"आसुरी व्यक्ति अपने बाहु-बल पर विश्र्वास करता है, कर्म के नियम पर नहीं । कर्म-नियम के अनुसार पूर्वजन्म में उत्तम कर्म करने के फलस्वरूप मनुष्य उच्चकुल में जन्म लेता है, या धनवान बनता है या सुशिक्षित बनता है, या बहुत सुन्दर शरीर प्राप्त करता है । आसुरी व्यक्ति सोचता है कि ये चीजें आकस्मिक हैं और उसके बाहुबल (सामर्थ्य) के फलस्वरूप हैं । उसे विभिन्न प्रकार के लोगों, सुन्दरता तथा शिक्षा के पीछे किसी प्रकार की योजना (व्यवस्था) नहीं प्रतीत होती । ऐसे आसुरी मनुष्य की प्रतियोगिता में जो भी सामने आता है, वह उसका शत्रु बन जाता है । ऐसे अनेक आसुरी व्यक्ति होते हैं और इनमें से प्रत्येक अन्यों का शत्रु होता है । यह शत्रुता पहले मनुष्यों के बीच, फिर परिवारों के बीच, तब समाजों में और अन्ततः राष्ट्रों के बीच बढ़ती जाती है । अतएव विश्र्वभर में निरन्तर संघर्ष, युद्ध तथा शत्रुता बनी हुई है ।"
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सन्दर्भ : श्रीमद्भगवद्गीता १६.१६, तात्पर्य, श्रील प्रभुपाद
Thursday, 17 August 2017
आसुरी व्यक्ति
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