DARSHAN IN HINDI मूलबंध : ब्रह्रम्चैर्य अगस्त 01, 2017 मूलबंध : ब्रह्रम्चैर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। लेकिन साधारणत: तुम्हारी जीवन-ऊर्जा नीचे की और प्रवाहित हो रही है। इसलिए तुम्हारी सब जीवन ऊर्जा अनंत वासना बन जाती है। काम वासना तुम्हारा निम्नतम चक्र है। तुम्हारी ऊर्जा नीचे गिर रही है। और सारी ऊर्जा काम केन्द्र पर इकट्ठी हो जाती है। इस लिए तुम्हारी सारी शक्ति कामवासना बन जाती है। एक छोटा सा प्रयोग, जबभी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो, ड़रो मत शांत होकर बैठ जाऔ। जोर से श्वास कोबहार फेंको—उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को— क्योंकि जैसे भी तुम भीतर गहरी श्वास कोलोगे, भीतर जाती श्वास काम ऊर्जा को नीचे की धकाती है। जब सारी श्वास बहार फिंक जाती है, तो तुम्हारा पेट और नाभि वैक्यूम हो जाती है, शून्य हो जाती है। और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्य खींचता है, क्योंकि प्रकृति शून्य को बरदाश्त नहीं करती, शून्य को भरती है। तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ अठ जाती है, और तुम्हें बड़ा रस मिलेगा—जब तुम पहली दफ़ा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगें, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया। एक ताजगी, ठीक वैसी ही ताजगी का अनुभव करोगे जैसा संभोगके बाद उदासी का होता है। वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए, तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रफुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ, तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण, ज्यादा उत्फुल्ल, सक्रिय, अन-थके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे। जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, और ताजगी ने घेर लिया है। इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने सतत साधना बना ली—और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसेबाजार में खड़े हुए कर सकते हो, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, दफ़तर में काम करते हुए कर सकते हो, कुर्सी पर बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को को भीतर खींच लिया। एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्फुरण कर जाती है। अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमंतम मार्ग कह रहा हूँ, जो ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है।फिर और कठिन मार्ग हैं, जिनके लिए सारा जीवन छोड़ कर जाना पड़ेगा। पर कोई जरूरत नहीं है। बस, तुमने एक बात सीख ली कि ऊर्जा कैसे नाभि तक जाए शेष तुम्हें चिंता नहीं करनी है। तुम ऊर्जा को, जब भी कामवासना उठे नाभि में इक्ट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ेगी नाभि में, अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी। जैसे बर्तन में पानी बढ़ता जाए, तो पानी की सतह ऊपर उठती जाए। असली बात मूलाधार का बंद हो जाना है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, ऊर्जा इकट्ठी होती जाएगी, घड़ा अपने आप भरता जाएगा। एक दिन अचानक पाओगें कि धीरे-धीरे नाभि के ऊपर ऊर्जा आ रही है, तुम्हारा ह्रदय एक नई संवेदना से आप्लावित हुआ जा रहा है। जिस दिन ह्रदय चक्र पर आएगी तुम्हारी ऊर्जा, तुम पाओगें कि तुम भर गये प्रेम से। तुम जहां भी ऊठोगे, बैठोगे, तुम्हारे चारों तरफ एक हवा बहने लगेगी प्रेम की। दूसरे लोग भी अनुभव करेंगे कि तुममें कुछ बदल गया है। तुम अबवह नहीं रहे हो, तुम किसी और तरंग पर बैठ गये हो। तुम्हारे साथ कोई और लहर भी आती है—कि उदास प्रसन्न हो जाते है, कि दुःखी थोड़ी देर को दुःख भूल जाते है, कि अशांत शांत हो जाते है, कि तुम जिसे छू देते हो, उस पर ही एक छोटी सी प्रेम की वर्षा हो जाती है। लेकिन, ह्रदय में ऊर्जा आएगी, तभी यह होगा। ऊर्जा जब बढ़ेगी, ह्रदय से कंठ में आएगी, तब तुम्हारी वाणी में माधुर्य आ जाएगा। तब तुम्हारी वाणी में एक संगीत, एक सौंदर्य आ जाएगा। तुम साधारण से शब्द बोलोगे और उन शब्दों में काव्य होगा। तुम दो शब्द किसी से कह दोगे और उसे तृप्त कर दोगे। तुम चुप भी रहोगे, तो तुम्हारे मौन में भी संदेश छिप जाएंगे। तुम न भी बोलोगे तो तुम्हारा अस्तित्व बोलेगा। ऊर्जा कंठ पर आ गई। ऊर्जा ऊपर उठती जाती है। एक घड़ी आती है कि तुम्हारे नेत्र पर ऊर्जा का आविर्भाव होता है। तब तुम्हे पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होता है। तुम अंधे नहीं होते। उससे पहले तुम अंधे हो। क्योंकि उसके पहले तुम्हें आकार दिखाई पड़ते है, निराकार नहीं दिखाई पड़ता; और वही असली में है। सब आकारों में छिपा है निराकार। आकार तो मूलाधार में बंधी हुई ऊर्जा के कारण दिखाई पड़ते है। अन्यथा कोई आकार नहीं है। मूलाधार अंधा चक्र है। इस लिए तो कामवासना को अंधी कहते है। वह अंधी है। उसके पास आँख बिलकुल नहीं है। आँख तो खुलती है—तुम्हारी असली आँख, जब तीसरे नेत्र पर ऊर्जा आकर प्रकट होती है। जब लहरे तीसरे नेत्र को छूने लगती हैं। तीसरे नेत्र के किनारे पर जब तुम्हारी ऊर्जा की लहरे आकर टकराने लगती है, पहले दफ़ा तुम्हारे भीतर दर्शन की क्षमता जागती है। दर्शन की क्षमता, विचार की क्षमता का नाम नहीं है। दर्शन की क्षमता देखने की क्षमता है। वह साक्षात्कार है। जब बुद्ध कुछकहते है, तो देख कर कहते है। वह उनका अपना अनुभव है। अनानुभूत शब्दों का क्या अर्थ है ? केवल अनुभूत शब्दों में सार्थकताहोती है। ऊर्जा जब तीसरी आँख में प्रवेश करती है। तो अनुभव शुरू होता है, और ऐसे व्यक्ति के वचनों में तर्क का बल नहीं होता, सत्य का बल होता है। ऐसे व्यक्ति के वचनों में एक प्रामाणिकता होती है, जो वचनों के भीतर से आती है। किन्हीं बाह्रा प्रमाणों केआधार पर नहीं। ऐसे व्यक्ति के वचन को ही हम शास्त्र कहते है। ऐसे व्यक्ति के वचन वेद बन जाते है। जिसने जाना है, जिसने परमात्मा को चखा है, जिसने पीया है, जिसने परमात्मा को पचाया है, जो परमात्मा के साथ एक हो गया है। फिर ऊर्जा और ऊपर जाती है। सहस्त्रार को छूती है। पहला सबसे नीचा केंद्र मूलाधार चक्र है, मूलबंध, और अंतिम चक्र है, सहस्त्रार। क्योंकि वह ऐसा है, जैसे सहस्त्र पंखुडि़यों वाला कमल। बड़ा सुंदर है, और जब खिलता है तो भीतर ऐसी ही प्रतीति होती है, जैसे पूरा व्यक्तित्व सहस्त्र पंखूडि़यों वाला कमल हो गया है। पूरा व्यक्तित्व खिल गया । जब ऊर्जा टकराती है सहस्त्र से, तो उसकी पंखुडि़यां खिलनी शुरू हो जाती है। सहस्त्रार के खिलते ही व्यक्तित्व से आनंद काझरना बहने लगता है। मीरा उसी क्षण नाचने लगती है। उसी क्षण चैतन्य महाप्रभु उन्मुक्त हो नाच उठते है। चेतना तो प्रसन्न होती ही है, रोआं-रोआं शरीर का आन्ंदित हो उठता है। आनंद की लहर ऐसी बहती है कि मुर्दा भी—शरीर तो मुर्दा है—वह भी नाचते लगता है। मूल बंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध उत्तम परिपाटी यह है कि विचारों को विचारों से काटा और सुधारा जाये। जीवन में मन की प्रमुखता है। उसी को बंधन और मोक्ष का निमित्त कारण माना गया है। गीताकार का कथन है कि मन ही बन्धन बाँधता है वही उनसे छुड़ाता भी है। सुधरा हुआ मन ही सर्वश्रेष्ठ मित्र है और वही कुमार्गगामी होने पर परले सिरे का शत्रु हो जाता है। इसलिए मन को अध्यात्म बनाकर अपनी संकल्प शक्ति के सहारे मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए और भव बंधुओं से सहज ही छूट जाना चाहिए। जिनका मनोबल इस योग्य नहीं होता कि चिन्तन और मनन के सहारे आत्म सुधार और आत्म विकास का प्रयोजन कर सके। उनके लिए वस्तुपरक एवं क्रियापरक कर्मकाण्डों का आश्रय लेना ही उपयुक्त पड़ता है। अपने दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ निकालना और उन्हें सुधारने तक आत्म-शोधन तक की साधना में निरत रहना होता है। विचारों से विचारों को काटने की प्रणाली अपनानी पड़ती है। पर इस सबके लिए बलिष्ठ मनोबल चाहिए। उसमें कमी पड़ती हो तो वस्तुओं से, वातावरण से, सहयोग से एवं क्रियाओं में सुधार कार्य को अग्रगामी बनाना पड़ता है। धार्मिक कर्मकाण्डों की संरचना इसी निमित्त हुई है कि उन हलचलों को प्रत्यक्ष देखते हुए- आधार अवलम्बन अपनाकर साधक अपनी श्रद्धा को परिपक्व कर सके। संकल्प बल में बलिष्ठता ला सके उस प्रयोजन को पूरा कर सके तो विचारों से विचारों की काट करने का आधार न बन पड़ने की दशा में अपनाया और लक्ष्य की दिशा में बढ़ा जा सकता है। एक टाँग न होने पर उसकी पूर्ति लकड़ी टाँग लगाकर की जाती है। उसी प्रकार उपाय उपचारों के माध्यम से भी आन्तरिक समस्याओं के सुलझाने में सहायता मिल सकती है। पूजा परक कर्मकाण्डों की तरह योगाभ्यास की क्रिया प्रक्रिया भी उसी प्रयोजन की पूर्ति करती है। इतने पर भी यह निश्चित है कि कर्म काण्डों या साधनाओं के साथ संकल्प बल का समावेश होना ही चाहिए। इसके अभाव में वे क्रिया-कृत्य मात्र कौतुक कौतूहल बनकर रह जाते हैं। कृत्य उपचारों का प्रतिफल उनके साथ जुड़ी हुई भावनाओं की सहायता निश्चित रूप से घुली रहे, अन्यथा योगाभ्यास के नाम पर किये जाने वाले कृत्य भी एक प्रकार के व्यायाम ही बनकर रह जाते हैं और उनका प्रभाव शरीर श्रम के अनुरूप ही नगण्य स्तर का होता है। तीन ग्रन्थि से आबद्ध आत्मा को जीवधारी, प्राणी या नर पशु माना गया है। वही भव बन्धनों में बँधा हुआ कोल्हू के बैल की तरह परायों के लिए श्रम करता रहा है। ग्रन्थियों को युक्ति पूर्वक खोलना पड़ता है। बन्धनों को उपयुक्त साधनों से काटना पड़ता है। योगाभ्यास के साधना प्रकरण में भव बन्धनों में जकड़ने वाली तीन ग्रन्थियों को खोलने के लिए क्रिया पक्ष तीन अभ्यास भी बताये गये हैं। इनका सम्बन्धित क्षेत्रों का व्यायाम भी होता है और परिष्कार भी। साथ में श्रद्धा विश्वास का समावेश रखा जाये तो उनका प्रभाव गहन अन्तराल तक जा पहुँचता है। बन्धनों को बाँधने वाले- खोलने या तोड़ने वाले- तीन साधन बताये गये हैं। वे करने में सुगम किन्तु प्रतिफल की दृष्टि से आश्चर्यजनक हैं। ब्रह्म ग्रन्थि के उन्मूलन के लिए मूलबंध। विष्णु ग्रन्थि खोलने के लिए उड्डियानबंध और रुद्र ग्रन्थि खोलने के लिए जालन्धर बन्ध की साधनाओं का विधान है। इन्हें करते रहने से बन्धन मुक्ति प्रयोजन में सफलता सहायता मिलती है। मूलबंध की क्रिया को ध्यान पूर्वक समझने का प्रयास किया जाये तो वह सहज ही समझ में भी आ जाती है और अभ्यास में भी। मूलबंध के दो आधार हैं। एक मल मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना। इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना। दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाये और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाये। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है। संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाये। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियां भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है। यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसककर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुंच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है। दूसरा बन्ध उड्डियान है। इसमें पेट को फुलाना और सिकोड़ना पड़ता है। सामान्य आसन में बैठकर मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठना चाहिए और पेट को सिकोड़ने फुलाने का क्रम चलाना चाहिए। इस स्थिति में सांस खींचें और पेट को जितना फुला सकें, फुलायें फिर साँस छोड़ें और साथ ही पेट को जितना भीतर ले जा सकें ले जायें। ऐसा बार-बार करना चाहिए साँस खींचने और निकलने की क्रिया धीरे-धीरे करें ताकि पेट को पूरी तरह फैलने और पूरी तरह ऊपर खिंचने में समय लगे। जल्दी न हो। इस क्रिया के साथ भावना करनी चाहिए कि पेट के भीतरी अवयवों का व्यायाम हो रहा है उनकी सक्रियता बढ़ रही है। पाचन तंत्र सक्षम ही रहना साथ ही मल विसर्जन की क्रिया भी ठीक होने जा रही है। इसके साथ भावना यह रहनी चाहिए लालच का अनीति उपार्जन का, असंयम का, आलस्य का अन्त हो रहा है। इसका प्रभाव आमाशय, आँत, जिगर, गुर्दे, मूत्राशय, हृदय फुफ्फुस आदि उदर के सभी अंग अवयवों पर पड़ रहा है और स्वास्थ्य की निर्बलता हटती और उसके स्थान पर बलिष्ठता सुदृढ़ होती है। तीसरा जालन्धर बंध है। इसमें पालथी मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सके उतने पर ही सन्तोष करना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा। इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाये। सांस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क शोधन का ‘कपाल भाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिए कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है। तीन ग्रन्थियों को बन्धन मुक्त करने में उपरोक्त तीन बन्धों का निर्धारण है। क्रियाओं को करते और समाप्त करते हुए मन ही मन संकल्प दुहराना चाहिए कि चह सारा अभ्यास बन्धन मुक्ति के लिए वासना, तृष्णा और अहन्ता को घटाने मिटाने के लिए किया जा रहा है। भव बन्धनों से मुक्ति जीवित अवस्था में ही होती है। मुक्ति मरने के बाद मिलेगी ऐसा नहीं सोचना चाहिए। जन्म-मरण से छुटकारा पाने जैसी बात सोचना व्यर्थ है। आत्मकल्याण और लोक मंगल का अभ्यास करने के लिए कई जन्म लेने पड़ें तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। प्रथम विधि इस क्रिया को करने में कई प्रकार के आसन काम में लाये जा सकते हैं| पालती मारकर एक पैर के ऊपर दूसरा रखना और इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव डालना| द्वितीय विधि दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाय और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी ऐडी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाय| इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि दबाव हल्का हो, क्योंकि अधिक दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है| संकल्प शक्ति के सहारे गुदा द्वार को धीरे-धीरे ऊपर की तरफ खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा दिया जाये| गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियाँ भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं| उसके साथ ही साँस को भी ऊपर खींचना पड़ता है| प्रारम्भ में इस क्रिया को 10 बार करना चाहिये| इसके बाद हर सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है| इस क्रिया को अश्विनी मुद्रा या बज्रोली क्रिया के नाम से भी जाना जाता है| इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिये कि कामोत्तेजन का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसक कर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की तरफ जा रहा है और मस्तिष्क मध्य भाग में स्थित सहस्रार चक्र पर पहुँच रहा है| यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है| इसे मूल (जड़) इसलिए कहा जाता है, क्योकि यह मानवी काया के मूल बांध देता है| योग, ध्यान, प्राणायाम और क्रियाएं सभी मनुष्य शरीर की रक्षा, स्वास्थ्य और अध्यात्म के समावेश से मिलकर बने है, ताकि मनुष्य इन्हे कर हर प्रकार का सुख प्राप्त का सके| आइये जानते है Mula Bandha Benefits – इससे यौन ग्रंथियाँ पुष्ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है| इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर से कब्ज की समस्या समाप्त हो जाती है और भूख भी अधिक लगती है| शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती है तथा इस बंध को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है| पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में भी यह मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी गई है| जिन लोगों को हर्निया की शिकायत होती है उनके लिए ये क्रिया बहुत लाभकारी होती है| सावधानी किसी भी प्रकार का यौन और उदर रोग होने की स्थिति में इस मूलबंध का अभ्यास जानकार योगाचार्य से परामर्श लेकर ही करना चाहिए| जालंधर बंध की विधि जालंधर बंध करने के लिए किसी समतल जमीन पर कंबल या दरी बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं| इसके बाद शरीर को एकदम सीधा रखें| अब गर्दन के भाग को झुकाए, जिससे गला और ठोड़ी आपस में स्पर्श हो सके| कुछ योगियों के अनुसार सिर और गर्दन को इतना झुकाना चाहिए कि ठोड़ी की हड्डी के नीचे छाती के भाग को स्पर्श करे और ठोड़ी में चार-पांच अंगुल का अंतर रह जाए| इस क्रिया में ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा करने का क्रम चलाया जाना चाहिए| साथ ही साँस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखें| इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है| इससे मस्तिष्क को कपाल भाति प्राणायाम की तरह लाभ मिलता है| हमारे सिर में बहुत सी वात-नाडिय़ों का एक जाल सा फैला हुआ होता है| इन्हीं के द्वारा हमारे शरीर का संचालन होता है| इसलिए इस हिस्से का स्वस्थ रहना बहुत आवश्यक है| इसके लिए जालंधर बंध सबसे अच्छा उपाय है जिससे सिर का अच्छे से व्यायाम होता है और हम स्वस्थ रहते हैं| जालंधर बंध क्रिया के अभ्यास से श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया पर अधिकार होता है तथा ज्ञान तन्तु बलवान होते है| हठयोग में बताया गया है कि इस बंध का प्रभाव शरीर के सोलह स्थान की नाड़ियो पर पड़ता है| इसमें पादांगुष्ठ, गुल्फ, घुटने, जंघा, सीवनी, लिंग, नाभि, हदय, ग्रीवा, कण्ठ, लम्बिका, नासिका, भ्रू, कपाल, मूर्धा और ब्रह्मरंध्र| यह सोलह स्थान जालंधर बंध के प्रभाव क्षेत्र हैं| इस तरह से विशुद्धि चक्र के जागरण में जालंधर बंध से बड़ी सहायता मिलती है| जालंधर बंध के अभ्यास से प्राणो का संचरण ठीक तरह से होता है| इड़ा और पिंगला नमक नाड़ी बंद होकर प्राण सुषुन्मा में प्रविष्ट होती है| जिसके कारण मस्तिष्क के दोनों हिस्सों में सक्रियता बढ़ती है और गर्दन की माँसपेशियों में रक्त का संचार भी ठीक से होने लगता है, जिससे उनमें दृढ़ता आती है| कंठ की रुकावट समाप्त होती है| मेरुदंड यानि रीढ़ की हड्डी में खिंचाव होने से उसमें रक्त का संचार तेजी से बढ़ता है| इस कारण सभी रोग दूर होते हैं और व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है| इस क्रिया के अभ्यास से हमारे सिर, मस्तिष्क, आंख, नाक, कान, गले की नाड़ी का संचालन नियंत्रित रहता है तथा इन सभी अंगो का जाल और धमनियों आदि को स्वस्थ बनाए रखता है| यह सभी Jalandhara Bandha Benefits है| सावधानियां इस क्रिया की शुरुवात में सामान्य श्वास ग्रहण करके जालंधर बंध लगाना चाहिए| यदि गले में किसी प्रकार की तकलीफ या दर्द हो तो इसे न करें| बल लगाकर या जबरदस्ती श्वास ग्रहण करके जालंधर न लगाएँ| श्वास की तकलीफ या सर्दी-जुकाम हो तो भी इसे ना करें| उड्डीयान बंध करने की विधि खड़े होकर करने की विधि इसके लिए सबसे पहले दोनों पाँवों के बीच अंतर रखते हुए, घुटनों को मोड़कर थोड़ा-सा आगे की तरफ झुकाए| अब दोनों हाथों को जाँघों पर रखें और मुँह से हवा को बाहर निकालकर नाभी को अंदर खींचकर सातों छीद्रों को बंद करने का प्रयास करें| यह उड्डीयान बंध है। अर्थात रेचक करके अर्थात श्वास को बाहर निकालकर 20 से 30 सेंकंड तक बाह्य कुंभक करें। बैठकर करने की विधि इसे बैठकर करना भी बहुत आसान है| इसके लिए सुखासन या पद्मासन में बैठकर हाथों की हथेलियों को घुटनों पर रखें और थोड़ा आगे की ओर झुकते हुए पेट के स्नायुओं को अंदर खींचते हुए पूर्ण रेचक करें अर्थात साँस को बाहर निकलें तथा बाह्म कुंभक करें अर्थात बाहर ही रोककर रखें| अब इसके पश्चात साँस धीरे-धीरे अंदर लेते हुए पसलियों को ऊपर उठाएँ और साँस को छाती में ही रोककर रखें एवं पेट को ढीला छोड़ दें। इस अवस्था में पेट अंदर की सिकोड़ सकते है उतना सिकोड़े| इन् दोनों ही तरह की विधि या क्रिया में पेट अंदर की ओर जाता है। इसके अभ्यास के माध्यम से ही नौली क्रिया की जा सकती है। इस बंध को खली पेट करना चाहिए| शुरुवात में इसे 3 बार तथा धीरे-धीरे इसे बढ़ाकर सामर्थ्य के अनुसार 21 बार तक किया जा सकता है| आप यह भी पढ़ सकते है:- शरीर की शुद्धि और रोगों से मुक्ति के लिए करें षट्कर्म क्रियाएं उड्डीयान बंध के लाभ उड्डियानबंध के अभ्यास से आमाशय,लिवर व गुर्दे सक्रिय होकर अपना कार्य ठीक तरह से करने लगते हैं| साथ ही इन अंगों से सम्बंधित सभी तरह के रोग दूर हो जाते हैं। यह बंध से पेट, पेडु और कमर की माँसपेशियाँ सक्रिय होकर शक्तिशाली बनता है तथा अजीर्ण को दूर कर पाचन शक्ति को बढाता है| साथ ही यह पेट और कमर की चर्बी को कम करने में भी सहायक होता है| इस बंध के अभ्यास से उम्र के बढ़ते असर को रोका जा सकता है। इसे करने से व्यक्ति हमेशा युवा बना रह सकता है| यह सभी Uddiyana Bandha Benefits है| सावधानियां उड्डियान बंध को प्रातः के समय में अपने दैनिक नित्यक्रम के बाद करना चाहिए तथा इसे खली पेट ही करना चाहिए| गर्भवती महिलाओं, ह्रदय रोगियों, पेट में किसी तरह का रोग आदि होने पर इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए| उड्डीयान बंध करते समय किसी तरह की तकलीफ या परेशानी होने पर इसे नहीं करना चाहिए| उड्डीयान बंध के कुछ आध्यात्मिक लाभ भी है इसलिए साधु संत और ऋषि मुनि भी इस क्रिया को अवश्य करते है| इसके नियमित अभ्यास से मणिपूरक चक्र जाग्रत हो जाते है| इस बंध को करने से प्राण उर्ध्वमुखी होकर सुषुम्ना नदी में प्रवेश करते है जिससे साधक को अलौकिक शक्तियों की भी प्राप्ति होती है| योनि मुद्रा यौगिक दृष्टि से अपने अंदर कई प्रकार के रहस्य छिपाए रखनेवाली मुद्रा का वास्तविक नाम ‘योनि मुद्रा’ है| तत योग के अनुसार केवल हाथों की उंगलियों से महाशक्ति भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है| प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है| इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देनेवाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी है| यह बड़ी चमत्कारी मुद्रा है| पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं| ऋषियों का मत है कि जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है, उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है| संभवतः इसी कारण आदि शंकराचार्यजी ने अपने योग रत्नावली नामक विशेष ग्रंथ में मूलबंध का उल्लेख विशेष रूप से किया है| मूलबंध योग की एक अद्भुत क्रिया है| इसको करने से योग की अनेक कठिनतम क्रियाएं स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं, जिनमें अश्विनी और बज्रौली मुद्राएं प्रमुख हैं| इन मुद्राओं के सिद्ध हो जाने से योगी में कई प्रकार की शक्तियों का उदय हो जाता है| अश्विनी मुद्रा इस मुद्रा से साधक में घोड़ों जैसी शक्ति आ जाती है, जिसे ‘हॉर्स पॉवर’ कहते हैं| इस मुद्रा में गुदा-द्वार का बार-बार संकोचन और प्रसार किया जाता है| इसी से मुद्रा की सिद्धि हो जाती है| इसके द्वारा कुण्डलिनी जागरण में सुगमता रहती है और अनेक रोग नष्ट होकर शारीरिक बल की वृद्धि होती है| अश्विनी मुद्रा सिद्ध होने से साधक की अकालमृत्यु कभी नहीं होती| गुदा और उदर से संबंधित रोगों का इसके द्वारा शमन होता है तथा दीर्घजीवन की उपलब्धि होती है| बिना मूलबंध के अश्विनी मुद्रा नहीं हो सकती| बज्रौली मुद्रा बज्रौली मुद्रा भी मूलबंध का अच्छा अभ्यास किए बिना किसी प्रकार संभव नहीं है| यह मुद्रा केवल योगी के लिए ही नहीं, भोगी के लिए भी अत्यंत लाभकारी है| इस मुद्रा में पहले दोनों पांवों को भूमि पर दृढ़तापूर्वक टिकाकर, दोनों पांवों को धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक ऊपर आकाश में उठा दें| इससे बिंदु-सिद्धि होती है| शुक्र को धीरे-धीरे ऊपर की आकुंचन करें अर्थात् इंद्रिय के आंकुचन के द्वारा वीर्य को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें तो यह मुद्रा सिद्ध होती है| विद्वानों का मत है कि इस मुद्रा के अभ्यास में स्त्री का होना आवश्यक है, क्योंकि भग में पतित होता हुआ शुक्र ऊपर की ओर खींच लें तो रज और वीर्य दोनों ही चढ़ जाते हैं| यह क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध होती है| कुछ योगाचार्य इस प्रकार का अभ्यास शुक्र के स्थान पर दुग्ध से करना बताते हैं| जब दुग्ध खींचने का अभ्यास सिद्ध हो जाए, तब शुक्र को खींचने का अभ्यास करना चाहिए| वीर्य को ऊपर खींचनेवाला योगी ही ऊर्ध्वरेता कहलाता है| इस मुद्रा से शरीर हृष्ट-पुष्ट, तेजस्वी, सुंदर, सुडौल और जरा-मृत्यु रहित होता है| शरीर के सभी अवयव दृढ़ होकर मन में निश्चलता की प्राप्ति होती है| इसका अभ्यास अधिक कठिन नहीं है| यदि गृहस्थ भी इसके करें, तो बलवर्द्धन और सौंदर्यवर्द्धन का पूरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं| शक्तिचालिनी मुद्रा आठ अंगुल लंबा और चार अंगुल चौड़ा मुलायम वस्त्र लेकर नाभि पर लगाएं और कटिसूत्र में बांध लें| फिर शरीर में भस्म रमाकर सिद्धासन में बैठें और प्राण को अपान से युक्त करें| जब तक गुह्य द्वार से चलती हुई वायु प्रकाशित न हो, इस समय तक गुह्य द्वार को संकुचित रखें| इससे वायु का जो निरोध होता है, उसमें कुम्भक के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती हुई सुषुम्ना मार्ग से ऊपर जाकर खड़ी हो जाती है| योगमुद्रा से पहले इसका अभ्यास करने पर ही योनि मुद्रा की पूर्ण सिद्धि होती है| इस मुद्रा से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है| जब तक यह सोती है, तब तक सभी आंतरिक शक्तियां सुप्त पड़ी रहती हैं| इसलिए कुण्डलिनी का जाग्रत होना साधक के लिए बहुत आवश्यक है| प्राण-अपान को संयुक्त करने की क्रिया प्राणवायु को पूरक द्वारा भीतर खींचने और उड्डीयान बंध से अपान वायु को ऊपर की ओर आकर्षित करने से पूर्ण होती है| इसमें गुह्य प्रदेश के संकोच और विस्तार का अभ्यास होने से अधिक सरलता हो सकती है| तड़ागी मुद्रा दोनों पांवों को दण्ड के समान धरती पर पसार लें और हाथों से उनके अंगूठों को पकड़ने तथा दोनों जांघों पर सिर को स्थापित करें, साथ ही उदर को तड़ाग (सरोवर) के समान कर लें| यह मुद्रा अनेक रोगों और वृद्धावस्था को भी दूर करने में सहायक सिद्ध होती है| माण्डवी मुद्रा मुख को बंद करके जुबान को तालु में घुमाएं और सहस्रार से टपकते हुए सुधारस को जुबान से धीरे-धीरे पीने का यत्न करें| यही माण्डवी (या माण्डुकी) मुद्रा है| इसके द्वारा बालों की सफेदी, उनका झड़ना, शरीर पर झुर्रियों, मुंहासों आदि का पड़ना तथा निर्बलता आदि दूर होकर चिर-यौवन की प्राप्ति होती है| इससे रसोत्पादन होकर अमृतत्व की उपलब्धि होना संभव हो जाता है| शाम्भवी मुद्रा दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य स्थिर करके एकाग्र मन से परमात्मा का चिंतन करें तो ध्यान की परिवक्वता होने पर ज्योति-दर्शन होता है| यही शाम्भवी मुद्रा है| आत्म साक्षात्कार के आकांक्षी पुरुषों के लिए यह अत्यंत कल्याणकारी मुद्रा है| पंचधारणा मुद्रा धारणा का अभिप्राय है, ध्यान के द्वारा ग्रहण करने की शक्ति| पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश- इन पंच महाभूतों से यथार्थ का ज्ञान होना ही पंचधारणा मुद्रा का वास्तविक उद्देश्य है| यह मुद्रा पंच तत्वों से संबंधित होने के कारण उसको पृथक-पृथक धारणा में परिपक्व करती है, इसलिए यह निम्न पांच प्रकार की मानी जाती है- • पार्थिवीः भूमि-संबंधी • शाम्भवीः जल-संबंधी • वैश्वानरी या आग्नेयीः अग्नि-संबंधी • वायवीः वायु-संबंधी • आकाशीः आकाश-संबंधी इनकी सिद्धि होने पर मनुष्य सशरीर स्वर्गादि लोकों में आ-जा सकता है| पाशिनी मुद्रा दोनों पांवों को कंठ के पीछे की ओर ले जाकर उन्हें परस्पर मिलाएं और पाश के समान दृढ़ता से बांध लें| इसके अभ्यास से भी कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में बहुत सुगमता हो जाती है तथा साधक के शरीर में बल और पुष्टि का आविर्भाव होता है| मानसिक बलवर्द्धन में भी यह बहुत हितकर है| काकी मुद्रा मुख के होठों का इस प्रकार संकोचन करें, जिससे कि कौए की चोंच के समान उसकी आकृति बन जाए (प्रायः मुख से सीटी बजाने में भी ऐसी आकृति बन जाती है|) इस प्रकार की आकृति बनाकर धीरे-धीरे वायु खींचकर पान करें| यह ध्यान रहे कि इस मुद्रा में नासिका-छिद्रों द्वारा वायु नहीं खींची जाती (नासिका द्वारा श्वास नहीं लिया जाता)| यह गुदा, उदर, कंठ और हृदय विकार आदि को दूर करने के लिए बहुत उपयोगी है| साधक की जठराग्नि तीव्र होती है और कोष्ठबद्धता आदि विकारों का शमन हो जाता है| मातंगिनी मुद्रा यह मुद्रा जल में कंठ पर्यन्त खड़े होकर की जाती है| इसमें नासिका से जल खींचकर मुख-द्वार से बाहर निकाल दिया जाता है| यह क्रिया बार-बार दोहराई जाती है| इस प्रकार विपरीत क्रम से बार- बार अभ्यास करें| इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में बल की वृद्धि होती है, वृद्धावस्था का आगमन रूक जाता है और मृत्यु का भी भय नहीं रहता| कुण्डलिनी जाग्रत करने में इसका सहयोग विशेषकर मिलता है| भुजंगिनी मुद्रा इसमें मुख को फैलाकर कंठ से बाहरी वायु खींची जाती है| तालु और जिह्वा के मध्य वायु के घूमने से शरीर में अद्भुत शक्ति का आविर्भाव होता है| यह मुद्रा अजीर्ण आदि उदर रोगों को नष्ट करने में भी बहुत उपयोगी है| इस प्रकार मुद्राओं के अभ्यास से साधक को सब प्रकार के शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल की प्राप्ति होती है| योगाचार्यों के अनुसार ‘नास्ति मुद्रासनकिंचित्सिद्धिदंक्षितिमण्डले (घेरण्ड संहिता)’ अर्थात् मुद्राओं के समान सिद्धिदायक कोई अन्य साधन भू-मंडल पर नहीं है| इसलिए योगसिद्धि के आकांक्षीजनों को मुद्राओं का अभ्यास करना श्रेयस्कर है| मुद्राओं को भोगी पुरुषों के लिए भोगप्रद और मुमुक्षुओं के लिए मोक्षप्रद माना गया है| इसलिए मुद्राएं गृहस्थ और संन्यासी दोनों के लिए उपयोगी हैं| किंतु यह आवश्यक नहीं कि सभी मुद्राओं को किया जाए, वरन् जो अपनी शारीरिक स्थिति के अनुकूल और अभ्यास में सरल प्रतीत हो, उसी को करना चाहिए| ऐसा करनेवाले साधक को अवश्य ही योगसिद्धि हो सकती है और वह कुण्डलिनी जाग्रत करने में पूर्णतया समर्थ हो सकता है| साधना करनेवाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह साधना में कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं पर पूरा नियंत्रण रखे तथा समय-समय पर उचित तांत्रिक प्रक्रियाओं का भी समन्वय करता रहे| इस दृष्टि से जिस प्रकार आसन पात्रासादन, अर्चन आदि में क्रियाओं का विधान है, उसी प्रकार उनके साथ कुछ मुद्रा बनाने का विधान है| ये मुद्राएं मुख्य रूप-से हाथ और उसकी उंगलियों के प्रयोग से बनती हैं| जैसे हमारा शरीर पंचतत्वमय है| अतः शास्त्रकारों ने कहा है कि इन उंगलियों के प्रयोग से इन तत्वों की न्यूनाधिकता दूर की जा सकती है तथा तत्वों की समता-विषमता से होनेवाली कमी को उंगलियों की मुद्रा से सम बनाया जा सकता है| इतना ही नहीं, ऐसी मुद्राओं के सहयोग से उन तत्वों को स्वेच्छापूर्वक घटाया-बढ़ाया भी जा सकता है| ये तत्व क्रमशः अंगुष्ठ में अग्नि, तर्जनी में वायु, मध्यमा में आकाश, अनामिका में पृथ्वी और कनिष्ठिका में जल के रूप में विद्यमान रहते हैं| ‘मुदं रातीति मुद्रा,’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ये मुद्राएं देवताओं के समक्ष बनाकर दिखलाने से उन्हें प्रसन्नता प्रदान करती हैं| पूजा-विधानों में ‘मुद्रा’ एक आवश्यक अंग माना गया है| देवी-देवताओं के समक्ष प्रकट की जानेवाली मुद्राएं पृथक-पृथक कर्म की दृष्टि से हजारों प्रकार की होती हैं, जिनमें कुछ जपांगभूत हैं तो कुछ नैवेद्यांगभूत| कुछ का प्रयोग कर्मविशेष के प्रसंग में एकदंत मुद्रा, बीजापुर मुद्रा, अंकुश मुद्रा, मोदक मुद्रा आदि| ऐसे ही शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्यादि देवों की मुद्राएं हैं| इनका नित्य, नैमित्तिक और काम्य-प्रयोग की दृष्टि से भी मंत्रपूर्वक साधन होता है और मंत्र सिद्ध हो जाने पर इनके प्रयोग से अभीष्ट फल प्राप्त होता है| देवताओं की प्रसन्नता, चित्त की शुद्धि और विविध रोगों के नाश में मुद्राओं से बड़ी सहायता मिलती है| मुद्रातत्व को समझकर, प्रत्येक योगी को इनका साधन करना चाहिए| कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में इन मुद्राओं से सहायता मिलती है| यहां हमने जिन मुद्राओं का वर्णन एवं चित्रण किया है, उसमें प्रत्येक योगी, साधक को परिचित होना चाहिए| मूलबंध : ब्रह्रम्चैर्य mool bandh moolbandh  टिप्पणियाँ  इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट krodh जून 28, 2017  और पढ़ें Anubhav in Life जून 24, 2017  और पढ़ें Life ka Chakra जून 24, 2017  और पढ़ें Blogger द्वारा संचालित Galeries के थीम चित्र   सकारत्मक विचार पॉज़ीटिव विचार  प्रोफ़ाइल देखें संग्रहित करें लेबल दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करें 
No comments:
Post a Comment