Monday, 21 August 2017

पंचकोश साधना

पंचकोश साधना

इस ब्लॉग का उद्देश्य पंचकोश साधना में रूचि कहने वाले सभी मित्रों के साथ साधना सम्बन्धी चर्चा करना एवम इस महान साधना का विश्व के प्रत्येक कोने तक प्रसार करना है। यह साधना पूर्णतः निःशुल्क और जाति धर्म उम्र की परिधि से ऊपर उठकर मनुष्य में देवत्व का अवतरण करती है।

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साधना -परिचय


पंचकोश साधना एक परिचय : पंचकोश साधना उच्चतम भारतीय मनीषा की वह अद्भुत देन है जो मानवीय चेतना के समग्र पहलुओं को परिष्कृत करने की एकमात्र कुंजी है । आज जिस योगासन और ध्यान की चर्चा पुरे विश्व में बड़े जोरशोर से हो रही है वो इस पंचकोश साधना का एक पड़ाव मात्र ही है ।  यह साधन एक विशुद्ध विज्ञानं है जिसके प्रत्येक एक में ऐसे ऐसे अप्रतिम खजानें और उपलब्धियों के अम्बार भरे पड़े है जिसका लाभ एक बच्चे से लेकर वृद्ध तक सभी आयु के , सभी जाति , प्रान्त और धर्म के व्यक्ति ले सकते है ।


पंचकोश साधना कितनी प्राचीन है इसके बारे में यही बात ज्ञात है की इस महाविद्या के प्रथम आचार्य स्वयं भगवान् शिव है और प्रथम शिष्या “माँ पार्वती” है ।  विश्वामित्र , याज्ञवल्लक्य , भृगु , पिप्पलाद आदि अनेक ऋषियों ने इस महाविज्ञान की साधना समय समय पर जनसामान्य तक पहुँचायी है , कालांतर में देश की विषम परिस्थितयों के चलते ये विद्या जनसुलभ नहीं रह पायी परन्तु ईश्वर के उस महान चेतना ने हमारें युग के युगऋषि परमपूज्य श्रीराम शर्मा आचार्य के द्वारा इस महाविद्या को अपना खोया हुआ गौरव पुनः दिलवाया है ।


पंचकोश साधना किसी एकांत कोने में बैठकर १ या २ घंटे में संपन्न करने जैसी कोई विशेष प्रक्रिया नहीं बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में चलने वाली समग्र जीवन की परिष्कृत शैली है । इस विज्ञानं का साधक भौतिक , मानसिक , आत्मिक और पराचेतन स्तर के वो अद्बुत एवं अवर्णनीय लाभ प्राप्त करता है जो उसे मानव से महा-मानव की और गति देते है ।

पंचकोश साधना सम्पूर्ण रूप से निरापद और धर्म निरपेक्ष साधना है जिसे कोई भी साधक अपने गुरु या इष्ट के मार्ग को छोड़े बिना भी अपना सकता है । आज की वैज्ञानिक और तीक्ष्ण बुद्धिवादी लोगो के लिए बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वयं के भीतर ही देवत्व की अनुभूति करवानें वाली यह आनंदमयी और सरलतम साधना है ।

पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्मित पंचकोश ध्यान एवम धारणा वीडियो :

1 comment:

Reeta SinghNovember 13, 2016 at 1:52 PM

हमेशा कैसे की जाए यह साधना

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शिक्षक

पूज्य श्री लाल बिहारी सिंह ( बाबूजी ) जैसा की उन्हें इस लोक के परिजन सम्बोधित करते है अपने आप में एक रहस्य है । अपने गुरुदेव युगऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य के सरंक्षण में मानवीय चेतना की उच्चतम स्थिति को अनुभव करने के बाद
उन्होंने  गुरुदेव के आदेशानुरूप अतिप्राचीन परन्तु लुप्तप्रायः हो चुकी “पंचकोश महाविद्या” को एक बार फिर जनसुलभ बनाया है । इस महाविद्या के प्रथम आचार्य भगवान शिव स्वयं है एवं प्रथम शिष्या “माँ पार्वती “।

बाबूजी से मिलने के बाद इस विशुद्ध विज्ञान के वो रहस्य पता चलते है जो जाति, लिंग , धर्म और देशो की समस्त मान्यताओं से परे सीधे मानवीय चेतना पर काम करतें है ! मनुष्य के प्रति ईश्वरीय प्रेम से लबालब “बाबूजी” स्वयं को किसी का गुरु या संत नहीं आपका सच्चा दोस्त बताते हैं और इसी नाते आपसे मिलना और अपने अनुभव बताना पसंद करतें है ।

ग्राम बरमाडीह, सांसाराम बिहार में माता श्रीमती बालकेश्वरी देवी एवं पिता श्री रामसुभग जी के घर में सन १९५२ के आश्विन माह, कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथी एवं रोहिणी नक्षत्र  के पुण्य आकाशीय योग के अंतर्गत पुत्र रत्न का जन्म हुआ । आपके दादा जी जो उस समय के परम वैष्णव भक्त थे उन्होंने अपने इष्ट एवं आराध्य बांके बिहारी ( श्री कृष्ण ) के नाम पर बालक का नाम बिहारी लाल रखा जो कालांतर में विद्यालय प्रवेश के पश्चात “लाल बिहारी” हो गया । आज उसी दैवीय आत्मा को हम लाल बिहारी सिंह  या “बाबूजी” के नाम से जानते हैं ।

बाबूजी के पितामह श्रीकृष्ण के परम भक्त थे , आपने अपने जीवन में चार धामों की पदयात्रा की और अपने जीवन को पूर्णरूपेण सात्विक बनाये रखा । निरक्षर होने के बाद भी उन्हें रामायण समेत अनेक ग्रन्थ कंठस्थ थे । बाबूजी के माता-पिता भी वैष्णव धर्म का पालन करते थे । ऐसे सद्धर्ममय घर में बाबूजी के जन्म के समय एक विचित्र घटना हुई , बालक ( बाबूजी) के जन्म के समय उनके हाथ पैर आपस में बंधे हुए थे जैसे उन्हें धरती पर जन्म के लिए ज़बरन बाध्य किया गया हो ।

कुछ दिनों के बाद एक योगी ने उनके घर पर आकर जब शिशु को देखा तो उनकी माताजी को कहा – “ माई तेरा ये पुत्र योगिराज है और किसी महान आत्मा ने अपने कार्य करवानें के लिए इसे धरती पर बुलाया हैं ।”

कालांतर में जब बाबूजी अपने गुरुदेव पूज्य श्रीराम शर्मा आचार्य से मिले तो उन्होंने बाबूजी से कहा – “बेटे हम तुम्हारी रक्षा बचपन से कर रहे हैं और इसी जन्म में तुम्हे पूर्णता तक ले चलेंगे, पर याद रखना तुम्हें आगे चलकर हमारें बहुत से कार्य करनें है ।


बालक लाल बिहारी अध्ययन में कुशाग्र बुद्धि थे और मेट्रिक की परीक्षा के बाद उन्हें उच्चशिक्षा के लिए छात्रवृत्ति के लिए चयनित कर लिया गया । अपनी युवावस्था में बाबूजी का मन सत्य के अलोक को ढूंढने के लिये तड़पने लगा, पूर्वजन्मों के सात्विक संस्कारों के कारण बाबूजी तथाकथित गुरुओं और राजनेताओं की कथनी और करनी की भिन्नता को सहज ही भांप जाते थे । समय के साथ साथ अपनी सत्य की खोज के लिए उनमे आतुरता बढ़ने लगी और इस जन्म-जन्मान्तर की खोज का अंत युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा जी के मिलने के बाद ही हुआ ।

परमपूज्य गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तक “अध्यात्म और विज्ञान” , गुरुदेव से बाबूजी के मिलन में सहायक बनी । पूज्य गुरुदेव उस समय देशभर में वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रतिपादन में और सनातन संस्कृति के उन्नयन में अपने प्राण फूँक रहे थे । बाबूजी जब गुरुदेव से प्रथम बार मिले तो गुरुदेव ने उन्हें कहा – “बेटे जितना समय और परिश्रम तुमने भौतिक जगत के रिसर्च पर लगाया है उसका १०% भी अगर तुम वैज्ञानिक अध्यात्म की खोज में लगाते तो आज तुम संसार के महामानवों में एक होते।”

अपने गुरुदेव के इस एक वचन ने बाबूजी को अंदर तक झकझोड़ दिया और उन्होंने अपना शेष जीवन अध्यात्म जगत के रहस्यों को खोजनें के लिए समर्पित कर दिया । गुरुदेव से गायत्री-महाविज्ञान की दीक्षा प्राप्त होने के बाद बाबूजी ने १० वर्षो तक अखंड ब्रम्ह्चर्य और अस्वाद व्रत पालन का कठोर निर्णय ले लिया । इन दस वर्षो में स्वयं को गुरु आदेशों के अनुरूप गलानें -ढालनें की प्रक्रिया का प्रारम्भ किया गया , युद्धस्तर पर आसन, प्राणायाम , बंध , मुद्रा के प्रयोग चलने लगे , सुबह ३ बजे से उठकर स्वाध्याय और रिसर्च की आदत जो उस समय बनी वो पिछलें ३० वर्षों से आज भी अनवरत जारी है ।

उपनिषद विज्ञान और वैज्ञानिक अध्यात्मवाद आज भी बाबूजी के प्रिय विषय हैं । साधना और तपस्या के इन १० वर्षों में पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद और मार्गदर्शन में बाबूजी ने वर्ष १९८५ में “विज्ञानमय कोश” का निर्मल बोध प्राप्त किया और १९८७ में “आनंदमय कोश” को साधकर सदचिदानन्द ब्रम्ह के एकत्व को अनुभव किया ।

सन १९८७ में ही एक भीषण एक्सीडेंट में उन्होंने विश्वव्यापी परमसत्ता का हिरण्यगर्भः रूप में साक्षात्कार किया और १९९८ में रहोतास जिले में दूसरे भीषण एक्सीडेंट में उन्होंने अपनी जीवसत्ता से बाहर निकलकर स्वयं की स्वतंत्र आत्मसत्ता की अनुभूति प्राप्त की ।

स्वयं बाबूजी के शब्दों में – “ शरीर के फट जाने से , हड्डियों के चूर चूर हो जाने के बावजूद जब लोगो द्वारा मेरे शरीर को टोकरी में समेटा जा रहा था चारों और हाहाकार मचा हुआ था , मैं स्वयं की आत्मसत्ता में स्थित हो सम्पूर्ण आनंद में सराबोर होकर इस दृश्य को देख रहा था ।ऑपरेशन थियेटर में बेहोश होने के पहले मैं बड़े मजे से सर्जन को बता रहा था की शरीर का कौन सा टुकड़ा कितना क्षतिग्रस्त हुआ है।”

इस भीषण दुर्घटना के बाद पूज्य गुरुदेव ने बाबूजी से कहा कि “बेटे तुम बचाये गए हो , यह तम्हारी मृत्यु का समय था लेकिन तुम्हे अभी बहुत से बड़े कार्य करना है। जब तुम्हारी जरुरत वहॉं होगी तो तुम्हे बुला लेंगे”

अपनी सघन साधना के दौरान बाबूजी ने पूज्य गुरुदेव की विराट सत्ता के साथ अनेको बार साक्षात्कार किया इसलिए गुरुवर के स्थूल शरीर के प्रति उनका आकर्षण इतना प्रबल नहीं रहा ।

एक विशेष अवसर पर जब बाबूजी , परम पूज्य गुरुदेव ने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा – “ बेटा , मेरी इच्छा है की तुम इस महाविद्या के शिक्षक पैदा करना ।”

पूज्य गुरुवर के वचनों को शिरोधार्य करते हुए बाबूजी ने “करिष्ये वचनं तवः” के महासूत्र को अपने आगामी जीवन का केंद्रीय सूत्र मान लिया । बिहार सचिवालय में नौकरी करते हुए भी जब जब गुरुदेव की पुकार सुनी अवैतनिक अवकाश तक ग्रहण करते हुए युगनिर्माण टोलियों के नेतृत्वकर्ता के रूप में गांव -गांव अलख जगाने का कार्य, बाबूजी अनवरत करते रहे। परमवंदनीया माताज़ी भगवतीदेवी शर्मा के आशीर्वाद से अपने गृहनगर सांसाराम , बिहार में उन्होंने “प्रज्ञाकुंज” आरण्यक की  और “प्रखर प्रज्ञा – सजल श्रद्धा” के प्रतीकों की स्थापना की है ।

आज जहाँ दिखावे और सस्ती लोकप्रियता को पाने के लिए चमत्कारों और स्वांग से भरपूर धर्म और अध्यात्म के बाज़ारीकरण से पूरा समाज त्रस्त है , बाबूजी एक निशुल्क लोकसेवीं की तरह हमारे प्राचीन ऋषियों द्वारा आविष्कृत इस “पंचकोश महाविद्या” को जन-जन तक पहुचानें के भगीरथ प्रयास में जुटें हुए हैं ।

बाहरी आडंम्बरों और गुरुडम के स्वांगों से कोसो दूर बाबूजी देश विदेश के हर कोनों में जहाँ जीवन के रहस्यों को समझने के लिए आतुर साधक है उन तक पहुँचने के लिए तैयार रहते है ।

मानवीय सत्ता की इन पांच कोशो को पूज्यवर श्रीराम शर्मा आचार्य ने पांच अद्भुत खजानें कहा है , बाबूजी विश्व में इस महान विद्या के प्रत्येक कोष के निष्णात् आचार्य खड़े करना चाहते हैं और सन २०१४ से इस विद्या को विश्वस्तरीय, नवयुगीन, निरापद और सरलतम साधना बनाने के महत कार्य के पुरोधा बन चुकें हैं ।

साधना-सूचनाये

प्रथम बार सम्मिलित होने वाले साधकों के लिए :

जो साधक प्रथम बार “पंचकोश साधना” की शुरुआत कर रहे है , उनके लिए आवश्यक सूचनाये

  1. साधना का स्वर्णिम सूत्र : सयंम और स्वाध्याय , स्मरण रखे ही साधना की सिद्धि किसी और पर निर्भर नहीं , गुरुदेव ने हमें सयंम का महान सूत्र दिया है , बिना धैर्य खोये साधना पर चलने वाले कभी निराश नहीं होंगे और अपना अभीष्ट प्राप्त अवश्य करेंगे । साधना के दौरान स्वाध्याय की नियमितता आपको सदैव अपने लक्ष्य के प्रति गतिशील रखेगी । गुरुदेव के विचारों में ऋतम्भरा प्रज्ञा के महान बाहुल्य से आप अपना चिंतन प्रखर कर सकेंगे जो को आपकी सफलता को निश्चित करेगा ।

  1. सिद्धियों और चमत्कारों का मोह त्यागे : पंचकोश साधना के फल के रूप में अगर आप भविष्य दर्शन , आकाश-गमन, अदृश्य दर्शन जैसे सिद्धियों के मोह में पड़े है तो आप गलत दिशा में जा रहे है , याद रखें सच्ची सिद्धियाँ ये नहीं, बल्कि आत्म-संतोष, आत्मबोध , आनंदमयता , ओज , तेज , वर्चस एवं सत्य है जो आपकी साधना की प्रगाढ़ता के होते है आपके पास स्वतः उपहार स्वरुप आते जायेगे अतः व्यर्थ चमत्कारों की आशा छोड़ कर स्वयं को सच्चे साधक के रूप में प्रशिक्षित करे ।

  1. मन की नहीं , गुरु की सुने : पंचकोश साधना जहाँ स्वयं में अतिप्रभावशाली एवं प्रत्यक्ष फलदायी साधना है इसके नीति नियमो में , विधियों - निषेधों में किसी प्रकार ही मनमानी न करे । पूज्यगुरुदेव ने अपने वाङ्ग्मयों में इस साधना को बहुत सुन्दर और सरल रीती से समझाया है अतः स्वाध्याय - मार्गदर्शन के सानिध्य में ही साधना को गति दे, शंका -कुशंका , प्रश्न जो परेशान कर रहे हो उसे वरिष्ठ साधकों या बाबूजी से मिलकर सुलझाया जाये ।

  1. अहंता को पास न फटकने दे : साधना का सबसे बड़ा विघ्न है “अहंकार” , अपने आप को महान , श्रेष्ठ और लोगो से गुरुतर समझना और वैसा प्रदर्शन करना आपको साधना के मार्ग से दूर कर देगा , अतः स्वयं में विनम्रता का गुण बनाये और बढ़ाये रखे ।

  1. जब कभी संभव हो तीर्थ सेवन करे : तीर्थ स्वयं में एक चैतन्य वातावरण का क्षेत्र है ,वहाँ की ऊर्जा आपकी साधना को गति देने में सहायक होती है , अतःएव जब भी संभव हो युगतीर्थ शान्तिकुञ्ज हरिद्वार जाकर वहाँ का चैतन्य ग्रहण करे , प्रज्ञा-कुञ्ज संसाराम बिहार की स्थापना भी साधकों की ऊर्जा को विशेष गति देने के उद्देश्य से ही की गयी है , वहाँ की गयी आपकी साधना अपने गृहनिवास पर की गयी साधना की तुलना में बहुत शक्तिशाली अनुभव होंगी ।

  1. आहार शुद्धि और इंद्रिय शुद्धि का पालन करे : आपका आहार आपके मन का निर्माण करता है और आपका विहार ( आचरण) आपके संस्कारों का । अतः साधकों से हमारा निवेदन है की अपना आहार और आचरण यथासम्भव सात्विक बनाने का प्रत्यत्न साधना काल में करते रहें ।

  1. मन को प्रसन्न और हल्का बनाये रखे :  साधना करने का अर्थ ये कतई नहीं की आप अपने स्वभाव को गुरुगंभीर और शुष्क बना ले , साधना को हँसते , खेलतें एक खेल समझ कर करे । आपकी मंजिल आनंदमय कोष है और उस अपार आनंद के प्रति आपको अभी से खुलें रहना होगा ।

  1. तुलना करने से बचे : अध्यात्म का मार्ग एकांगी और सर्वथा वैयक्तिक है , किसी और की साधना और सफलता से खुद को प्रेरित तो किया जा सकता है परन्तु देखादेखि परिणाम प्राप्त करने अथवा तुलना करके की आदत आपको निराशा के आलावा कुछ नहीं देगी।  इससे सदैव बचे ।

  1. श्रद्धा का कोई विकल्प नहीं है : पथिक अगर अपने मार्ग पर शंका करने लगे तो गंतव्य तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है , इसलिए दृढ़विश्वास के साथ साधना-पथ पर चलते रहें ।

  1. अन्य धर्मों और साधनाओं का भी सम्मान करे : ईश्वर तक जाने के अनेकों अनगिनत रास्ते मौजूद है , मेरा रास्ता ही सही है ऐसा दुराग्रह और वंचना न करे , सभी पंथों के प्रती सम्मान और आदर की भावना रखते हुए आलोचना से स्वयं को दूर रखे ।


पंचकोश साधना शिविर में भाग लेने वाले मित्रों के लिए आवश्यक सूचनायें :

  1. बाबूजी द्वारा आयोजित सभी साधना शिविर निःशुल्क होते है , साधकों से कोई प्रशिक्षण शुल्क नहीं लिया जाता है , परन्तु खान-पान, रहने तथा अन्य आवश्यक व्यवस्थाओं के लिए स्थानीय संयोजकों से व्यवस्था सहियोग राशी के बारें में अवश्य पता कर ले अथवा प्रज्ञाकुञ्ज व्यवस्थापन समिति , पुणे महाराष्ट्र से इस सम्बन्ध में जानकारी ली जा सकती है ।

  1. सादगी और तितिक्षा पंचकोश शिविरों के मुख्य बिंदु है , अतः साधनास्थल पर प्रचुर भौतिक सुखसुविधाओं की व्यवस्था नहीं की जाती है ।

  1. भोजन पूर्णतः सात्विक और सदा रखा जाता है।

  1. किसी लम्बी बीमारी या शारीरिक समस्या के बारे में शिविर में आने के पहले ही व्यवस्थापक समिति को बता दिया जाये एवं उनकी सहमति के बाद ही शिविर में आने का कष्ट करें ।

  1. पंचकोशी योग साधना शिविर के दौरान के दौरान मद्यपान, अथवा तम्बाखू सेवन पूर्णतः वर्जित है ।

  1. सभी प्रतिभागियों के लिए पंचकोशी योग साधना शिविर के  दौरान में व्यवस्थापकों द्वारा निर्धारित दिनचर्या ही मान्य एवं लागू होगी ।

  1. १० वर्ष से कम उम्र के बच्चों को साथ नहीं लायें ताकि आपको एवं अन्य मित्रों को असुविधा न हों ।

  1. शिविर में बिस्तर और दैनिक उपयोग की वस्तुओं की उपलब्धता आयोजकों से पंजीयन के समय ही तय कर ले ताकि बाद में असुविधा न हो ।

  1. शिविर साधनायें केवल आत्मिक उन्नति को केंद्र में रख कर की जायेंगी , अतः किसी प्रकार की आर्थिक , भौतिक समस्या से मुक्ति पाने की लालसा में पंचकोशी योग साधना शिविर के  दौरान में सम्मिलित न हों ।

  1. पंचकोशी योग साधना शिविर में सभी धर्मों , सम्प्रदायों और विचारधाराओं को मानने और पालन करने वाले व्यक्ति एवं नास्तिक भी सम्मिलित हो सकतें है ।

  1. साधना के दौरान अपने साथ नोटबुक अथवा डॉयरी जरूर लायें इससें आपको अपने दैनिक अनुभवों और प्रश्नों के उत्तर सहेजनें में सहायता होगी ।

  1. अपने आगमन और प्रस्थान का समय शिविर प्रारंभ होने के पहले एवं समाप्ति के बाद ही रखें ताकि शिविर का पूरा लाभ प्राप्त हो ।

  1. शिविर में आने के पहले परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा रचित पंचकोश साधना संबंधित “गायत्री महाविज्ञान” एवं “गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियाँ” (वांग्मय १३ ) का स्वाध्याय अथवा www.panchkosh.blogspot.coomपर प्रस्तुत सामग्री या विडियोज़ को देखना बहुत सहायक सिद्ध होगा ।

- लेखक - दिव्यज्ञान प्रदाता - भगवान शिव से लेकर युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य तक की अनेकों अवतारी आत्माएँ

1 comment:

  1. परमपूज्य गुरुदेव की यह पँचकोशिय साधना अत्यंत प्रभावकारी, सरल एवं हानिरहित है। इसलिए सभी साधनाओं में इसका स्थान शास्त्रों में सर्वोपरि माना गया है।
    अतः जिसे सच्चा ब्राह्मण कहलाने का पूर्णत्व प्राप्त करना हो, उसे यह कर्तव्य है कि वह इस साधना में जरूर सहभागी हो।
    मेरी तो पिछले कई दिनों महीनों से आदरणीय बाबूजी के सानिध्य में यह साधना करने की तीव्र इच्छा है। इसबार तो संकल्प पूर्ण करना ही है।

    जय गुरुदेव.

    Kamta Prasad Dube, Mumbai.

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