Thursday, 17 August 2017

गायत्री मन्त्र पर हुए आक्षेपों का उत्तर और आक्षेप्ताओं को चेलैन्ज

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"कस्तूरी जायते कस्मात् को हन्ति करिणां कुलम् | किं कुर्यात् कातरो युद्धे मृगात् सिंहः पलायनम् ||"

आचार्य सियारामदास नैयायिक

गायत्री मन्त्र पर हुए आक्षेपों का उत्तर और आक्षेप्ताओं को चेलैन्ज

                                                                                                                                                                                ब्रह्मगायत्री की अपार महिमा किसी से तिरोहित नहीं है । इसके जप से सब कुछ सरलतया सम्भव है । ऋषियों से लेकर साधारण बटु भी इस महामन्त्र से आज तक लाभ उठा रहा है ।

पर जिनका इस मन्त्र पर विश्वास नही, केवल हिन्दी और संस्कृत का सामान्य ज्ञान रखने वाले ,संस्कृत व्याकरण और शास्त्रों से कोशों दूर कुछ मूर्खचक्रचूडामणियों ने इस मन्त्र को छन्द और व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध कहकर इसे सुधारने का अर्थात् विकृत करने का दुस्साहस किया है ।

यहां हम उनके सम्पर्ण आक्षेपों का निराकरण करते हुए उनकी बुद्धि का दिवालियापन दिखा रहे हैं |पहले आप लोग इन्हें पढ़ लें फिर इनकी धज्जियां कसे उड़ाई जाती हैं –इसे पढियेगा —जय श्रीराम

 

 

गायत्री मंत्र के आलोचकों का नज़रिया

गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -

‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।

“ यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है।  मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘

इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -

‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘

मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।

“एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)''

लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-

‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।

डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘

गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -

‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।

इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।

(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)

 

 

आचार्य सियारामदास नैयायिक —-

 

हम पहले “मंत्रार्थ दीपिका “ पुस्तक के लेखक शत्रुघ्न जी का  समाधान करेंगे |

समाधान –शत्रुघ्न जी ! आपके लेख से लगता है की आपको न तो छंदों के विषय में कोई ज्ञान है और न ही संस्कृत व्याकरण का, क्योंकि आप गायत्री मन्त्र के प्रथम पाद के “ तत् ” शब्द और तृतीय पाद के “ यो ” शब्द को देखकर कह रहे हैं कि —-

“ मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा। “

 

महाशय शत्रुघ्न जी सुनें –आपकी यह शंका व्याकरण में चंचुप्रवेश न होने के कारण हुई है |आपने गायत्री मन्त्र का सामान्य अर्थ भी नहीं समझा है –इस तथ्य को हम आगे स्पष्ट करेंगे |पहले आपकी शंका का उत्तर दे रहे हैं ——

श्रीमान जी ! – ऐसे स्थलों में लिंगगत अशुद्धियों का भान उन सबको होता है जो व्याकरण का ज्ञान नहीं रखते | उदाहरण के लिए एक अतिप्रसिद्ध संस्कृत का वाक्य हम सबके समक्ष रखते हैं —“ शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य “ अर्थ –जो शीतलता है वह जल का स्वभाव है | यहाँ नपुंसक लिंग में विद्यमान प्रथामांत शैत्य शब्द का विशेषण “ यत् “ शब्द नपुंसक लिंग में है और उसी का निर्देश आगे “ सा “ इस स्त्रीलिंग के शब्द से किया गया है |

 

अब इस वाक्य में आपको नपुंसक यत् शब्द और उससे सम्बद्ध सा शब्द में लिंगगत अशुद्धि जरुर दिख रही होगी , क्योंकि आप जैसे बड़े बड़े विद्वान लिंग  को ही पहले पकड़ कर उसमें दोष दिखाते हैं |

  महाशय –“ वैयाकरणभूषणसार ” में महावैयाकरण श्रीकौण्डभट्ट ने भी ऐसा  ही प्रयोग किया है | देखें –

 “ व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया “—४

 यहाँ  प्रथमा विभक्त्यंत व्यापार शब्द तो पुल्लिंग में है और पुनः उसी को भावना और क्रिया बतलाने के लिए

भट्ट जी जैसे महावैयाकरण  उस व्यापार शब्द का उल्लेख स्त्रीलिंग के “ सा “ शब्द से किये |

 

 अब ऐसे और भी वाक्य उपनिषदों में मिलते है |कुछ दिखा रहे हैं –

नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद्  आदि में ऐसे अनेक प्रयोग मिलते है जहां आपको लिंगगत दोष दिखेगा –

“ॐ यो वै नृसिंहो देवो भगवान् यश्च ब्रह्मा –तस्मै वै नमो नमः |४ /१,|ॐ यो वै नृसिंहो देवो भगवान् या सरस्वती —६ ,  ये वेदाः साङ्गाः सशाखाः  — १३ , याः सप्त महाव्याहृतयः—तस्मै वै नमो नमः |–१५ ,

महाशय—- ऐसे ओर भी प्रयोग वेदों  में हैं किन्तु उनको दिखाकर  किसी को भीत करना हमारा कर्तव्य नहीं है | यहाँ तो यही बतलाना है कि  जिनका  वेदों में कोई प्रवेश नहीं ,जिन्हें गायत्री मन्त्र के जप से कुछ लेना देना नहीं ,जो केवल आक्षेप करना जानते हैं उनकी प्रज्ञा कितनी है –इसका अहसास लोगों को हो जाय |

  महाशय —-ऐसे  प्रयोग बहुत अधिक किये गए हैं जिनमे कौण्ड भट्ट  जैसे वैयाकरण भी है जिनके एक श्लोक का  अर्थ आप जैसे आलोचक  कभी भी नही समझ सकते |

  समाधान—-–ये जो प्रयोग मैंने दिखलाये ये सब सही हैं क्योंकि व्याकरण का एक नियम है कि “ उद्देश्य और विधेय में एकता का प्रतिपादन करने वाला सर्वनाम उन दोनों में किसी के भी लिंग में प्रयुक्त हो सकता है | देखें —

व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया |–  वैयाकरण भूषणसार, ४ ,

इसकी प्रभा टीका देखें —--

                     “ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयत् सर्वनाम पर्यायेण तत्तल्लिङ्गभाग् भवति “इति वृद्धोक्तेरुभयविधप्रयोगदर्शनाच्च भावनारूपविधेयानुरोधेन “ सा ” इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशः “|

 

 अब इसकी  दर्पण टीका भी देख लें —

“ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयतः सर्वनाम्नः पर्यायेणान्यतरलिङ्गकत्वास्य ‘ शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य ‘इत्यादि बहुषु स्थलेषु दर्शनान्न “ सा “ इति स्त्रीलिङ्गानुपपत्तिः ”|

 

    गायत्री का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से परम शुद्ध

जब उद्देश्य और विधेय स्थलों में सर्वनाम दोनों में किसी के भी लिंग में प्रयुक्त हो सकता है —

 

यह सर्वसम्मत व्याकरण का नियम है |तो व्याकरण के इस नियम के अनुसार  नपुंसक लिंग के तत् शब्द से जिसे पहले कहा गया उसे पुनः पुल्लिंग  यो शब्द से कहने पर तो कोई दोष है ही नहीं |

 

हाँ ,आप जैसे व्याकरणानभिज्ञों को वह दोष दिखता है तो इससे यही कहा जा सकता है कि—

  “ निज भ्रम नहि समझहिं अज्ञानी |

     प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी “||

शत्रुघ्न जी —आपने कहा था कि  “वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो “—इसका समाधान कर दिया गया |

 

  आपने आगे लिखा है कि “ या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा। “

 

समाधान –नही  श्रीमान जी ! इतना कष्ट मत कीजिये |

 

व्याकरण की अनभिज्ञता के कारण “अशुद्धियों की गुत्थी “ आपका मष्तिष्क बन चुका है क्योंकि  आप लिखते हैं कि—–

 

‘‘ व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘”

 

समाधान———- वाह शत्रुघ्न जी ! वाह — लगता है कि आपको व्याकरण के  आरंभिक ग्रन्थ “ लघुसिद्धांतकौमुदी “ से भी भेंट नहीं हुई है |

 

 “ तत्सवितुः “ में तत् शब्द सवितुः का विशेषण नहीं है | यह एक समस्त ( समासयुक्त ) पद है |जिसे  षष्ठी तत्पुरुष समास आप समझ लें —तस्य सवितुः –तत्सवितुः —जिसका अर्थ है –-

   “ उन सूर्यदेव का “

जैसे किसी ने पूंछा –तस्य बालकस्य  पितुः किं नाम ? ( उस बालक के पिता का क्या नाम है ?)

 

बताने वाले ने उत्तर दिया “ तत्पितुः नाम राघव इति ( उसके पिता का नाम राघव है )

 अब आप जैसा प्रबुद्ध “ तत्पितुः  “ में समास न समझ कर यही कहेगा  कि यहाँ तस्य पितुः बोलना चाहिये “ तत्पितुः  “ तो अशुद्ध है | जैसा कि आपने कहा है  कि  

 “ तत्सवितुः “ की जगह “ तस्य सवितुः  “ होना चाहिये | और आपने अपनी मन्द बुद्धि के अनुसार  “ तस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग देवस्य धीमहि  धियो यो नः प्रचोदयात् “ –ऐसे आकार से इस महामन्त्र को अशुद्ध  करने  का  कुत्सित प्रयास किया |

 

 जिसे ध्वस्त कर दिया गया |

 

 

  शत्रुघ्न जी ने लिखा है कि

 

  “ इसमें ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं। “

शत्रुघ्न जी ! आपने जो गायत्री मन्त्र का विकृत रूप प्रस्तुत करके दिखाया था उसे तो ध्वस्त किया जा चुका है और आपके संस्कृत ग्रामर के ज्ञान की पोलपट्टी भी खोली जा चुकी है |

 

अब २४ वर्ण कैसे बनेंगे गायत्री मन्त्र के —इसके लिए आपको किसी गायत्री जापक का चरणचुम्बन करना पड़ेगा | यह ऋषियों की विद्या है म्लेच्छों की नहीं | इसे आगे बताउंगा |

 

शत्रुघ्न जी का एक कमाल और देखें –

 “एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)''

 

 समाधान –शत्रुघ्न जी ! जब वैदुष्य से कम नहीं चला तब धूर्तता पर उतर आये | लालबुझक्कड़  की गप्पे देर तक नहीं टिकती |

 

 ब्राह्मण सर्वस्व के रचयिता ने याज्ञवल्क्य को उद्धृत किया और आप जो कह रहे है वही  लिखा  है —यह कथन सफ़ेद झूठ है |

 

क्योंकि याज्ञवल्क्य स्मृति मिताक्षरा टीका के साथ प्रकाशित है उसमें —“गायत्रीं शिरसा सार्धं जपेद्व्याहृतिपूर्वकम्|— याज्ञवल्क्य स्मृति , आचाराध्याय ,श्लोक २३ , में व्याहृतियुक्त गायत्री का जप महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है |और इसकी टीका मिताक्षरा में—“ तत्सवितुर्वरेण्यम् “ –ऐसी व्याख्या कि गयी है |– प्रकाशक-नाग पब्लिशर्स,जवाहर नगर ,दिल्ली -7 ,सान -1985 ,

 

अब याज्ञवल्क्य के नाम से तत् के स्थान पर तम् कहना कोरी गप्प है ,| वेद की अनुगामिनी स्मृतियाँ होती हैं ,न कि उनके अनुगामी वेद |इसके ज्ञान के लिए आपको पूर्वमीमांसा किसी गुरु के चरणों में बैठकर पढ़नी पड़ेगी |यह भारतीय विद्या है किसी होटल की चाय नहीं |

 

 शत्रुघ्न जी ! अभी भी आप भर्गं पर संस्कृत व्याकरण से अनभिज्ञ होने के कारण लटके हुए हैं | भर्गो पर विशवास नहीं क्योंकि आपके अनुसार यह प्रथमा विभक्ति का रूप होगा ?

 

   “ भर्गो शब्द ही गायत्री मन्त्र में है भर्गं नहीं “

 

  “ भर्गो देवस्य “ में भर्गस् शब्द है ,यह भर्जनार्थक  भृज धातु से “ अन्च्यञ्जियुजिभृजिभ्यःकुश्च “  – “ सिद्धान्तकौमुदी “ इस औणादिक सूत्र से  भर्जते कामादीन् दोषान्  अथवा भृज्यन्ते कामादयो दोषाः यस्मात् ( जो कामादि दोषो को नष्ट कर दे या जिससे कामादि दोष नष्ट हो जाये उसे भर्गस् कहते है )इस प्रकार की व्युत्पत्ति में

असुन् प्रत्यय तथा ज को कवर्गादेश ग होकर  “ भर्गस् “  ऐसा शब्द बना है | इसके  बाद द्वितीया विभक्ति  आने पर भर्गः रूप बनता है  | किन्तु देवस्य का द बाद में होने के कारण स् को  रेफ होने के बाद रेफ को “ हशि च “ ६/१/११४ ,सूत्र से उ तत्पश्चात गुण होकर “ भर्गो “ शब्द बनता है | जिसका अर्थ है — “ दिव्य तेज “ |

 

इन आलोचकों की बात से संतुष्ट कुछ मन्दमति कहते हैं कि—-

‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।“

 

 

आचार्य सियारामदास नैयायिक ——–समाधान —–

शत्रुघ्न जी की सम्पूर्ण बातों की धज्जियां उड़ा दी गयीं हैं –इसलिए “ इस शुद्ध से लेकर अपूर्ण ही रह जाता है “ तक का  कथन भी मान्य नहीं हो सकता | रही बात गायत्री के २४ अक्षरों के पूर्णता की –इसका उत्तर  हम इन धर्मद्रोहियों का मानमर्दन करने के बाद देंगे |

 

डा. विश्व बंधु की कल्पना –

"डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘

 

 

आचार्य सियारामदास नैयायिक ——-

डा. विश्वबंधु जी ! आप शत्रुघ्न जी से कुछ बुद्धिजीवी लग रहे है | पर व्याकरण में उन्हीके समकक्ष हैं , क्योंकि आप भी “ तत्सवितुः  “ में तत् के अनुसार यो शब्द में परिवर्तन यद्—ऐसा किये हैं|

 

 हे आधुनिक जगत और पाश्चात्य सभ्यता के पशुओं  ! हमने जो व्याकरण का नियम पहले बतलाया है —-“ उद्देश्य और विधेय में एकता का प्रतिपादन करने वाला सर्वनाम उन दोनों में किसी के भी लिंग में प्रयुक्त हो सकता है | देखें —

व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया |–  वैयाकरण भूषणसार, ४ ,

   इसकी  प्रभा टीका  देखें —--

                     “ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयत् सर्वनाम पर्यायेण तत्तल्लिङ्गभाग् भवति “इति वृद्धोक्तेरुभयविधप्रयोगदर्शनाच्च भावनारूपविधेयानुरोधेन “ सा ” इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशः “|

 

 अब इसकी  दर्पण टीका भी देख लें —

“ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयतः सर्वनाम्नः पर्यायेणान्यतरलिङ्गकत्वास्य ‘ शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य ‘इत्यादि बहुषु स्थलेषु दर्शनान्न “ सा “ इति स्त्रीलिङ्गानुपपत्तिः ”|

 

 इसका स्मरण करो तो आप सही मायने में वेदों के साथ अनर्थ न करके वैदिक सनातन धर्म के द्रोही राक्षस नहीं बनोगे | गायत्री जैसे महामंत्र के  ऊपर आक्षेप करके अपनी महामूर्खता तुम लोगों ने दिखाई ,उसका मुहतोड़ उत्तर दिया गया |

 

 अब एक महाशय विश्बंधू जी की बात से संतुष्ट होकर कहते हैं —

"डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘-

वाह भाई ! जैसे वे वैसे आप “ न नागनाथ कम न सांपनाथ “ |

 

गायत्री मन्त्र तो अनन्त प्राणियों को शुद्ध कर चुका है उसे तुम जैसे मूर्ख अब शुद्ध करेंगे ? तुम्हे तो अपनी अज्ञानता का ज्ञान यदि इस लेख से हो गया होगा तो स्वयं शुद्ध हो जाओगे और फिर किसी धार्मिक ग्रन्थ या मन्त्र के विषय में ऐसा कहने या लिखने का दुस्साहस नहीं करोगे |

 

      गायत्री महामंत्र के २४ अक्षरों की पूर्णता

 

डा. शत्रुघ्न और विश्वबंधु ने जो आशंका या आक्षेप किया  है उसका उत्तर उनकी अज्ञानता प्रदर्शित करते हुए कर दिया गया |

 

 ये बेचारे अपने जैसे हीनमति गायत्री जापकों को भी समझते हैं | जापकों के सेवक ही ऐसे दुर्जनों की सेवा अच्छी तरह कर देते हैं |

 

   इन्हे गायत्री छन्द कितने  प्रकार के हैं –इसके ज्ञान हेतु “ हलायुध कि टीका  के साथ  पिन्गलाचार्य प्रणीत “ छन्दः शास्त्रम् ” देखना पडेगा |

"गायत्री के 24 अक्षरों के विषय में पिंगलाचार्य और हलायुध का प्रमाण"

 

तृतीय अध्याय में “ पिगालाचार्य जी  गायत्री के अक्षरों की २४ संख्या कैसे पूर्ण होगी ?—इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखते हैं –

 

  “  इयादि पूर्णार्थः –३/२ ,

 जहान गायत्री आदि छन्दों के अक्षरों की संख्या पूर्ण न हो रही हो वहां इय ,उव आदि जोड़ लेना चाहिए —-“ यत्र गायत्र्यादिच्छन्दसि पादस्याक्षर संख्या न पूर्यते , तत्रेयादिभिः पूरयितव्याः “ —ऐसा कहकर श्रीहलायुध गायत्री मन्त्र के अक्षरो कि पूर्ति में प्रमाण प्रस्तुत करते है —-तथा –“ तत्सवितुर्वरेणिययम् “ (ऋ.सं .३/४/१०/५,

 

  अर्थात् “ वरेण्यं “ की  जगह “वरेणियं “  जपना चाहिए |

 

 और इसमें पुराण वाक्य भी प्रमाण है ——-

 

  “ पाठ काले वरेण्यं स्यात् जपकाले वरेणियम् “ |

 

 ओर परम्परा से गायत्री मन्त्र से दीक्षित व्यक्ति जो साधकों  के संपर्क मे रह चुके  है वह  गायत्री मन्त्र भिन्न पाद करके ऐसे ही  जपते भी  है |

 

 अब “ ण् ” को आधा अक्षर समझकर जो चिल्ल पों मचा रखे थे कि २४ अक्षर कैसे पूर्ण होंगे ? यदि बुद्धि में विदेशी गोबर न भरा हो तो इसे समझने की कोशिश करो –शत्रुघ्न और विश्वबंधु महाशय !

 

अब इन महानीचों का गायत्री मन्त्र के विषय में क्या निर्णय है “ हमारे सनातन धर्मी बन्धु  ध्यान देकर सुनें —-

 

“‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।“

 

आचार्य सियारामदास नैयायिक —-

 

अरे महामूर्खों ! तुम सबकी संस्कृत  व्याकरण के विषय की अल्पज्ञता मै पहले अच्छी तरह दिखला चुका हूँ और “छन्दः शास्त्र “ के रचयिता श्रीपिंगलाचार्य तथा तुम्हारे चाचा श्रीहलायुध का प्रमाण भी दे चुका हूँ |

अतः  महामंत्र गायत्री  छन्दः शास्त्र त्तथा व्याकरण की दृष्टि से परिपूर्ण और  शुद्धों को भी परमशुद्ध करने वाला है |

 

  “ तुम सब महामूर्ख खुद ही लंगड़े ,दोगले ,अशुद्ध और

 हिजड़े तथा कायर  हो |"

 

 

इन नीच कुत्तों ने जो यह भौंका है कि—–

 “यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।“

 

 

 

आचार्य सियारामदास नैयायिक —-

 

 भगवान वेद स्वयं परमात्मा  के निःश्वास हैं — “ यस्य निःश्वसितम वेदाः “—जाकी सहज श्वास श्रुति चारी ||

 

और तुम लोगों का दोगलापन महामूर्खता –ये सब मैंने सप्रमाण साबित कर दी है | इसलिए तुम सबके सब स्वयं निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख सिद्ध हो चुके हो |

 

  तुम जैसे नीच कमीनों को संस्कृत का सामान्य ज्ञान नहीं और चले हो वेदमंत्र  गायत्री पर कलम चलाने |

 

  नीचों कमीनों महामूर्खो स्वयं अपने  को  विद्वान समझने वालों यदि इस लेख से तुम्हारी खुजली दूर न हुई  हो  और कुछ हिम्मत रखते हो तो  अपने अपने हाथों से चूड़ियाँ निकालकर सामने आओ पिल्लों ! हो सके तो विद्द्वत्संगोष्ठी में आकर  मिमियाओ | तुम्हे सनातन धर्म की ऐसी गर्जना सुनने को मिलेगी कि तुम्हारे पैंट पीले हो जायेंगे | ह्रदय फटकर बाहर आ जायेगा |

 

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आचार्य सियारामदास नैयायिक श्रीरामानन्दाचार्यवेदान्तपीठाध्यक्ष जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, मदाऊ,पो0 भाँकरोटा , जयपुर, राजस्थान ईमेल:guruji@acharysiyaramdas.com: +91-8104248586, +91-9460117766

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5 उत्तर करने के लिए गायत्री मन्त्र पर हुए आक्षेपों का उत्तर और आक्षेप्ताओं को चेलैन्ज

शुचिता mishra

कहते हैं:

अप्रैल 29, 2013 पर 2:44 में

गुरुवर प्रणाम , इन मूर्खों का एक ही लक्ष्य है सनातन धर्म पर आक्षेप , और उसके लिए भूषणसार की प्रभा तथा दर्पण इन्हें देकर इन्हें अपना अपना आक्षेपरुपी मुख के मर्दन का स्वरूप देखने का शुभ अवसर आप से प्राप्त हुआ |यदि अक्ल के अंधे नहीं होंगे तो अवश्य इन धर्म द्रोहियों को कुछ ज्ञान होगा |परन्तु इन शास्त्रानभिज्ञ दुराचारियों की जो मूर्खता इस लेख के द्वारा प्रकट हुई है ,उसके लिए इन्हें चुल्लू भरपानी में डूब मरना चाहिए |ये विधर्मी सनातन धर्म पर प्रहार करने का महादंड प्राप्त कर चुके हैं |–प्रणमामि

शुचिता mishra

कहते हैं:

अप्रैल 29, 2013 पर 2:47 में

ये ब्लॉग सनातन धर्म और हिंदुत्व की रक्षा के लिए है |इसका जीवंत प्रमाण यह कि ” गायत्री पर किये गए अपने आक्षेपों को ब्रह्मास्त्र समझने वाले ढोंगियों को इसमे ऐसा पाठ पढ़ाया गया है कि वे अपने विश्वविद्यालयों को भूलकर ‘ जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय ,जयपुर ‘ में आकर पढने की बात सोचेंगे |यह ब्लोगर का free ब्लॉग नहीं है |ज़रा पढ़कर तो देखें —

Chandan Priyadarśi

कहते हैं:

अप्रैल 29, 2013 पर 9:38 में

आचार्य जी आपको शत-शत नमन ‌‌__/\__

अद्भुत व अत्यंत ज्ञानवर्द्धक लेख, आशा करता हूँ कि महामुर्खों का उचित समाधान हो जाये और वे इस महामंत्र से स्वयम् का कल्याण कर सकें ।

व्यवस्थापक

कहते हैं:

मई 5, 2013 पर 4:29 pm

Chandan Priyadarshi जी सप्रेम जय श्रीराम ,आपने पढ़कर टिपण्णी की ,इसके लिए भूरि भूरि धन्यवाद

ऋचा Agrwal

कहते हैं:

अप्रैल 29, 2013 पर 10:24 में

कोटिशः नमन आचार्यवर |महामन्त्र गायत्री पर हुए आक्षेप बहुत ही कटुतापूर्ण ढंग से किये गए हैं ,जो भावनाओं को आहत कर रहे थे किन्तु आपके सटीक शास्त्रीय उत्तर से परम हर्ष का अनुभव हो रहा है ,ये आक्षेप्ता महामूर्ख होने के साथ हिन्दू धर्म के द्रोही भी लग रहे है ,किन्तु आपकी शास्त्र्मयी सिंहगर्जना इन्हें निष्प्राण कर चुकी है ,ऐसे ही प्रहार का उत्तर देते रहें जिससे हम सबका प्रेम स्व धर्म में और दृढ हो |

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2 comments:

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  2. यहां पर चर्चा विचार पढ़े लेकिन बड़ा दुख हुआ कि जो भाषा आचार्य जी बोल रहे हैं वह तो बड़ी ही हलकट है
    आप व्याकरण के विद्वान हो सकते हैं लेकिन आपकी भाषा अत्यंत ही नीच स्तर की है
    आप जैसे विद्वान को तो पता ही होगा कि वाणी से कुल का पता चलता है
    यह तो शास्त्र में ही लिखा हुआ है आपने भी पढ़ा होगा को
    आप अपने विरोधियों का विरोध करें लेकिन नीचा दिखाएं यह विद्वानों को शोभा नहीं देता
    भाषा हल्की काम में लेना विद्वानों को शोभा नहीं देता शास्त्र का ज्ञान होने से कोई कुलीन या विद्वान नहीं हो जाता यह आपने सिद्ध कर दिया है
    यहां पर शठे शाठ्यम समाचरेत वाली बात नहीं है၊
    आप सभ्य भाषा में भी अपनी बात कह सकते थे विरोधियों को विरोध जता सकते थे ၊ हो सकता है आप अपने समर्थन में हजार तर्क दें लेकिन बात तो आप समझ ही गए हैं ၊

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