Friday, 25 August 2017

ब्राह्मणों के आराध्य देव शिवजी, क्षत्रियों के श्री कृष्ण, वैश्यों के ब्रह्मा, और शूद्रों के आराध्य श्री गणेश हैं

Skip to content Skip to main navigation Skip to 1st column Skip to 2nd column SUSANSKRIT  खोज... मुख्य पृष्ठआशयचिंतनसुभाषितसंस्कृतबाल सुरभिसूक्तियांविशेषवेब संसाधन भक्ति श्रवणं कीर्तनं विष्णोः   श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ श्रवण (उ.दा. परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन), और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं । Write comment (1 Comment) अत्याहारः प्रवासश्च   अत्याहारः प्रवासश्च प्रजल्पो नियमग्रहः । जनसङ्गश्व लौल्यंच षड्भिः योगो विनश्यति ॥ अति आहार, अधिक श्रम, बहुत बोलना, उपवास, सामान्य लोगों का संग, और स्वादलोलुपता- इनसे योगाभ्यास में बाधा आती है । Write comment (0 Comments) आदित्यं गणनाथं च   आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम् । पञ्चदैवतमिति प्रोक्तं सर्वकार्येषु पूजयेत् ॥ सूर्य, गणपति, देवी, शिव और केशव (विष्णु), इन पाँच देवताओं की हर कार्य में पूजा करनी चाहिए (इसे पंचायतन पूजा कहते हैं) । Write comment (0 Comments) आदित्य मम्बिकां विष्णुं   आदित्य मम्बिकां विष्णुं गणनाथं महेश्वरम् । गृहस्थं पूजयेत् पञ्च भुक्तिमुक्त्यर्थसिद्धये ॥ भुक्ति (भोग) और मुक्ति, दोनों के लिए गृहस्थ ने सूर्य, देवी, विष्णु, गणेश, और शिव, इन पाँचों की पूजा करनी चाहिए । Write comment (0 Comments) विप्राणां दैवतं शम्भुः   विप्राणां दैवतं शम्भुः क्षत्रियाणां च माधवः । वैश्यानां तु भवेद् ब्रह्मा शूद्राणां गणनायकः ॥ ब्राह्मणों के आराध्य देव शिवजी, क्षत्रियों के श्री कृष्ण, वैश्यों के ब्रह्मा, और शूद्रों के आराध्य श्री गणेश हैं । Write comment (0 Comments) त्रिविधा भवति श्रद्धा   त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रुणु ॥ श्रद्धा स्वभावानुसार सात्त्विक, राजसी, और तामसी, ऐसे तीन प्रकार की होती हैं, वह सुन । Write comment (0 Comments) त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं   त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । रुचिनां वैचित्र्याद्ऋजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ त्रयी सांख्य, योग, पाशुपत मत और वैष्णव मत, इत्यादि इन भिन्न, भिन्न प्रस्थानों में से रुचि की विचित्रता के अनुसार कोई एक को श्रेष्ठ और अन्य को कनिष्ठ तप कहेगा ! (पर) सरल, अथवा टेढे मार्ग से जानेवाली सभी नदियाँ, जैसे अंत में समुद्र में जा मिलती है, वैसे हि रुचि वैचित्र्य से भिन्न भिन्न मार्गो का अनुसरण करनेवाले, सभी का अंतिम स्थान आप ही हैं । Write comment (0 Comments) आकाशात् पतितं तोयं   आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । सर्वदेहनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ॥ आकाश से गिरा हुआ जल, जिस किसी भी प्रकार सागर को हि जा मिलता है; वैसे हि किसी भी रुप की उपासना/नमस्कार, एक हि परमेश्वर को पहुँचती है । Write comment (0 Comments) पुरारौ च मुरारौ च न   पुरारौ च मुरारौ च न भेदः पारमार्थिकः । तथाऽपि मामकी भक्तिः चन्द्रचूडे प्रधावति ॥ जिसका जिस रुप के प्रति आकर्षण होगा, वह उसे ले सकता है । पुरारी या मुरारी में कोई पारमार्थिक भेद नहीं है, कारण सभी रुप एक हि भगवान के हैं । Write comment (0 Comments) किञ्चिदाश्रयसंयोगात्   किञ्चिदाश्रयसंयोगात् धत्ते शोभामसाध्वापि । कान्ताविलोचने न्यस्ते मलीमसमिवाञ्जनम् ॥ बूरी चीज़ भी आश्रय के योग से कुछ शोभा प्राप्त करती है; देखो ! स्त्री की आँख में अंजा हुआ काजल भी अंजन बनता है । Write comment (0 Comments) << प्रारंभ करना < पीछे 1 2 अगला > अंत >> पृष्ठ 1 का 2 सुभाषित अभय ऐक्य भक्ति बुद्धिमान चरित्र पूजन दान दया धर्म दुर्जन गृहस्थी गुरु ज्ञान ईश्वर काल कर्म मन मूर्ख परोपकार राजधर्म राष्ट्र सज्जन संतोष सत्संग सत्य शील सुख-दुःख स्वभाव स्वार्थ तप उद्यम विद्या विनय अन्य सदस्य मेनु पोस्ट करें रजिस्ट्रेशन और लेखन पाक्षिक चिंतन हिन्दी टाइपपॅड सम्पर्क करें Copyright © 2005 - 2017 SuSanskrit. Designed by JoomlArt.com Joomla! is Free Software released under the GNU General Public License.  [+]  Type in 

1 comment:

  1. //जनसङ्गश्व// जनसङ्गश्च please make the correction. Thanks.

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