Tuesday, 1 August 2017
ब्रह्म-विद्या
Jai Mahakaal
ॐ शिव गुरु गोरखनाथाय नमः अगर कुछ समझ मे नही आये तो कमेन्टस बाँक्स मे पुछ सकते है ओर अपने स्वयंम के गुरुदेव की सहायता प्राप्त करे वो अति उतम है यहाँ आपको जो समझ मे आये उसका पाठ करे या जप करे पर शुद्ध मन से करे किसी के लिए बुरा ना सोचे ओर जो भी करे सोच समझकर करे क्योंकि यहाँ ग्यान देने वाले तो काफी है पर सही राह दिखाने वाले कम है ये ध्यान रखे बस. जय माँ जय बाबा महाकाल
Jai Mahakaal
ॐ शिव गुरु गोरखनाथाय नमः अगर कुछ समझ मे नही आये तो कमेन्टस बाँक्स मे पुछ सकते है ओर अपने स्वयंम के गुरुदेव की सहायता प्राप्त करे वो अति उतम है यहाँ आपको जो समझ मे आये उसका पाठ करे या जप करे पर शुद्ध मन से करे किसी के लिए बुरा ना सोचे ओर जो भी करे सोच समझकर करे क्योंकि यहाँ ग्यान देने वाले तो काफी है पर सही राह दिखाने वाले कम है ये ध्यान रखे बस. जय माँ जय बाबा महाकाल
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Friday, June 19, 2015
पर-ब्रह्म-विद्या-
तंत्र-शास्त्र भारतवर्ष की बहुत प्राचीन साधन-प्रणाली है । इसकी विशेषता यह बतलाई गई है कि इसमें आरम्भ ही से कठिन साधनाओं और कठोर तपस्याओं का विधान नहीं है, वरन् वह मनुष्य के भोग की तरह झुके हुए मन को उसी मार्ग पर चलाते हुए धीरे-धीरे त्याग की ओर प्रवृत्त करता है । इस दृष्टि से तंत्र को ऐसा साधन माना गया कि जिसका आश्रय लेकर साधारण श्रेणी के व्यक्ति भी आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं ।
यह सत्य है कि बीच के काल में तंत्र का रूप बहुत विकृत हो गया और इसका उपयोग अधिकांश मे मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि जैसे जघन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाने लगा, पर तंत्र का शुद्ध रूप ऐसा नहीं है । उसका मुख्य उद्देश्य एक-एक सीढ़ी पर चढ़कर आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँचता ही है ।
श्री महा-विपरीत-प्रत्यं- गिरा स्तोत्र
नमस्कार मन्त्रः- श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा-काल्यै नमः।
।।पूर्व-पीठिका-महे- श्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, महा-विद्यां, सर्व-सिद्धि-प्रदाय- िकां। यस्याः विज्ञान-मात्रेण, शत्रु-वर्गाः लयं गताः।।
विपरीता महा-काली, सर्व-भूत-भयंकरी। यस्याः प्रसंग-मात्रेण, कम्पते च जगत्-त्रयम्।।
न च शान्ति-प्रदः कोऽपि, परमेशो न चैव हि। देवताः प्रलयं यान्ति, किं पुनर्मानवादयः।।
पठनाद्धारणाद्देव- , सृष्टि-संहारको भवेत्। अभिचारादिकाः सर्वेया या साध्य-तमाः क्रियाः।।
स्मरेणन महा-काल्याः, नाशं जग्मुः सुरेश्वरि, सिद्धि-विद्या महा काली, परत्रेह च मोदते।।
सप्त-लक्ष-महा-विद्- ाः, गोपिताः परमेश्वरि, महा-काली महा-देवी, शंकरस्येष्ट-देवता- ।
यस्याः प्रसाद-मात्रेण, पर-ब्रह्म महेश्वरः। कृत्रिमादि-विषघ्न- सा, प्रलयाग्नि-निवर्त- का।।
त्वद्-भक्त-दशंनाद्- देवि, कम्पमानो महेश्वरः। यस्य निग्रह-मात्रेण, पृथिवी प्रलयं गता।।
दश-विद्याः सदा ज्ञाता, दश-द्वार-समाश्रिता- ः। प्राची-द्वारे भुवनेशी, दक्षिणे कालिका तथा।।
नाक्षत्री पश्चिमे द्वारे, उत्तरे भैरवी तथा। ऐशान्यां सततं देवि, प्रचण्ड-चण्डिका तथा।।
आग्नेय्यां बगला-देवी, रक्षः-कोणे मतंगिनी, धूमावती च वायव्वे, अध-ऊर्ध्वे च सुन्दरी।।
सम्मुखे षोडशी देवी, सदा जाग्रत्-स्वरुपिणी- वाम-भागे च देवेशि, महा-त्रिपुर-सुन्दर- ी।।
अंश-रुपेण देवेशि, सर्वाः देव्यः प्रतिष्ठिताः। महा-प्रत्यंगिरा सैव, विपरीता तथोदिता।।
महा-विष्णुर्यथा ज्ञातो, भुवनानां महेश्वरि। कर्ता पाता च संहर्ता, सत्यं सत्यं वदामि ते।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रद- ा देवी, महा-काली सुनिश्चिता। वेद-शास्त्र-प्रगुप- ्ता सा, न दृश्या देवतैरपि।।
अनन्त-कोटि-सूर्याभ- ा, सर्व-शत्रु-भयंकरी।- ध्यान-ज्ञान-विहीना- सा, वेदान्तामृत-वर्षि- ी।।
सर्व-मन्त्र-मयी काली, निगमागम-कारिणी। निगमागम-कारी सा, महा-प्रलय-कारिणी।।-
यस्या अंग-घर्म-लवा, सा गंगा परमोदिता। महा-काली नगेन्द्रस्था, विपरीता महोदयाः।।
यत्र-यत्र प्रत्यंगिरा, तत्र काली प्रतिष्ठिता। सदा स्मरण-मात्रेण, शत्रूणां निगमागमाः।।
नाशं जग्मुः नाशमायुः सत्यं सत्यं वदामि ते। पर-ब्रह्म महा-देवि, पूजनैरीश्वरो भवेत्।।
शिव-कोटि-समो योगी, विष्णु-कोटि-समः स्थिरः। सर्वैराराधिता सा वै, भुक्ति-मुक्ति-प्रद- ायिनी।।
गुरु-मन्त्र-शतं जप्त्वा, श्वेत-सर्षपमानयेत- । दश-दिशो विकिरेत् तान्, सर्व-शत्रु-क्षयाप्- तये।।
भक्त-रक्षां शत्रु-नाशं, सा करोति च तत्क्षणात्। ततस्तु पाठ-मात्रेण, शत्रुणां मारणं भवेत्।।
गुरु-मन्त्रः- “ॐ हूं स्फारय-स्फारय, मारय-मारय, शत्रु-वर्गान् नाशय-नाशय स्वाहा।”
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा-स्तोत्र-म- ाला-मन्त्रस्य श्रीमहा-काल-भैरव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा देवता, हूं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, मम श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा-प्रसादात- सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर- वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्- यर्थे वा पाठे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-
शिरसि श्रीमहा-काल-भैरव ऋषये नमः। मुखे त्रिष्टुप् छन्दसे नमः। हृदि श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा देवतायै नमः। गुह्ये हूं बीजाय नमः। पादयोः ह्रीं शक्तये नमः। नाभौ क्लीं कीलकाय नमः। सर्वांगे मम श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा-प्रसादात- सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर- वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्- यर्थे वा पाठे विनियोगाय नमः।
कर-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ तर्जनीभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ मध्यमाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अनामिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कर-तल-द्वयोर्नमः।
हृदयादि-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ हृदयाय नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिरसे स्वाहा। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिखायै वषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कवचाय हुम्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ नेत्र-त्रयाय वौषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अस्त्राय फट्।
।।मूल स्तोत्र-पाठ।।
ॐ नमो विपरीत-प्रत्यंगिर- यै सहस्त्रानेक-कार्य– लोचनायै कोटि-विद्युज्जिह्- ायै महा-व्याव्यापिन्य- संहार-रुपायै जन्म-शान्ति-कारिण्- यै। मम स-परिवारकस्य भावि-भूत-भवच्छत्रू- न् स-दाराऽपत्यान् संहारय संहारय, महा-प्रभावं दर्शय दर्शय, हिलि हिलि, किलि किलि, मिलि मिलि, चिलि चिलि, भूरि भूरि, विद्युज्जिह्वे, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, ध्वंसय ध्वंसय, प्रध्वंसय प्रध्वंसय, ग्रासय ग्रासय, पिब पिब, नाशय नाशय, त्रासय त्रासय, वित्रासय वित्रासय, मारय मारय, विमारय विमारय, भ्रामय भ्रामय, विभ्रामय विभ्रामय, द्रावय द्रावय, विद्रावय विद्रावय हूं हूं फट् स्वाहा।।२४
हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- , हूं लं ह्रीं लं क्लीं लं ॐ लं फट् फट् स्वाहा। हूं लं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- । मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रून् देवता-पितृ-पिशाच-न- ग-गरुड़-किन्नर-विद- याधर-गन्धर्व-यक्ष– राक्षस-लोक-पालान् ग्रह-भूत-नर-लोकान् स-मन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् बाणैः छिन्दि छिन्दि, भिन्धि भिन्धि, निकृन्तय निकृन्तय, छेदय छेदय, उच्चाटय उच्चाटय, मारय मारय, तेषां साहंकारादि-धर्मान- कीलय कीलय, घातय घातय, नाशय नाशय, विपरीत-प्रत्यंगिर- । स्फ्रें स्फ्रेंत्कारिणि। ॐ ॐ जं जं जं जं जं, ॐ ठः ठः ठः ठः ठः मम स-परिवारकस्य शत्रूणां सर्वाः विद्याः स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, हस्तौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, मुखं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, नेत्राणि स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, दन्तान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, जिह्वां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, पादौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, गुह्यं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स-कुटुम्बानां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स्थानं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, सम्प्राणान् कीलय कीलय, नाशय नाशय, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, फट् फट् स्वाहा ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं।।२५
ऐं ह्रूं ह्रीं क्लीं हूं सों विपरीत-प्रत्यंगिर- , मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रू- ामुच्चाटनं कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो भगवति, विपरीत-प्रत्यंगिर- , दुष्ट-चाण्डालिनि, त्रिशूल-वज्रांकुश– शक्ति-शूल-धनुः-शर-प- श-धारिणि, शत्रु-रुधिर-चर्म मेदो-मांसास्थि-मज्- जा-शुक्र-मेहन्-वसा– ाक्-प्राण-मस्तक-हे- त्वादि-भक्षिणि, पर-ब्रह्म-शिवे, ज्वाला-दायिनि, ज्वाला-मालिनि, शत्रुच्चाटन-मारण-क- ्षोभण-स्तम्भन-मोहन- -द्रावण-जृम्भण-भ्र- मण-रौद्रण-सन्तापन– न्त्र-मन्त्र-तन्त- रान्तर्याग-पुरश्- रण-भूत-शुद्धि-पूजा– फल-परम-निर्वाण-हरण– ारिणि, कपाल-खट्वांग-परशु– ारिणि। मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रु- ् स-सहायान् स-वाहनान् हन हन रण रण, दह दह, दम दम, धम धम, पच पच, मथ मथ, लंघय लंघय, खादय खादय, चर्वय चर्वय, व्यथय व्यथय, ज्वरय ज्वरय, मूकान् कुरु कुरु, ज्ञानं हर हर, हूं हूं फट् फट् स्वाहा।।२६
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- । ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य कृत मन्त्र-यन्त्र-तन्त- ्र-हवन-कृत्यौषध-वि- -चूर्ण-शस्त्राद्य- िचार-सर्वोपद्रवाद- िकं येन कृतं, कारितं, कुरुते, करिष्यति, तान् सर्वान् हन हन, स्फारय स्फारय, सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२७
ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ अं विपरीत-प्रत्यंगिर- , मम स-परिवारकस्य शत्रवः कुर्वन्ति, करिष्यन्ति, शत्रुस्च, कारयामास, कारयिष्यन्ति, याऽ याऽन्यां कृत्यान् तैः सार्द्ध तांस्तां विपरीतां कुरु कुरु, नाशय नाशय, मारय मारय, श्मशानस्थां कुरु कुरु, कृत्यादिकां क्रियां भावि-भूत-भवच्छत्रू- णां यावत् कृत्यादिकां विपरीतां कुरु कुरु, तान् डाकिनी-मुखे हारय हारय, भीषय भीषय, त्रासय त्रासय, मारय मारय, परम-शमन-रुपेण हन हन, धर्मावच्छिन्न-निर- वाणं हर हर, तेषां इष्ट-देवानां शासय शासय, क्षोभय क्षोभय, प्राणादि-मनो-बुद्ध- यहंकार-क्षुत्-तृष्- णाऽऽकर्षण-लयन-आवाग- मन-मरणादिकं नाशय नाशय, हूं हूं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ॐ फट् फट् स्वाहा।२८
क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- , हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२९
अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। ङं घं गं खं कं। ञं झं जं छं चं। णं ढं डं ठं टं। नं धं दं थं तं। मं भं बं फं पं। वं लं रं यं। क्षं ऴं हं सं षं शं। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मम स-परिवारकस्य स्थाने मम शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त- ्रार्चन-श्मशानारो- ण-भूमि-स्थापन-भस्म- -प्रक्षेपण-पुरश्चर- ण-होमाभिषेकादिकान- कृत्यान् दूरी कुरु कुरु, नाशं कुरु कुरु, हूं विपरीत-प्रत्यंगिर- । मां स-परिवारकं सर्वतः सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूं ह्रीं फट् स्वाहा।।३०
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- । हूं ह्रीं क्लीं ॐ फट् स्वाहा। ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। विपरीत-प्रत्यंगिर- । मम स-परिवारकस्य शत्रूणां विपरीतादि-क्रियां नाशय नाशय, त्रुटिं कुरु कुरु, तेषामिष्ट-देवतादि– विनाशं कुरु कुरु, सिद्धिं अपनयापनय, विपरीत-प्रत्यंगिर- , शत्रु-मर्दिनि। भयंकरि। नाना-कृत्यादि-मर्द- िनि, ज्वालिनि, महा-घोर-तरे, त्रिभुवन-भयंकरि शत्रूणां मम स-परिवारकस्य चक्षुः-श्रोत्रादि– पादौं सवतः सर्वेभ्यः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।३१
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वसुन्धरे। मम स-परिवारकस्य स्थानं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३२
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ महा-लक्ष्मि। मम स-परिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३३
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चण्डिके। मम स-परिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३४
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चामुण्डे। मम स-परिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३५
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ इन्द्राणि। मम स-परिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३६
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ नारसिंहि। मम स-परिवारकस्य बाहू रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३७
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वाराहि। मम स-परिवारकस्य हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३८
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वैष्णवि। मम स-परिवारकस्य कण्ठं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३९
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ कौमारि। मम स-परिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४०
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ माहेश्वरि। मम स-परिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४१
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ब्रह्माणि। मम स-परिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४२
हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- । मम स-परिवारकस्य छिद्रं सर्व गात्राणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४३
सन्तापिनी संहारिणी, रौद्री च भ्रामिणी तथा।जृम्भिणी द्राविणी चैव, क्षोभिणि मोहिनी ततः।।
स्तम्भिनी चांडशरुपास्ताः, शत्रु-पक्षे नियोजिताः। प्रेरिता साधकेन्द्रेण, दुष्ट-शत्रु-प्रमर्- दिकाः।।
ॐ सन्तापिनि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् सन्तापय सन्तापय हूं फट् स्वाहा।।४४
ॐ संहारिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् संहारय संहारय हूं फट् स्वाहा।।४५
ॐ रौद्रि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् रौद्रय रौद्रय हूं फट् स्वाहा।।४६
ॐ भ्रामिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् भ्रामय भ्रामय हूं फट् स्वाहा।।४७
ॐ जृम्भिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् जृम्भय जृम्भय हूं फट् स्वाहा।।४८
ॐ द्राविणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् द्रावय द्रावय हूं फट् स्वाहा।।४९
ॐ क्षोभिणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् क्षोभय क्षोभय हूं फट् स्वाहा।।५०
ॐ मोहिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् मोहय मोहय हूं फट् स्वाहा।।५१
ॐ स्तम्भिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय हूं फट् स्वाहा।।५२
।।फल-श्रुति।।
श्रृणोति य इमां विद्यां, श्रृणोति च सदाऽपि ताम्। यावत् कृत्यादि-शत्रूणां,- तत्क्षणादेव नश्यति।।
मारणं शत्रु-वर्गाणां, रक्षणाय चात्म-परम्। आयुर्वृद्धिर्यशो– ृद्धिस्तेजो-वृद्- िस्तथैव च।।
कुबेर इव वित्ताढ्यः, सर्व-सौख्यमवाप्नु- ात्। वाय्वादीनामुपशमं, विषम-ज्वर-नाशनम्।।-
पर-वित्त-हरा सा वै, पर-प्राण-हरा तथा। पर-क्षोभादिक-करा, तथा सम्पत्-करा शुभा।।
स्मृति-मात्रेण देवेशि। शत्रु-वर्गाः लयं गताः। इदं सत्यमिदं सत्यं, दुर्लभा देवतैरपि।।
शठाय पर-शिष्याय, न प्रकाश्या कदाचन। पुत्राय भक्ति-युक्ताय, स्व-शिष्याय तपस्विने।।
प्रदातव्या महा-विद्या, चात्म-वर्ग-प्रदायत- ः। विना ध्यानैर्विना जापैर्वना पूजा-विधानतः।।
विना षोढा विना ज्ञानैर्मोक्ष-सिद- धिः प्रजायते। पर-नारी-हरा विद्या, पर-रुप-हरा तथा।।
वायु-चन्द्र-स्तम्भ- -करा, मैथुनानन्द-संयुता- त्रि-सन्ध्यमेक-सन्- ध्यं वा, यः पठेद्भक्तितः सदा।।
सत्यं वदामि देवेशि। मम कोटि-समो भवेत्। क्रोधाद्देव-गणाः सर्वे, लयं यास्यन्ति निश्चितम्।।
किं पुनर्मानवा देवि। भूत-प्रेतादयो मृताः। विपरीत-समा विद्या, न भूता न भविष्यति।।
पठनान्ते पर-ब्रह्म-विद्यां स-भास्करां तथा। मातृकांपुटितं देवि, दशधा प्रजपेत् सुधीः।।
वेदादि-पुटिता देवि। मातृकाऽनन्त-रुपिण- । तया हि पुटितां विद्यां, प्रजपेत् साधकोत्तमः।।
मनो जित्वा जपेल्लोकं, भोग रोगं तथा यजेत्। दीनतां हीनतां जित्वा, कामिनी निर्वाण-पद्धतिम्।-
पर-ब्रह्म-विद्या-
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-म- ा-प्रत्यंगिरे ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ, अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ। (१० वारं जपेत्)।।६६ से ७५ प्रार्थना-
ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-म- ा-प्रत्यंगिरे। स-परिवारकस्य सर्वेभ्यः सर्वतः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु, मरण-भयमपनयापनय, त्रि-जगतां बल-रुप-वित्तायुर्म- े स-परिवारकस्य देहि देहि, दापय दापय, साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि, विश्व-रुपे। धनं पुत्रान् देहि देहि, मां स-परिवारकं, मां पश्यन्तु। देहिनः सर्वे हिंसकाः हि प्रलयं यान्तु, मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रूणां बल-बुद्धि-हानिं कुरु कुरु, तान् स-सहायान् सेष्ट-देवान् संहारय संहारय, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त- ्र-लोकान् प्राणान् हर हर, हारय हारय, स्वाभिचारमपनयापन- , ब्रह्मास्त्रादीन- नाशय नाशय, हूं हूं स्फ्रें स्फ्रें ठः ठः ठः फट् फट् स्वाहा।।
।।इति श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा-स्तोत्रम- ।।
विशेष ज्ञातव्यः-
शास्त्रों में प्रायः सभी महा-विद्याओं और अन्य देवताओं के ‘विपरीत-प्रत्यंगिर- ा मन्त्र-स्तोत्रादि’- मिलते हैं, किन्तु यह स्तोत्र उन सबकी चरम सीमा है। इसकी ‘पूर्व-पीठिका’ और ‘फल-श्रुति’ में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। केवल करने की सामर्थ्य भर हो। किसी भी प्रकार का अभिचार, रोग, ग्रह-पीड़ा, देव-पीड़ा, दुर्भाग्य, शत्रु या राज-भय आदि क्या है ऐसा, जिसका शमन इससे नहीं हो सकता। इसके साधक को ‘कृत्या’ देख भी नहीं सकती, अहित कर पाना तो आकाश-कुसुम है।
१॰ पूर्व-पीठिका के तेईस श्लोकों का पाठ करके, दस दाने सफेद सरसों (इसे ही पीली सरसों भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-सिद्धार्थ, राई, राजिका आदि।) लेकर गुरु-मन्त्र से १०० बार (१०८ बार नहीं) अभिमन्त्रित कर दशों दिशाओं में दस-दस दाना फेंक दें। फिर विनियोगादि आगे की क्रिया करके पाठ करें।
आप चाहें तो सरसों के दाने अधिक भी ले सकते हैं, किन्तु सभी दिशाओं में दाने समान संख्या में फेंके।
२॰ फल-श्रुति के अन्त में ‘पर-ब्रह्म-विद्या’ का १० बार जप करें। यदि अधिक संख्या में पाठ करें, तो ‘पर-ब्रह्म-विद्या’ का जप केवल प्रथम और अन्तिम पाठ में करें। बीच के पाठों मं। मात्र ‘स्तोत्र’ का पाठ होगा।
३॰ पुरश्चरण आवश्यक नहीं है, किन्तु सर्वोत्तम होगा कि विधि-पूर्वक १००० पाठ कर लिए जाएँ। प्रयोग के लिए १०० पाठ पर्याप्त है, यदि आवश्यक हो तो अधिक करें। ५॰ पुरश्चरण और प्रयोग काल में नित्य शिवा-बलि अवश्य दें। कौल-साधक तत्त्वों से तथा पाशव-कल्प के साधक अनुकल्पों से बलि दें।……
2…♥ ♥ ♥ अथ श्री कालभैरवाष्टकं ♥ ♥ ♥ ….
देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं
व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् ।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥1॥
भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं
नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥2॥
शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं
श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥३॥
भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥४॥
धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं
कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्डलं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥५॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं
नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् ।
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥६ll
अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं
दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम् ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥७॥
भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं
काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥८॥
कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं
प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥९॥
3…..देवताओं के उपासनासंबंध से तंत्र का भेदनिरूपण संक्षेप में कुछ इस प्रकार होगा-
1. काली (भैरव; महाकाल) के नाना प्रकार के भेद हैं, जैसे, दक्षिणाकाली, भद्रकाली। काली दक्षिणान्वय की देवता हैं। श्यमशान काली उत्तरान्वय की देवता हैं। इसके अतिरिक्त कामकला काली, धन-काली, सिद्धकाली, चंडीकाली प्रभृति काली के भेद भी हैं।
2. महाकाली के कई नाम प्रसिद्ध हैं। नारद , पांचरात्र , आदि ग्रंथों से पता चलता है कि विश्वामित्र ने काली के अनुग्रह से ही ब्रह्मण्य-लाभ किया था। काली के विषय में ‘शक्तिसंगम तंत्र’ के अनुसार काली और त्रिपुरा विद्या का साद्दश्य दिखाई देता है-
काली त्रिपुरा
एकाक्षरी बाला
सिद्धकाली पंचदशी
दक्षिणाकाली षोडशी
कामकला काली पराप्रसाद
हंसकाली चरणदीक्षा
गुह्मकाली षट्संभव परमेंश्वरी
दस महाविद्यायों में ‘संमोहन तंत्र’ के अनुसार ये भेद हैं –
वाममार्गी दक्षिणमार्गी
छित्रा बाला, कमला
सुमुखी भुवनेश्वरी, लक्ष्मी, तारा, बगला, सुंदरी, तथा राजमातंगी।
काली के विषय में कुछ प्रसिद्ध तंत्र ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं-
1. महाकाल संहिता, (50 सहस्रश्लोकात्मक अथवा अधिक)
2. परातंत्र (यह काली विष्यक प्राचीन तंत्र ग्रंथ है। इसमें चार पटल हैं, एक ही महाशक्ति पÏट्सहानारूढा षडान्वया देवी हैं। इस ग्रंथ के अनुसार पूर्वान्वय की अधिष्ठातृ देवी पूर्णोश्वरी, दक्षिणान्वय की विश्वेश्वरी, पूर्वान्य की कुब्जिका, उत्तरान्वय की काली, ऊद्र्धान्वय की श्रीविद्या।)
3. काली यामल; 4. कुमारी तंत्र; 5. काली सुधानिध; 6. कालिका मत; 9. काली कल्पलता; 8. काली कुलार्णव; 5. काली सार; 10 कालीतंत्र; 11. कालिका कुलसद्भाव; 13. कालीतंत्र; 14. । 15. कालज्ञान और कालज्ञान के परिशिष्टरूप में कालोत्तर; 16. काली सूक्त; 17. कालिकोपनिषद्; 18. काली तत्व (रामभटटकृत); 19. भद्रकाली चितामणि; 20. कालीतत्व रहस्य; 21. कालीक्रम कालीकल्प या श्यामाकल्प; 22. कालीऊध्र्वान्वय; 23. कालीकुल; 24. कालीक्रम; 25. कालिकोद्भव; 26. कालीविलास तंत्र; 27. कालीकुलावलि; 28. वामकेशसंहिता; 29. काली तत्वामृत; 30. कालिकार्चामुकुर; 31. काली या श्यामारहस्य (श्रीनिवास कृत); 33. कालिकाक्रम; 34. कालिका ह्रदय; 35. काली खंड (शक्तिसंगम तंत्र का);36. काली-कुलामृत; 37. कालिकोपनिषद् सार; 38. काली कुल क्रमार्चन (विमल बोध कृत); 39. काली सपर्याविधि (काशीनाथ तर्कालंकार भट्टाचार्य कृत); 40. काली तंत्र सुधसिंधु (काली प्रसाद कृत); 41. कुलमुक्ति कल्लोलिनी (अव्दानंद कृत); 24. काली शाबर; 43. कौलावली; 44. कालीसार; 45. कालिकार्चन दीपिका (लगदानंद कृत); 46. श्यामर्चन तरंगिणी (विश्वनाथ कृत); 47. कुल प्रकाश; 48. काली तत्वामृत (बलभद्र कृत); 49. काली भक्ति रसायन (काशीनाथ भट्ट कृत); 50. कालीकुल सर्वस्व; 51. काली सुधानिधि; 52. कालिकोद्रव (?); 53. कालीकुलार्णव; 54. कालिकाकुल सर्वस्व; 56. कालोपरा; 57. कालिकार्चन चंद्रिका (केशवकृत) इत्यादि।
2- तारा : तारा के विषय में निम्नलिखित तंत्र ग्रथ विशेष उल्लेखनीय हैं-
1 तारणीतंत्र; 2. तोडलतंत्र; 3- तारार्णव; 4- नील-तंत्र; 5- महानीलतंत्र; 6- नील सरस्वतीतंत्र; 7- चीलाचार; 8- तंत्ररत्न; 9- ताराशाबर तंत्र; 10- तारासुधा; 11- तारमुक्ति सुधार्णव (नरसिंह ठाकुर कृत); 12- तारकल्पलता; – (श्रीनिवास कृत) ; 13- ताराप्रदीप (लक्ष्मणभट्ट कृत) ; 14- तारासूक्त; 15- एक जटीतंत्र; 16- एकजटीकल्प; 17- महाचीनाचार क्रम (ब्रह्म यामल स्थित) 18- तारारहस्य वृति; 19- तारामुक्ति तरंगिणी (काशीनाथ कृत); 20- तारामुक्ति तरंगिणी (प्रकाशनंद कृत); 21- तारामुक्ति तरंगिणी (विमलानंद कृत); 22- महाग्रतारातंत्र; 23- एकवीरतंत्र; 24- तारणीनिर्णय; 25- ताराकल्पलता पद्धति (नित्यानंद कृत); 26- तारिणीपारिजात (विद्वत् उपाध्याय कृत); 27- तारासहस्स्र नाम (अभेदचिंतामणिनामक टीका सहित); 28- ताराकुलपुरुष; 29- तारोपनिषद्; 30- ताराविलासोदय ) (वासुदेवकृत)।
‘तारारहस्यवृत्ति’ में शंकराचार्य ने कहा है कि वामाचार, दक्षिणाचार तथा सिद्धांताचार में सालोक्यमुक्ति संभव है। परंतु सायुज्य मुक्ति केवल कुलागम से ही प्राप्य है। इसमें और भी लिखा गया है कि तारा ही परा वग्रूपा, पूर्णाहंतामयी है। शक्तिसंगमतंत्र में भी तारा का विषय वर्णित है। रूद्रयामल के अनुसार प्रलय के अनंतर सृष्टि के पहले एक वृहद् अंड का आविर्भाव होता है। उसमें चतुर्भुज विष्णु प्रकट होते हैं जिनकी नाभि में ब्रह्मा ने विष्णु से पूछा- किसी आराधना से चतुभ्र्वेद का ज्ञान होता है। विष्णु ने कहा रूद्र से पूछो- रूद्र ने कहा मेरू के पश्चिम कुल में चोलह्द में वेदमाता नील सरस्वती का आविर्भाव हुआ। इनका निर्गम रूद्र के ऊध्र्व वस्त्र से है। यह तेजरूप से निकलकर चौलह्रद में गिर पड़ीं और नीलवर्ण धारण किया। ह्रद के भीतर अक्षोभ्य ऋषि विद्यमान थे। यह रूद्रयामल की कथा है।
1. षोडशी (श्रीविद्या) : श्रीविद्या का नामांकर है षोडशी। त्रिपुरसंुदरी, त्रिपुरा, ललिता, आदि भी उन्हीं के नाम है। इनके भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनंत नाम और अनंत रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के सतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंतारूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है। उनके उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुहय विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं। – यथा, मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दुर्वासा)। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था।
श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपुरउपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता हैद्य लोपामुद्रा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया थाद्य त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त कियाद्। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।
दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धि है कि –
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो;
यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां,
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।,
अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।
त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम ललिता है। ऐसी किवदंती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किरण जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तर विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण करें। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।
श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। संमोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महा विद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना । दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।
गोड़ संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं। त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।
हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषदद्य में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षरवाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।
मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्त्र चतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण हैद्य यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिसपर शंकराचाय्र की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।
इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्ति सूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृतकल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचना 1753 शकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्न सूत्र प्रसिद्ध है। इसपर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुर सूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदु सूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौल सूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।
स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चा ने सौंदर्य लहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललिता सहस्र नाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।
श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।
तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।
भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।
ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है। जो सुंदरी से भिन्न है उसमें प्रपंच नहीं है। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीविद्या विषयक कुछ ग्रंथ ये हैं-
1. तंत्रराज- इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगानंदनाथ कृत मनोरमा मुख्य है। इसपर प्रेमनिधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी है। भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं।
2. तंत्रराजोत्तर
3. परानंद या परमानंद तंत्र – किसी किसी के अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासनाग्रंथ है। इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ। कल्पसूत्र वृत्ति से मालूम होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी।
4. सौभाग्य कल्पद्रुम परमानंद के अनुसार यह श्रेक्ष्ठ ग्रंथ है।
5. सौभाग्य कल्पलतिका क्षेमानंद कृत।
6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) इसपर भास्कर की सेतुबंध टीका प्रसिद्ध है। जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है।
7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है।
8-9. श्री क्रम संहिता तथा वृहद श्री क्रम संहिता।
10. दक्षिणामूर्त्ति संहिता – यह 66 पटल में है।
11. स्वच्छंद तंत्र अथवा स्वच्छंद संग्रह।
12. कालात्तर वासना सौभाग्य कल्पद्रुप में इसकी चर्चा आई है।
13. त्रिपुरार्णव। 14. श्रीपराक्रम: इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका में है।
15. ललितार्चन चंद्रिका – यह 17 अध्याय में है।
16. सौभाग्य तंत्रोत्तर। 17. मातृकार्णव
18. सौभाग्य रत्नाकर: (विद्यानंदनाथ कृत)
19. सौभाग्य सुभगोदय – (अमृतानंदनाथ कृत)
20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड)
21. त्रिपुरा रहस्य – (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड)
22. श्रीक्रमात्तम – (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत)
23. अज्ञात अवतार – इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं।
24-25. सुभगार्चापारिजात, सुभगार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका उल्लेख है।
26. चंद्रपीठ
27. संकेतपादुका
28. सुंदरीमहोदय – शंकरानंदनाथा कृत
29. हृदयामृत- (उमानंदनाथ कृत)
30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपुरा माहात्म्य है।
31. ललितोपाख्यान – यह ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में है।
32. त्रिपुरासार समुच्चय (लालूभट्ट कृत) 33. श्री तत्वचिंतामणि (पूर्णानंदकृत)
34. विरूपाक्ष पंचाशिका 35. कामकला विलास 36. श्री विद्यार्णव
37. शाक्त क्रम (पूर्णानंदकृत)
38. ललिता स्वच्छंद
39. ललिताविलास
40. प्रपंचसार (शंकराचार्य कृत)
41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत)
42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत)
43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत)
44. त्रिपुरासार
45. सौभाग्य सुभगोदय: विद्यानंद नाथ कृत
46. संकेत पद्धति
47. परापूजाक्रम
48. चिदंबर नट।
तंत्रराज (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है- नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानंद नाथ ने अपनी मनोरमा टीका में कहा है- इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है- सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातृकातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र, बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिनीह्रदय से तादात्म्य है। वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पृथक् पृथक् उल्लेख भी हुआ है। नित्याषोडशार्णव में पृथक् रूप से इसका उल्लेख किया गया है, परंतु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है।
दस महाविद्या: इस महाविद्याओं में पहली त्रिशक्तियों का प्रतिष्ठान जिन ग्रंथों में है उनमें से संक्षेप में कुछ ग्रंथों के नाम ऊपर दिए गए हैं। भुवनेश्वरी के विषय में भुवनेश्वरी रहस्य मुख्य ग्रंथ है। यह 26 पटलों में पूर्ण है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी अर्चन पद्धति एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। ये पृश्रवीधर गांविंदपाद के शिष्य शंकराचार्य के शिष्य रूप से परिचित हैं। भुवनेश्वरीतंत्र नाम से एक मूल तंत्रग्रंथ भी मिलता हैं। इसी प्रकार राजस्थान पुरात्तत्व ग्रथमाला में पृथ्वीधर का भुवनेश्वरी महास्तोत्र मुद्रित हुआ है।
भैरवी के विषय में भैरवीतंत्र’ प्रधान ग्रंथ है। यह प्राचीन ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त भैरवीरहस्य , भैरवी सपयाविधि आदि ग्रंथ भी मिलते हैं। पुरश्चर्यार्णव नामक ग्रंथ में भैरवी यामल का उल्लेख है।
भैरवी के नाना प्रकार के भेद हैं- जैसे, सिद्ध भैरवी, त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षटकुटा भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी, इत्यादि। फ़ सिद्ध भैरवीफ़ उत्तरान्वय पीठ की देवता है। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता है। नित्या भैरवी पश्चिमान्वय की देवता है। भद्र भैरवी महाविष्णु उपासिका और दक्षिणासिंहासनारूढा है। त्रिपुराभैरवी चतुर्भुजा है। भैरवी के भैरव का नाम बटुक है। इस महाविद्या और दशावतार की तुलना करने पर भैरवी एवं नृसिंह को अभिन्न माना जाता है।
‘बगला का मुख्य ग्रंथ है – सांख्यायन तंत्र । यह 30 पटलों में पूर्ण है। यह ईश्वर और क्रौंच भेदन का संबंद्ध रूप है। इस तंत्र को षट् विद्यागम कहा जाता है। बगलाक्रम कल्पवल्ली नाम से यह ग्रंथ मिलता है जिसमें देवी के उद्भव का वर्णन हुआ है। प्रसिद्धि है कि सतयुग में चारचर जगत् के विनाश के लिये जब वातीक्षीम हुआ था उस समय भगवान् तपस्या करते हुए त्रिपुरा देवी की स्तुति करने लगे। देवी प्रसन्न होकर सौराष्ट्र देश में वीर रात्रि के दिन माघ मास में चतुर्दशी तिथि की प्रकट हुई थीं। इस वगलादेवी को त्रैलोक्य स्तंभिनी विद्या जाता है।
घूमवती के विषय में विशेष व्यापक साहित्य नहीं है। इनके भैरव का नाम कालभैरव है। किसी किसी मत में घूमवती के विधवा होने के कारण उनका कोई भैरव नहीं है। वे अक्ष्य तृतीया को प्रदीप काल में प्रकट हुई थीं। वे उत्तरान्वय की देवता हैं। अवतारों में वामन का धूमवती से तादात्म्य है। धूमवती के ध्यान से पता चलता है कि वे काकध्वज रथ में आरूढ़ हैं। हस्त में शुल्प (सूप) हैं। मुख सूत पिपासाकातर है। उच्चाटन के समय देवी का आवाहन किया जाता है। फ़ प्राणातोषिनीफ़ ग्रंथ में धूवती का आविर्भाव दर्णित हुआ है।
मातंगी का नामांतर सुमुखी है। मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी कहा जाता है। मातंगी के विभिन्न प्रकार के भेद हैं-
उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सुमुखी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि। ये दक्षिण तथा पश्चिम अन्वय की देवता हैं। ब्रह्मयामल के अनुसार मातंग मुनि ने दीर्घकालीन तपस्या द्वारा देवी को कन्यारूप में प्राप्त किया था। यह भी प्रसिद्धि है कि धने वन में मातंग ऋषि तपस्या करते थे। क्रूर विभूतियों के दमन के लिये उस स्थान में त्रिपुरसुंदरी के चक्षु से एक तेज निकल पड़ा। काली उसी तेज के द्वारा श्यामल रूप धारण करके राजमातंगी रूप में प्रकट हुईं। मातंगी के भैरव का नाम सदाशिव है। मातंगी के विषय में मातंगी सपर्या , रामभट्ट का मातंगीपद्धति शिवानंद का मंत्रपद्धति है। मंत्रपद्धति सिद्धांतसिधु का एक अध्याय है। काशीवासी शंकर नामक एक सिद्ध उपासक सुमुखी पूजापद्धति के रचयिता थे। शंकर सुंदरानंद नाथ के शिष्य (छठी पीढ़ी में) प्रसिद्ध विद्यारणय स्वामी की शिष्यपरंपरा में थे।
4…भगवती भद्रकाली के ध्यान
तन्त्रों में भगवती भद्रकाली का ध्यान इस प्रकार दिया गया है –
“डिम्भं डिम्भं सुडिम्भं पच मन दुहसां झ प्रकम्पं प्रझम्पं, विल्लं त्रिल्लं
त्रि-त्रिल्लं त्रिखलमख-मखा खं खमं खं खमं खम् ।
गूहं गूहं तु गुह्यं गुडलुगड गुदा दाडिया डिम्बुदेति,
नृत्यन्ती शब्दवाद्यैः प्रलयपितृवने श्रेयसे वोऽस्तु काली ।।”
भद्रकाली के भी दो भेद हैं (१) विपरित प्रत्यंगिरा भद्रकाली तथा (२) षोडश भुजा दुर्गाभद्रकाली । मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत दुर्गासप्तशती में जो काली अम्बिका के ललाट से उत्पन्न हुई, वह कालीपुराण से भिन्न हैं । उसका ध्यान इस प्रकार है –
नीलोत्पल-दल-श्यामा चतुर्बाहु समन्विता ।
खट्वांग चन्द्रहासञ्च चिभ्रती दक्षिणकरे ।।
वामे चर्म च पाशञ्च उर्ध्वाधो-भावतः पुनः ।
दधती मुण्डमालाञ्च व्याघ्र-चर्म वराम्बरा ।।
कृशांगी दीर्घदंष्ट्रा च अतिदीर्घाऽति भीषणा ।
लोल-जिह्वा निम्न-रक्त-नयना नादभैरवा ।।
कबन्धवाहना पीनविस्तार श्रवणानना ।।
‘दक्षिणकाली’ मन्त्र विग्रह हृदय में “प्रलय-कालीन-ध्यान” इस प्रकार है –
क्षुच्छ्यामां कोटराक्षीं प्रलय घन-घटां घोर-रुपां प्रचण्डां,
दिग्-वस्त्रां पिङ्ग-केशीं डमरु सृणिधृतां खड़गपाशाऽभयानि ।
नागं घण्टां कपालं करसरसिरुहैः कालिकां कृष्ण-वर्णां
ध्यायामि ध्येयमानां सकल-सुखकरीं कालिकां तां नमामि ।।
‘महाकाल-संहिता’ के शकारादि विश्वसाम्राज्य श्यामासहस्रनाम में “निर्गुण-ध्यान” इस प्रकार है –
ब्रह्मा-विष्णु शिवास्थि-मुण्ड-रसनां ताम्बूल रक्ताषांबराम् ।
वर्षा-मेघ-निभां त्रिशूल-मुशले पद्माऽसि पाशांकुशाम् ।।
शंखं साहिसुगंधृतां दशभुजां प्रेतासने संस्थिताम् ।
देवीं दक्षिणाकालिकां भगवतीं रक्ताम्बरां तां स्मरे ।।
विद्याऽविद्यादियुक्तां हरविधिनमितांनिष्कलां कालहन्त्रीं,
भक्ताभीष्ट-प्रदात्रीं कनक-निधि-कलांविन्मयानन्दरुपाम् ।
दोर्दण्ड चाप चक्रे परिघमथ शरा धारयन्तीं शिवास्थाम् ।
पद्मासीनां त्रिनेत्रामरुण रुचिमयीमिन्दुचूडां भजेऽहम् ।।
“काली-विलास-तंत्र” में कृष्णमाता काली का ध्यान इस प्रकार दिया है –
जटा-जूट समायुक्तां चन्द्रार्द्ध-कृत शेखराम् ।
पूर्ण-चन्द्र-मुखीं देवीं त्रिलोचन समन्विताम् ।।
दलिताञ्जन संकाशां दशबाहु समन्विताम् ।
नवयौवन सम्पन्नां दिव्याभरण भूषिताम् ।।
दिड्मण्डलोज्जवलकरीं ब्रह्मादि परिपूजिताम् ।
वामे शूलं तथा खड्गं चक्रं वाणं तथैव च ।।
शक्तिं च धारयन्तीं तां परमानन्द रुपिणीम् ।
खेटकं पूर्णचापं च पाशमङ्कुशमेव च ।।
घण्टां वा परशुं वापि दक्षहस्ते च भूषिताम् ।
उग्रां भयानकां भीमां भेरुण्डां भीमनादिनीम् ।।
कालिका-जटिलां चैव भैरवीं पुत्रवेष्टिताम् ।
आभिः शक्तिरष्टाभिश्च सहितां कालिकां पराम् ।।
सुप्रसन्नां महादेवीं कृष्णक्रीडां परात् पराम् ।
चिन्तयेत् सततं देवीं धर्मकामार्थ मोक्षदाम् ।।
कादि, हादि, सादि इत्यादि क्रम से कालिका के कई प्रकार के ध्यान हैं । जिस मंत्र के आदि में “क” हैं, वह “कादि-विद्या”, जिस मंत्र के आदि में “ह″ है वह “हादि-विद्या”, मंत्र में वाग् बीज हो वह “वागादि-विद्या” तथा जिस मंत्र के प्रारम्भ में “हूं” बीज हो वह “क्रोधादि-विद्या” कहलाती है ।
“नादिक्रम” में आदि में “नमः” का प्रयोग होता है एवं “दादि-क्रम” में मंत्र के आदि में “द” होता है, जैसे “दक्षिणे कालिके स्वाहा” । “प्रणवादि-क्रम” में मंत्र प्रारम्भ में “ॐ” का प्रयोग होता है ।
१॰ कादिक्रमोक्त ध्यानम् –
“करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमाला विभूषिताम् ।।
सद्यश्छिन्नशिरः खडगं वामोर्ध्व कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदं चैव दक्षिणोर्ध्वाधः पाणिकाम् ।।
महामेघ-प्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् ।
कण्ठावसक्तमुण्डालीं गलद्-रुधिरं चर्चिताम् ।।
कृर्णावतंसतानीत शव-युग्म भयानकाम् ।
घोरदंष्ट्रां करालास्यां पीनोन्नत-पयोधराम् ।।
शवानां कर-सङ्घातैः कृत-काञ्चीं हसन्मुखीम् ।
सृक्कद्वयगलद् रक्त-धारा विस्फुरिताननाम् ।।
घोर-रावां महा-रौद्रीं श्मशानालय-वासिनीम् ।
बालार्क-मण्डलाकार-लोचन-त्रियान्विताम् ।।
दन्तुरां दक्षिण-व्यापि मुक्तालम्बि कचोच्चयाम् ।
शवरुपं महादेव हृदयोपरि संस्थिताम् ।।
शिवामिर्घोर रावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।
महाकालेन च समं विपरित-रतातुराम् ।।
सुखप्रसन्न-वदनां स्मेरानन सरोरुहाम ।
एवं सञ्चिन्तयेत् कालीं सर्वकामार्थ सिद्धिदाम् ।।
२॰ “क्रोध-क्रम” का ध्यान इस प्रकार है –
दीपं त्रिकोण विपुलं सर्वतः सुमनोहराम् ।
कूजत् कोकिला नादाढ्यं मन्दमारुत सेवितम् ।।
भृंङ्गपुष्पलताकीर्ण मुद्यच्चन्द्र दिवाकरम् ।
स्मृत्वा सुधाब्धिमध्यस्थं तस्मिन् माणिक्य-मण्डपे ।।
रत्न-सिंहासने पद्मे त्रिकोणेज्ज्वल कर्णिके ।
पीठे सञ्चिन्तयेत् देवीं साक्षात् त्रैलोक्यसुन्दरीम् ।।
नीलनीरज सङ्काशां प्रत्यालीढ पदास्थिताम् ।
चतुर्भुजां त्रिनयनां खण्डेन्दुकृत शेखराम् ।।
लम्बोदरीं विशालाक्षीं श्वेत-प्रेतासन-स्थिताम् ।
दक्षिणोर्ध्वेन निस्तृंशं वामोर्ध्वनीलनीरजम् ।।
कपालं दधतीं चैव दक्षिणाधश्च कर्तृकाम् ।
नागाष्टकेन सम्बद्ध जटाजूटां सुरार्चिताम् ।।
रक्तवर्तुल-नेत्राश्च प्रव्यक्त दशनोज्जवलाम् ।
व्याघ्र-चर्म-परीधानां गन्धाष्टक प्रलेपिताम् ।।
ताम्बूल-पूर्ण-वदनां सुरासुर नमस्कृताम् ।
एवं सञ्चिनतयेत् कालीं सर्वाभीष्टाप्रदां शिवाम् ।।
३॰ “हादि-क्रम” का ध्यान इस प्रकार है –
देव्याध्यानमहं वक्ष्ये सर्वदेवोऽप शोभितम् ।
अञ्नाद्रिनिभां देवीं करालवदनां शिवाम् ।।
मुण्डमालावलीकीर्णां मुक्तकेशीं स्मिताननाम् ।
महाकाल हृदम्भोजस्थितां पीनपयोधराम् ।।
विपरीतरतासक्तां घोरदंष्ट्रां शिवेन वै ।
नागयज्ञोपवीतां च चन्द्रार्द्धकृत शेखराम् ।।
सर्वालंकार संयुक्तां मुक्तामणि विभूषिताम् ।
मृतहस्तसहस्रैस्तु बद्धकाञ्ची दिगम्बराम् ।।
शिवाकोटि ससहस्रैस्तु योगिनीभिर्विराजजिताम् ।
रक्तपूर्ण मुखाम्भोजां सद्यः पानप्रमम्तिकाम् ।।
सद्यश्छिन्नशिरः खड्ग वामोर्ध्धः कराम्बुजाम् ।
अभयवरदं दक्षोर्ध्वाधः करां परमेश्वरीम् ।।
वह्नयर्क -शशिनेत्रां च रण-विस्फुरिताननाम् ।
विगतासु किशोराभ्यां कृतवर्णावतंसिनीम् ।।
४॰ “वागादि-क्रम” का ध्यान इस प्रकार है –
चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुण्डमाला विभूषिताम् ।
खड्गं च दक्षिणे पाणौ विभ्रतीं सशरं धनुः ।।
मुण्डं च खर्परं चैव क्रमाद् वामे च विभ्रतीम् ।
द्यां लिखन्तीं जटामेकां विभ्रतीं शिरसा स्वयम् ।।
मुण्डमालाधरां शीर्षे ग्रीवायामपि सर्वदा ।
वक्षसा नागहारं तु विभ्रतीं रक्तलोचनाम् ।।
कृष्णवर्णधरां दिव्यां व्याघ्राजिन समन्विताम् ।
वामपादं शवहृदि संस्थाप्य दक्षिणं पदम् ।।
विन्यस्य सिंहपृष्ठे च लेलिहानां शवं स्वयम् ।
सट्टहासां महाशवयुक्तां महाविभीषिणा ।।
एवं विचिन्त्या भक्तैस्तु कालिका परमेश्वरी ।
सततं भक्तियुक्तैस्तु भोगेश्वर्यामभीप्सुभिः ।।
५॰ “नादि-क्रम” का ध्यान –
खड्गं च दक्षिणे पादौ विभ्रतीन्दीवरद्वयम् ।
कर्तृकां खर्परं चैव क्रमाद् भुजयोद्वयं करान्विताम् ।।
६॰ “दादि-क्रम” का ध्यान –
सद्यः कृन्तशिरः खड्गमूर्ध्वद्वय कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदंतु भुजयोद्वयं करान्विताम् ।।
७॰ प्रणवादि-क्रम” का ध्यान –
मंत्र के प्रारम्भ में “ॐ” प्रयुक्त होता है, उनका ध्यान “कादि-क्रम” के अनुसार करें ।
5… मां काली का ही स्वरूप है। मां काली को नीलरूपा होने के कारण ही तारा कहा गया है। भगवती काली का यह स्वरूप सर्वदा मोक्ष देने वाला है, जीव को इस संसार सागर से तारने वाला है- इसलिए वह तारा हैं। सहज में ही वे वाक् प्रदान करने वाली हैं इसलिए नीलसरस्वती हैं। भयंकर विपत्तियों से साधक की रक्षा करती हैं, उसे अपनी कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारा या उग्रतारिणी हैं। यद्यपि मां तारा और काली में कोई भेद नहीं है, तथापि बृहन्नील तंत्रादि त्रादि ग्रंथों में उनके विशिष्ट स्वरूप का उल्लेख किया गया है। हयग्रीव दानव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ, जिस कारण वे तारा कहलाईं। शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरूढ हैं, और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नील कमलों के समान तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खडग धारण किये हैं। व्याघ्र-चर्म से विभूषित इन देवी के कंठ में मुण्डमाला लहराती है। वे उग्र तारा हैं, लेकिन अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ है । इस कारण मां तारा महा-करूणामयी हैं।
तारा तंत्र में कहा गया है- समुद्र मथने देवि कालकूट समुपस्थितम् ॥ समुद्र मंथन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीने वाले भगवान शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ शब्द तारा विराजमान हैं। शिवशक्ति संगम तंत्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव कहा गया है। अक्षोभ्य को दृष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करने वाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करने वाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिंगल वर्ण उग्र जटा का भी अद्भूत रहस्य है। ये फैली हुई उग्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरूपा हैं। यह एकजटा है। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिंगोगै्रक जटा धारिणी उग्र तारा एकजटा के रूप में पूजी जाती हैं। वे ही उग्र तारा शव के हृदय पर चरण रखकर उस शव को शिव बना देने वाली नील सरस्वती हो जाती हैं। भगवती सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ट ने भगवती तारा की वैदिक रीति से आराधना की, परंतु वे सफल नहीं हुए। तब उन्हें उनके पिता ब्रह्मा जी से संकेत मिला कि वे तांत्रिक पद्धति से भगवती तारा की उपासना करें तो वे निश्चय ही सफल होंगें। उस समय केवल भगवान बुद्ध ही इस विद्या के आचार्य माने जाते थे। अत महर्षि वशिष्ठ चीन देश में निवास कर रहे भगवान बुद्ध के पास पंहुचे, जिन्होंने महर्षि को चीनाचार पद्धति का उपदेद्गा दिया। तदोपरान्त ही वशिष्ठ जी को भगवती तारा की सिद्धि प्राप्त हुई। इसी कारण कहा जाता है कि भगवती तारा की उपासना तांत्रिक पद्धति से ही सफल होती है। महाकाल-संहिता के कामकला-खण्ड में तारा-रहस्य वर्णित है, जिसमें तारा-रात्रि में भगवती तारा की उपासनाका विशेष महत्व है। चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि की रात्रि को तारा-रात्रि कहा जाता है।
मां के स्वरूप का वर्णन
मां सर्वमयी, नूतन जलधर स्वरूपा लम्बोदरी हैं। उन्होंने अपने कटि प्रदेश में व्याघ्र चर्म लपेटा हुआ है, उनके स्तन स्थूल एवं समुन्नत कुच औ वाले हैं, उनके तीनों नेत्र लाल-लाल और वृताकार हैं, उनकी पीठ पर अत्यंत घोर घने काले केश फैले हुए हैं, उनका सिर अक्षोभ्य महादेव के प्रिय नाग के बगलो फनों से सुशोभित है, उनकी दोनों बगलों में नील कमलों की मालाएं शोभित हो रही हैं। पंचमुद्रा-स्वरूपिणि, शुभ्र त्रिकोणाकार कगल पंचक को धारण करने वाली, अत्यंत नील जटाजूट वाली, विशाल चंवर मुद्रा रूपी केशों से अलंकृत, श्वेतवर्ण के तक्षक नाग के वलय वाली, रक्त वर्ण सर्प के समान अल्पाहार वाली, विचित्र वर्णों वाले शेषनाग से बने हार को धारण करने वाली, सुनहले पीतवर्ण के छोटे-छोटे सर्पों की मुद्रिकाएं धारण करने वाली, हल्के लाल रंग के नाग की बनी कटिसूत्र वाली, दूर्वादल के समान श्यामवर्ण के नागों के वलय वाली, सूर्य, चन्द्र, अग्निस्वरूप, त्रिनयना, करोड़ो बाल रवि की छवियुक्त दक्षिण नेत्र वाली, शीतल कोटि-कोटि बालचन्द्र के समान शीतल नयनों वाली, लाखों अग्निशिखाओं से भी नयनां तीक्ष्ण तेजोरूप्पा नयनों वाली, लपलपाती जिह्वा वाली, महाकाल रूपी शव के हृदय पर दायें पद को कुछ मुडी हुई मुद्रा में एवं उसके दोनों पैरों पर अपने बायें पैर का को फैली हुर्इ्र अवस्था में उस प्रत्यालीढ पद वाली महाकाली हैं, जो तुरन्त ही कटे हुए रूधिराक्त केशों से गूंथे गये मुण्डमालों से अत्यन्त रमणीय हो गयी हैं। समस्त प्रकार के स्त्री-आभूषणों से विभूषित एवं महामोह को भी मोहने वाली हैं, महामुक्ति दायिानि, विपरीत रतिक्रीड़ा, निरता एवं रति कारण कामावेश के कारण आनन्दमुखी है।
तारा मां श्मशान वासिनि हैं, अत्यन्त ही भयंकर स्वरूप वाली हैं, शव जो कि चिता पर जल रही हैं, उस शव पर प्रत्यालिङ मुद्रा पर खङी हुई हैं। कटे हुऐ सरो के माला के स्थन पर, मां ने खोपङीयो तथा हड्डीयो कि माला धारन की हुई हैं तथा सर्पो, रूद्राक्ष के आभूषणो से अलंकृत हैं। मां कि चार भुजाऐं है और अपने हाथो में क्रमशः कैंची, नील कमल, खप्पर तथा खडग धारण किऐ हुऐ हैं, बाघम्बर के वस्त्र धारण करती हैं। वासतव में, मां अज्ञान रूपी शव पर प्रत्यालिङ मुद्रा में विराजमान हैं और उस शव को, ज्ञान रूपी शिव में परिवर्तित कर अपने मस्तक पर धरन किए हुए हैं, जिन्हें अक्ष्योभ शिव/ऋषि के नाम से जाना जाता हैं, ऐसी असादहरन शक्ति और विद्या कि ज्ञाता हैं, मां। मां की अराधना विशेषतः मोक्ष पाने के लिए कि जाती हैं, मां मोक्ष दायिनी हैं। मां भोग और मोक्ष एक साथ भक्त को प्रदान करती हैं और तन्त्र साधको कि अधिस्तात्री देवी हैं। तन्त्र और अघोर पंथ के साधको कि साधना मां के वरदान और कृपा के बिना पूर्ण नहीं होती। परन्तु व्याभारिक दृष्टी से मां का स्वरूप अत्यन्त ही भयंकर होते हुऐ भी, स्वाभाव बहुत ही कोमल ऐव्मं सरल हैं। ऐसा इस संसार में कुद्द भी नहीं हैं, जो मां अपने भक्तो/साधको को प्रदान करने में असमर्थ हैं।
तारा कुल कि तिन माताओ में नीलसरस्वती मां अनेको सरस्वती कि जननी हैं, सृस्टी में जो भी ज्ञान ईधर-उधर बटा हुया हैं, उसे एक जगह संयुक्त करने पर मां नीलसरस्वती की उत्पत्ति होती हैं, मां अपने अन्दर सम्पूर्न ज्ञान समाये हुये हैं, फलस्वरूप मां का भक्त प्ररम ज्ञानी हो जाता हैं। मां भव सागर से तारने वाली हैं, तभी मां तारा के नाम से जानी जाती हैं।
मां का स्वरूप : मां के घ्यान मंत्र के अनुसार
(शास्त्रो के अनुसार स्वरूप का वर्णन घ्यान मंत्र कहलाता हैं।)
सात्विक ध्यान :
सस्थां द्गवेताम्बराढ्यां हंसस्थां मुक्ताभरणभूषिताम्। चतुर्वक्त्रामष्टभुजैर्दधानां कुण्डिकाम्बुजे ॥
वराभये पाद्गाद्गाक्ती अक्षस्रक्पुष्पमालिके । द्गाब्दपाथोनिधौ ध्यायेत् सृष्टिध्यानमुदीरितम् ॥
अर्थात् –
सफेद वस्त्र धारण किये हुए, हंस पर विराजित, मोती के आभूषणों से अलंकृत, चार मुखों वाली तथा अपनी आठ भुजाओं में क्रमशः कमण्डल, कमल, वर, अभय मुद्रा, पाश, शक्ति, अक्षमाला एवं पुष्पमाला धारण किये हुए शब्द समुद्र में स्थित महाविद्या का ध्यान करें ।
राजसी ध्यान :
रक्ताम्बरां रक्तसिंहासनस्थां हेमभूषिताम्। एकवक्त्रां वेदसंखयैर्भुजैः संबिभ्रतीं क्रमात् ॥
अक्षमालां पानपात्रम-भयं वरमुत्तमम् । श्वेतद्वीपस्थितां ध्यायेत् स्थितिध्यानमिदं स्मृतम्॥
अर्थात् –
रक्त वर्ण के वस्त्र धारण किये हुए, रक्त वर्ण के सिंहासन पर विराजित, सुवर्ण से बने आभूषणों से सुशोभित, एक मुख वाली, अपनी चार भुजाओं में अक्षमाला, पानपात्र, अभय एवं वर मुद्रा धारण किये हुए श्वेतद्वीप निवासिनी भगवती का ध्यान करें।
तामस ध्यान :
कृष्णाम्बराढ्यां नौसंस्थामस्थ्याभरण-भूषिताम् । नववक्त्रां भुजैरष्टादद्गाभिर्दधतींवरम्॥
अभयं परशुं दर्वीं खड्गं पाशुपतं हलम् । भिण्डिं शूलं च मुसलं कर्त्रीं शक्तिं त्रिशीर्षकम् ॥
अर्थात् –
काले रंग का वस्त्र धारण किये हुए, नौका पर विराजित, हड्डी के आभूषणों से विभूषित, नौ मुखों वाली, अपनी अट्ठारह भुजाओं में वर, अभय, परशु, दर्वी, खड्ग, पाशुपत, हल, भिण्डि, शूल, मूशल, कैंची, शक्ति, त्रिशूल, संहार अस्त्र, पाश, वज्र, खट्वांग और गदा धारण करने वाली रक्त-सागर में स्थित देवी का ध्यान करना चाहिए।
6…कार्य-सिद्धि हेतु गणेश शाबर मन्त्र
“ॐ गनपत वीर, भूखे मसान, जो फल माँगूँ, सो फल आन। गनपत देखे, गनपत के छत्र से बादशाह डरे। राजा के मुख से प्रजा डरे, हाथा चढ़े सिन्दूर। औलिया गौरी का पूत गनेश, गुग्गुल की धरुँ ढेरी, रिद्धि-सिद्धि गनपत धनेरी। जय गिरनार-पति। ॐ नमो स्वाहा।”
विधि-
सामग्रीः- धूप या गुग्गुल, दीपक, घी, सिन्दूर, बेसन का लड्डू। दिनः- बुधवार, गुरुवार या शनिवार। निर्दिष्ट वारों में यदि ग्रहण, पर्व, पुष्य नक्षत्र, सर्वार्थ-सिद्धि योग हो तो उत्तम। समयः- रात्रि १० बजे। जप संख्या-१२५। अवधिः- ४० दिन।
किसी एकान्त स्थान में या देवालय में, जहाँ लोगों का आवागमन कम हो, भगवान् गणेश की षोडशोपचार से पूजा करे। घी का दीपक जलाकर, अपने सामने, एक फुट की ऊँचाई पर रखे। सिन्दूर और लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और प्रतिदिन १२५ बार उक्त मन्त्र का जप करें। प्रतिदिन के प्रसाद को बच्चों में बाँट दे। चालीसवें दिन सवा सेर लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और मन्त्र का जप समाप्त होने पर तीन बालकों को भोजन कराकर उन्हें कुछ द्रव्य-दक्षिणा में दे। सिन्दूर को एक डिब्बी में सुरक्षित रखे। एक सप्ताह तक इस सिन्दूर को न छूए। उसके बाद जब कभी कोई कार्य या समस्या आ पड़े, तो सिन्दूर को सात बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित कर अपने माथे पर टीका लगाए। कार्य सफल होगा।…..
7….आपके ज्यादातर कार्य असफल हो रहे हैं तो यह करें-
आप चाहते हैं की आपके द्वारा किये गए कार्य सफल हो लेकिन कार्य के प्रारम्भ होते ही उसमें विध्न आ जाते हैं और वह असफल हो जाते हैं इसके लिए आप यह करें: प्रातःकाल कच्चा सूत लेकर सूर्य के सामने मुंह करके खड़े हो जाएं। फिर सूर्य देव को नमस्कार करके ‘ॐ हीं घ्रणि सूर्य आदित्य श्रीम’ मंत्र बोलते हुए सूर्य देव को जल चढ़ाएं। जल में रोली, चावल, चीनी तथा लाल पुष्प दाल लें। इसके पश्चात कच्चे सूत को सूर्य देव की तरफ करते हुए गणेशजी का स्मरण करते हुए सात गाँठ लगाएं। इसके पश्चात इस सूत को किसी खोल में रखकर अपनी कमीज की जेब में रख लें, आपके बिगड़े कार्य बनाने लगेंगे।……
8…॥ आरूढ़ा सरस्वती स्तोत्र ॥
प्रार्थना
आरूढ़ा श्वेतहंसैर्भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं
वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्यम्
सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपै: शास्त्रविज्ञानशब्दै:
क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना ॥1॥
श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना
अर्चिता मुनिभि: सर्वैर्ॠषिभि: स्तूयते सदा
एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरै: ॥2॥
या कुन्देंदुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदण्डमंडितकरा या श्वेतपद्मासना
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ॥3॥
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद् व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहां
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥ 4॥
बीजमन्त्रगर्भित स्तुति
ह्रीं ह्रीं ह्रद्यैकबीजे शशिरुचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे
भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्याङ्घ्रिपद्मे
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोदसम्पादयित्रि
प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे ॥5॥
ऐं ऐं ऐं दृष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूतस्वरूपे
रूपारूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे नापि विज्ञानतत्त्वे
विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते निष्कले नित्यशुद्धे ॥6॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे शशिरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जड़तां, देहि बुद्धिं प्रशस्तां
विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे ॥7॥
धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमतिनतिर्नामभि: कीर्तनीये
नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे
पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे
मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमतिमतिदे माधवप्रीतिमोदे ॥8॥
हूं हूं हूं स्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते
सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये
मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम विमतिध्वान्तविध्वंसमीड्ये
गीर्गौरवाग्भारति त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ॥9॥
आत्मनिवेदन
स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां नो कदाचित्त्यजेथा
मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम्
मा मे दु:खं कदाचित् क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि ॥10॥
इत्येतै: श्लोकमुख्यै: प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
वाणीं वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुमृष्टकण्ठ:
या स्यादिष्टार्थलाभै: सुतमिव सततं वर्धते सा च देवी
सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कवितां विघ्नमस्तं प्रयाति॥11॥
निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोध:
कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसित वदने शारदा तस्य साक्षात्
दीर्घायुर्लोकपूज्य: सकलगुणनिधि: सन्ततं राजमान्यो
वाग्देव्या: सम्प्रसादात् त्रिजगति विजयी सत्सभासु प्रपूज्य: ॥12॥
फलश्रुति
ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां निरामिष:
सारस्वतो जन: पाठात्सकृदिष्टार्थलाभवान्
पक्षद्वये त्रयोदश्यां एकविंशतिसंख्यया
अविच्छिन: पठेद् धीमान् ध्यात्वा देवीं सरस्वतीं ॥14॥
सर्वपापविनिर्मुक्त: सुभगो लोकविश्रुत:
वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्नात्र संशय:
ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्या: स्तवं शुभम्
प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥15॥
॥ इति आरूढ़ा सरस्वती स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
Pukhraj Mewara at Friday, June 19, 2015
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