Monday, 21 August 2017

सच्चिदानंद का साक्षात्कार ही है महाशिवरात्रि

सच्चिदानंद का साक्षात्कार ही है महाशिवरात्रि

अपने भीतर स्थित शिव को जानने का महापर्व है महाशिवरात्रि। वैसे तो प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि होती है पर फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की शिवरात्रि का विशेष महत्व होने के कारण ही उसे महाशिवरात्रि कहा गया है। यह भगवान शिव की विराट दिव्यता का महापर्व है। भारतीय शास्त्र के अनुसार शिव अनंत हैं। शिव की अनंतता भी अनंत है। मानव जब सभी प्रकार के बंधनों और सम्मोहनों से मुक्त हो जाता है तो स्वयं शिव के समान हो जाता है। समस्त भौतिक बंधनों से मुक्ति होने पर ही मनुष्य को शिवत्व प्राप्त होता है। शिव और शिवत्व की दिव्यता को जान लेने का महापर्व है महाशिवरात्रि।

इस पवित्र दिन शिव भक्त पूजा एवं उपवास करते हैं। शिव मंदिरों को भव्यता के साथ सजाया जाता है। महादेव जी की बहु विधि पूजा अर्चना की जाती है। पूरा दिन लोग निराहार रहकर उपवास करते हैं। इस दिन काले तिल पानी में डाल कर स्नान करने के पश्चात भगवान शंकर की पूजा का विधान बताया गया है। शिवलिंग पर जल, दूध, बेलपत्र, कनेर और मौल श्री के पत्ते अर्पित करके पूजा की जाती है। लोग रात्रि जागरण करके शिव का भजन पूजन करते हैं और अगले दिन शिव जी को जल का अर्घ्य प्रदान कर उपवास खोला जाता है। इस दिन विष्णु पुराण का पाठ भी किया जाता हैं। शिव भक्तों की मान्यता है कि जो व्यक्ति निरंतर चौदह वर्ष तक अन्न जल रहित इस व्रत का पालन करता है तो उसकी अनेक पीढ़ियों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उनको स्वर्ग की प्राप्ति होती है। शिव अर्चना को मोक्ष प्राप्त करने वाला सबसे सरल मार्ग माना गया है।

शिवरात्रि को शिव पार्वती के विवाह की रात्रि भी माना जाता है। दार्शनिक इसे पुरुष एवं प्रकृति के मिलन की रात्रि मान कर इस दिवस को सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं। इसे आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव एवं शक्ति का योग भी कहा गया है। शिव की पूजा के संबंध में एक प्रचलित धारणा यह है कि एक बार ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी में यह विवाद छिड़ गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। ब्रह्मा जी सृष्टि के रचयिता होने के कारण श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे और भगवान विष्णु पूरी सृष्टि के पालन कर्ता के रूप में स्वयं को श्रेष्ठ कह रहे थे। जब वह विवाद अपने चरम पर पहुँचा तो अचानक एक विराट ज्योतिर्मय लिंग अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ वहाँ प्रकट हुआ। उसका कोई और छोर दिखाई नहीं दे रहा था। सर्वानुमति से यह निश्चय किया गया कि जो इस महान ज्योतिर्मय लिंग के छोर का पहले पता लगाएगा उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा। अत: दोनों विपरीत दिशा में शिवलिंग की जानकारी प्राप्त करने के लिए निकल पड़े। बहुत लंबे समय तक विष्णु जी कुछ भी खोज पाने में असमर्थ रहे और लौट आए। ब्रह्मा जी भी इस कार्य में सफल नहीं हुए परंतु उन्होंने कहा कि वह छोर तक पहुँच गए थे। मार्ग से उन्होंने केतकी के फूल को साक्षी के रूप में साथ ले लिया था। ब्रह्मा जी के असत्य कहने पर स्वयं शिव वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी की इसके लिए आलोचना की। दोनों देवताओं ने महादेव की स्तुति की तब शिव जी बोले कि मैं ही सृष्टि का कारण, उत्पत्तिकर्ता और स्वामी हूँ। मैंने ही तुम दोनों को उत्पन्न किया है अत: तुम दोनों भी मुझ से भिन्न नहीं हो। शिव ने केतकी पुष्प को झूठी साक्षी देने के लिए दंडित करते हुए कहा कि यह पुष्प मेरी पूजा में प्रयुक्त नहीं किया जा सकेगा। उसी काल से शिवलिंग की पूजा एवं महाशिवरात्रि का पर्व प्रारंभ हुआ माना जाता है।

शिवलिंग की पूजा का अर्थ है कि समस्त विकारों और वासनाओं से रहित रह कर मन को निर्मल बनाना। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। शिव पुराण में भगवान स्वयं कहते हैं, 'प्रलय काल आने पर जब चराचर जगत नष्ट हो जाता है और समस्त प्रपंच प्रकृति में विलीन हो जाता है, तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ। दूसरा कोई नहीं रहता। सभी देवता और शास्त्र पंचाक्षर मंत्र में स्थित होते हैं। अत: मेरे से पालित होने के कारण वे नष्ट नहीं होते। तदनंतर मुझसे प्रकृति और पुरुष के भेद से युक्त सृष्टि होती है, वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदुनाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह विश्व शक्ति स्वरूप ही है। नाद बिंदु का और बिंदु इस जगत का आधार है। यह शक्ति और शिव संपूर्ण जगत के आधार रूप में स्थित हो। बिंदु और नाद से युक्त सब कुछ शिव है, वही सबका आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश या लय होता है। यही वह समष्टि है जिससे सृजन काल में सृष्टि का प्रारंभ होता है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। इसी कारण शिवलिंग की उपासना से ही परमानंद की प्राप्ति संभव है।

भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्राचीन काल से शिव की पूजा होती रही है इसके अनेक प्रमाण समय समय पर प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जो शिव पूजा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। हमारे समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी शिव जी की पूजा की विधियाँ विस्तार से उल्लिखित हैं। शास्त्रों में शिव की शक्ति को रात्रि ही कहा गया है। रात्रि शब्द का अर्थ है जन-मन को अवकाश या उत्सव प्रदान करने वाली। शिव की शक्ति रात्रि ही है जो विश्व के समस्त प्राणियों को अपनी गोद में आराम प्रदान करती है।

ईशान संहिता के अनुसार महाशिवरात्रि को ही ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ। शिव पुराण में ब्रह्मा जी ने कहा है कि संपूर्ण जगत के स्वामी सर्वज्ञ महेश्वर के कान से गुण श्रवण, वाणी से कीर्तन, मन से मनन करना महान साधना माना गया है। इसी लिए महाशिवरात्रि के दिन उपवास, ध्यान, जप, स्नान, दान, कथा श्रवण, प्रसाद एवं अन्य धार्मिक कृत्य करना महाफलदायक होता है। वास्तव में शिव की महिमा अपरंपार है। जिनके कोष में भभूत के अतिरिक्त कुछ नहीं है परंतु वह निरंतर तीनों लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं। परम दरिद्र शमशानवासी होकर भी वह समस्त संपदाओं के उद्गम हैं और त्रिलोकी के नाथ हैं। अगाध महासागर की भांति शिव सर्वत्र व्याप्त हैं। वह सर्वेश्वर हैं। अत्यंत भयानक रूप के स्वामी होकर भी स्वयं शिव हैं।

जब भीष्म शरशैरया पर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे तो पांडवों ने उनसे शिव महिमा के विषय में जानने की जिज्ञासा की तो उन्होंने उत्तर दिया कि कोई भी देहधारी मानव शिव महिमा बताने में सर्वथा असमर्थ है। भारतीय मनीषियों के अनुसार शिव अव्यक्त हैं और जो कुछ व्यक्त है, वह उसी की शक्ति है, वही उसका व्यक्त रूप है। शिव ही निराकार ब्रह्म हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेंद्रियों पर विजय प्राप्त कर शिव शक्ति की साधना करना ही शिवरात्रि व्रत करना है। शिवरात्रि के जागरण के संदर्भ में वही भावना है जो गीता में जागरण के विषय में व्यक्त की गई है। सामान्य प्राणियों की रात्रि में जोगी जागता है और उनके दिन में जोगी सोता है। इस प्रकार जो पाशबद्ध है उसे मनीषियों ने पशु कहा है अपने परम स्वरूप शिव के अधिक से अधिक निकट पहुँचना ही ''पशुपति`` शिव की उपासना का लक्ष्य है और यही जागरण का महत्व है। रात्रि में जागृत जीवन का कोलाहल नहीं रहता। प्रकृति शांत रहती है। यह अवस्था साधना, मनन और चिंतन के लिए अधिक अनुकूल होती है। उपवास का भी एक अर्थ है 'किसी के समीप रहना। वराह उपनिषद के अनुसार उपवास का अर्थ है जीवात्मा का परमात्मा के समीप रहना। महाशिवरात्रि पर जागरण और उपवास का यही लक्ष्य है।

शिव तनिक-सी सेवा से ही प्रसन्न होकर बड़े से बड़े पापियों का उद्धार करने वाले महादेव हैं। कभी केवल जल चढ़ा देने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं तो कभी बेल पत्र से ही। भले ही पूजा अनजाने में ही हो गई हो वह व्यर्थ नहीं जाती। किसी भी जाति अथवा वर्ण का व्यक्ति उनका भक्त हो सकता है। देव, गंधर्व, राक्षस, किन्नर, नाग, मानव सभी तो उनके आराधक है। हिंदू-अहिंदू में महादेव कोई भेद भाव नहीं करते। शिवलिंग पर तीन पत्ती वाले बेलपत्र और बूंद-बूंद जल का चढ़ाया जाना भी प्रतीकात्मक है। सत, रज और तम तीनों गुणों के रूप में शिव को अर्पित करना उनकी अर्चना है। बूंद-बूंद जल जीवन के एक-एक कण का प्रतीक है। इसका अभिप्राय है कि जीवन का क्षण-क्षण शिव की उपासना को समर्पित होना चाहिए।

शिव तो सर्वस्व देने वाले हैं। विश्व की रक्षार्थ स्वयं विष पान करते हैं। अत्यंत कठिन यात्रा कर गंगा को सिर पर धारण करके मोक्षदायिनी गंगा को धरा पर अवतरित करते हैं। श्रद्धा, आस्था और प्रेम के बदले सब कुछ प्रदान करते हैं। महाशिवरात्रि शिव और पार्वती के वैवाहिक जीवन में प्रवेश का दिन होने के कारण प्रेम का दिन है। यह प्रेम त्याग और आनंद का पर्व है। शिव स्वयं आनंदमय हैं। शिव के समीप ले जा कर सच्चिदानंद का साक्षात्कार करवाने का पर्व ही तो है महाशिवरात्रि।

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महाशिवरात्रि-व्रत

महाशिवरात्रि-व्रत के रहस्य को जानने के लिए यह आवश्यक है कि उसका पदच्छेद करके उसके अंगीभूत प्रत्येक शब्द पर विचार किया जाय। देखा जाय कि ‘शिव’ किसे कहते हैं, ‘रात्रि’ क्या चीज है और ‘व्रत’ का क्या अर्थ है। साथ ही, इसका साधन क्या है और इसे करने से किस फल की प्राप्ति होती है, आदि। शिव- ‘शिव क्या है’ इसकी जानकारी प्राप्त कर लेना शिव कृपा पर ही अवलम्बित है।

वस्तुत: इसे जानना ही शिव का साक्षात्कार कर लेना है, जो बहुत दूर की बात है, फिर भी साधारण ज्ञान के लिए इतना जान लेना आवश्यक है -

शेते तिष्ठति सर्वं जगत् यस्मिन् स: शिव: शम्भु: विकाररहित: …।

अर्थात ‘जिसमें सारा जगत् शयन करता है, जो विकार रहित है वह ‘शिव’ है, अथवा जो अमंगल का ह्रास करते हैं, वे ही सुखमय, मंगलरूप भगवान् शिव हैं। जो सारे जगत् को अपने अंदर लीन कर लेते हैं वे ही करुणा सागर भगवान् शिव हैं। जो भगवान् नित्य, सत्य, जगदाधार, विकाररहित, साक्षीस्वरूप हैं, वे ही शिव हैं।’महासमुद्र रूपी शिवजी ही एक अखण्ड पर तत्व हैं, इन्हीं की अनेक विभूतियां अनेक नामों से पूजी जाती हैं, यही सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् हैं, यही व्यक्त-अव्यक्त रूप से क्रमश: ‘सगुण ईश्वर’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ कहे जाते हैं तथा यही ‘परमानंद’, ‘जगदात्मा’, ‘शम्भव’, ‘मयोभव’, ‘शंकर’, ‘मयस्कर’, ‘शिव’, ‘रुद्र’ आदि नामों से संबोधित किये जाते हैं। भगवान शिव वर्णनातीत होते हुए भी अनुभवगम्य हैं, यही आशुतोष भक्तों को अपनी गोद में रखते हैं, यही त्रिविधि तापों का शमन करने वाले हैं। इन्हीं से समस्त विद्याएं एवं कलाएं निकली हैं, ये ही वेद तथा प्रणव के उद्गम हैं। इन्हीं को वेदों ने ‘नेति-नेति’ कहा है। यही नित्याश्रय और अनन्ताश्रय हैं और यही दयासागर एवं करुणावतार हैं। इनकी महिमा का वर्णन करना मनुष्य की शक्ति के बाहर है।रात्रि ‘रा’ दानार्थक धातु से ‘रात्रि’ शब्द बनता है, अर्थात् जो सुखादि प्रदान करती है - वह ‘रात्रि’ है।

रात्रि सदा आनन्ददायिनी है, अत: सबकी आश्रयदात्री होने के कारण धर्मग्रंथों में उसकी स्तुति की गयी है और यहां रात्रि की स्तुति से प्रकृतिदेवी, दुर्गादेवी अथवा शिवादेवी की ही स्तुति समझनी चाहिए। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है ‘वह रात्रि जो आनन्द देने वाली है और जिसका शिव के नाम के साथ विशेष संबंध है।’ ऐसी रात्रि माघ फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की है, जिसमें शिवपूजा, उपवास और जागरण होता है। उक्त फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को शिवपूजा करना एक महाव्रत है। अत: उसका नाम महाशिवरात्रि-व्रत पड़ा। शिव के भावुक भक्तों के लिए इस संबंध में कुछ आवश्यक उद्धरण दिये जाते हैं -

परात् परत्तरं नास्ति शिवरात्रिपरात् परम्।न पूजयति भक्त्येशं रुद्रं
भ्रमते नात्र संशय:॥

(स्कन्दपुराण)

सौरो वा वैष्णवो वान्यो देवतान्तरपूजक:
पूजाफलमान्नोति शिवरात्रिबहिर्मुख:॥
(नृसिंह-परिचर्या और पद्मपुराण)

इसका आशय यह है कि शिवरात्रि-व्रत परात्पर है। जो जीव इस शिवरात्रि में महादेव की भक्तिपूर्वक पूजा नहीं करता, वह अवश्य सहस्रों वर्षों तक घूमता रहता है। चाहे सूर्यदेव का उपासक हो, चाहे विष्णु तथा अन्य किसी देव का, जो शिवरात्रि का व्रत नहीं करता, उसको फल की प्राप्ति नहीं होती।

स्कन्दपुराण के अनुसार -
शिवं तु पूजयित्वा यो जागर्ति च चतुर्दशीम्।
मातु: पयोधररसं न पिवेत् स कदाचन॥

जो शिव-चतुर्दशी में शिव की पूजा करके जागता रहता है, उसको फिर किसी जन्म में अपनी माता का दूध नहीं पीना पड़ता अर्थात वह मुक्त हो जाता है। ‘चाहे सागर सूख जाय, हिमालय भी क्षय को प्राप्त हो जाय, मन्दर, विन्ध्यादि पर्वत भी विचलित हो जाये, पर शिव-व्रत कभी विचलित (निष्फल) नहीं हो सकता।’ इसका फल अवश्य मिलता है। जो मनुष्य ‘कालतत्व’ का भाव जानते हैं, उन्हें विदित है कि समय पर कार्य करने से इष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है। फाल्गुन के पश्चात् नये वर्ष चक्र का प्रारम्भ होता है। रात्रि के पश्चात् दिन और दिन के पश्चात् रात्रि होती है अथवा लय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद लय होता है। इस प्रकार लय के बाद सृष्टि और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के बाद वर्षचक्र की पुनरावृत्ति एक ही बात है। वर्ष चक्र की पुनरावृत्ति के समय मुमुक्षु जीव परम तत्व शिव के पास पहुंचना चाहता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कृष्ण चतुर्दशी में चन्द्रमा सूर्य के समीप होते हैं। अत: उसी समय में जीवरूपी चन्द्र का शिवरूपी सूर्य के साथ योग होता है। अतएव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिव पूजा करने से जीव को इष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है।

शिवरात्रि-व्रतअब यह समझना है कि शिवरात्रि-व्रत क्या है? इस व्रत में उपवास, जागरण और शिव-पूजा करने की परंपरा है। इन सबका तात्विक अर्थ समझना चाहिए। इसके पहले ‘व्रत’ क्या है, यह समझना आवश्यक है। वैदिक साहित्य में व्रत का अर्थ वेदबोधित, इष्टप्रापक कर्म है। दार्शनिक काल में ‘अभ्युदय’ और ‘नि:श्रेयस’ कर्मों का हेतु-पदार्थ ही ‘व्रत’ शब्द का अर्थ समझा जाता था। अमरकोष में ‘व्रत’ का अर्थ नियम है। पुराणों में व्रत ‘धर्म’ का वाचक हैँ निष्कर्ष यह है कि वेदबोधित अगि्होत्रादि कर्म, शास्त्रविहित नियमादि अथवा साधारण तथा असाधारण धर्म को ही ‘व्रत’ कहते हैं अथवा थोड़े में यों समझिये कि जिस कर्म द्वारा भगवान का सान्निध्य होता है वही व्रत है। उपवास क्या है? जीवात्मा का शिव के समीप वास ही ‘उपवास’ कहा जाता है।

उप-समीपे यो वास: जीवात्मपरमात्मनो: : स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम्॥(वराहोपनिशद्)देवीपुराण में कहा गया है - ‘भगवान् (शिव) का ध्यान, उनका जप, स्नान, भगवान् की कथा का श्रवण आदि - इन गुणाें के साथ वास अर्थात् इन क्रियाओं को करते हुए काल-यापन करना ही उपवासकर्ता का लक्षण है। व्रती के अन्दर ये लक्षण अवश्य होने चाहिए। व्रती के लिए सब प्रकार के विषय-भोगों का वर्जन आवश्यक है। केवल अनशन करने से उपवास या व्रत नहीं होता।’ जागरण-मुमुक्षु जीवात्मा के लिए ‘जागरण’ आवश्यक है-

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥

‘सर्व प्राणियों की अर्थात् विषयासक्त संसारी जनों की जो निशा है, उसमें संयमी जगे रहते हैं। आत्मदर्शन विमुख प्राणिगण जिस जगदवस्था में जागते हैं, वह मनीषी, आत्मदर्शननिरत योगी के लिए निशा है।’ अत: सिद्ध है कि विषयासक्त जिसमें निद्रित हैं उसमें संयमी प्रबुद्ध हैं। अत: शिवरात्रि में जागरण करना आवश्यक है। शिवपूजा का अर्थ पुष्प-चन्दन-बिल्बपत्र अर्पितकर शिवनाम का जप-ध्यान करना एवं चित्तवृत्ति का निरोध कर जीवात्मा का परमात्मा ‘शिव’ के साथ योग करना है।योगशास्त्र के शब्दों में इन्द्रियों का प्रत्याहार, चित्तवृत्ति का निरोध और महाशिव रात्रि व्रत वास्तव में एक ही पदार्थ हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियां, पंच कर्मेन्द्रियां तथा मन, अहंकार, चित्त और बुद्धि-इन चतुर्दश का समुचित निरोध ही सच्ची ‘शिव-पूजा’ या ‘शिवरात्रि-व्रत’ है। चाहे शिव-पूजा ज्ञान योग द्वारा कीजिये अथवा कर्मयोग द्वारा, भक्ति का सम्मिश्रण दोनों में रहेगा। ज्ञानप्रधान भक्ति अथवा कर्मप्रधान भक्ति द्वारा फाल्गुन-कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि-व्रत करने से मुक्ति मिलेगी।जो लोग शिव-भक्ति से प्रेरित होकर सच्चे पवित्र मन से अनशनव्रतकर परतत्व शिव की पूजा बिल्व-पत्र, दुग्ध व पुष्पादि से करते हैं, उन्हें भी अपनी भक्ति के अनुसार फल मिलता है। क्योंकि वास्तव में महाशिवरात्रि-व्रत का उद्देश्य जीवात्मा का परमात्मा के साथ सहयोग ही है। अपनी-अपनी भक्ति के अनुसार समस्त भूमण्डल के भावुकजन वैज्ञानिक महाशिवरात्र-व्रत का अनुष्ठान कर सकते हैं। भगवान् भूतनाथ की दया से उन्हें सिद्धि अवश्य मिलेगी। अज्ञानवश एक व्याध ने महाशिवरात्रि-व्रत का अनुष्ठान किया था, जिससे शिव के गणों ने उसके लिए भी एक विमान भेजकर उसे शिवलोक में पहुंचा दिया। यम ने भगवान् शिव के पास जाकर उस व्याध की इन शब्दों में शिकायत की -निषादो जीवघाती च सर्वधर्मबहिष्कृत:।न धर्मोऽप्यर्जितस्तेन निर्गतं यमशासनम्॥
आदि।

भगवान शिव ने यमदेय को उस व्याध की कहानी कह सुनायी कि कैसे उसने बिल्वपत्र द्वारा शिवलिंग की उपासना की और कैसे अनशन-व्रत द्वारा ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने यमदेव को आध्यात्मिक घटनाओं का तारतम्य भी समझा दिया। अनशन द्वारा भक्तिपूर्वक शिव की बिल्वपत्र, पुष्प, चन्दन, दुग्ध, दधि द्वारा पूजा से बहुत बड़ा आध्यात्मिक लाभ और सांसारिक अभ्युदय प्रारम्भ में होगा। आज ईश्वर के नाम पर जगह-जगह झगड़े हो रहे हैं। शैव-पदार्थों की अवहेलना है। यद्यपि अनेक व्रतों तथा साधनों द्वारा शान्ति की चेष्टा की जा रही है तथापि महाशिवरात्रि-व्रत द्वारा ही इस ओर विशेष सफलता मिल सकती है।

Blessed Aspirants,

Lord Siva is the God of Love. His Grace is boundless. He is the Saviour and Guru. He is the Beloved of Uma. He is Satyam, Sivam, Subham, Sundaram, Kantam. He is the Supreme Light that shines in your heart.

Meditate on His Form. Hear His Lilas. Repeat His Mantra 'Om Namah Sivaya'. Study Siva Purana. Do His worship daily. Behold Him in all names and forms. He will bless you with His Vision."

~ Swami Sivananda

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