Thursday, 17 August 2017

गायत्री मंत्र

   GURJAR SAMRAAT MIHIR BHOJ  Current News: आदिवराह चक्रवर्ती गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान की जयंती विक्रमि सम्वत 2074 भादो मास शुक्ल पक्ष तृतीय (तीज) 1201 प्रकाश वर्ष ब्रहस्पतिवार 24 अगस्त 2017 को 8 वे अन्तरराष्ट्रीय गुर्जर दिवस (8th International Gurjar Day) के रुप में घर घर में मनवायें और अपनी आने वाली पीडियों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा और संस्कार दें ।----------------!अखिल भारतीय वीर गुर्जर महासभा का सदस्य बनने के लिए आप गौरव तंवर गुर्जर कारना 9910767907 से संपर्क करें----------------! 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गया है जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए। गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् गायत्री मंत्र संक्षेप में गायत्री मंत्र (वेद ग्रंथ की माता) को हिन्दू धर्म में सबसे उत्तम मंत्र माना जाता है. यह मंत्र हमें ज्ञान प्रदान करता है. इस मंत्र का मतलब है - हे प्रभु, क्रिपा करके हमारी बुद्धि को उजाला प्रदान कीजिये और हमें धर्म का सही रास्ता दिखाईये. यह मंत्र सूर्य देवता (सवितुर) के लिये प्रार्थना रूप से भी माना जाता है. हे प्रभु! आप हमारे जीवन के दाता हैं आप हमारे दुख़ और दर्द का निवारण करने वाले हैं आप हमें सुख़ और शांति प्रदान करने वाले हैं हे संसार के विधाता हमें शक्ति दो कि हम आपकी उज्जवल शक्ति प्राप्त कर सकें क्रिपा करके हमारी बुद्धि को सही रास्ता दिखायें मंत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या गायत्री मंत्र के पहले नौं शब्द प्रभु के गुणों की व्याख्या करते हैं ॐ = प्रणव भूर = मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला तत = वह, सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल वरेण्यं = सबसे उत्तम भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला देवस्य = प्रभु धीमहि = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान) धियो = बुद्धि, यो = जो, नः = हमारी, प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना) इस प्रकार से कहा जा सकता है कि गायत्री मंत्र में तीन पहलूओं क वर्णं है - स्त्रोत, ध्यान और प्रार्थना यह कथा उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी सृष्टि। एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी ने पृथ्वी लोक पर यज्ञ करने का निश्चय किया। उस समय पृथ्वी पर वज्रनाभ नाम के राक्षस का आतंक चारों ओर फैला हुआ था। वह बच्चों को जन्म लेते ही मार देता था। उसके आतंक की लपटें ब्रह्मलोक तक पहुंचने लगीं। ब्रह्माजी ने उस दैत्य का अंत करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने कमल पुष्प से उस दैत्य पर भीषण प्रहार कर उसका अंत कर दिया। उस पुष्प का प्रहार इतना प्रचंड था कि जहां वह गिरा, उस स्थान पर एक विशाल सरोवर बन गया। पुष्कर यानी कमल अर्थात् कमल के फूल के आघात से बना होने के कारण इसका नाम पुष्कर सरोवर हो गया। और ब्रह्माजी द्वारा यहां यज्ञ करने से इस सरोवर को आदि तीर्थ होने का पुण्य भी प्राप्त हुआ। आदि तीर्थ पुष्कर के महत्व को दर्शाती हुई कई कथाएं हैं। पूरे भारत में सिर्फ पुष्कर में ही ब्रह्माजी का एकमात्र मंदिर होने के पीछे भी एक कथा है। यह कथा देवी सावित्री के ब्रह्माजी को शाप देने से जुड़ी है। ब्रह्माजी ने पुष्कर को यज्ञ क्षेत्र के रूप में चुना। यज्ञ के लिए निश्चित मुहूर्त पर जब देवी सावित्री वहां नहीं पहुंचीं, तो ब्रह्माजी ने गायत्री नाम की चेची गोत्र की एक गुर्जर कन्या से विवाह करके यज्ञ संपन्न किया। देवी सावित्री जब वहां पहुंचीं तो अपने स्थान पर गायत्री को बैठा देखकर क्रोधित हो गईं। उन्होंने ब्रह्माजी के शाप दिया कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुष्कर को छोड़कर उनकी कहीं भी पूजा नहीं होगी। संपूर्ण विश्व में ब्रह्माजी के इसी एकमात्र मंदिर के कारण ही मंदिरों की नगरी पुष्कर की विशिष्ट पहचान और महत्ता है। ऐसी मान्यता है कि वहां किया हुआ जप-तप, पूजा-पाठ और यज्ञ अक्षय फल देने वाला होता है, विशेष रूप से कार्तिक एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक। पुष्कर यात्रा का पूर्ण फल यज्ञ पर्वत पर स्थित अगस्त्य कुंड में स्नान करने पर ही मिलता है। शास्त्रों और पुराणों के अनुसार तीर्थो के गुरु पुष्कर की महत्ता इससे ही स्पष्ट हो जाती है कि पुष्कर स्नान के बिना चारों धाम की यात्रा का पुण्य फल भी अधूरा रहता है। अजमेर शहर से 11 किलोमीटर दूर 52 घाटों और लगभग तीन किलोमीटर के दायरे में फैला पुष्कर अपनी मनोहारी छटा के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। पुष्कर सरोवर भी तीन हैं। ज्येष्ठ, मध्य और कनिष्ठ पुष्कर। ज्येष्ठ पुष्कर के देवता ब्रह्माजी, मध्य पुष्कर के श्री विष्णु और कनिष्ठ पुष्कर के देवता रुद्र हैं। लेकिन पुष्कर का अनंनतकालीन महत्य ज्येष्ठ पुष्कर के कारण ही है। पुष्कर मंदिर से जुड़ी तमाम बातों में एक खास बात यह भी है कि इस मंदिर के पुरोहित गुर्जर समुदाय से होते हैं, जिन्हें ‘भोपा’ के नाम से जाना जाता है। यहां आने वाले भक्तगण जीवन का सार ढूंढने ही यहां आते हैं। गायत्री उपासना हम सबके लिए अनिवार्य गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है । वेदों से लेकर धर्मशास्त्रों तक समस्त दिव्य ज्ञान गायत्री के बीजाक्षरों का ही विस्तार है । माँ गायत्री का आँचल पकड़ने वाला साधक कभी निराश नहीं हुआ । इस मंत्र के चौबीस अक्षर चौबीस शक्तियों-सिद्धियों के प्रतीक हैं । गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, ऐसा ऋषिगणों का अभिमत है । गायत्री वेदमाता हैं एवं मानव मात्र का पाप नाश करने की शक्ति उनमें है । इससे अधिक पवित्र करने वाला और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है । भौतिक लालसाओं से पीड़ित व्यक्ति के लिए भी और आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु के लिए भी एकमात्र आश्रय गायत्री ही है । गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु,कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं । भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को नित्य-नियमित गायत्री उपासना करनी चाहिए । विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विभिन्न विपत्तियों, आसन्न विभीषिकाओं से उसकी रक्षा करती है । प्रस्तुत समय संधिकाल का है । आगामी वर्षों में पूरे विश्व में तेजी से परिवर्तन होगा । इस विशिष्ट समय में की गयी गायत्री उपासना के प्रतिफल भी विशिष्ट होंगे । युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री के तत्त्वदर्शन को जन-जन तक पहुँचाया व उसे जनसुलभ बनाया है । प्रत्यक्ष कामधेनु की तरह इसका हर कोई पयपान कर सकता है । जाति, मत, लिंग भेद से परे गायत्री सार्वजनीन है । सबके लिए उसकी साधना करने व लाभ उठाने का मार्ग खुला हुआ है । गायत्री महामंत्र..........................वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है। यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के छंद 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। 'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं-गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक् के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिता के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है: तत् सवितुर्वरेण्यंभर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात् (ऋग्वेद ४,६२,१०) ॐ भूर्भुव स्वः । तत् सवितुर्वरेण्यं । भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥......................................हिन्दी में भावार्थ उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे । परिचय.................................यह मंत्र चारों वेदों में आया है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के १८ मंत्रों मे केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ में ही ऋषियों ने कर लिया था, और संपूर्ण ऋग्वेद के १० सहस्र मंत्रों मे इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में २४ अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ: (१) ॐ (२) भूर्भव: स्व: (३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है। गायत्री तत्व क्या है और क्यों इस मंत्र की इतनी महिमा है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है वैसे मन भी देव है (देवं मन: ऋग्वेद, १,१६४,१८)। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है-कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरण के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है उसके द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे। गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। भुव: अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है। स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक् के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक् है। वाक् का अनंत विस्तार है किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त नमूना लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है। गायत्री उपासना का विधि-विधान.........................................गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है । हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है । तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है । शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए । उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है - (१) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है । इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं । (अ) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें । ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा । यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु । (ब) आचमन - वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें । हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए । ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा । ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा । ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा । (स) शिखा स्पर्श एवं वंदन - शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे । निम्न मंत्र का उच्चारण करें । ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते । तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ (द) प्राणायाम - श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है । श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं । प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए । ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ । (य) न्यास - इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके । बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें । ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु । (मुख को) ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु । (नासिका के दोनों छिद्रों को) ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु । (दोनों नेत्रों को) ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु । (दोनों कानों को) ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु । (दोनों भुजाओं को) ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु । (दोनों जंघाओं को) ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु । (समस्त शरीर पर) आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो । पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान् के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं । (२) देवपूजन - गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है । उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें । भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है । ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि । गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥ ॐ श्री गायत्र्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि । (ख) गुरु - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है । सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें । ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः । गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि । (ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है । इन्हें विधिवत् संपन्न करें । जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं । एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें । जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता । अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान । पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास । धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश । ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं । कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है । (३) जप - गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए । अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम । होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें । जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है । ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं । दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है । (४) ध्यान - जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है । साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है । निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है । (५) सूर्यार्घ्यदान - विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है । ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥ ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥ भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है । इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए । जप के लिए माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिए । सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है । मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है । माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें । गायत्री चालीसा.......................गायत्री चालीसा गायत्री देवी की स्तुति में लिखी गई चालीस चौपाइयों की एक रचना है। मूल पाठ ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा जीवन ज्योति प्रचण्ड॥ शान्ति कान्ति जागृत प्रगति रचना शक्ति अखण्ड॥१॥ जगत जननी मङ्गल करनि गायत्री सुखधाम। प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम॥२॥ भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी। गायत्री नित कलिमल दहनी॥१॥ अक्षर चौविस परम पुनीता। इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता॥२॥ शाश्वत सतोगुणी सत रूपा। सत्य सनातन सुधा अनूपा॥३॥ हंसारूढ श्वेताम्बर धारी। स्वर्ण कान्ति शुचि गगन- बिहारी॥४॥ पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला। शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला॥५॥ ध्यान धरत पुलकित हित होई। सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥६॥ कामधेनु तुम सुर तरु छाया। निराकार की अद्भुत माया॥७॥ तुम्हरी शरण गहै जो कोई। तरै सकल संकट सों सोई॥८॥ सरस्वती लक्ष्मी तुम काली। दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥९॥ तुम्हरी महिमा पार न पावैं। जो शारद शत मुख गुन गावैं॥१०॥ चार वेद की मात पुनीता। तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥११॥ महामन्त्र जितने जग माहीं। कोउ गायत्री सम नाहीं॥१२॥ सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै। आलस पाप अविद्या नासै॥१३॥ सृष्टि बीज जग जननि भवानी। कालरात्रि वरदा कल्याणी॥१४॥ ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते। तुम सों पावें सुरता तेते॥१५॥ तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे। जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥१६॥ महिमा अपरम्पार तुम्हारी। जय जय जय त्रिपदा भयहारी॥१७॥ पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना। तुम सम अधिक न जगमे आना॥१८॥ तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा। तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा॥१९॥ जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥२०॥ तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई। माता तुम सब ठौर समाई॥२१॥ ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे। सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥२२॥ सकल सृष्टि की प्राण विधाता। पालक पोषक नाशक त्राता॥२३॥ मातेश्वरी दया व्रत धारी। तुम सन तरे पातकी भारी॥२४॥ जापर कृपा तुम्हारी होई। तापर कृपा करें सब कोई॥२५॥ मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें। रोगी रोग रहित हो जावें॥२६॥ दरिद्र मिटै कटै सब पीरा। नाशै दुःख हरै भव भीरा॥२७॥ गृह क्लेश चित चिन्ता भारी। नासै गायत्री भय हारी॥२८॥ सन्तति हीन सुसन्तति पावें। सुख संपति युत मोद मनावें॥२९॥ भूत पिशाच सबै भय खावें। यम के दूत निकट नहिं आवें॥३०॥ जो सधवा सुमिरें चित लाई। अछत सुहाग सदा सुखदाई॥३१॥ घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी। विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥३२॥ जयति जयति जगदंब भवानी। तुम सम और दयालु न दानी॥३३॥ जो सतगुरु सो दीक्षा पावे। सो साधन को सफल बनावे॥३४॥ सुमिरन करे सुरूचि बड़भागी। लहै मनोरथ गृही विरागी॥३५॥ अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता। सब समर्थ गायत्री माता॥३६॥ ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी। आरत अर्थी चिन्तित भोगी॥३७॥ जो जो शरण तुम्हारी आवें। सो सो मन वांछित फल पावें॥३८॥ बल बुधि विद्या शील स्वभाउ। धन वैभव यश तेज उछाउ॥३९॥ सकल बढें उपजें सुख नाना। जे यह पाठ करै धरि ध्याना॥४०॥ दोहा यह चालीसा भक्तियुत पाठ करै जो कोई। तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय॥' गायत्री आरती................................................जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता। सत् मारग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥१॥ आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जग पालन कर्त्री। दुःख, शोक, भय, क्लेश, कलह दारिद्रय दैन्य हर्त्री॥२॥ ब्रहृ रुपिणी, प्रणत पालिनी, जगतधातृ अम्बे। भवभयहारी, जनहितकारी, सुखदा जगदम्बे॥३॥ भयहारिणि भवतारिणि अनघे, अज आनन्द राशी। अविकारी, अघहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥४॥ कामधेनु सत् चित् आनन गायत्री मंत्र हिंदुओं का मूल मंत्र है , विशेषकर उनका जो जनेऊ धारण करते हैं। इस मंत्र के द्वारा वे देवी का आह्वान करते हैं। यह मंत्र सूर्य भगवान को समर्पित है। इसलिए इस मंत्र को सूर्योदय और सूर्यास्त के समय पढ़ा जाता है। वैदिक शिक्षा लेने वाले युवकों के उपनयन और जनेऊ संस्कार के समय भी इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है। ऐसी शिक्षा को गायत्री दीक्षा कहा जाता है। भृगु ऋषि के मुखमंडल से संस्कृत का यह मंत्र ऋगवेद से लिया गया है जो भृगु ऋषि को समर्पित है। ओम से शुरुआत गायत्री मंत्र की शुरुआत भी 'ओम' से होती है। तैत्रिया अरण्यका के मुताबिक, किसी भी धार्मिक मंत्र की शुरुआत 'ओम' के उच्चारण से करनी चाहिए। विवेकानंद और गायत्री मंत्र स्वामी विवेकानंद के मुताबिक,'गायत्री मंत्र का अर्थ हैः हमें उसकी महिमा का ध्यान करना चाहिए जिसने यह सृष्टि बनाई। कब से कब तक करें गायत्री मंत्र जप? धार्मिक दृष्टि से वेदमाता गायत्री आदिशक्ति है। ज्ञान शक्ति रूप माता गायत्री का स्मरण सांसारिक जीवन की हर परेशानियों से बाहर आने और मनोरथ पूरे करने के लक्ष्य से बहुत महत्व रखता है। यही कारण है कि गायत्री के ध्यान और उपासना के लिए गायत्री मंत्र का जप बहुत ही प्रभावी माना गया है। मंत्र, श्लोक या स्त्रोत के जप का शुभ फल तभी संभव है, जब उनके लिए नियत समय, नियम और मर्यादा का पालन किया जाए। गायत्री मंत्र जप के लिए भी ऐसा ही निश्चित समय और नियम शास्त्रों में नियत हैं। जानते हैं गायत्री मंत्र का जप कब से कब तक करना चाहिए - - गायत्री मंत्र जप और संध्या का महत्व सूर्योदय से पहले है। इसलिए सूर्य उदय होने से पहले उठकर जब तक आसमान में तारे दिखाई दे, संध्याकर्म के साथ गायत्री मंत्र का जप करें। - इसी तरह शाम के समय सूर्य अस्त होने से पहले संध्या कर्म और गायत्री मंत्र का जप शुरू करें और तारे दिखाई देने तक करें। - धार्मिक दृष्टि से सुबह के समय खड़े होकर किया गया संध्याकर्म और गायत्री जप रात के पाप और दोषों को दूर करते हैं। - वहीं शाम को बैठकर किया गया संध्या कर्म और गायत्री जप दिन में हुए दोष और पाप नष्ट करते हैं। - यथासंभव गायत्री मंत्र का जप किसी नदी या तीर्थ के किनारे, घर के बाहर एकान्त जगह या शांत वन में बहुत प्रभावी होता है। हर समस्या का बस एक उपाय- गायत्री मंत्र चेहरे की चमक बढ़ाए :- इस मंत्र के नियमित जाप से त्वचा में चमक आती है। नेत्रों में तेज आता है। सिद्धि प्राप्त होती है। क्रोध शांत होता है। ज्ञान की वृद्धि होती है। पढ़ने में भी मन लगाए :- विद्यार्थियों के लिए यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का 108 बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाती है। दरिद्रता का नाश करे :- व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्रता का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो अधिक लाभ होता है। संतान का वरदान :- किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर 'यौं' बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है। शत्रुओं पर विजय :- शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहे हैं तो मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे 'क्लीं' बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार 108 बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।। विवाह कराए गायत्री मंत्र :- यदि विवाह में देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए 'ह्रीं' बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर 108 बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं। रोग निवारण :- यदि किसी रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ 'ऐं ह्रीं क्लीं' का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसका रोग भी नाश होता हैं। गायत्री हवन से रोग नाश :- किसी भी शुभ मुहूर्त में दूध, दही, घी एवं शहद को मिलाकर 1000 गायत्री मंत्रों के साथ हवन करने से चेचक, आंखों के रोग एवं पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं। इसमें समिधाएं पीपल की होना चाहिए। गायत्री मंत्रों के साथ नारियल का बुरा एवं घी का हवन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है। नारियल के बुरे मे यदि शहद का प्रयोग किया जाए तो सौभाग्य में वृद्धि होती है।    Faridabad (Haryana) Address: ABVGM Office: Village Ankhir , Sector 21 D, Faridabad, Haryana (Near Lalit Plaza) Phone: +91- 9899177823, 9266777677 +91- 9811222477, 9654800054 Email: veergurjarmahasabha2012@gmail.com Delhi Address: ABVGM National Office: CA37, Gali No-2, Thana Road, Bhajanpura Delhi - 110053 Phone: +91- 9968681200 Email: veergurjarmahasabha2012@gmail.com Jaipur (Rajasthan) Address: ABVGM Office: 2310, Golecha House, Ghee Walo ka Rasta, Johari Bazar, Jaipur (Raj.) 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