All World Gayatri Pariwar  Allow hindi Typing 🔍 PAGE TITLES July 1958 गायत्री के प्रथम मन्त्र-दृष्टा-महर्षि विश्वामित्र वैदिक साहित्य और परवर्ती हिन्दू धार्मिक तथा दर्शन साहित्य में गायत्री-मन्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। गायत्री-मन्त्र का प्रथम दर्शन वैदिक युग के क्राँतिकाल में ऐतिहासिक महर्षि विश्वामित्र द्वारा हुआ है। क्रम के अनुसार यह ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 62 वें सूत्र का 10वाँ मन्त्र है। ऋग्वेद तृतीय मंडल के ऋषि विश्वामित्र हैं अतः गायत्री के महत्व को समझने के लिए यह आवश्यक है कि महर्षि विश्वामित्र के जीवन-परिचय और कार्यकलापों का मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अध्ययन करने का प्रयत्न करें। पौराणिक वार्त्ताओं और हिन्दू समाज में प्रचलित अनेक कथाओं से सिद्ध होता है कि वैदिक युग में महर्षि विश्वामित्र एक बहुत ही क्राँतिकारी और महान व्यक्तित्व लेकर अवतरित हुए थे। बोधायन सूत्र और अध्यात्म रामायण दोनों के अनुसार सप्त ऋषियों में उनका नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। (1) नई सृष्टि की रचना, त्रिशंकु और सदेह स्वर्ग भेज देना, जीवन रक्षा के लिए कुत्ते के माँस का भक्षण भी उचित समय पर करना, ब्रह्मर्षि और राजर्षि के सैद्धांतिक प्रश्न को लेकर वशिष्ठ से निरन्तर संघर्ष करना, बिना नरमेध यज्ञ किए ही राजा हरिश्चंद्र को रोग मुक्त करना और मेनका द्वारा तपस्या भंग किया जाना आदि अनेक पौराणिक कथाएं इनके नाम के साथ जुड़ी हुई हैं, जो इनके ऐतिहासिक अस्तित्व और महत्व को सिद्ध करती हैं। इन कथाओं और वैदिक सूत्रों के आधार पर इनके जीवन के क्राँतिपूर्ण कार्यों को खोजकर प्रकाश में लाना बहुत मनोरंजक और जिज्ञासु पाठकों के लिए बड़ा लाभकारी सिद्ध होगा। यद्यपि इस प्राचीनकाल की घटनाओं का यथातथ्य विवरण देना उतना सरल नहीं है किन्तु उनका वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण करना अनुचित न होगा। ऋग्वेद के मन्त्रों से सिद्ध होता है कि उन दिनों त्वष्टा, पर्जन्य और द्यावा पृथ्वी जैसे देवताओं के स्थान पर इन्द्र, वरुण, अग्नि, सूर्य, और सोम जैसे देवता अधिक लोक-प्रिय हो चले थे। राजनैतिक, सामाजिक और साँस्कृतिक नेतृत्व ऋषियों के हाथ में था जो मन्त्र दृष्टा होने के साथ-साथ अच्छे योद्धा भी होते थे और शस्त्र तथा शास्त्र दोनों के द्वारा समाज की रक्षा करते थे। आर्यों और दस्युओं में पारस्परिक संघर्ष होने के कारण एक दूसरे के विषय में 1- विश्वामित्रोऽथ जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गोतमः। अत्रिर्वशिष्ठः कश्यपः इत्येते सर्प्तषयः। (बोधायन सूत्र, प्रवर अध्याय) 2- विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासः भृगुरंगिरा। वशिष्ठो वामदेवोऽभिस्तथा सर्प्तषयोऽमला। (अध्यात्म रामायण, उत्तरकाण्ड) समाज में अनेक अनर्गल बातें प्रचलित थीं। आगे चलकर दोनों सभ्यताओं में समन्वय स्थापित हुआ और दस्युओं के उपास्यदेव शिवलिंग उग्रदेव को आर्यों ने भी अपनाया जो ‘शंकर’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। ऐसी ही सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में विश्वामित्र का जन्म हुआ। सप्तसिन्धु में उस समय भरत, तृस्तु, श्रंजय, मरुत, भृगु और पक्थ आदि प्रमुख कुल थे। विश्वामित्र इनमें से प्रसिद्ध भरत वंश में उत्पन्न हुए। वे जन्हु के प्रप्रोत्र, कुशिक के पौत्र, और महाराज गाधि के पुत्र थे। इतिहास प्रसिद्ध भगवान परशुराम के पिता और महर्षि ऋचीक और सत्यवती के पुत्र महर्षि जमदग्नि विश्वामित्र के भानजे थे। जमदग्नि और प्रसिद्ध ऋग्वेद कालीन राजा दिवोदास के पुत्र और सुदास के साथ महर्षि मैत्रावरुण अगस्त्य के आश्रम में इन्होंने शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। ऋषि-पत्नी लोपामुद्रा इनकी प्रतिभा, बुद्धि और विद्या पर मोहित थी और इन्हीं गुणों के कारण इन्हें लोपामुद्रा का विशेष स्नेह प्राप्त था। आश्रम में बाण विद्या का अद्भुत कौशल दिखाकर इन्होंने अपने से वरिष्ठ सहपाठियों का भी हृदय जीत लिया था। वे वहाँ बड़े लोकप्रिय थे। एक बार दस्युराज शम्बर ने आश्रम पर छापा मारा और इनके एक सहपाठी ऋक्ष के साथ इनका अपहरण कर ले गया। शम्बर ने इन्हें अपने लोहे के किले में बन्द कर दिया और अनेक प्रकार की यातनाएं देने लगा। सम्भवतः उन्हीं परिस्थितियों में इन्हें एक बार कुत्ते का माँस खाकर अपनी प्राण-रक्षा करनी पड़ी होगी। अपने कौशल और बुद्धि चातुर्य से वे वहाँ विपत्तियों पर विजय पाने में सफल हुए। उन्होंने शम्बर की पुत्री उग्रा को प्रणय-सूत्र में बाँधकर अपने वश में कर लिया और उसकी सहायता से शम्बर का वध करके वहाँ से निकल भागे। शम्बर के कारागार से लौटकर विश्वामित्र ने तृस्तु कुल को पौरोहित्य पद स्वीकार कर लिया। तृस्तु कुल का राजा सुदास अत्यन्त पराक्रमी और दबदबे वाला था। इस पौराहित्य को लेकर ही सम्भवतः विश्वामित्र और वशिष्ठ में संघर्ष आरम्भ हुआ। वशिष्ठ और विश्वामित्र के वैमनस्य के अनेक संकेत ऋग्वेद के विश्वामित्र द्वारा रचे गये मन्त्रों में मिलते हैं। राजा सुदास के पुरोहित के पद से उसकी मंगल कामना का संकेत भी ऋग्वेद के मन्त्रों में है (1) इन मन्त्रों से सिद्ध होता है कि वशिष्ठ के साथ विश्वामित्र का सैद्धान्तिक मतभेद था, (2) और एक एक बार संघर्ष में विश्वामित्र को वशिष्ठ के भृत्यों के हाथों बन्दी तक होना पड़ा था (3) इस मतभेद का सूत्रपात विश्वामित्र द्वारा शम्बर पुत्री उग्रा का पाणिग्रहण करने पर ही हो गया था। महर्षि वशिष्ठ आर्यों की रक्त शुद्धि के पक्षपाती थे और वे अनार्यों के साथ आर्यों के संपर्क और वैवाहिक सम्बन्धों को अनुचित इमे भोजा अंगिरसो विरुपा दिवस्युभासा असुरस्य वीराः। विश्वमित्राय ददत्तो मद्यानि सहस्त्र सवि प्रतिरन्त आयुः। -ऋग्वेद मण्डल 3, सूत्र 53, अध्याय 7 इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपितवं चिकितुर्न प्रपित्वम्। हिन्वन्त्यश्व मरणं न नित्यं ज्या वाजं परिणामन्त्याजौ। -ऋग्वेद मण्डल 3, सूत्र 53, मंत्र 24 न सायकस्य चिकिते जनासो लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः। ना वाजिनं वाजिना हायन्तिनं गर्गभं पुरो अश्वान्नयन्ति। -ऋग्वेद, मण्डल 3, सूत्र 53, तन्त्र 23। और अनियमित ठहराते थे। उसके विपरीत विश्वामित्र कर्म के आधार पर जाति और धर्म की स्थापना करते थे तथा वे शुद्ध करके दस्युओं को भी आर्य बनाने के पक्ष में थे। यही झगड़ा बढ़ते-बढ़ते व्यापक हो गया और इसकी परिणिति आगे चलकर दशराज्ञ (दश राजाओं का युद्ध) में हुई। उग्रा के पाणिग्रहण के प्रश्न को लेकर स्वयं भरतवंश में विश्वामित्र का विरोध होने लगा। महर्षि अगस्त्य उनके अनुज वशिष्ठ, भरत और तृस्तु कुल के राजवंश और यहाँ तक कि विश्वामित्र की माँ घोषा तक उनके विरोध में हो गई। किन्तु विश्वामित्र ने हिम्मत नहीं हारी। अब वे खुले आम दस्युओं की शुद्धि की व्यवस्था देने लगे। इस ‘अनर्थ’ को देखकर वशिष्ठ तो तृस्तु राज्य-क्षेत्र में स्थापित अपना आश्रम तक त्याग कर चले गये। किन्तु धीरे धीरे लोग विश्वामित्र की बातों को समझने और ग्रहण करने लगे। उनके पराक्रम, विद्वता, शीलता, दानवीरता और त्याग वृत्ति का लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। लोग उनके नये दर्शन, नई विचारधारा और आचार विचारों के सम्बन्ध में नई व्यवस्था को स्वीकार करने लगे। स्वयं राजा सुदास ने अपने पूर्व व्यवहार के लिए उनसे क्षमा-याचना की। उग्रा की मृत्यु को चुकी थी, अब अगस्त्य और लोपामुद्रा ने अपनी पुत्री रोहिणी से विश्वामित्र का पाणिग्रहण करा दिया। इस प्रकार सफलता से उत्साहित होकर विश्वामित्र ने गायत्री-मन्त्र की घोषणा की और कहा कि जो कोई व्यक्ति इन मन्त्र का विधिवत् जप करेगा उसे विशुद्ध आर्य समझा जायेगा चाहे उसका जन्म किसी भी प्रकार के वंश में हुआ हो। किन्तु सफलता के साथ ही विश्वामित्र के जीवन का संघर्ष आरम्भ हुआ। प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ अपने रूढ़िगत विचारों के कारण खुलकर उनका विरोध करने लगीं। महर्षि वशिष्ठ ने व्यवस्था दी कि विश्वामित्र का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ है अतः वे तपस्या करने पर भी केवल राजर्षि हो सकते हैं, ब्रह्मर्षि कहलाने के अधिकारी वे नहीं है। विश्वामित्र ने इन सब रूढ़ियों का विरोध किया। उनका एक अनुयायी त्रिशंकु वशिष्ठ से निराश होकर उनके पास संदेह स्वर्ग जाने की इच्छा लेकर आया। विश्वामित्र ने नरक और स्वर्ग की व्याख्या करके उसे समझाया कि नरक और स्वर्ग सब इसी जीवन में हैं। यद्यपि आगे चलकर अपने अभिमान के कारण त्रिशंकु का पतन हुआ किन्तु इतिहास जानता है कि एक बार विश्वामित्र की कृपा से शंकाओं से मुक्त होकर वह स्वर्ग का अधिकारी हुआ था। विश्वामित्र और वशिष्ठ का संघर्ष केवल पुरोहित पद के लिए उनकी प्रतिद्वन्द्विता के आधार पर ही नहीं था बल्कि यह प्रगतिशीलता और प्रतिक्रियावाद के बीच में होने वाला संघर्ष था। निस्संदेह इस संघर्ष में प्रगतिशील तत्वों का नेतृत्व विश्वामित्र करते थे। वे स्वर्ग और नरक दोनों का भोग वर्तमान जीवन में ही मानते थे और इस गहन दर्शन को सर्वसाधारण के लिए सुगम बना देने की क्षमता भी उनमें थी। उनके द्वारा नई सृष्टि की रचना की घटना भी इसी बात की ओर संकेत कर रही है कि तत्कालीन सामाजिक विधान उन्हें अमान्य थे और वे उनमें मौलिक परिवर्तन करना चाहते थे, जिनसे भद्र समाज भयभीत हो गया था। मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग कराने की घटना भी इसी ओर संकेत करती है कि वे तत्कालीन अभिजात वर्ग के लिए एक चुनौती के रूप में थे और किसी प्रकार उन्हें समाज की दृष्टि से पतित सिद्ध कर देना ही उस वर्ग को अभीष्ट था। बिना नरमेध के हरिश्चंद्र को रोग-मुक्त कर देने की घटना बताती है कि वे अन्धविश्वास और मिथ्या कर्मकाण्ड में विश्वास न करके वस्तुओं के वैज्ञानिक विवेचन में विश्वास करते थे। वशिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष के फलस्वरूप होने वाले ‘दशराज्ञ’ का स्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में है। कथा सूत्रों और ऋग्वेद के संकेतों से ऐसा लगता है कि यह युद्ध निरा आर्यों और दस्युओं के बीच होने वाला युद्ध न होकर एक सैद्धान्तिक युद्ध था। एक पक्ष का नेतृत्व वशिष्ठ करते थे जो आर्यों की रक्त शुद्धि के पक्षपाती तथा दस्युओं और आर्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के प्रबल विरोधी थे; दूसरे पक्ष का नेतृत्व विश्वामित्र के हाथों में था जो कर्म के अनुसार ही आर्य जाति का अस्तित्व मानते थे और जिनका विश्वास था कि आर्य धर्म का पालन और गायत्री का जप करके दस्यु भी आर्य धर्मी हो सकता है। युद्ध में भले ही विश्वामित्र की पराजय हुई किन्तु हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था साक्षी है कि व्यवहार में उनके ही सिद्धान्त की विजय हुई और अन्त में वशिष्ठ ने भी कर्म के अनुसार जाति का अस्तित्व स्वीकार करके उन्हें ‘ब्रह्मर्षि’ कहकर सम्बोधन किया था। उनका यह कर्मवाद का सिद्धाँत आज भी मानव जाति के कल्याण के लिए आदर्श रूप है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ डा. नारमन बिन्सेंट पीले (Kahani) माँ ने कहा, बच्चों अब तुम समझदार (Kahani) ईश्वरीय न्याय और न्यायालय में ही विश्वास समझौता तब हो सका (Kahani) See More    10_Aug_2017_2_6371.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/magazine_version_mobile.php on line 551
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