Monday, 21 August 2017

वेदना के नश्तर

मेनू  खोजें Gulabkothari's Blog Editorial thoughts on Most Significant Issues, Events and positive living.  TAGGED WITH RAJASTHANPATRIKA.COM वेदना के नश्तर लता मंगेशकर का नाम स्वयं में एवरेस्ट शिखर है। गायकी का पर्यायवाची बन गई हैं। करोडों लोग जिसकी प्रशंसा करते नहीं थकते और ईष्र्या करने वाले भी इतने ही होंगे। उनके साक्षात्कार की एक पंक्ति ने आत्मा को झकझोर दिया। ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’। जीवन के 80 वर्ष पार करके, सफलता की हिमालय जैसी ऊंचाइयो को नाप लेने के बाद, आज उनके मुंह से निकली यह पंक्तियां नश्तर से भी गहरी चुभने वाली हैं। आम नारी के ह्वदय की वेदना, उसकी पीडा को व्यक्त करने वाली हैं। इनमें छिपे 80 वर्ष के न जाने कितने अनुभव देश की सभ्यता और संस्कृति को चांटे मार रहे हैं। यह वक्तव्य इस बात का भी प्रमाण है कि साठ साल की आजादी के बाद हमने क्या हासिल किया। कन्या शिक्षा, नारी शक्ति योजनाएं, आरक्षण और न जाने क्या-क्या बहाने ढूंढे, नारी के नाम पर शोषण के। हमारे देश के कर्णधारों को इस बात से कुछ शर्म आएगी, पता नहीं। और जब इनकी यह कहानी है तो साधारण महिला तो नर्क में ही जी रही होगी। दरिन्दों के बीच। मुझे तो यह भी लग रहा है कि राजस्थान के सिर पर जो कन्या भ्रूण हत्या का टीका लगा हुआ है, लताजी का कथन इसी का साक्षी है। एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है, दूसरी सामाजिक।

कल ही समाचार पढा था कि आठ माह में राज्य में महिलाओं के प्रति अपराध 18.5 प्रतिशत बढे हैं। बलात्कार भी बढे हैं। लगता है कि कोई आदमी किसी औरत को हंसते हुए देखना ही नहीं चाहता। उसे यह भी समझ लेना चाहिए कि औरत के साथ धरती भी रोती है। संस्कृति और सभ्यता भी रोती है। वह चाहेगी तब तक ही आदमी हंस पाएगा।

गहराई से देखें तो इसका कारण भी स्वयं स्त्री ही है। विश्व भर में। वह लडके की तरह जीना चाहती है। पत्नी और मां बनने की सीख अब नहीं लेती। उसका प्रभुत्व घर में जिन कारणों से रहा करता था, लुप्त हो गया। कहते हैं कि शरीर की पकड नौ साल, दिमाग की पकड दो साल। उसके बाद सुख कहां

लताजी की वेदना में सामाजिक चिन्तन पर भी बडा प्रहार है। जिस प्रकार के परिवेश से लताजी गुजरीं, जिस प्रकार विवाह के संघर्ष में असफल हुई, ईष्र्याजन्य आरोपों से सदा घिरती रहीं, तब लगता है कि सुख को न धन से, न ही पद से खरीदा जा सकता है। वे छोटे परिवार में भी सुख से रह सकेंगी, यदि अगले जन्म में लडका बन पाई। शक्ति पूजा करने वाले देश को इससे बडा कौन सा अभिशाप लग सकता है सौ करोड की आबादी के देश में आधी दुनिया देश को जीने लायक ही नहीं मान रही। अपमान, संघर्ष और अपमान! जबकि देश की राष्ट्रपति स्वयं एक महिला हैं।

गुलाब कोठारी अक्टूबर 1, 20094 Replies भावनात्मक विकास समाज की इकाई है—परिवार और परिवार की इकाई है—व्यक्ति। व्यक्ति अच्छे होंगे तो परिवार भी अच्छा होगा। समाज भी अच्छा होगा और राष्ट्र भी उन्नत होगा। इसीलिए परिवार को बच्चे का पहला स्कूल कहते हैं। बच्चा परिवार के साथ-साथ अपनी धरती की संस्कृति से जुड़ता है। परिवार में ही जीवन संघर्षो का सामना करना सीखता है। उसका भावनात्मक विकास होता है। ये घटक ही आगे चलकर उसके व्यक्तित्व को समाज में स्थापित करते हैं। भावना और वासना, ये मन की दो महत्वपूर्ण अवस्थाएं हैं। ज्ञान के द्वारा मन में जमे हुए संस्कार को भावना कहते हैं तथा कर्म के द्वारा मन में जमे हुए संस्कार को वासना कहते हैं। वासना को रोकने का विधान है जबकि भावना को बढ़ाने का विधान है। बच्चा परिवार में पांच-छ: साल की उम्र से ही सीखना शुरू कर देता है। अनुभव तो उसे पहले ही होने लग जाते हैं। वह उनको अलग ढंग से अभिव्यक्त करता है। उसका आस-पास का वातावरण सीमित ही होता है और विषय भी। यह उसके निजी विकास का काल है। जब बच्चा कुछ समझने लायक होता है तो दादा-दादी, नाना-नानी उसे कहानियां सुनाना शुरू कर देते हैं। बच्चा बड़े चाव से सुनता है। इन कहानियों का आधार लालित्य और माधुर्य होता है। जिस भावनात्मक वातावरण और स्नेह के साथ ये कहानियां कही जाती हैं, यही इनका महत्वपूर्ण पहलू है। किन्तु, आज इसको ही सबसे कम महत्व दिया जाता है। जबकि बच्चों में भावनात्मक विकास का आधार इसी उपक्रम से तैयार किया जा सकता है और वह भी इसी कच्ची उम्र में। इसी आधार पर बालक आगे मिलने वाले ज्ञान को ग्रहण करता है और अपने संस्कार अर्जित करता है। जिस बच्चे के पास यह भावनात्मक आधार नहीं है, वह जीवन के संघर्ष नहीं झेल सकता। पढ़ाई में अच्छा हो सकता है, बड़ा व्यवसायी या अधिकारी भी बन सकता है, किन्तु भावनात्मक संस्कार का धरातल उसका निर्बल ही रहेगा। पूरा पाश्चात्य समाज इसका ज्वलन्त उदाहरण है। आज शिक्षा ने युवकों को नौकरी में धकेलकर संयुक्त परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया है। बच्चे से उसके दादा-दादी और नाना-नानी छीन लिए। अब इतना समय और किसी के पास नहीं है। स्कूल में इस प्रकार के विषयों का स्थान ही नहीं रहा। वहां तो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही आकलन के आधार रह गए। घर पर “होम वर्क” के आगे मानो शिक्षा ही समाप्त हो गई। बच्चों को छोटे से घर में खेलने के लिए न तो स्थान उपलब्ध है, न ही दूसरे बच्चे। ले-देकर आज टेलीविजन का प्रवेश एक अध्यापक की तरह हो गया है। इसी के आधार पर आप परिवार को पहला स्कूल कह सकते हैं। यही तय करता है कि बच्चा क्या सीखेगा? बड़ा घाटा तो बच्चे का आधारहीन होना है। भावनात्मक दृष्टि के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण इसलिए नहीं होता कि जहां उसकी दृष्टि जानी चाहिए वहां जाती ही नहीं, क्योंकि भावनात्मक संस्कार जम ही नहीं पाए हैं और न सिखाए गए हैं। अच्छी नौकरी अथवा कमाई का अर्थ अच्छा व्यक्तित्व कभी नहीं हो सकता। इसका एक अन्य प्रभाव भी पड़ता है। भावनाएं व्यक्ति को जीवन-संचालन की दृष्टि देती हैं। उसके पिछले जन्म के संस्कारों के कारण भी भावनाओं के कुछ अंश उस व्यक्ति में आते हैं। भावनात्मक विकास होने पर वह अपने अच्छे-बुरे संस्कारों का आकलन करके जीवन की दिशा तय करता है। बुरे गुणों का बहिष्कार करता है। अपने व्यक्तित्व में नया निखार पैदा करता है। समाज और राष्ट्र के लिए एक स्तम्भ के रूप में तैयार हो जाता है। इसके विपरीत, भावनात्मक विकास के बिना उसके विचारों में विशेष परिवर्तन नहीं आ पाता। अच्छे-बुरे सभी तरह के विचारों का पोषण उसमें समान रूप से होता है। बुरे विचार उसके मन को प्रभावित करते हैं और अन्तत: शरीर में रोग रूप में प्रस्फुटित होते हैं। शरीर का ग्रंथि-स्त्राव केवल वासनाओं से ही चलता है। बुरे संस्कार धीरे-धीरे ऎसे रसायन पैदा करते हैं कि कालान्तर में बड़ा रोग जड़ें जमा लेता है। जिस प्रकार क्रोध, चिन्ता आदि से रोग होते हैं, उसी प्रकार भावनात्मक निर्बलता और वासनात्मक प्रबलता भी बड़े रोगों का निमित बनती हैं। अक्टूबर 1, 20095 Replies षोडशी हमारे देश में पौराणिक देवियों को षोडशी माना जाता है। कहा जाता है कि इनकी आयु सदा सोलह साल की ही रहती है। इस प्रकार की चर्चा देवताओं के बारे में कहीं सुनने को नहीं मिलती। वास्तविकता यह है कि षोडशी शब्द के साथ ब्राह् के विस्तार में ‘पुरूष’ शब्द का अनिवार्य प्रयोग होता है। सोलह कलाओं से युक्त पुरूष भाव को षोडशी पुरूष कहा जाता है। उसके अन्तर्गत सम्पूर्ण स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि समाहित रहती है। इसमें ब्राह् और माया, दोनों की कलाएं साथ-साथ रहती हैं। ब्राह् अकेला तो कहीं होता ही नहीं है। माया स्वयं बल रूप में ब्राह् की शक्ति होती है। ब्राह् के साथ एकाकार रहती है। जब ब्राह् षोडशी है, तब माया भी निश्चित ही षोडशी है। सृष्टि के आरंभ में केवल आकाश है। जो कुछ पदार्थ आकाश (व्योम) में व्याप्त है, वही ब्राह् है। चारों ओर अंधकार है। कोई गतिविघि नहीं दिखाई पडती। ब्राह् की शक्ति सुप्त अवस्था में है। ब्राह् की स्वतंत्रता ही उसका आनन्द भाव है। ऋषि प्राण वहां ज्ञान अगिA रूप हैं। ब्राह् को सृष्टि का बीज कहते हैं। उसमें सृष्टि का पूरा नक्शा रहता है। जैसे किसी बीज में पेड, पत्ते, फल-फूल आदि रहते हैं। यह ज्ञान ही इच्छा पैदा करता है। बिना ज्ञान के कर्म नहीं होता। ज्ञान के विकास को हम कर्म कहते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि ब्राह् के ज्ञान का कर्म रूप विकास है, विवर्त है। पुन: अपने मूल स्वरूप में लौटने की क्षमता रखता है। यह इच्छा ब्राह् की शक्ति के जागरण से पैदा होती है। यह शक्ति ‘स्पन्दन शक्ति’ के नाम से शैव साहित्य में कही गई है। वेद में इसे ‘बल’ कहा गया है। इच्छा में क्रिया नहीं होती। इच्छापूर्ति की दिशा में बल या स्पन्दन शक्ति की क्रिया शुरू होती है। जिस बल से क्रिया शुरू होती है, उसे माया कहते हैं। इच्छा को ही मन रूप या मन का बीज कहा जाता है। मन पर क्रिया रूप में प्राणों की क्रिया होती है, तब कर्म होता है। इसी को वाक् कहते हैं। इस वाक् में प्राण, मन, ज्ञान (विज्ञान रूप) और आनन्द समाहित रहते हैं। यह मन अव्यय मन होता है। चूंकि स्पन्दन शक्ति पूर्ण स्वतंत्र चेतना शक्ति है, वह अपने सामथ्र्य से अपने को ही स्थूल क्रिया में विकसित कर लेती है। प्रत्येक क्रिया का मूल इच्छा रूप स्पन्दन ही है। जब तब इच्छा मन में रहती है, कोई क्रिया नहीं होती। जैसे ही स्थूल क्रिया से जुडती है, इस पर देश-काल का प्रभाव चढ जाता है। सृष्टि में प्रथम वाक् रूप अव्यय पुरूष बनता है। विष्णु की नाभि से सर्व प्रथम ब्राह् पैदा हुए। ये प्राण रूप थे। अति सूक्ष्म तत्व के रूप में पैदा हुए थे। इन्हीं के मन में इच्छा पैदा हुई-एकोहं बहुस्याम्। जिस प्रकार ब्राह् की सर्वज्ञता, पूर्णता आदि विशेषताएं अव्यय में सीमित हुईं, वैसे ही माया की शक्तियां भी यहां आकर सीमित हो जाती हैं। माया यहां पर कला, विद्या, राग, नियति और काल तत्व रूप में परिणत हो जाती है। यही ब्राह् के मूल स्वरूप का प्रथम आवरण कहलाता है। कला से सीमित आदान-प्रदान, विद्या से कर्म की विवेचना, राग से आसक्ति, काल से समय गणना और नियति से कार्य कारण भाव की सुदृढता तय होती है। षोडशी पुरूष की व्याख्या परा विद्या में विस्तार से मिलती है। यहां अव्यय, अक्षर और क्षर पुरूष की पांच-पांच कलाएं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, वाक्- ब्राह्ा, विष्णु, इन्द्र, अगिA, सोम तथा प्राण, आप, वाक्, अन्न, अन्नाद के साथ परात्पर मिलकर षोडशी पुरूष रूप आत्मा बनता है। अपरा विद्या अथवा शब्द ब्राह् में अव्यय, अक्षर और क्षर पुरूष को ही स्फोट, अक्षर और वर्ण कहा है। अक्षर और वर्ण ही स्वर और व्यंजन हैं। शैव शास्त्रों में जहां स्पन्दन रूप माया का विस्तार मिलता है, वहां माया, महामाया और प्रकृति रूप स्पन्दन ही अव्यय, अक्षर और क्षर पुरूष का शक्ति रूप विवेचन है। चूंकि सृष्टि का विकास मूलत: दो धाराओं में होता है-एक अर्थ सृष्टि, दूसरी शब्द सृष्टि अत: किसी एक धारा के ज्ञान से दूसरी का ज्ञान सहजता से हो जाता है। अर्थ सृष्टि तो लक्ष्मी का क्षेत्र है। अर्थ का निर्माण सोम की आहुति से ही होता है। विष्णु ही सोम अथवा परमेष्ठि लोक के अघिपति हैं। शब्द वाक् की अघिष्ठात्री सरस्वती है। परमेष्ठी लोक का ही दूसरा नाम सरस्वान समुद्र है। दोनों ही प्रकार की सृष्टियां वहीं से शुरू होती हैं। वहां वाक् का स्वरूप परावाक् होता है। लोक व्यवहार में देखा जाता है कि शब्द वाक् ही अर्थवाक् में परिवर्तित होता है। हमारा सारा जीवन व्यवहार शब्दों के अर्थ पर ही टिका होता है। जो विश्व हमें दिखाई देता है, वह भी अर्थ सृष्टि ही है। अर्थ के धन का पर्यायवाची नहीं है। प्राण रूप, स्थूल-सूक्ष्म-सृष्टि का वाचक है। हमारी उपासना-अनुष्ठान सभी शब्द वाक् पर आधारित हंै। मंत्रों के उच्चारण पर टिके हैं। सारे यज्ञ मंत्रों के माध्यम से पूर्ण होते हैं। फलरूप हम किसी न किसी अर्थ की कामना करते हैं। कोई धन मांगता है, कोई संतान, कोई साçन्नध्य चाहता है। सरस्वती ही लक्ष्मी रूप में बदलती है और सम्पूर्ण वाक् षोडशी रूप है। अत: देवियां सदा षोडशी रूप कहलाती हैं। सच तो यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि, जिसमें ऋषि, पितर और देव कारक बनते हैं, षोडशी स्वरूपा ही रहती है। हर देवी स्वयं में स्वतंत्र न होकर किसी न किसी देव की शक्ति ही तो है। बिना विष्णु के लक्ष्मी कहां रह सकती है। अर्थ रूपता के कारण विष्णु ही इस सृष्टि के निर्माता और पोषक हैं। ब्राह् है तो माया है। ब्राह्ा है तो सरस्वती है। हम केवल देवियों को पूजते हैं। उनके पति कभी साथ नहीं होते। इस तरह की पूजा में सामान्य लोक व्यवहार भी दिखाई नहीं पडता। षोडशी पुरूष में अव्यय की पांच कलाओं से हमारे पांच कोश बनते हैं। इसी से हमारा कारण शरीर + मन बनता है। अक्षर पुरूष हमारा सूक्ष्म शरीर और प्राण रूप आवरण बनता है। यह अव्यय पुरूष या कारण शरीर के साथ चिपका होता है। क्षर सृष्टि हमारा स्थूल शरीर है। स्थूल अन्त:करण और पंच महाभूत हैं। स्थूल पुर्यष्टक कहलाता है। यही मन-प्राण-वाक् का स्वरूप है। यही अव्यय-अक्षर-क्षर है। इसी में स्फोट, अक्षर-वर्ण का रूप समाहित रहता है। हमें षोडशी पुरूष का स्वरूप समझकर कारण शरीर के आवरणों से मुक्त होना है। अत: इसका ज्ञान हमारी प्रथम आवश्यकता है। क्योंकि हम सभी षोडशी हैं। गुलाब कोठारी सितम्बर 29, 20092 Replies सकारात्मक भाव व्यक्ति का जीवन भावों के आधार पर चलता है। भाव ही जीवन का स्वरूप तय करते हैं, जीवन को गति प्रदान करते हैं और विश्व में व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी करते हैं। भाव मन की इच्छा के साथ चलते हैं, इन पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता। व्यक्ति चाहे कि वह किसी इच्छा को पैदा ही न होने दे अथवा किसी विशेष प्रकार की इच्छा ही पैदा हो, यह सम्भव नहीं है। इच्छा को मन का “रेत” कहते हैं। “रेत” शब्द यहां बीज रूप में प्रयोग किया गया है। इच्छा मन की स्वाभाविक गति है। व्यक्ति के हाथ में है इच्छा का आकलन करके निर्णय करना कि इच्छा को पूरी करे अथवा न करे। कब पूरी करे, कैसे पूरी करे, यह निर्णय व्यक्ति के भावों पर आधारित होता है। जब व्यक्ति अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लेता है तथा जब वह एक लक्ष्य बनाकर कार्य करता है तो उसके भाव भी उसी के अनुरूप ढलने लगते हैं। व्यक्ति उसी प्रकार के भावों का अभ्यस्त होने लग जाता है। मन में उठने वाली इच्छा को वह अपने भावों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है। जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य नहीं बन पाता, उसके लिए इच्छा का महžव ही नहीं होता। वह इच्छा का जीवन-विकास में सदुपयोग नहीं कर सकता। प्रतिबिम्बित मन च†चल होता है। वह दिन में अनेक बार बदलता है, मरता है, नया पैदा होता है, हर इच्छा के साथ। वातावरण मन को बदलने में सहायक होता है। वातावरण के अनुरूप ही इच्छा का स्वरूप बन जाता है। व्यक्ति हवा के झोंके के साथ इधर-उधर डोलता है। एक दिशा में नहीं चल सकता। इसके अलावा, जीवन परिवर्तनशील भी होता है। परिवर्तन सृष्टि का अंग है। सृष्टि स्वयं परिवर्तनशील है। इसी के साथ उसके मन में परिवर्तन आते हैं। जीवनचर्या में परिवर्तन आते हैं। कामकाज के ढंग में परिवर्तन आते हैं। आज तो परिवर्तन की गति इतनी बढ़ गई है कि व्यक्ति स्वयं को इस गति से बदलने में असहाय पाता है। इस बात का भय हो गया है कि यदि समय के साथ नहीं बदल पाया तो क्या होगा। हर परिस्थिति में व्यक्ति की भावभूमि ही निर्णायक सिद्ध होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि कार्य करती है, शरीर चलता है और कार्यो का निष्पादन होता है। भावभूमि के दो मुख्य पहलू हैं सकारात्मक और नकारात्मक। भाव हमारे चिन्तन का आधार है। हमें अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त हो और अप्रिय वस्तु से छुटकारा प्राप्त कर सकें, इसी ऊहापोह में व्यक्ति लगा रहता है। उसके चिन्तन का भी यही आधार होता है। प्रिय वस्तु हाथ से छूटे नहीं, यह भी चिन्ता रहती है। व्यवहार में सब कुछ असम्भव है। प्रिय हो अथवा अप्रिय, सदा उसका योग बना ही रहे, यह सम्भव नहीं है। सब संयोग से चलता है। हम प्रिय के जाने से भी दु:खी होते हैं और अप्रिय के आने से भी। इसी प्रकार, अनेक स्थितियां हमारे चिन्तन एवं कर्म को प्रभावित करती रहती हैं। इन स्थितियों में यदि हम सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं तो अलग चित्र बनता है और नकारात्मक दृष्टिकोण से अलग बनता है। सकारात्मक भाव कल्याण-सूचक होते हैं, मैत्री, करूणा, दया, आनन्द आदि भावों से युक्त होते हैं। आशावाद से जुड़े होते हैं। नकारात्मक भावों में राग, द्वेष, ईष्र्या, लोभ, अहंकार आदि का प्रभाव विशेष होता है। निराशा का भाव बलशाली होता है। मन अनेक आशंकाओं से घिरा रहता है। प्रकृति, आकृति और अहंकृति एक साथ ही उत्पन्न होती हैं। एक-दूसरी के अनुरूप होती हैं। व्यक्ति की शिक्षा का उद्देश्य होता है इनको समझना और उसी के अनुरूप चिन्तन करना। इनमें जो ग्राह्य हो, उन्हें विकसित करना और जो अवांछनीय हों, उन्हें त्याग देना। जीवन को दिशा देने का कार्य यहीं से शुरू हो जाता है। एक बार भाव-क्रिया समझ में आ जाए और एक दिशा तय हो जाए तो बुद्धि और शरीर वैसे ही कार्य करने लगते हैं। शुद्ध सकारात्मक भाव वाले व्यक्ति का चेहरा चमकता हुआ दिखाई पड़ता है। तेजस्वी लगता है। उसका सान्निध्य सुख देता है। नकारात्मक भावभूमि से चेहरे पर कालिमा छा जाती है, आकृति क्रूर दिखाई पड़ती है। भय प्रतीत होता है। हम कार्य कुछ भी करें, किसी भी स्तर का जीवनयापन करें, भावों की सकारात्मकता से ही हमें सुख की अनुभूति हो सकती है। सकारात्मकता की एक विशेषता यह भी है कि इसमें व्यापकता का भाव होता है। संकुचन भाव नहीं होता, स्वार्थ भाव भी नगण्य होता है। विश्व-मैत्री अथवा प्राणि-मात्र के प्रति करूणा का भाव विकसित हो जाता है। इसका लाभ यह होता है कि व्यक्ति प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाता है। प्रतिक्रिया अनेक तनावों को जन्म देती है। व्यक्ति अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प में उलझा रहता है। वास्तविकता से दूर भी हो जाता है। क्रिया हो और प्रतिक्रिया न हो तो यह तनाव से मुक्ति ही है। मैत्रीपूर्ण भाव व्यक्ति को सृष्टि के साथ जोड़े रखता है। वह स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करता। सदा अप्रमत्त रहता है। प्रतिक्रिया न होने से शान्त होने लगता है। वह धीरे-धीरे मितभाषी और मिताहारी बन जाता है। शक्ति-संचय करता है। शक्ति का उपयोग जनकल्याण में करता है। उसके उत्थान का मार्ग सदा प्रशस्त रहता है। सकारात्मक भाव का एक लाभ यह भी है कि व्यक्ति वर्तमान में जीना सीख लेता है। न उसे स्मृति के जाल में अटकना पड़ता है और न ही कल्पना लोक के स्वप्न आते हैं। हर कठिन कार्य सरलता से हो जाता है। नकारात्मक भाव अहितकारी भी होते हैं और हिंसकवृत्ति वाले भी। व्यक्ति करने से पूर्व भी चिन्तित रहता है, करते समय भी चिन्तित रहता है और करने के बाद भी चिन्ता-मुक्त नहीं हो पाता। नकारात्मक भाव व्यक्ति को आशंकाओं से इतने ग्रस्त रखते हैं कि वह कुछ शुरू करने से पहले ही ठिठक जाता है। न सफलता, न सुख। अत: यदि नकारात्मक भाव आ भी जाएं तो उन पर विचार किए बिना दूसरे विषय को पकड़ लेना चाहिए। नकारात्मक भावों का कभी पोषण नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य, जिसमें ऎसे भावों का पोषण हो, त्याग देना चाहिए। आज टेलीविजन पर आने वाले अपराध भाव तथा सिनेमा से प्रसारित नकारात्मक भावों से समाज त्रस्त है। निरन्तर इनका पोषण हो रहा है। अखबार भी धीरे-धीरे इस ओर अग्रसर हैं। किसी को इसका आभास ही नहीं है कि धीमे जहर की तरह इस नकारात्मकता का प्रभाव मानवता पर कितना पड़ेगा! ये नकारात्मक भाव ही तो हैं, जो आगे चलकर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियों को जन्म देते हैं। सितम्बर 22, 20097 Replies ज्ञान-कर्म-3 जीवन में व्यवहार के दो धरातल हैं। एक ज्ञान प्रधान और दो, क्रिया प्रधान। ज्ञान प्रधानता में- संकल्प, निpय, अभिमान(मन, बुद्धि और अहंकार) तथा श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, आस्वादन और जिघ्रण (संूघना)-पांच ज्ञानेन्द्रियों- इन आठ इन्द्रियों के कार्य शामिल रहते हैं। क्रिया की प्रधानता में पांच कर्मेद्रियां-पाद, हस्त, जिह्वा, पायु और उपस्थ होती हैं। ये सभी 13 इन्द्रियां स्वयं में अचेतन हैं। माया शक्ति के स्पन्दन ही इनकी चेतना बनते हैं। माया ही इन्द्रियों को विष्ायों की ओर मोडती है तथा माया ही कार्य करने की स्वंतत्रता देती है। माया किसको कह रहे हैं। ब्रह्म उस पदार्थ का नाम है जो आकाश में उपलब्ध है। उसकी शक्ति जो अखण्डता को खण्ड-खण्ड करके विभिन्न स्वरूप बनाती है, उसे माया कहते हैं। ब्रह्म के शरीर में होने वाले सूक्ष्म स्पन्दन ही माया हैं। स्पन्दन में दोनों ओर गति होती है-भीतर भी और बाहर भी। इसी को प्रसार-संकोच अथवा अहं-विमर्श भी कहते हैं। ब्रह्म को अहं और विमर्श रूप विश्व को इदं कहा है। माया ही ब्रह्म से बिन्दु,नाद,भुवन,भाव आदि का निर्माण करती है। पदार्थ रूप में अव्यय, अक्षर, क्षर और पंच महाभूतों की जनक है। शब्द रूप में स्वर, व्यंजन, पद आदि बनाती है। सारी क्रियाएं स्पन्दन रूप में चलती हैं। हमारे शरीर का निर्माण, बुद्धि और मन की क्रियाएं सभी इसी स्पन्दन से चलती हैं। अत: बाहर हम भिन्न-भिन्न होकर भी भीतर एक ही हैं। ध्वनि की एक अन्य विशेष्ाता है कि यह वर्तुलाकार आगे बढती है। आपके मुंह से निकला हुआ शब्द हर व्यक्ति और पदार्थ से गुजरता है। उसको प्रभावित करता है। आप भी हर ध्वनि से प्रभावित होते हैं। कोई भी इसके प्रभाव रूप से बच नहीं पाता। मान लीजिए, आप किसी का अहित करने की सोचकर कोई कार्य करते हैं। इसमें आप और आपकी इच्छा, क्रिया और भाव जुडे हैं। उनके स्पन्दन बाहर निकलते हैं। जब यह उस व्यक्ति के पास पहुंचेंगे, तब उसके स्पन्दन इनका विरोध भी करेंगे। यदि उसके प्रारब्ध में अहित नहीं लिखा है, तब यह स्पन्दन उससे टकराकर आपके पास ही लौटेंगे। विशेष कर जब वह व्यक्ति आपका अहित न चाहता हो। आपके स्पन्दन और कर्म से जुडे भाव नए स्पन्दनों का, नए भावों का निर्माण करेंगे। आपका ज्ञान क्या मार्ग पकडता है, आपके मन का संकल्प किस दिशा में जाना चाहता है, आपका अपनी प्रतिक्रियाओं पर कितना नियंत्रण है(चित्त निरोध), उसी के अनुरूप मन में इच्छा पैदा होगी। जो कर्म अहित करने के लिए आप कर चुके, वे आपका भी उतना ही अहित, उसी दिशा में करेंगे। ‘ताको फूल के फूल हैं, वाको है त्रिशूल’ ही चरितार्थ होता है। हितकारी स्पन्दन व्यक्ति के मन को छू लेते हैं। उसके भाव स्वत: ही आपके प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। आप किसी अपरिचित शिशु के पास खडे होकर उसके प्रति स्त्रेह के भाव सम्प्रेषित करें। कुछ ही देर में वह आपको अपना लगने लगेगा। आपके साथ खेलने लगेगा। उसका शरीर भले छोटा है, किन्तु आत्मा वैसी ही है जैसी आपकी है। आप उसको देव मानकर पूजा करके देखिए। आपका स्वयं का मन देव तुल्य हो जाएगा। बच्चों के परिवर्तन तुरन्त दिखाई पडते हैं। बडों के परिवर्तन कभी सही होते हैं, कभी झूठे निकल जाते हैं। आप कुछ कहना चाहते हैं। कहने से पहले भीतर की प्रक्रियाओं को देखिए। कहने की इच्छा का और कहने के प्रभावों का आकलन करके देखिए। कैसे इच्छा से प्राणों में हरकत आती है, कैसे प्राण नाभि से ऊपर उठकर शब्द बनते हैं, कैसे श्वास भीतर पहंुचकर दिशा बदलती है, कैसे ध्वनि निकलती है यह सारा परिवर्तन कैसे आपके मनोभावों के साथ बदलता है। भाव हमारे कर्मो का बीज है। वैसा ही हम वृक्ष लगाते हैं। फल भी उसी अनुरूप लगते हैं। बीज कडवा या विषैला है तो दूसरों का भी अहित करते हैं और कर्म फल के रूप में अपनी जमीन को भी विषाक्त करके उजाडने का उपक्रम करते हैं। विद्या ही इस अज्ञान अथवा अविद्या के प्रभाव को निरस्त करके हमारे कर्मो को पवित्र करती है। जहां भी कर्म के साथ विद्या का योग रहता है, वहीं बुद्धियोग रहता है। इस विश्व में केवल माया ही कर्ता रूप है। उसकी स्वतंत्रता को कोई नियंत्रित नहीं कर सकता। उसका नाम ही स्वतंत्र कर्तृत्व है। वही हर कर्ता की वर्तमानता है। यही शक्ति रूप भाव विश्व के अणु-अणु को सत्ता प्रदान करने वाला चैतन्य है। प्रत्येक जड और अजड भावों का ह्वदय है। इसका कार्य रूप तो त्रिगुणात्मक प्रकृति है। सत-रज-तम से मन-बुद्धि-अहंकार बनते हैं। यही हमारी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्था है। हमारा अन्त:करण (मन-बुद्धि-अहंकार) ही चित्त रूप है। इसके साथ पांच तन्मात्राएं जुडकर सूक्ष्म शरीर का निर्माण करती हैं। यह भाव रूप है। पांच तन्मात्राएं – शब्द, रस, गंध, तेज और स्पर्श। इसी के भीतर कारण शरीर होता है, जिसके ह्वदय रूप ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र अक्षर प्राण होते हैं। सूक्ष्म और कारण शरीर सदा साथ रहते हैं, मुक्ति तक। माया के कारण ही तन्मात्राएं ज्ञानेन्द्रियों से जुडती हैं। पांचों कर्मेन्द्रियों से जुडती हैं। तन्मात्राएं ही स्थूल पांच महाभूत बनती हैं। त्रिगुण के कारण मन में भी संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। मन का सुख, बुद्धि का दु:ख और अहंकार की मूढता भी माया के स्पन्दनों से ही प्रकट होती है। अत: सुख-दु:ख पैदा करना और उनको भोगना दोनों ही कार्य माया के ही हैं। कार्यता और कतृüत्व, भोग्य और भोक्ता। अस्तित्व रूप में भाव कार्य करते हैं। आत्म उन्नति के मार्ग में विकल्प संस्कार अर्थात् अपनी भावनाओं का परिष्कार करना ही मूल प्रयत्न है। प्रतिकूल दिशा में प्रवाहमान विकल्पों को परम्परा का मार्ग बदलकर बलपूवर्क, स्वरूप चिन्तन की अनुकूल दिशा में लगाने से स्वयं ही विकल्पों का संस्कार हो जाता है। यही चित्त निरोध है। इसके लिए संकल्प की दृढता, सद्विचार, अटल श्रृद्धा और आत्म शक्ति की तीव्रता चाहिए। माया के स्पन्दन ज्ञान रूप में अन्त:करण में कार्यरत रहते हैं और क्रिया रूप में पांच स्थूल प्राणों (प्राण-अपान, उदान, समान और व्यान) के रूप में। प्रत्येक मंत्र इन्हीं प्राणों के सहारे उस स्पन्दन रूप आत्मबल से तादात्म्य प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियां संकल्प मात्र से अपने-अपने कार्यो को सिद्ध कर लेती हैं उसी प्रकार मंत्र भी मन चाहे कार्य को अधिकार पूर्वक सिद्ध करने में प्रवृत्त होते हैं। सृष्टि का विस्तार शब्द के साथ ही चलता है। आन्तर शब्दना को परा-वाणी कहते हैं। इसी में स्थूल वाचक और वाच्य शब्द राशि गर्भ में रहती है। वैखरी रूप स्थूल ध्वनियों की पृष्ठ भूमि में भी वही आन्तर विमर्श ही कार्य करता है। अत: मुख से उच्चारित ध्वनियां विचित्र प्रवाहों को उत्पन्न कर सकती हैं। मायाशक्ति के कारण ही साधारण वर्ण भी कल्पनातीत हलचल पैदा कर सकता है। फिर मंत्र क्यों नहीं कर सकता मंत्रों में स्पन्दात्मक बल स्वभाव से ही अन्तर्निहित रहता है। पहले चित्त को निर्मल करना मौलिक आवश्यकता है। विकल्पों का संस्कार करने से भावनाएं निर्मल होती हैं। मन में ‘शुद्ध विद्या’ का उदय होता है। यह शुद्ध विद्या तत्व ईश्वर से नीचे और माया से ऊपर एक अन्तरावर्ती तत्व है। वह यहां अभिप्रेत नहीं है। विद् लाभे, विद् ज्ञाने, विद्-विचारार्थक। विद्या। विद्या से शिव धर्मो का लाभ, विचार पैदा होना कि मैं अनादि धर्मा हूं, मैं स्वयं ही शक्ति केन्द्र शिव हूं। यही उन्मना(उन्मेष) अवस्था है। यही कारण है कि मंत्र का उच्चारण करते ही चित्त, मंत्र और मंत्र के देवता की सघन एकाकारता हो जाती है। तब वह वर्ण न रहकर एक अमोघ शक्ति बन जाता है। शरीर में कार्यरत सभी विषय या तो भूतात्मक होते हैं अथवा भावात्मक। भूतात्मक सारे विषय पंच महाभूतों से बने होते हैं। भावात्मक विषय आकार रहित संवेदनात्मक हैं- सुख, दु:ख, धर्म आदि। (समाप्त) गुलाब कोठारी सितम्बर 21, 2009Leave a reply पुराने पोस्टस Categories List Down Election 2009 (6) Gujjar Andolan (5) Manas-1 (23) Poem (13) Spandan (136) Special Articles (183) Stambh (10) Uncategorized (14) Videos (10) Facebook   हाल के पोस्ट जैसा अन्न- वैसा मन हे ‘नाथ’ सन्त! भय बिन होत न प्रीत जीएसटी? पूत के पांव राख से उठ पाएगी कांग्रेस? कश्मीर में आपात स्थिति किसके भरोसे महिला? नया दौर एक म्यान में दो तलवार  खोजें Read the blog in your Favourite Language Read in your own script Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam Hindi Via chitthajagat.in पुरालेख पुरालेख Top Posts जैसा अन्न- वैसा मन अगस्त 2017 रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि « जून 1 2 3 4 5 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