-: गायत्री मन्त्र की अश्लीलता :-
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मंत्र :- ॐ भू: भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् |
-हिन्दू धर्म के गायत्री मंत्र और उसका का भावार्थ हम सदा से इस प्रकार सुनते आयें हैं,मगर संस्कृत भाषा की अनभिज्ञता,अल्पज्ञान या सीमितता के कारण हममें से अधिकांश लोगों ने इसके वास्तविक अर्थ को समझने की कोशिश शायद नहीं की हैं |
इस मंत्र के शब्दों के मूल अर्थ और इसके भावार्थ में बहुत अंतर है !
आज हम इसके प्रचलित भावार्थ की तुलना इसके वास्तविक अर्थ से करके जानेंगे की वास्तव में 'गायत्री-मन्त्र' की सच्चाई क्या है ?
भिन्न-भिन्न पण्डितों द्वारा किये गये 'प्रचलित भावार्थ' इस प्रकार है : -
१:- 'हे प्रभु, कृपा करके हमारी बुद्धि को ऊजाला प्रदान कीजिये और हमें धर्म का सही रास्ता दिखाईये।'
२:-'हे प्रभु ! आप हमारे जीवन के दाता हैं, आप हमारे दुख़ और दर्द का निवारण करने वाले हैं; आप हमें सुख़ और शांति प्रदान करने वाले हैं; हे संसार के विधाता हमें शक्ति दो कि हम आपकी उज्जवल शक्ति प्राप्त कर सकें कृपा करके हमारी बुद्धि को सही रास्ता दिखायें।'
३:- 'ईश्वर प्राणाधार, दुःखनाशक तथा सुख स्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें।'
नोट :-- गायत्री मंत्र के उपरोक्त जो भावार्थ किये गये है, यहाँ तीनों मन्त्रों में ऐसा लगता है की इस मंत्र द्वारा किसी सवितदेव (सूर्यदेव) से ज्ञान, दुख़ और दर्द का निवारण, सुख़ और शांति हेतु प्रार्थना की गयी है |
मगर इस मंत्र के हिन्दी भावार्थी शब्दों का मिलान यदि संस्कृत के श्लोक में आये शब्दों से करें तो किसी भी दृष्टि से यह भाव मेल नहीं खा रहा है | इस मंत्र में शब्दों के मूल अर्थ से बिल्कुल परे हटकर जो भावार्थ किया गया है वैसा भावार्थ कोई भी संस्कृत विद्वान जो 'गायत्री मंत्र' से अनजान हो, वैसा भावार्थ हरगिज नहीं कर सकेगा |'
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अब आईये और हम देखतें है 'गायत्री मंत्र' के प्रत्येक शब्द का विश्लेषणात्मक ढंग से अर्थ करने पर इसका मूल सरलार्थ क्या होता है ?
~गायत्री मंत्र के प्रत्येक शब्दों की अलग-अलग व्याख्या :-
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गायत्री मंत्र का प्रत्येक शब्दानुसार सरलार्थ :-
ॐ+ भूर्भुवः (भुः+ भुवः), स्वः+तत्सवितुर्वरेण्यं(तत्+सवित+उर+वरणयं), भर्गो=भार्गव/भृगु , देवस्य(देव+स्य), धीमहि+धियो+योनः+प्र+चोद्यात |
ॐ =प्रणव ।
भुः = भुमि पर ।
भुवः = आसीन/ निरापद हो जाना / लेट जाना [(भूर्भुवः=भुमि पर)]।
स्व= अपने आपको ।
तत्= उस ।
सवित= अग्नि के समान तेज, कान्तियुक्त की ।
उर=भुजाओं में ।
वरण्यं = वरण करना, एक दूसरे के / एकाकार हो जाना ।
भर्गोः देवस्य=भार्गवर्षि/ विप्र(ब्राहमण) के लिये ।
धीमहि= ध्यानस्थ होना /उसके साथ एक रूप होना / धारण करना | [(धी =ध्यान करना), (महि=धरा,धरती,धरणी,धारिणी के/से सम्बद्ध होना)
धियो =उनके प्रति/मन ही मन मे ध्यान कर / मुग्ध हो जाना / भावावेश क्षमता को तीव्रता से प्रेरित करना ।
योनः= योनि/ स्त्री जननांग ।
प्र= [उपसर्ग] दूसरों के / सन्मुख होना/ आगे करना / होना /समर्पित/समर्पण करना ।
चोदयात्= मँथन / मेथुन / सहवास / समागम / सन्सर्ग के हेतु ।
(नोट-मनुस्मृति में भी यह शब्द "चोदयात्" का इन्हीं अर्थों में कईं बार प्रयुक्त हुआ हैं|)
सरलार्थ:- हे देवी (गायत्री), भू पर आसीन (लेटते हुए) होते हुए, उस अग्निमय और कान्तियुक्त सवितदेव के समान तेज भार्गव विप्र की भुजाओं में एकाकार हो जाओ (उनका वरण कर लो); और मन ही मन में उन्ही के प्रति भावमय होकर उनको धारण कर लो और पूर्ण क्षमता से अपने जननांग को मैथुन हेतु उन्हें समर्पित कर दो |
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.....तो इस प्रकार हम देखते हैं की जिस 'गायत्री मंत्र' का अधिकांश हिन्दू लोग पूर्ण श्रद्धा के साथ सुबह-शाम और भोर को जगते ही ५-७-११-२१-१००८,१०,००८ इत्यादि बार जाप करते हैं, वो शायद इन्हीं भावों को जाने-अनजानें में व्यक्त करतें रहतें है !!!
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