आयुष दर्पण स्वास्थ्य जगत क़ी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का हिंदी ब्लॉग मंगलवार, 27 सितंबर 2011 प्राणायाम एक नजर  प्राणवायु के बिना जीवन संभव नहीं है। मनुष्य के शरीर में स्थित प्राण ही उसे आरोग्य व स्वस्थ रखने में सहायक होते हैं। “प्राणायाम” प्राणवायु को नियंत्रित करने की प्रक्रिया है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक का उद्देश्य पाठक को योगासन एवम् प्राणायाम के विभिन्न पक्षों पर विस्तृत जानकारी प्रदान करने का है, आसनों की विस्तृत जानकारी के उपरान्त अब हम प्राणायाम का विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे। हाँलाकि योग-शास्त्रों में कई प्रकार के प्राणायाम के संदर्भ में बताया गया है, लेकिन हम केवल उन्हीं प्राणायाम के बारे में जानकारी दे रहे हैं जो कि चलन में है। यह प्राणायाम निम्नवत् हैं; 1. कपालभाति प्राणायाम 2.नाड़ी शोधन प्राणायाम 3. शीतली प्राणायाम 4. भ्रामरी प्राणायाम 5. सूर्यभेदी प्राणायाम 6. उज्जाई प्राणायाम 7. भस्तिका प्राणायाम 8. चन्द्रभेदी प्राणायाम "कपालभाति प्राणायाम" कपाल माने माथा और भाति का अर्थ है रोशनी, ज्ञान व प्रकाश। योगियों ने कहा है कि इस प्राणायाम से हमारे मस्तिष्क या फिर सिर के अग्र भाग में रोशनी प्रज्जवलित होती है और हमारे अग्र भाग की शुद्धि होती है। कपालभाति प्राणायाम षटकर्म की क्रिया के अर्न्तगत भी आता है। इसे कपाल शोधन प्राणायाम भी कहा जाता है।विधि: ज़मीन पर पद्मासन या फिर सुखासन की अवस्था में बैठे फिर पूरे बल से नासिका से साँस को बाहर फेंके, श्वास को लेने का प्रयास न करें, श्वास स्वतः आ जाएगा। जब हमारा श्वास बाहर निकलेगा उसी समय हम अपने पेट का संकुचन करेंगे। पहले धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें, उसके बाद धीरे-धीरे श्वास छोड़ने और पेट के संकुचन की गति बढ़ा दें। शुरू-शुरू में नये अभ्यासी कम से कम 20 चक्रों का अभ्यास करें। एक सप्ताह उपरांत 50 चक्रों तक अभ्यास को बढ़ा दें। ध्यान रहे कमर और गर्दन सीधी हो, आँखें बन्द (या खोलकर भी अभ्यास कर सकते है) हो। दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा में हो।लाभ व प्रभाव: इस प्राणायाम के अभ्यास से नाक, गले एवम् फेफड़े की सफाई होती है, चेहरे पर कांति, लालिमा और ओजस्व आता है। इसे करने से चेहरे की झुर्रियाँ, दाग, फुन्सी आदि दूर होते हैं। कपालभाति प्राणायाम से ईडा नाड़ी और पिंगला नाड़ी की शुद्धि होती है। दमा, तपेदिक, टाईसिल / टाउंसिल आदि के विकार दूर हो जाते हैं। महिलाओं में गर्भाशय के विकार, मासिक धर्म सम्बंधि कठिनाई और गर्भाशय जनित दोष दूर होते है। यह प्राणायाम पाचन संस्थान को मजबूत बनाता है तथा नर्वस सिस्टम में संतुलन लाता है। इससे कपाल की नस-नाड़ियों की शुद्धि होती है, इसलिए इसके अभ्यास से ध्यान की एकाग्रता बढ़ती है, जिससे व्यक्ति तनावमुक्त होता है।सावधानियाँ: हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी, मिर्गी स्ट्रोक, हार्निया और अल्सर के रोगी तथा गर्भवती महिलाएं इसका अभ्यास ना करें।विशेष: चक्कर आने या फिर सरदर्द की स्थिति में कुछ देर आराम करें और पुनः इसका अभ्यास करें। इसे करते हुए हर दिन कम से कम 15 गिलास पानी अवश्य पियें। “नाड़ी शोधन (लोम-विलोम) प्राणायाम” योगियों ने इस प्राणायाम का नाम नाड़ी शोधन प्राणायाम या फिर लोम-विलोम प्राणायाम इसलिए रखा है क्योंकि इसके अभ्यास से हमारे शरीर की 72 हज़ार नाड़ियों की शुद्धि होती है।विधि: सर्वप्रथम पद्मासन में स्थित हो जाएं। उसके बाद दायें हाथ के अंगूठे से दाहिने नासिका छिद्र को बन्द करें, तत्पश्चात् बांई नासिका से धीरे-धीरे बिना आवाज़ किए श्वास को अंदर भरें। फिर दायें हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुली से बायें नासिका को बंद करें और दायें नासिका से साँस को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। फिर दाहिने नासिका से गहरा श्वास अंदर भरें और दायें हाथ के अंगूठे से दाईं नासिका को बंद कर बायें नासिका से साँस को बाहर निकाल दें। यह इस प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ। शुरू-शुरू में इसके 10 चक्रों का अभ्यास अवश्य करें। कुछ समय पश्चात जब आप अभ्यस्त हो जाये तो आप श्वास को 1, 4, 2 के अनुपात से भरे और छोड़ें। यानि श्वास भरते वक़्त 1 गिनती तक भरें, 4 गिनती तक श्वास को भीतर रोकें और फिर 2 गिनती तक श्वास को बाहर निकालें। ध्यान रहे, कमर, गर्दन और मेरुदण्ड बिल्कुल सीधा होना चाहिए।लाभ व प्रभाव: इस प्राणायाम के अभ्यास से हमारे शरीर में वात, पित और कफ़ के दोष दूर होते हैं। 72 हज़ार नाड़ियों की शुद्धि होती है तथा रक्त स्वच्छ होता है। हमारे शरीर द्रव्य बाहर हो जाते हैं, जठराग्नि और चर्म रोग दूर होते है, चेहरे पर लालिमा आती है। साधक रोग रहित हो जाता है। हमारे पेनिक्रियाज ग्रन्थि, यकृत और प्लीहा की मसाज होती है। आँखों की रोशनी बढ़ती है और नेत्रों के विकार दूर हो जाते हैं। हमारे शरीर को ज़्यादा से ज़्यादा ऑक्सीजन प्राप्त होती है। विचारों में सकारात्मकता आती है तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है।सावधानियाँ: इस प्राणायाम को सभी लोग कर सकते हैं। इसे करते समय मुँह से श्वास नहीं लेना चाहिए। किसी भी प्रकार की असुविधा होने पर प्राणायाम का अभ्यास न करें। श्वास की गति धीमी रखें। कमर, पीठ, रीढ़ और गर्दन बिल्कुल सीधी रखें। “शीतली प्राणायाम” जिस प्राणायाम के अभ्यास से शीतलता का आभास हो या फिर अŸयधिक शीतलता की अनुभूति हो उसे शीतली प्राणायाम कहते हैं। विधि: पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं। दोनों हाथ की अंगुलियों को ज्ञान मुद्रा में दोनों घुटनो पर रखें, आँखें बन्द करंे। उसके बाद अपनी जीह्वा (जीभ) को नली के समान बना लें अर्थात् गोल बना लें और मुँह से लम्बी गहरी श्वास आवाज के साथ भरें। जितनी देर श्वास को आसानी से रोक सकते हैं, उतनी देर श्वास रोकें फिर धीरे-धीरे नाक से श्वास को बाहर निकाल दें। यह इस प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ, कम से कम 10 चक्रों का अभ्यास करें।लाभ व प्रभाव: इस प्राणायाम के अभ्यास से बल एवं सौन्दर्य बढ़ता है। रक्त शुद्ध होता है। भूख, प्यास, ज्वर (बुखार) और तपेदिक पर विजय प्राप्त होती है। शीतली प्राणायाम ज़हर के विनाश को दूर करता है। अभ्यासी में अपनी त्वचा को बदलने की सामर्थ्य होती है। अन्न, जल के बिना रहने की क्षमता बढ़ जाती है। यह प्राणायाम अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और अल्सर में रामबाण का काम करता है। चिड़-चिड़ापन, बात-बात में क्रोध आना, तनाव तथा गर्म स्वभाव के व्यक्तियों के लिए विशेष लाभप्रद है। सावधानियाँ: निम्न रक्तचाप वाले, दमा की अन्तिम अवस्था वाले और ज़्यादा कफ़ वाले रोगी इस प्राणायाम का अभ्यास न करें। शीतकाल में इसके अभ्यास की मनाही है।विशेष: शीतकारी प्राणायाम के सारे लाभ इस प्राणायाम में भी प्राप्त किये जा सकते हैं। शीतकारी प्राणायाम में मुँह बंद कर दंत पंक्तियाँ को मिलाकर मुँह से श्वास लेते हैं और नाक से ही श्वास छोड़ते हैं। प्रदूषित जगह में इस प्राणायाम का अभ्यास न करें । पुस्तक में शीतकारी प्राणायाम को अलग से वर्णित नहीं किया गया है, आशा है कि पाठक दोनों प्राणायाम का अन्तर समझ जाएंगे। “भ्रामरी प्राणायाम” भ्रामरी शब्द का अर्थ भृंग और भृंगी से लिया गया है। इस प्राणायाम में भ्रामरी शब्द अर्थात् भौंरे से लिया गया है। इस प्राणायाम को करते वक़्त श्वास को भ्रमरे की गुंजन की आवाज के समान छोड़ते हैं। यही कारण है कि इसका नाम भ्रामरी रखा गया है।विधि: पद्मासन या फिर सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन, पीठ बिल्कुल सीधी हो। दोनों हाथ की अंगुलियों से दोनों कान को बंद कर लें। हाथ की उपरी अंगुलियों को आँखों पर और नीचे की अंगुलियों को होठ पर स्थित कर लें। उसके बाद धीरे-धीरे श्वास को पूरे फेफड़े में भर लें, कुछ देर तक श्वास को अन्दर ही रोके रखें। फिर भंवरे की गुंजन करते हुए धीरे-धीरे कंठ और नाक से भ्रमर की तरह आवाज निकालते हुए श्वास को बाहर निकालें। यह इस प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ। कम से कम 10 चक्रों का अभ्यास करें। अभ्यस्त होने पर 5 से 10 मिनट तक अभ्यास करें।लाभ व प्रभाव: मन शांत एवं एकाग्र और कंठ मधुर होता है। इसके अभ्यास से नाद ब्रह्म की सिद्धि होती है। यह वाणी एवं स्वर को सुरीला तथा कोमल बनाता है। इसके अभ्यास से मानसिक उतेजना एवं उदासीनता दोनों दूर हो जाती है। मस्तिष्क के स्नायु, नाड़ी संस्थान तथा मन शांत हो जाता है। यह आज्ञा चक्र जागृत करने में सहायक है। यह प्राणायाम गायकों के लिए अतिउत्तम है। अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, क्रोध आदि में रामबाण का कार्य करता है।सावधानियाँ: हृदय रोगी, कान के रोगी इसका अभ्यास न करें। विशेष: इसका अभ्यास कभी भी किया जा सकता है। “सूर्यभेदी प्राणायाम” सूर्यभेदी का मतलब है पिंगला नाड़ी या फिर सूर्य स्वर का भेदन करना। पिंगला नाड़ी या फिर सूर्य स्वर को जागृत करना भी कहलाता है सूर्यभेदी प्राणायाम।विधि: पद्मासन या फिर सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन, पीठ बिल्कुल सीधी हो। बायें हाथ की अंगुलियों को बायें पैर पर ज्ञान मुद्रा में रखें। दायें हाथ की दो अंगुलियों से बायें नासिका छिद्र को बंद कर लें। फिर दायें नासिका छिद्र से साँस को बिना आवाज किए अंदर भरें, और अपने दोनों हाथ की अंगुलियों से दायें नासिका छिद्र को भी बंद कर लें और अपनी क्षमतानुसार साँस को रोकें। फिर से बाईं तरफ से अंगुलियाँ हटाते हुए बायें नासिका छिद्र से साँस को बाहर निकाल दें। यह इस प्राणायाम का एक चक्र कहलाता है। शुरू में 10 चक्र का अभ्यास करें, अभ्यस्त होने पर 5 से 10 मिनट का अभ्यास करें।लाभ व प्रभाव: सूर्यभेदी प्राणायाम के अभ्यास से रक्त का शोधन होता है। यह शरीर के ताप को बढ़ाता है, रक्त के लाल कण अधिक मात्रा में बढ़ते हैं। मस्तिष्क सम्बंधि रोग, अवसाद और पागलपन दूर होते हैं। सूर्यभेदी प्राणायाम साईनिस, दमा, सर्दी और ज़ुकाम में रामबाण का काम करता है। गठिया, कब्ज़, गैस और अजीर्ण में बहुत ही लाभप्रद है। चर्म रोग, मधुमेह में बहुत लाभकारी होता है। निम्न रक्तचाप, शीत सम्बंधि रोग दूर करता है। शरीर में ऊष्मा उत्पन्न होती है, जिससे कुण्डलिनी जागरण में सहायता मिलती है।सावधानियाँ: हृदयरोगी, मिर्गी, पित्तप्रवृति के व्यक्तियों को तथा गर्म प्रदेश में इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। “उज्जाई प्राणायाम” उज्जाई प्राणायाम का अर्थ ऊपर उठने से लिया गया है, या फिर इसका अर्थ विजय प्राप्त करने से लिया गया है। जिस प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा साधक सुगमता से विजय प्राप्त कर ले उसे उज्जाई प्राणायाम कहते हैं।विधि: पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन, पीठ बिल्कुल सीधी हो। दोनों हाथ की अंगुलियों को ज्ञान मुद्रा में दोनों घुटने पर रखें। साँस की गति को सामान्य रखते हुए मस्तिष्क के विचारों को शांत करें, फिर आँखें बंद कर लें। उसके बाद कंठ को संकुचित करके जीभ को उलटकर इसकी नोंक को तालू से लगाए। यह कहलाती है “खेचरी मुद्रा ” । अब दोनों नासिका छिद्र से धीरे-धीरे श्वास लें और गले में घर्षण करते हुए श्वास अंदर ले जाएं, इसको आवाज़ के साथ करें। कुछ देर साँस अपनी क्षमतानुसार रोक कर फिर दाहिने नासिका छिद्र को दायें हाथ के अंगूठे से दबाएं और फिर कंठ का संकुचन करते हुए बायें नासिका छिद्र से धीरे-धीरे श्वास बाहर निकालें। यह इस प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ, कम से कम 10 चक्रों का अभ्यास अवश्य करें।लाभ व प्रभाव: गलकण्ड, कंठ-माला, टाँसिल जैसे रोग दूर हो जाते हैं। थायराईड पैरा-थायराईड पर प्रभाव डालता है। कफ़ दोष, तपेदिक और प्लीहा के रोग दूर हो जाते हैं। कंठ, फेफड़ा, नाक, कान, गले आदि के लिए राबामाण का काम करता है। सर्दी, जुखाम , निम्न-रक्तचाप के लिए भी उŸाम प्राणायाम है।सावधानियाँ: हृदय रोगी और दूषित वातावरण में इसका अभ्यास ना करें। "भस्त्रिका प्राणायाम” भस्त्रिका का मतलब है धौंकनी। इस प्राणायाम में साँस की गति धौकनी की तरह हो जाती है। यानि श्वास की प्रक्रिया को जल्दी-जल्दी करना ही कहलाता है भस्त्रिका प्राणायाम।विधि: पद्मासन या फिर सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन, पीठ एवं रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए शरीर को बिल्कुल स्थिर रखें। इसके बाद बिना शरीर को हिलाए दोनों नसिका छिद्र से आवाज़ के करते हुए श्वास भरें। फिर आवाज़ करते हुए ही श्वास को बाहर छोड़ें। अब तेज गति से आवाज़ लेते हुए साँस भरें और बाहर निकालें। यही क्रिया भस्त्रिका प्राणायाम कहलाती है। हमारे दोनों हाथ घुटने पर ज्ञान मुद्रा में रहेंगे और आँखें बंद रहेगी। ध्यान रहे श्वास लेते और छोड़ते वक़्त हमारी लय ना टूटे। नये अभ्यासी इस क्रिया को शुरू-शुरू में 10 बार ही करें। लाभ व प्रभाव: इस प्राणायाम के अभ्यास से मोटापा दूर होता है। शरीर को प्राणवायु अधिक मात्रा में मिलती है और कार्बन-डाई-ऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है। इस प्राणायाम से रक़्त की सफाई होती है। शरीर के सभी अंगों तक रक़्त का संचार भलि-भाँति होता है। जठराग्नि तेज़ हो जाती है, दमा, टीवी और साँसों के रोग दूर हो जाते हैं। फेफडे़ को बल मिलता है, स्नायुमंडल सबल होते है। वात, पिŸा और कफ़ के दोष दूर होते है। इस अभ्यास से पाचन संस्थान, लीवर और किडनी की मसाज होती है।सावधानियाँ: उच्च रक्तचाप, हृदय रोगी, हर्निया, अल्सर, मिर्गी स्ट्रोक और गर्भवती महिलाएं इसका अभ्यास ना करें।विशेष: नये अभ्यासी इस प्राणायाम के अभ्यास से पहले 2 गिलास जल अवश्य लें। शुरू-शुरू में आराम ले कर अभ्यास करें। ज़्यादा लाभ उठाना हो तो योग गुरु के सान्निध्य में ही करें। "चन्द्रभेदी प्राणायाम" इस प्राणायाम के अभ्यास से ईडा नाड़ी यानि चन्द्र नाड़ी की शुद्धी होती है। यह भी कहा जा सकता है कि चन्द्र नाड़ी का भेदन कहलाता है चन्द्रभेदी प्राणायाम।विधि: जमीन पर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन और रीढ़ की हड्डी को सीधा रखें। शान्तचित्त होकर बैठ जाएं। बायें हाथ को बायें घुटने पर ज्ञान मुद्रा में रखें और फिर दायें हाथ के अंगूठे से दांये छिद्र को दबाकर बंद करें। इसके बाद बायें नसिका छिद्र से लम्बी गहरी श्वास भरें और हाथ की अंगुलियों से बायें नाक के छिद्र को भी बंद कर लें। अपनी क्षमतानुसार आप जितनी देर आसानी पूर्वक श्वास रोक सकते हैं रोके, ना रोक पाने की अवस्था में दायें नसिका छिद्र से श्वास बाहर निकालें। यह चन्द्रभेदी प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ। कम से कम 10 चक्रों का अभ्यास अवश्य करें।लाभ व प्रभाव: इस प्राणायाम के अभ्यास से शरीर और मस्तिष्क की गर्मी दूर होती है। शरीर में शीतलता का आभास होता है। पित्त और खट्टी डकारे बंद हो जाती है। पाचन संस्थान जनित रोग दूर हो जाते है। यह प्राणायाम उच्च-रक्तचाप और हृदयरोग में रामबाण का काम करता है। चर्मरोग, मुँह में छाले और पेट की गर्मी दूर करता है।सावधानियाँ: निम्न रक्तचाप, दमा के रोगी इसका अभ्यास ना करें। हृदय रोगी योग गुरु के सान्निध्य में ही अभ्यास करें।विशेष: हाँलाकि योग में मूर्च्छा प्राणायाम और केवली कुम्भक प्राणायाम का भी वर्णन मिलता है। परन्तु इस दोनों प्राणायाम का ज्यादा चलन न होने के कारण पुस्तक में इनका वर्णन नहीं किया गया है। Dr Navin Joshi पर 7:39 am साझा करें  कोई टिप्पणी नहीं: एक टिप्पणी भेजें ‹ › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें मेरे बारे में  Dr Navin Joshi  Post Graduate in Ayurvedic Medicine & Post Graduate Diploma Holder in Yogic Sciences. Started clinical carrier from 1999.Joined various Institutions for teaching Ayurvedic Graduates. Edited many Health magazines and published articles in leading Newspapers.Field of clinical speciality is Panchakarma and Yoga.Founder/ Editor of AYUSH DARPAN(ISSN.09763368/RNI No.2010/33674). Regular writer for Dainik Bhaskar Jeevan Mantra and Blog writer for Navbharat Times and Dainik Jagran.Working for giving benefits of Indian System of Medicine:-Ayurveda,Yoga and its specialty "Panchakarma and Kshar Sutra" to common peoples.Participated in approx. 1000 Medical Health Camps organised in rural areas all over India.Participation in various National and International Seminars/Workshop related with Ayurveda,Yoga,Naturopathy and Modern Medicine. Presentation and publication of various papers in Journals and Magazines.Now working in Kumaoun region of Uttarakhand. Creating awareness for endangered Himalayan Medicinal Herbs by creating Live Videos uploaded in Youtube and shown in the popular sites of Dainik Bhaskar and Navbharattimes. AYUSH DARPAN is promoting as a nonprofitable platform working for these issues. visit http://ayushdarpan.org/ Blog:http://ayushdarpan.blogspot.com/ . AYUSH DARPAN(ISSN.09763368/RNI No.2010/33674) is now available in E -journal form URL:http://ejournal.ayushdarpan.org Find me in facebook:https://www.facebook.com/editorayushdarpan twitter :https://twitter.com/AYUSHDARPAN Get my profile through http://www.linkedin.com/in/ayushdarpan मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें Blogger द्वारा संचालित. 
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