Monday, 21 August 2017

ग्रंथि - भेद

||   ग्रंथि  -    भेद   ||
विज्ञान -मय  कोष में तीन बंधन हैं ,जो भौतिक शरीर न रहने पर भी देव , गंधर्व ,यक्ष , भूत , पिशाच , आदि यौनियों में भी वैसे ही बंधन बंधे रहते हैं |  इन्हें रूद्र [ तम ] , विष्णु [ सत ]  और ब्रह्म [ रज ]  ग्रंथियां कहते हैं |  अर्थात तम ,रज  सत द्वारा स्थूल , सूक्ष्म , और कारण शरीर बने हुऐ हैं | इन तीन ग्रंथियों से ही जीव बंधा हुआ है |  इन तीनों को खोलने
की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ - ऋण ,ऋषि -ऋण व देव -ऋण कहलाता है |  तम को प्रकृति , रज को जीव और सत को आत्मा कहते हैं |  संसार में तम को सांसारिक जीवन , रज को 
व्यक्तिगत जीवन व सत को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं |  देश ,जाति , और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करना पितृ -ऋण से ,पूर्व-वर्ती लोगों के उपकारों से उऋण
होने का मार्ग है |  व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक ,बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से संपन्न बनाना , अपने को मनुष्य - सुलभ गुणों से युक्त बनाना ऋषि- ऋण से छूटना है |  स्वाध्याय, सत्संग ,भक्ति ,चिंतन ,मनन ,आदि साधनाओं द्वारा काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद ,मत्सर आदि को हटाकर आत्मा को निर्मल ,देव-तुल्य बनाना ,यह देव -ऋण से उऋण  होना है |
साधक को विज्ञान -मय कोष में तीनों गांठों का अनुभव होता है | प्रथम मूत्राशय के समीप [ रूद्र ]  ,दूसरी आमाशय के उपर भाग में [  विष्णु ]  और तीसरी सिर के मध्य केंद्र में [ब्रह्म ]
ग्रंथि कहलाती है |  इन्हें दूसरे शब्दों में महाकाली , महालक्ष्मी , महा-सरस्वती भी कहते हैं |  प्रत्येक की दो दो सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं |  इन्हें चक्र भी कहते हैं |रूद्र की [  मूलाधार ,
स्वाधिष्ठान ] , विष्णु की [ मणिपुर , अनाहत ]  , ब्रह्म की [ विशुद्धि , आज्ञा ]  चक्र कहा जाता है |  हट-योग की विधि से भी इन छ:  चक्रों का वेधन [ छिद्रण ]  किया जाता है |  सिद्धों ने
इन ग्रंथियों की अंदर की झांकी के अनुसार शिव , विष्णु और ब्रह्मा के चित्रों का निरूपण किया है |  एक ही ग्रंथी ,दायें भाग से देखने पर पुरुष - प्रधान ,व बाएं भाग से देखने पर स्त्री -
प्रधान आकार की होती है |
ब्रह्म - ग्रंथि मध्य-मस्तिष्क में है |  इससे उपर सहस्रार शतदल कमल है | यह ग्रंथि उपर से चतुष्कोण [  चार कोने ]  और नीचे से फ़ैली हुई है |  इसका नीचे का एक तंतु ब्रह्म -रंध्र से
जुडा हुआ है |  इसी को सहस्रार -मुख वाले शेषनाग की शय्या पर सोते हुए भगवान की नाभि -कमल से उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है |  वाम भाग में यही ग्रंथि
चतुर्भुजी सरस्वती है |  वीणा की झंकार से ओंकार - ध्वनी का यहाँ निरंतर गुंजार होता है | 
यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बाँधे हुए हैं |  जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है |  इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पन्नता ,और प्रज्ञा का अटूट
भण्डार हाथ में आ जाता है |  ये शक्तियां  सम - दर्शी  हैं |  रावण जैसे असुरों ने भी शंकरजी से वरदान पाए थे |  परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली |  इसमें साधक
का पुरुषार्थ ही प्रधान है |
||     इति    ||

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