस ओर जमाना जाता है " निर्माण और विकास के लिए चाहिए शक्ति -ऊर्जा और इसी ऊर्जा का श्रोत है युवा। देश और दुनिया इस समय संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। अनेकों More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/magazine_version_mobile.php on line 551

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