अपना ब्लॉग Log In Search for:  अपना ब्लॉग रजिस्टर करें  मौजूदा ब्लॉगर्स लॉग-इन करें प्राणायाम और कुंडलिनी जागरण- भाग 2 December 6, 2013, 12:59 PM IST आलू प्रसाद in आलू प्रसाद | कल्चर एक बार फिर से क्षमा-याचना. कुंडलिनी-जागरण पर तो वह लिखे, जिसकी कुंडलिनी जागृत हो. सबसे पहले उन आचार्यों को नमन, जिन्होंने कुंडलिनी के दर्शन किये, और उसके बारे में शेष विश्व को बताया. अगर वह ऐसा न करते, तो साधारण मनुष्य तो कुंडलिनी का नाम भी न सुन पाते. हममें से अधिकांश लोगों ने अपने विद्यार्थी-जीवन में किसी कठिन प्रश्न को हल करने में कई दिनों तक उलझे रहने का अनुभव प्राप्त किया होगा. विशेष रूप से गणित के विद्यार्थियों के साथ ऐसा होना बहुत ही सामान्य सी बात है. किसी अध्याय के अंत में दिये गये अभ्यास हेतु प्रश्नों को हल करते-करते एक प्रश्न पर गाड़ी अटक जाती है; कुछ समझ में नहीं आता कि कैसे आगे बढ़ा जाय. क्योंकि उसके पहले के प्रश्न हम हल कर चुके होते हैं, इसलिये उस प्रश्न को हल करने में आ रही कठिनाई को हम चुनौती की तरह लेते हैं, और दिन-रात उसी के बारे में सोचते रहते हैं. बार-बार नये सिरे से हम उसे हल करने का प्रयास करते हैं, और बार-बार एक ही स्थान पर आकर रुक जाते हैं. हम सोचते रहते हैं कि गलती कहाँ हो रही है, पर कुछ हाथ नहीं आता. हम कई दिनों तक उसी प्रश्न की उधेड़बुन में लगे रहते हैं, और फिर अचानक हम उस प्रश्न को हल करने में सफल हो जाते हैं! इस प्रकार से किसी प्रश्न को हल करने का जो आनन्द है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता; उसे वही समझ सकता है, जो इस अनुभव से होकर गुज़रा हो. बाद में जब हम उस प्रश्न को देखते हैं तो हमें समझ में नहीं आता कि उसमें ऐसी क्या खास बात थी जिसके कारण हम हफ्तों उसमें उलझे रहे. यह भी नहीं समझ में आता कि अचानक वह सवाल हल कैसे हो गया! सवाल हल करने में हुई कठिनाइयों और फिर सवाल के अचानक हल हो जाने को हम एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं. ऐसा लगता है जैसे हम कोई गाँठ खोलने का प्रयास कर रहे हों; कभी नाख़ूनों का प्रयोग करते हैं, कभी दाँतों का, पर गाँठ है कि खुलने के स्थान पर उलझती ही जाती है. पर क्योंकि गाँठ का खुलना हमें ज़रूरी लगता है, इसलिये उसे लेकर हम कभी अपने से बलशाली व्यक्तियों के पास जाते हैं, और कभी बुद्धिमान लोगों के पास, पर सब बेकार सिद्ध होता है. और अचानक गाँठ का सही सिरा पकड में आ जाता है, और गाँठ खुल जाती है, और उसके बाद… आनंद– अपार आनन्द! जैसे हमारे ही अंदर कोई गाँठ उलझी हुई है, जो हमें समस्याओं के हल तक, और उससे उत्पन्न होने वाले आनन्द तक नहीं पहुंचने देती. अगर हम उस ग्रंथि को खोल सकें, तब हमारे लिये कुछ भी अज्ञात नहीं रह जायेगा. हम सदा ही ज्ञान के अथाह समुद्र में गोते खाते रहेंगे. और जहाँ ज्ञान है, वहीं तो आनन्द है! मुण्डक उपनिषद ऐसे ही आनन्द के विषय में कहता है: भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः, क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे। (2/2/8) जिसके हृदय की (वह) ग्रंथि खुल गयी है, जिसके सभी संशय छिन्न-भिन्न हो चुके हैं, जिसके सभी कर्मों का क्षय हो चुका है, उसकी दृष्टि ज्ञात-अज्ञात के परे (ब्रह्म तक) पहुंच जाती है! (जहाँ तक मैं समझ सका हूँ), ‘हृदय’ की उस ग्रंथि को ही, जिसके खुलते ही हर प्रकार के संशय स्वतः छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, ऋषियों ने कुण्डलिनी कहा है. ऋषियों ने कुंडलिनी का जो स्वरूप बताया है, उसके अनुसार कुंडलिनी एक सर्पिणी की तरह है, जो रीढ़ की हड्डी के नीचे स्थित चतुष्फलक (टेट्राहेड्रन) आकार के एक स्फटिक के समान पत्थर, जिसे ‘कूर्म’ कहा गया है, और जिसके ऊपर हमारा मेरुदंड टिका होता है, से लिपटी हुई है. कुंडलिनी कूर्म के ऊपर साढ़े तीन बार लिपटी हुई है, और इसका मुख नीचे की ओर है. अब हमारे यहाँ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सब-कुछ कविता में लिखा हुआ है, और कविता लिखने में रस, छन्द, अलंकार इत्यादि का ध्यान रखना ही पड़ता है. इसलिये कविताओं का भावार्थ और कभी-कभी तो शब्दार्थ भी निकालने के लिये अच्छी-खासी कसरत करनी पड़ती है. अब कुंडलिनी के भौतिक स्वरूप के बारे में जो बताया गया है, वह सब किसी टोमोग्राफी या एम आर आई स्कैन में नहीं दिखता, इसलिये दावे के साथ यह कहना कि यह सब सत्य है, बड़ा कठिन है. इस पर ऋषि-मुनियों का कथन है- यह सब इतना सूक्ष्म है कि भौतिक नेत्रों तथा सहायक उपकरणों से उनको देखना संभव नहीं है. कुंडलिनी के ही संदर्भ में और भी बहुत कुछ है, जो नहीं दिखता. मेरुदंड के भीतर नाड़ियों का एक तंत्र चलता है, जिनसे शरीर के दूर-दराज के अंग भी, जैसे हाथों और पैरों की उंगलियाँ तक सम्बद्ध हैं. कुछ नाड़ियाँ तो स्कैन में दिखती हैं. मेरुदंड के भीतर यह नाड़ियाँ कई जगह आपस में उलझी हुई दिखती हैं, जिनसे कुछ गाँठें बनी हुई हैं. इन गांठों के बारे में कहा गया है कि यह अन्नमय कोश की बन्धन-ग्रंथियाँ हैं- अन्नमय कोश भौतिक शरीर से इन्हीं ग्रंथियों द्वारा बँधा रहता है. मृत्यु के साथ यह गाँठें खुल जाती हैं, और अन्नमय कोश इस शरीर से अलग हो जाता है. इनके अलावा कुछ और सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं, जो किसी स्कैन में नहीं दिखतीं. इनके नाम हैं- इड़ा और पिंगला. इड़ा को चंद्रनाड़ी और पिंगला को सूर्यनाड़ी भी कहा गया है. यह नाड़ियाँ परस्पर लिपटी हुई मस्तिष्क से कूर्म तक चलती हैं. कूर्म पर आकर यह दोनो नाड़ियाँ मिल जाती हैं, और इस मिलन से एक तीसरी नाड़ी- सुषुम्ना की सृष्टि होती है. सुषुम्ना की एक धारा जो नीचे की तरफ चलती है, वह तो थोड़ी दूर चलने के बाद बंद हो जाती है, पर उसकी मुख्य धारा कूर्म से ऊपर वापस मस्तिष्क की ओर चल पड़ी है. मस्तिष्क के उच्चतम शिखर पर जाकर सुषुम्ना नाड़ी हज़ारों दिशाओं में फूट पड़ी है, और मस्तिष्क के चारो ओर बिखर गयी है. सुषुम्ना के अंदर भी तीन संकेंद्रित (concentric) नाड़ियाँ हैं. इनके नाम हैं- वज्रा, चित्रणी और ब्रह्मनाड़ी. वज्रा और चित्रणी एक प्रकार से ब्रह्मनाड़ी की सुरक्षा के लिये हैं. सुषुम्ना की जो धारा नीचे की ओर चली है, वह कूर्म को साढ़े तीन बार लपेट कर नीचे की तरफ मुंह किये हुए बंद पड़ी है. इसी संरचना को ऋषियों ने कुंडलिनी कहा है. एक बात जो ध्यान देने की है, वह यह है कि स्कैन इत्यादि में दिखने वाली नाड़ियों में जिन्हें nerves कहा जाता है, रक्त का प्रवाह होता है, पर ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना में केवल ऊर्जा (conciousness) का प्रवाह होता है, अतः यह nerves नहीं हैं. अब जिसे कुंडलिनी जागरण कहा गया है, उसका प्रथम चरण है- कुंडलिनी को कूर्म से अलग करना- वह गाँठ, जो सुषुम्ना नाड़ी ने कूर्म पर लगा रखी है, उसे खोलना; उसके बिना ऊर्जा का प्रवाह सुषुम्ना में चढ़ेगा ही नहीं. ऋषियों ने कुंडलिनी जागरण की कई विधियाँ बतायी हैं; यहाँ पर केवल प्राणायाम द्वारा कुंडलिनी जागरण की चर्चा की जायेगी. कुंडलिनी के स्वरूप का जो वर्णन ऋषियों ने किया है, वह संभवतः कुंडलिनी तक पहुंचने और उसे जागृत करने की दुरूहता को ध्यान में रख कर ही किया है. कुंडलिनी-जागरण कमज़ोर और अस्थिर मस्तिष्क वालों के लिये नहीं है, और ऐसे लोगों को इस मार्ग से दूर रखने के लिये ही शायद कुंडलिनी की गोपनीयता और उसकी जटिलता का इतना बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया है. कुंडलिनी के वर्णित स्वरूप में काव्यात्मकता जनित अत्युक्तियों की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. कुंडलिनी-जागरण के अनुभवों पर मिलने वाली पुस्तकें अधिकांशतः विदेशी लेखकों द्वारा और विदेशी पाठकों के लिये लिखी गयी हैं. एकमात्र भारतीय साधक द्वारा लिखी गयी पुस्तक, जिसका मुझे ध्यान आता है, पण्डित गोपी कृष्ण नाम के एक जम्मू के साधक द्वारा रचित है, जिसका नाम है- Kundalini: The Evolutionary Energy in Man. पाठक चाहें तो उसका आस्वादन कर सकते हैं. पण्डित गोपी कृष्ण ने कुंडलिनी-जागरण की उपलब्धि ध्यान के सतत अभ्यास द्वारा प्राप्त की थी, और उक्त पुस्तक में कुंडलिनी-जागरण के दौरान साधक को होने वाले विचित्र अनुभवों का बड़ा सजीव वर्णन है. योग के अभ्यास द्वारा कुंडलिनी-जागरण पर एक बहुत अच्छी पुस्तक स्वामी शिवानन्द द्वारा लिखित है. कुछ अन्य पुस्तकें हैं, जो कुंडलिनी के तान्त्रिक पक्ष पर हैं, जिनकी चर्चा न करना ही ठीक होगा, पर लगभग सभी पुस्तकें साधक को एक बिंदु पर ले जा कर छोड़ देती हैं, जिसके बाद साधक को सलाह दी जाती है कि आगे की साधना के लिये वह गुरु की शरण में जाय. वास्तव में बिना प्रत्यक्ष गुरु के इन साधनाओं में उतरना दुस्साहस ही कहा जायेगा. विद्वानों का वचन है कि अपने मन से किसी से सुनकर अथवा पढ़कर कुंडलिनी-जागरण की साधना में लग जाने में बड़े खतरे हैं. जिस प्रकार गंगा को पृथ्वी पर उतरने के लिये राजी करने के बाद गंगा के वेग को धारण करने के लिये भगीरथ को भगवान शिव को तैयार करना पड़ा था, उसी प्रकार यदि साधक का शरीर और मस्तिष्क कुंडलिनी का वेग और तेज सहन करने के लिये तैयार न हो, और वह मात्र हठ के बल पर कुंडलिनी को जागृत करने का प्रयास करता है, तो वह पागल होने अथवा अकस्मात् मृत्यु का खतरा उठा रहा है. अतः बिना गुरु के इन साधनाओं के चक्कर में न पड़ना ही यथेष्ट है. अब प्राणायाम द्वारा कुंडलिनी-जागरण के सिद्धान्त-पक्ष का वर्णन किया जाता है. यह वर्णन विद्वान आचार्यों द्वारा लिखित वर्णनों के लेखक की समझ पर आधारित है. लेख के प्रथम भाग (प्राणायाम प्रकरण) में लिखा गया है कि प्राणायाम में प्रवीणता का प्रमुख मापदंड है- साधक की प्राण-शक्ति को ईड़ा और पिगला नाड़ियों में उतारने की योग्यता. जब साधक एक निश्चित स्तर की प्रवीणता को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् 1:2:4:1 के अनुपात को बनाये रखते हुए एक निश्चित संख्या में और निश्चित समानुपातिक स्थिरांक के साथ बिना श्रम के सहज रूप में प्राणायाम होने लगें, तब प्राण को चेतना के साथ इन नाड़ियों में उतारने का प्रयास करना चाहिये. यह कार्य कब करना चाहिये, इसके सम्बंध में विद्वानों ने बहुत ही स्पष्ट निर्देश दिये हैं. प्राणायाम में प्रारम्भिक स्तर की प्रवीणता प्राप्त करने के क्रम में साधक को पसीना आता है, पर यह पसीना श्रम से उत्पन्न पसीने से कुछ अलग प्रकार का होता है. प्राणायाम के बाद इस पसीने को शरीर में मलने की सलाह दी जाती है. जब अभ्यास अगले स्तर तक पहुंचता है, तो शरीर में कंपन का अनुभव होता है. इससे उच्चतर स्तर पर जाने पर पहले कुछ धुएँ या कुहासे जैसी और तदुपरांत उनके पीछे से सूर्य के उगने जैसी अनुभूति होती है. जब यह अनुभूति होने लगे, तब यह समझना चाहिये कि अब साधक कुंडलिनी-जागरण की साधना के लिये तैयार है. अब सबसे पहले कुंडलिनी की ग्रंथि खोलने के लिये इड़ा और पिंगला मार्गों से प्राण को नीचे उतारकर उससे कुंडलिनी के मूल पर आघात करना पड़ता है. उसके साथ मूलबंध, उड्डियानबन्ध और जालंधरबन्ध लगाकर कूर्म पर नीचे से भी दबाव बनाया जाता है. इन क्रियाओं के सतत अभ्यास के बाद किसी दिन अकस्मात् कुंडलिनी की ग्रंथि खुल जाती है, और प्राण सुषुम्ना नाड़ी में पहुंचने लगता है. यह उपलब्धि होने के समय कैसा लगता है, यह जानने के लिये पण्डित गोपी कृष्ण की पुस्तक पढ़ें. अब थोड़ा ऊर्जा-चक्रों का वर्णन करना आवश्यक हो जाता है. इनके नाम हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार. इन चक्रों को मोटे तौर पर कुंडलिनी शक्ति के मार्ग में पड़ने वाले स्टेशनों के रूप में समझा जा सकता है. सुषुम्ना-मार्ग में चढ़ाई शुरु होने के बाद पहला पड़ाव मूलाधार चक्र का आता है, और अंतिम पड़ाव सहस्रार चक्र का. यह सहस्रार चक्र वही संरचना है जिसके बारे में ऊपर लिखा गया है कि व़हाँ सुषुम्ना नाड़ी सहस्रों दिशाओं में फैल गयी है. हमारा उद्देश्य क्रमशः इन चक्रों का वेधन करते हुए सहस्रार चक्र तक पहुंचना है. हर चक्र का एक स्थान, एक वर्ण, एक देवता, एक बीज, एक यंत्र और जाने क्या-क्या है, पर यह सब जानकारी बहुत तकनीकी है, और बिना साधना किये उसका मतलब भी समझ में नहीं आता. इतना जान लेना पर्याप्त है कि एक-एक चक्र के साथ एक-एक सिद्धि जुड़ी हुई है. अणिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ वैसे तो अपने-आप में बहुत बड़ी उपलब्धियाँ हैं, पर संतों ने इन्हें साधना-मार्ग के प्रलोभनों का ही दर्जा दिया है. कुछ साधक इन सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद सोचते हैं कि यही वह बल है, जिसके लिये वह साधना कर रहे थे, और ऐसा सोचने के साथ वह साधना छोड़ बैठते हैं. ऐसे लोग अत्यंत दुर्भाग्यशाली कहे जायेंगे, क्योंकि थोड़ा और चलने के बाद उन्हें अथाह स्वर्ण-भंडार मिलने वाला था, पर वह कांसे से संतुष्ट होकर लौट गये. कुंडलिनी शक्ति के सहस्रार चक्र के वेधन के अनुभव और उसकी प्राप्ति पर क्या कहा जाय?! ऋषियों ने उस स्थिति का केवल आलंकारिक वर्णन ही किया है. किसी ने कहा है कि सहस्रार चक्र में शिव शयनावस्था में होते हैं, और नीचे से जब कुंडलिनी शक्ति उनपर आघात करती है, तो शिव और शक्ति का मिलन होता है. किसी ने सहस्रार चक्र को शेषनाग के तुल्य बताया है, जहाँ भगवान विष्णु का निवास है. हमारे लिये इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि वहां जो कुछ प्राप्य है, वह अणिमा, लघिमा आदि सिद्धियों से भी कहीं मूल्यवान है, और अगर ऐसा कुछ है, तो उसे प्राप्त करने का प्रयास क्यों न किया जाय? यद्यपि कुंडलिनी-जागरण की उपलब्धि करोड़ों-अरबों में किसी एक को होती है, जैसा कि पण्डित गोपी कृष्ण ने अपनी पुस्तक में लिखा है- कुंडलिनी-जागरण के भ्रमित कर देने वाले अनुभवों के दौरान उन्हें सही मार्गदर्शन देने वाला कोई व्यक्ति नहीं मिला, पर गुरु के चरणों में बैठ कर श्रद्धा, विश्वास तथा अध्यवसाय के साथ साधना करने वाले को कुंडलिनी अपने आशीर्वाद से वंचित नहीं रखती, ऐसा ऋषियों का वचन है. डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं लेखक आलू प्रसाद एक ठो मामूली आदमी। घींच-घांच के एमए पास। छोटा-मोटा नौकरी। लिखने. . . और FROM WEB Upto 80% off on branded luxury watches.Hurry! Shoponista Help save 11-year-old girl from Cancer! Milaap Are you saving while renewing motor insurance TomorrowMakers FROM NAVBHARAT TIMES उपराष्ट्रपति: विपक्ष को फिर झटका देंगे नीतीश! NAVBHARATTIMES कोच पर अंतिम फैसला विराट कोहली का? NAVBHARATTIMES BJP सांसद की पुलिस को धमकी-मर जाओगे NAVBHARATTIMES FROM WEB  Nitin gifted his parents a foreign holiday HDFC Bank  Grow online business with targeted traffic COLOMBIA  Powerful. Agile. Intelligent. BMW  Maddy rocked his birthday with oldest buddies LiveInStyle  सिर्फ ३ दिनों में अपने चेहरे को सौम्य और गोरा बनायें! 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