Monday, 21 August 2017

दत्तात्रेय के 24 चौबीस गुरु की कथा

Toggle navigation  Dattatreya 24 (Twenty Four) Guru story in hindi December 20, 2015 admin  Dattatreya 24 (Twenty Four) Guru story in hindi दत्तात्रेय के 24 चौबीस गुरु की कथा/कहानी श्री दत्तात्रेय भगवान जी ने अपने जीवन में चौबीस(24) गुरु बनाये थे। अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को उपदेश किया। और उन सभी से अद्भुत शिक्षा प्राप्त की। जिनका वर्णन इस प्रकार हैं- पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्रमा रविः। कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद्गजः।। मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः। कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्।। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट । पृथ्वी – पृथ्वी से शिक्षा ली की साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे। क्योंकि धरती हमेशा देने में लगी रहती है और बदले में किसी से कुछ भी नही लेती। लोग धरती पर हल चलते हैं लेकिन पृथ्वी की दयालुता देखिये अपना सीना चीर के अन्न प्रदान करती है। हमेशा परोपकार में लगी रहती है। वायु – प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे किसी को भूख लगती है और वह खाना खाने पर सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाय । शरीर के बाहर रहने वाले वायु से शिक्षा ली की जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाय, परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाय, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे। गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधन का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है, तब तक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूप में देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है । आकाश – आकाश कितना विशाल है। कितना बड़ा है लेकिन उसमे रंच मात्र भी अहंकार नही है। साधक को चाहिये कि सूत के मणियों के व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये । जल – जल अर्थात पानी। जल से शिक्षा ली है की जिस प्रकार जल मीठा होता है तो सभी की प्यास बुझाता है और शीतल रहता है। उसी तरह साधक को भी मीठी वाणी का उपयोग करना चाहिए और सबको शीतलता प्रदान करना चाहिए। गंगा आदि तीर्थों के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं—वैसे ही साधक को भी स्वभाव से शुद्ध, स्निग्ध, मधुर भाषी और लोक पावन होना चाहीये। अग्नि – अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं—सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजन मात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आने दे । जैसे आग (लकड़ी आदि में) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियों में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखाई पड़ती है—वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारण रूप जगत् में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है ॥  चन्द्रमा – चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है । आत्मा सदैव एक जैसी रहती है। सूर्य – सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग—उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती । कबूतर – कबूतर से शिक्षा ली की किसी के साथ भी अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति नहीं करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा। किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। वह एक कबूतरी के साथ कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा । दोनों आपस में बहुत प्रेम करते थे। एक दूसरे के बिना एक क्षण के लिए भी रह नही पाते थे। उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे।vकबूतर उस कबूतरी की हर इच्छा पूरी करता। समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये । भगवान की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन—सुनकर आनन्द मग्न हो जाते । एक दिन दोनों कबूतर-कबूतरी अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। उसी समय एक बहेलिया(शिकारी) घूमता-घूमता उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया। अब कबूतर कबूतरी चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये । कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हे बच्चे उसके ह्रदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें चिल्लाता हुआ देख कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी । और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी । जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह रोने अत्यन्त दुःखी होकर करने लगा। और अपने आपको कोसने लगा। हाय मेरी पत्नी!, हाय मेरे बच्चे! वह कहने लगा मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही है। मेरा अब संसार में क्या काम है ? मुझ दीन का यह विधुर जीवन—बिना गृहणी के जीवन जलन का—व्यथा का जीवन है। अब मैं इस सूने घर में किसके लिये जिऊँ ? कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान-बूझकर जाल में कूद पड़ा । वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना । जो कुटुम्बी है–, विषयों और लोगों के संग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पता है । यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह ‘आरूढ़च्युत’ है । अजगर – अजगर से शिक्षा प्राप्त कि जैसे एक अजगर भोजन के लिए बहुत ज्यादा प्रयास नही करता उसी तरह साधक को केवल भोजन के लिए प्रयास नही करना चाहिए। उसके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार उसे भोग अवश्य मिलेंगे लेकिन इस जन्म को भोगों में पड़कर व्यर्थ न करें। बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे । यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे। रसना(जीभ) को कभी भी स्वाद मत दो नही तो दुःख मिलेगा। समुद्र – समुद्र से शिक्षा प्राप्त कि जिस परकास समुद्र कितना विशाल और बड़ा है लेकिन ये अपनी मर्यादा तोड़कर बाहर नही आता है चाहे गर्मी हो सर्दी हो। उसी प्रकार साधक को जीवन में मर्यादित रहना चाहिए। साधक को समुद्र कि तरह सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये। पतंगा– पतंगा से शिक्षा ली कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है, जिससे जीव भगवान या मोक्ष की प्राप्ति से दूर ही रह जाता है । जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेक बुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है । अगले पेज पर जाइये  Pages: 1 2 Stories # दत्तात्रेय चौबीस गुरु, #24 guru of Dattatreya in hindi, #Dattatreya 24 guru katha, #Dattatreya bhagwan story, #Dattatreya guru, #Dattatreya guru hindi story, #Dattatreya jayanti, #Dattatreya jayanti katha, #Dattatreya katha, #Dattatreya ke chobis guru, #special on Dattatreya jayanti hindi, #दत्तात्रेय 24 गुरु, #दत्तात्रेय की कथा, #दत्तात्रेय के गुरु, #दत्तात्रेय गुरु कथा, #दत्तात्रेय गुरु कहानी, #दत्तात्रेय जयंती, #दत्तात्रेय जयंती पर कथा, #दत्तात्रेय भगवान की कहानी, #भगवान दत्तात्रेय, #भगवान दत्तात्रेय शिक्षा गुरु, Dattatreya 24 (Twenty Four) Guru story in hindi, दत्तात्रेय के 24 चौबीस गुरु की कथा/कहानी. permalink. Post navigation Krishna Vivah Satya-Bhadra and Laxmana Story in hindi Bhomasura Vadh by Krishna Story in hindi 2 thoughts on “Dattatreya 24 (Twenty Four) Guru story in hindi” Sravan kumar thakur says: June 15, 2017 at 5:40 am Bhagavan datre ki prateyek guru se jo sikh mili hai o anmol hai. Reply admin says: June 19, 2017 at 10:22 am dattatrey bhagwan ka jeevan hum sabko bahut siksha deta hai. Reply Leave a Reply Your email address will not be published. Required fields are marked * Name *  Email *  Website  Comment  Post Comment  Search for: Search...  Categories Categories Like Us on Facebook  Facebook  HINDI-WEB All rights reserved. Theme by Colorlib Powered by WordPress

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