Monday, 21 August 2017

मुण्डक-दिव्यामृत (शिवानन्द)

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च सुधुम्रवर्णा =शुद्ध धूम्र के वर्णवाली ;स्फुलिड्गिनी च विश्वरुच्भ् =जिसमें चिनगारियां निकल रही हैं और अनेक कान्तिवाली सुन्दर है; देवी १. यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नम् ( यजु:, ८.४) -देवताओ के उद्देश्य से सम्पन्न यज्ञादि शुभकर्म सुख प्रदान करता है । यज्ञ यज्ञं गच्छ यज्ञपतिं गच्छ (यजु:, ८.२२)-हे यज्ञ तू यज्ञपुरुष विष्णु को प्राप्त हो , यजमान को फल प्रदान के लिए प्राप्त हो । यजुर्वेद के अध्याय १०,२० में राष्ट्र के लिए विशेष प्रार्थनाएं हैं । श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा : (यजुर्वेद ,११.५) -देव, पितृ मानव परमेश्वर की सन्तान हैं । नाभिर्मे चित्तं (यजुर्वेद ,२०.९)-मेरी नाभि आत्मचेतना का केन्द्र हो। नाभि ऊर्जाकेन्द्र होती है । =देदीप्यमान, दिव्यरुपा; इति =इस प्रकार की ;सप्त् लेलायमाना: जिह्वा :=जिसमें सात लपलताती हुई लपटें हैं । वचनामृत : काले रंग वाली भयंकर मन की भाँति चंचल लाल रंगवाली शुद्ध धूम्र के वर्णवाली चिनगारियोंवाली सुन्दर है । सभी सात ज्वालाएं देवी स्वरुपा हैं । सन्दर्भ : यज्ञ की ज्वालाओं का वर्णन हैं । दिव्यामृत : अग्नि के प्रज्वलित होने पर प्राय: सप्त वर्ण की ज्वालाएं निकलती हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वे लपटें अग्नि की लपलपाती हुई सात जिह्वाएं हैं तथा अग्निदेवता हविष्य ग्रहण करके उन्हें देवताओं को प्राप्त करा देंगे,जिनके निमित्त आहुतियां दी गई हैं । कोई लपट (ज्वाला) काले धुएं से उत्पन्न काली है, कोई लपट भयंकर और उग्र होती है ,कोई मन की भांति चंचल होती है , कोई बिल्कुल लाल होती है ,कोई श्वेत धुएंसे उत्पन्न श्वेत होती है ,कोई चिनगारियों से परिपूर्ण होती है और कोई परमसुन्दर है ,सभी सात ज्वालाएं देदीप्यमान देवीस्वरुपा हैं । ये सात वर्ण की लपटैं मानो सात लोकों (भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यम् )की भी प्रतीक हैं । जिस प्रकार क्षुधा (भूख )और पिपासा (प्यास) होने पर ही भोजन और जल का ग्रहण करना चाहिए ,उसी प्रकार अग्नि के प्रदीप्त होने पर ही हविष्य प्रदान करना उचित होता है । यज्ञ का दृश्य मनोरम होता है । यज्ञ से न केवल वातावरण स्वच्छ एवं प्रदूषणमुक्त होता है,बल्कि चारों ओर आध्यात्मिकता ,सुख और शान्ति का भी प्रसार होता है । ऐतुषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं चाहुतयों ह्याददायन् । तं नयन्त्येता: सूर्यस्य रश्मयों यत्र देवानां पतिरेकोऽधिवास: ॥५॥ शब्दार्थ : य: च ऐतुषु भ्राजमानेषु यथाकालम् चरते =जो कोई अग्निहोत्री इन सुभोभित ज्वालाओं में उचित समय पर हविष्य प्रदान करता है ;तम् हि आददायन् एता: आहुतय: सूर्यस्य रश्मय: (भूत्वा) नयन्ति =उस अग्निहोत्री को निश्चय ही अपने साथ लेकर ये आहुतियां सूर्य की रश्मियां बनकर (वहां )पहुंचा देती हैं ; यत्र देवानाम् एक: पति: अधिवास: =जहां देवाताओं का एकमात्र स्वामी रहता है । वचनामृत : जो कोई भी अग्निहोत्री इन देदीप्यमान ज्वालाओं में यथासमय अग्निहोत्र करता है ,निश्चय हीये आहुतियां उसे अपने साथ लेकर ,सूर्य की रश्मियां बनकर, वहां पहुंचा देती हैं , जहां देवताओं का एकमात्र स्वामी रहता है । सन्दर्भ : यह मंत्र रहस्यपूर्ण है । इसके अनेक अर्थ किए गए हैं । दिव्यामृत : जो भी अग्निहोत्री देदीप्यमान ज्वालाओं में विधिपूर्वक आहुति देता है, आहुतियां उसे देवों के स्वामी इन्द्र को प्राप्त करा देती है, जो स्वर्ग का अधिपति है । भाव यह है कि सतस्त कर्मकाण्ड स्वर्गीय सुखों अर्थात भौतिक सुखों की प्राप्ति का अमोघ उपाय है । वास्तव में देवता परमेश्वर की ही शक्तियां हैं तथा निष्काम भाव से अग्निहोत्र करनेवाला मनुष्य अग्निहोत्र के द्वारा परमेश्वर को ही प्राप्त कर लेता है । आहुतियां 'स्वाहा' का उच्चारण करके प्रदीप्त अग्निकी लपटों के मध्य में प्रदान की जाती हैं । आहुतियां ज्वालाओं में विलुप्त हो जाती हैं तथा ज्वालाएं सूर्य की किरणों में समाहित हो जाती है । यह एक प्रकार से सूर्योपासना भी है ।१ सूर्य परमेश्वर की श्रेष्ठ विभूति है । वास्तव में सूर्य की उपासना के द्वारा मनुष्य परमेश्वर की ही उपासना करता है । अग्निहोत्र को विधिपूर्वक एवं निष्काम भाव से सम्पन्न करने से मनुष्य परमेश्वर को ही प्राप्त कर लेता है । कर्मकाण्ड का उद्देश्य भौतिक कामनाओं की पूर्ति नहीं होना चाहिए तथा उसे परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बना लोना चाहिए परमेश्वर की प्राप्ति जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है । एह्येहीति तमाहुतय: सुवर्चस: सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वहन्ति । प्रियां वाचमभिवन्दन्त्योऽर्चयन्त्य एष व: पुण्य: सुकृतो ब्रह्मलोक: ॥६॥ शव्दार्थ : सुवर्चस:आहुतय: =देदीप्यमान आहुतियां ;एहि एहि एष व: सुकृत: पुण्य: ब्रह्मलोक: =आओ-आओ , यह तुम्हारे शुभ कर्मो से प्राप्त पवित्र ब्रह्मलोक है इति प्रियाम् वाचम् अभिवदन्त्य्: अर्चयन्तत्य:= इस प्रकार प्रिय वाणी को बार-बार कहती हुई,अर्चना करती हुई तम् यजमानम् = उस अग्निहोत्री यजमान को, सूर्यस्य् रश्मिभि : वहन्ति =सूर्य की रश्मियों द्वारा लो जाती हैं । वचनामृत: देदीप्यमान आहुतियां (यजमान से कहती है) आओ, आओ, यह तुम्हारे शुभ कर्मो से प्राप्त पवित्र ब्रह्म लोक (ब्रह्मा का लोक ,स्वर्ग) है । इस प्रकार प्रिया वाणी को बार-बार कहती हुई , अर्चना करती हुई (आहुतियां) उस यज्ञकर्ता को सूर्य की रश्मियों द्वारा ले जाती है । सन्दर्भ : पूर्ववर्ती मंत्र पांच के कथ्य को ही इस मंत्र में आलंकारिक रुप से कहा गया है । दिव्यामृत : यज्ञादि कर्म सकाम होने पर मनुष्य को लौकिक और पारलौकिक सुखभोग उपलब्ध करा देते हैं तथा वे मात्र सुखभोग की प्राप्ति १.सूर्योपासना की विशद चर्चा छान्दोग्य अपनिषद् में अनेक स्थलों पर की गई है । सूर्य अकाश की अग्नि है तथा समस्त ऊर्जाओं का केन्द्र है । के माध्यम होते हैं । निष्काम होने पर यज्ञादि कर्म मनुष्य की चित्तशुद्धि करके परमेश्वर की ओर उन्मुख कर देते हैं तथा उनका महत्व भी सीमित ही है । यज्ञों में प्रदत्त अनेक आहुतियों की ज्वालाएं सूर्य की किरणों में व्याप्त् एवं समाहित हो जाती है । आहुतियां ज्वालाओं माध्यम से सूर्य की रश्मियां ही बन जाती है ।१ अग्निहोत्री की मृत्यु होने पर सूर्य की रश्मियां उसके सूक्ष्म शरीर को स्वर्गलोक में पहुंचा देती हैं तथा सत्कारपूर्वक प्रिय वाणी से उसे मानो पुकार-पुकारकर कहती हैं-आओ , आओ ,यह स्थान तुम्हें तुम्हारे पुण्यकर्मो से प्राप्त हुआ है , यहां वे सुखभोग करो,जो तुम्हें पुण्यकर्मो के फलस्वरुप प्राप्त हुए है । वास्त्व् में स्वर्गलोक के सुखों का अनुभव पुण्यशील पुरुष की जीवात्मा को एक अनिर्वचनीय उच्चावस्था के रुप में होता है । तथा उसे सुखभोगों की ऐसी तृप्ति प्राप्त हो जाती है, जो उसे वैराग्य की ओर उन्मुख कर देती है । इन्द्र परमेश्वर का ही एक अपर स्वरुप है तथा प्रकारान्तर से वह भी ब्रह्म ही है । सर्वत्र ब्रह्म ही विद्यमान है तथा वह ही जगत् का एक मात्र आश्रय है। अनेक देवता परब्रह्म परमात्मा के ही प्रतीकात्मक रुप हैं । प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरुपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ॥७॥ शब्दार्थ : हि = निश्चय ही , एते यज्ञरुपा: अष्टादशप्लवा: अदृढा := ये यज्ञरुप अठारह नौकाएं अस्थ्रि (हैं ) , येषु अवरम् कर्म उक्तम्= जिनमें अवर (निम्नश्रेणी का ) कर्म कहा गया है , ये मूढा: एतत् श्रेय: अभिनन्दन्ति =जो मूढ 'यह कल्याणएकारी है' मानकर उसकी प्रशंसा करते हैं ; ते पुन: अपि एव जरामृत्युम् यन्ति = वे पुन: भी निश्चय ही जरा (बृद्धता ) और मृत्यु को प्राप्त् होते हैं । STORY CONTINUES BELOW वचनामृत : निश्चय ही ये यज्ञरुप अठारह नौकाएं अस्थिर हैं , जिनमें निम्न श्रेणी का कर्म कहा गया है । जो मूढ 'यही कल्याणकारी मार्ग है', ऐसा मान-कर इसकी प्रशंससा करते हैं , वे पुन: पुन: निस्सन्छैळ वृद्धता और मृत्यु को प्राप्त होते हैं । सन्दर्भ : सकाम यज्ञादि कर्म के फलस्वरुप स्वर्ग के सुखभोग प्राप्त् करना वैराग्यादि से परमात्मा की प्राप्ति करने की अपेक्षा , तुच्छ है । मंत्र ७, ८, ९ और १० की एक श्रंखला है तथा ये परस्पर जुड़े हैं । अठारह १. सूर्य की उपासना मे सूर्य से प्रार्थना की जाती है-एहि सूर्य सहस्त्रंशो तेजोराशे जगत्पते-हे सूर्य,आओ , हे सहस्त्र किरणोंवाले ,तेज की राशि और जगत् के पति नौकाओं के अनेक अर्थ किए गए हैं । दिव्यामृत : यज्ञादि कर्म उपयोगी , लाभप्रद और महत्वपूर्ण होते हैं । यज्ञादि से चित्तशुद्धि होती है, जो ज्ञानप्राप्ति में सहायक होती है ।१ किन्तु उन्हें कल्याण का अन्तिम मार्ग समझकर उनमें ही संलग्न रहनेवाले लोग मूढ होते हैं । संसार-सागर को उत्तीर्ण करने के लिए यज्ञादि कर्म अक्षम नौकाएं होती हैं । यज्ञरुप कर्म को अठारह नौकाओंवाला बेड़ा कहा जा सकता है ।२ यज्ञ मोक्ष का साधन नहीं होते तथा सांसारिक उद्देश्यों की पूर्ति के ही साधन होने कारण निम्न होते हैं । यज्ञों को ही कल्याण का श्रेष्ठ उपाय माननेवाले व्यक्ति अज्ञानी होते हैं तथा वे जरा (वृद्धावस्था ), मृत्यु आदि से मुक्त नहीं होते । एकमात्र ब्रह्मज्ञान ही मुक्ति का साधन है । मूढजन यज्ञ करके स्वयं को अभिनन्दित करते हैं तथा ज्ञानप्राप्ति की ओर प्रवृत नहीं होते । विवेकशील पुरुष ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ मानते है । अविद्यायामन्तरे वर्तमाना: स्वयंधीरा : पण्डितं मन्यमाना: । जघन्यानां: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथानधा : ॥८॥ शब्दार्थ : अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमाना: = अविद्या के भीतर स्थित होकर; स्वयंधीरा :पण्डितम् मन्यमाना:= स्वयं को धीर (बुद्धिमान्) माननेवाले, स्वयं को पण्डित माननेवाले ; मूढा : =मूढ जन ; जघन्यमाना: = कष्ट सहते हुए ; परियन्ति =भटकते रहते हैं ; यथा अन्धेन एव नीयमाना: अन्धा : =जैसे अन्धे के द्वारा ले जाए हुए अन्धे । Add Vote Load More Pages... No comments listed yet. You'll also like  सावधान गूगल आपके बारे मे बहुत कुछ जानता है By webmanthan 1.3K 15  Fun Book By IshqbaazianClub 5.6K 679 This book is not that same old fun book you are thinking about...this is much more than it!! It's full of unexpected things....you can ever imagine!! Fun Time, chat Time, Game Time, Question Answers Time, Trolling Dialogues and pictures for fun. So join the Masti and Fun:-)))  Rajeev Khandelwal - Musafir Hoon Yaaron! By RNpoint1857 940 84 Rajeev Khandelwal loves to travel. Well of course this is no news for all the followers of Rajeev Khandelwal. ☺ Here once again he is all set to begin his new journey. A journey commenced with a hope of discovering many hidden places of the world. And also getting an opportunity of meeting many different kinds of people. Well he is an explorer, how can he not enjoy exploring - be it places or humans? 😊 Let's see what happens when he meets different people during his different journeys. With the Valentine's Day approaching, thought of trying something new. ☺💖 This is completely a fictional story. Hope you all will enjoy the read. ☺ Reached #85 in Fantasy category on 13.2.2017 #41 on 17.2.2017 #33 on 18.2.2017 Report Story View Full Site Language Get the App  Wattpad App - Read, Write, Connect Start Reading Login with Browser

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