Daily Yoga 4 Health Thursday, 30 June 2016 #Yoga Fights Diabetes नाद अनुसंधान नाद अनुसंधान नाद अर्थात शब्द, अनुसंधान कोई वस्तु जो पहले से विद्यमान है उसे दोबारा खोजना। नाद अनुसंधान अथवा शब्दों को खोजना, और शब्दों की यह खोज किसी बाह्य जगत में नहीं की जाती है। बल्कि यह खोज तो स्वयं के आंतरिक जगत की है। शास्त्रों में कहा गया है,की जो कुछ भी इस जगत में है वो सब कुछ इस शरीर में है। अर्थात पंचतत्व से बने सभी पदार्थ जो इस ब्रहमांड में उपस्थित है।वो सभी सूक्ष्म रूप में इस शरीर में उपस्थित है। बाह्य जगत अनेक ध्वनियां जो हमें सुनाई देती है,वो सब ध्वनियाँ हमारे शरीर में भी होती रहती है। परन्तु वे ध्वनियाँ बड़ी सूक्ष्म होती है,इसलिए सुनाई नहीं देती।योग के द्वारा बुद्धि जब सूक्ष्म होने लगती है तो उसकी पकड़ में सूक्ष्म विषय स्वभाव से ही आने लगे है।इन सूक्ष्म ध्वनियों को सुनने के लिए की जाने वाली यौगिक क्रिया ही नाद अनुसंधान कही गयी है। महर्षि गोरखनाथ ने नाद अनुसंधान की उपासना का वर्णन किया है,उन्होंने कहा है की वे सामान्य लोग जो तत्त्व ज्ञान को पाने में असमर्थ रहते है,उनको नाद की उपासना करनी चाहिए। घेरण्ड सहिंता में इसका वर्णन नहीं किया गया है। लेकिन हठयोग प्रदीपिका के चतुर्थ उपदेश में नाद अनुसंधान का वर्णन किया गया है। और कहा गया है की - "मुक्तासने (सिद्धासन) स्थितो यपगी मुंडा संधाय शाम्भवीम। शृणुयाद्दक्षीणे कर्णे नादमंतस्थमेकधी:।।" साधक सिद्धासन में बैठ कर शाम्भवी मुद्रा लगाकर एकाग्रचित्त होकर अपने दाहिने कान से शरीरांतर्ग - ध्वनि को सुनने का प्रयास करे। कुछ समय अभ्यास के बाद "श्रवणपुटनयनयुगल घ्राणमुखाना निरोधन कार्यम्। शुद्दुसुषुम्नासरणो स्फुटममल: श्रूयते नाद: ।।" दोनों कान, दोनों आँख, दोनों नासिका विवर और मुख को दोनों हाथो की अंगुलियों से बंद करके चित्त को एकाग्र करे तो कुछ अभ्यास के बाद साधक को स्पष्ट व पवित्र नाद सुनाई देता है। नाद की सुनने की विभिन्न चार अवस्थाये होती है। जिनमे विभिन्न अलग -अलग अनाहत नाद सुनाई देती है। प्रारम्भ में यह क्रिया ऐसे ही है जैसे भ्रामरी प्राणायाम। अन्तर इतना ही है की इस क्रिया में हमें कोई भी ध्वनी नहीं करनी है केवल अंदर की आवाज को सुनना है उस पर ध्यान लगाना है। जिनका वर्णन निम्न प्रकार है। आरम्भवस्था : "बृह्मग्रन्थेम्रवेदभेदादानन्द: शून्यसम्भव:। विचित्र: कवणको देह्रअनाहत: श्रुय्ते ध्वनि: ।। दिव्यदेहशच तेजस्वी दिव्यगन्धस्तवरोगवान। सम्पूर्णहृदय: शुन्य आरम्भे योगवान भवेत्।।" आरम्भवस्था में ब्रह्मग्रंथ के भेदन के फलस्वरूप आनंद का अनुभव होता है। और अन्तः शरीर में शून्यसम्भूत असाधारण झंण - झंण रूप अनाहत शब्द सुनाई देता है। लाभ : वह योगी जो इस अवस्था को सिद्ध कर लेता है,वह दिव्य देह वाला ओजस्वी, दिव्यगन्ध, निरोगी, प्रसन्नचित्त तथा शून्यचारी हो जाता है। घटावस्था : "द्वितीयाया घटिकृत्य वायुभवति मध्यग:। दृढ़सनो भवेद्योगी ज्ञानी देवसमस्तया।। विष्णुग्रन्थेस्ततो भेदात परमानन्द सूचक:। अतिशून्य विमर्दशच भेरी शब्दसत्था भवेत।।" योगी का आसन में दृढ़ होने पर दूसरी घटावस्था में जब विष्णुग्रंथि के भेदन से निबद्ध वायु का सुषुम्ना में संचार होता है,तब अतिशून्य अर्थात कपालकुहर में परमानन्द का सूचक एक वाद्ययंत्र भेरी एवं आद्यातजन्य जैसा शब्द सुनाई देता है। लाभ : इसकी सिद्धि के फलस्वरूप साधक ज्ञानी व देवतुल्य हो जाता है। परिचयावस्था : "तृतीय तु विज्ञेयो विहायो मर्दलध्वनि:। महाशून्य तदा याति सर्वसिद्धि समाश्रय:।।" तृतीय परिचयावस्था में भ्रूमध्याकाश में ढोल की ध्वनि जैसा नाद सुनाई देता है। इसकी सिद्धि से प्राण सभी सिद्धियो को देने वाले महाशून्य (अंतराकाश या आज्ञाचक्र) में पहुंचता है। लाभ : "चितानन्द तदा सहजानन्दसंभव:। दोषदु:जजराव्याधिक्षुधानिडाविवर्जित:।।" इस अवस्था में साधक को दोष-दुःख, जरा ,व्याधि, क्षुधा, निद्रा से रहित सहज आनंद की परमानन्द अवस्था प्राप्त होती है। निष्पत्तिवस्था : रूद्रग्रंथि का भेदन कर जब प्राण आज्ञाचक्र स्थित शिव के स्थान पर पहुंचता है तो यही अवस्था निष्पत्ति अवस्था कहलाती है, इस अवस्था में साधक को वीणा का झंकृत शब्द सुनाई देता है। "रूद्रग्रंथि यदा भित्वा शव्रपीठगतोअनिल:। निष्पत्तो वैणव: क्वणद्विणाम्वणो भवेत।।" लाभ: " एकीभुत तदा चित्त राजयोगभिदानकम् । सृष्टि संहार कर्ता सौ योगिशवरसमो भवेत् ।।" इस अवस्था में चित्त सर्वथा एकाग्र होकर समाधि संज्ञक बनता है। और तब इस अवस्था में योगी सृष्टि संहार कर्ता ईश्वर के समान हो जाता है। विश्लेषण : नाद अनुसन्धान में बताई गई उपरोक्त चार अवस्थाएं- आरम्भावस्था, घटावस्था, परिचयवस्था व निष्पत्ति अवस्था है। मानव शरीर में सबसे महत्व की सुषुम्ना नाड़ी है।यह नाड़ी इडा व पिंगला के मध्य होती है तथा रीढ की हड्डी में गुदा मार्ग से कुछ ऊपर प्रारम्भ होकर सहस्त्रार तक जाती है।समान्यत: प्राण क्रिया इडा व पिंगला से की जाती है।यही प्राण क्रिया सुषुम्ना से करने के लिए योग साधना से सुषुम्ना के अवरोधो को दूर करते है ।और प्राण को चलाते है। जब यह प्राण सुषुम्ना से गुजरता है तो शरीर के विभिन्न हिस्सो में अनेक अति विशिष्ट अति सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करने वाली क्रियाए होती है। नाद अनुसंधान भी ऐसी ही एक क्रिया है,जो सुषुम्ना में प्राण के चलने से होने वाला स्पंदन है। यह स्पंदन सुषुम्ना के श्रवण केंद्र को स्पर्श करने वाले स्थान पर स्थित बिन्दु के उत्तेजित होने से होता है । इस नाद अनुसंधान में तीन ग्रंथियो का भेदन कहा गया है,जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन निम्न प्रकार है । प्राण जब सुषुम्ना में ऊपर की तरफ चलने लगता है, तो साधक को अनेक आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक अनुभूतियां होने लगती है । प्राण जब सुषुम्ना में ऊपर की तरफ चलता है तो सर्वप्रथम मूलाधार चक्र (सबसे नीचे स्थित चक्र) का जागरण होता है फिर स्वाधिष्ठान व मणिपुर का होता है। इन तीनों चक्रो में सुषुम्ना से आने वाले प्राण पर किसी प्रकार का आवरण नहीं आता। परन्तु आगे के तीन चक्रो पर एक विशेष प्रकार आवरण आता है । अर्थात यह आवरण हृदय की कक्षा में अर्थात अनाहत चक्र में आता है।अनाहत को ही ब्रह्मग्रंथि कहते है । इस ब्रह्मग्रंथि का भेदन करने से अर्थात अनाहत चक्र को क्रियाशील करने से आरंभवस्था की प्राप्ति होती है । अर्थात इस अनाहत चक्र के क्रियाशील होने पर जब साधक हाथो से इंद्रियो के सब द्वारो को बंद करके चित्त को या मन को अंतर्मुखी करता है। अर्थात स्वयं के अंदर की तरफ ध्यान लगाता है ।तो उसे झण झण रूप अनाहत शब्द सुनाई देता है।इस अवस्था को प्राप्त साधक की देह दिव्य ओज से भर जाती है। उसके शरीर से एक प्रकार की दिव्य गंध आने लगती है।शरीर के रोग दूर हो जाते है उसका चित्त प्रसन्न रहने लगता है।तथा शून्य का आचरण करने वाला अर्थात चित्त की सब वृत्तियाँ और उनकी उथल पुथल दूर हो जाती है।साधक एक भाव में अर्थात सम अवस्था में रहने लगता है।इसके बाद जब प्राण विशुद्धि चक्र (विष्णुग्रंथि) में पहुंचता है तो उसमे उपस्थित आवरण का भेदन होने पर यह जाग्रत होता है ।तब साधक को इंद्रियो के द्वारो को बंद करके आंतरिक ध्यान लगाने से भेरी व आघातजन्य अर्थात हृदय को कपाने वाली ध्वनियाँ जिनको सुनने से शरीर का अंग अंग काँप जाए ऐसी ध्वनियां सुनाई देती है।जैसे ढ़ोल, नगाड़े, युद्ध में बजने वाले अन्य यंत्र तथा होने वाली अनेक भयानक आवाज़े साधक को सुनाई देती है।इन आवाजो को सुनकर भी साधक को शांत चित्त रहना चाहिए,घबराना नहीं चाहिए। ये अवस्था घटावस्था कहलाती है । तृतीय परिचय अवस्था में प्राण भ्रूमध्य आकाश में पहुंचता है अर्थात आज्ञाचक्र में पहुंचता है अर्थात वह सभी सिद्धियां प्रदान करने वाले अंतराकाश में पहुंचता है। पतंजलि योगशुत्र में समाधि का वर्णन करते हुए उसके दो स्वरूप बताये गए है। सम्प्रज्ञात व असम्प्रज्ञात समाधि ।जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन योगशुत्र की व्याख्या करते हुए आगे करेंगे । यहाँ आवश्यकतानुसार कहता हूँ। जब चित्त सब वृत्तियो का निरोध कर लेता है परंतु उसका कारण रहता है या वह अपने कारण में लीन नहीं होता है। वह समाधि सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है ।सम्प्रज्ञात समाधि की भी चार भूमियाँ या अवस्थाये (वितर्कानुगत,विचारानुगत,आनन्दानुगत तथा अस्मिताानुगत )होती है। और जब चित्त सब वृत्तियो का निरोध करके स्वय भी अपने कारण में लीन हो जाता है। वह असम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है । यह समाधि ही योग की,जीव की,आत्मा की अंतिम अवस्था है। यह प्रथम आरम्भावस्था सम्प्रज्ञात समाधि की प्रथम अवस्था वितर्कानुगत समाधि कही जा सकती है। या कह सकते की सम्प्रज्ञात समाधि की वितर्कानुगत समाधि इस प्रथम आरम्भावस्था में प्राप्त हो जाती है। हालांकि यह वितर्कानुगत समाधि प्रथम भूमि है।परंतु फिर भी बड़ी महत्व की है। इस समाधि में साधक के सामने पंच महाभूतों का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है जिससे साधक दिव्य देह वाला ओजस्वी, दिव्यगन्ध, निरोगी, प्रसन्नचित्त तथा शून्यचारी हो जाता है। द्वितीय घटावस्था विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था है इसमें सूक्ष्म भूतो का ज्ञान हो जाता है। तृतीय परिचयावस्था विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि है।इस अवस्था में अहम् अस्मि की वृत्ति रहती है। शेष सभी वृत्तियो का निरोध हो जाता है। जिससे साधक की भूख,प्यास,निद्रा जैसे सभी वृत्तियो का निरोध हो जाता है।और उसे अहम् अस्मि इस भाव में एक परम आनन्द की प्राप्ति होती है। चौथी निष्पत्तिवस्था में साधक जब आज्ञाचक्र को जाग्रत कर लेता है,अथवा ये कहे की रुद्रग्रन्थि का भेदन कर जब प्राण आज्ञाचक्र में कहे गए शिव के स्थान में पहुंचता है।तब साधक द्वारा इंद्रियो के द्वार बंद कर आंतरिक ध्यान लगाने पर उसे वीणा का अति मधुर व सुरीला शब्द सुनाई देता है निष्पत्ति की यह चतुर्थ अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि की अंतिम भूमि अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि की अंतिम अवस्था है जहां विवेक ख्याति की प्राप्ति होती है । इस अवस्था की प्राप्ति के फलस्वरूप चित्त पूर्ण एकाग्र हो जाता है अर्थात सब वृत्तियो का पूर्ण निरोध होने लगता है। अर्थात यही से अंतिम अवस्था (असम्प्रज्ञात समाधि) की प्राप्ति के लिए के लिए साधक आगे बढ़ जाता है । इस अवस्था में साधक सृष्टि संहार कर्ता ईश्वर के समान हो जाता है । विशेष : प्रारम्भ में साधक को जो मेघ, भेरी आदि ध्वनियाँ सुनाई देती है अभ्यास क्रम बढ़ने के साथ ही सुनाई देने वाली इन ध्वनियों में भी सूक्ष्म से सूक्षतम अनेक नाद या शब्द या ध्वनि साधक को सुनाई देने लगती है वे ध्वनियां अनुभव जन्य होती है,उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । कहा जा सकता है की जब साधक नाद अनुसंधान की साधना करता है,तब प्रारम्भ में वर्णन की जाने वाली ध्वनियाँ सुनाई देती है।अभ्यास बढ़ने पर ऐसी दिव्य ध्वनियां या नाद सुनाई देने लगती है जो शब्दो में नहीं कही जा सकती है । सावधानियाँ : एकान्त वास में इसका अभ्यास करें इस क्रिया से पहले लम्बे समय तक एक आसन में बैठने का अभ्यास कर ले। इससे पहले कुछ देर अनुलोम विलोम व भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास कर ले। उन दिनों में गरिष्ठ भोजन न ले। लम्बी यात्रा से परहेज करें। अधिक लोक व्यवाहार न करें। अति विशष्ट निर्देष है की इस अभ्यास से पहले आसन प्राणायाम का अभ्यास करके शरीर को पूर्ण शुद्ध कर ले। जिससे की उस ऊर्जा के आने पर शरीर में उसे संभालने की शक्ति हो। डरावनी ध्वनियां सुनने पर घबराए नहीं धैर्य के साथ उन्हें सुनते रहे। बिना गुरु के निर्देशन के यह क्रिया न करें।  viky asok gandhi gandhi पर 02:07:00 Share   ‹ › Home View web version Powered by Blogger. 
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