Wednesday, 12 July 2017

क्षत्री शब्द पाली तथा प्राकृत भाषा मे खत्री

Skip to content Khatri Sabha NCR खत्री इतिहास अस्वीकरण यह लेख सिर्फ सूचना के उद्देश्य के लिए है और हमारी जाति के बारे में कुछ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि साझा करने के लिए है । हम एक समूह के रूप में , मनुष्य के बीच वर्ग या जाति के आधार पर भेद पर विचार करने के लिए गठबंधन नहीं कर रहे हैं | यह हमें एक अन्यायी समाज बनाने की दिशा में ले जाता है। हमें दृढ़ विश्वास है कि किसी भी जाति से संबंधित होने से पहले, हम भारतीय हैं और हम न केवल हमारी जाति के लिए परंतु सामान्य रूप में भी समाज के लिए अच्छा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। Contents [hide] 1 खत्री इतिहास 1.1 खत्री जाति का प्रादुर्भाव 1.2 खत्री जाति के संबंध में मूलभूत प्रष्न 2 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 3 भाषा 4 विभिन्न कुल 4.1 ढाई व चार घर खत्री 4.2 पंजा जातीय खत्री 4.3 छः जातीय खत्री 5 खत्रियों का जाति-गत परिचय 6 खत्रियों के विभिन्न समूहों का संक्षिप्त परिचय 6.1 पूर्विये खत्री 6.2 पछैयें खत्री 6.3 दिलवाली खत्री 6.4 आगरावाल खत्री 6.5 पंजाजाती खत्री 6.6 छह जाति खत्री 6.7 बारहजाती खत्री 6.8 सिखड़ खत्री 6.9 सरीन खत्री 6.10 खुखरान खत्री 6.11 अरोड़ा खत्री 6.12 भाटिया खत्री 6.13 लोहाणे खत्री 6.14 बाहुबल खत्री 6.15 सूद खत्री 6.16 ब्रह्मक्षत्री खत्री 7 खत्री संगठन खत्री इतिहास खत्री जाति का प्रादुर्भाव इतिहास अतीत के कृत्यों का क्रमबद्ध विवेचन है जिसे लिपिबद्ध करके स्थाई बना दिया जाता है इतिहास से हम जातियां की उन्नति और अवनति का कारण, उनकी सामाजिक, धार्मिक, सास्कृतिक अब राजनैतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इतिहास भविष्य की आशा, वर्तमान की प्रगति अब भूतकाल का निश्कर्ष है। खत्री जाति का इतिहास वास्तव में गौरवपूर्ण हैं। इस जाति के गौरव-पूर्ण इतिहास की चर्चा करते हुए हिन्दी के विद्वान लेखन खत्री श्याम संुदर दास ने लिखा है ”खत्री जाति का इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है। अत्यन्त प्राचीन काल से यह जाति द्विजातियों के द्वितीय वर्ग (क्षत्रिय) की प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित रही है। इसमें बड़े-बड़े शूरवीर, योद्धा, व्यापारी, विद्वान तथा धर्म-प्रवर्तक हुए जिनके इतिवृत्तों से भारतवर्ष के इतिहास के पन्ने रंजित हो रहे हैं। प्राचीन सूर्यवंश और चन्द्रवंश के ये उत्तराधिकारी हैं।“ इतिहास सम्बन्धी शोधपूर्ण प्रलेखों के आधार पर यह प्रमाणित किया गया कि ”खत्री ही प्राचीन आर्य क्षत्रियों के वंशज हैं। खत्री जाति के संबंध में मूलभूत प्रष्न खत्रियों के सम्बन्ध में दो प्रश्न महत्वपूर्ण बन गये हैं। प्रथम क्या क्षत्री और खत्री शब्दों की समानता संयोग मात्र है? द्वितीय कब, कैसे और क्यों एक महान योद्धा जाति व्यापार को अपनी जीविका का आधार बना बैठी? जहाँ तक प्रथम प्रश्न का सम्बन्ध है ‘क्षत्री’ और ‘खत्री’ शब्दों की समानता मात्र संयोग नहीं है। यह समानता भाषा विज्ञान के सिद्धान्तों के अनुरूप है। भारतीय तथा विदेशी विद्वान लेखकों के उदाहरण इसकी पुष्टि करते हैं। जब संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा तथा राजभाषा नहीं रही ‘क्ष’ शब्द पाली तथा प्राकृत भाषा के प्रचार में आने पर ‘ख’ में रूपान्तरित हो गया। संस्कृत में ‘क्ष’ का प्राकृत ‘ख’ में रूपान्तर लगभग सार्वभौमिक है तथा भाषा विज्ञान के सर्वमान्य नियमों पर आधारित है। सुप्रसिद्ध संस्कृत व्याकरणाचार्य वररूचि ने भी इसकी पुष्टि की है। प्रसिद्ध नाटककार भवभूति रचित नाटकों में संस्कृत ‘क्षत्रिय’ और उनके प्राकृत रूपान्तर ‘खत्रिय’ दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। सुप्रसिद्ध कवि कालिदास ने अपने नाटक ‘विक्रमोवर्षी’ के पाँचवें अंक में संस्कृत के ‘क्षत्रियस्य’ शब्द के लिए प्राकृत का ‘खत्रियस्य’ शब्द लिखा है। डा0 रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने भाषा विज्ञान पर अपने एक भाषण में कहा है। हिन्दी का ‘खत्री’ शब्द संस्कृत के ‘क्षत्रिय’ शब्द का विकृत रूप है। पंजाब में जो क्षत्रियों अथवा खत्रियों का मूल निवास स्थान है, की भाषा में ‘क्ष’ जैसा कोई अक्षर नहीं है। उसमें केवल उसका प्राकृत रूप ‘ख’ (गुरुमुखी में) ही मिलता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ब्लाचमैन की आईने अकबरी के फारसी संस्करण में लिखा है कि ‘वर्तमान युग में क्षत्रियों को खत्रियों के रूप में जाना जाता है।’ इसी पुस्तक के एक अन्य अनुवाद में लिखा है, ‘खत्री प्रायः 5 (के) जाति से भी अधिक हैं जन्में 52 जाति उच्च समझी जाती हैं किन्तु 12 घर उनमें भी श्रेष्ठ माने जाते हैं।’ प्रो0 एच0एस0 विल्सन ने भी इसे स्वीकार किया और कहा, ‘खत्री जिसका बिगड़ा हुआ रूप खत्रिय अथवा खतरी है, हिन्दी का शब्द है (संस्कृत क्षत्रिय है) जिसका अर्थ है दूसरी विशुद्ध जाति का व्यक्ति सैनिक एवं राजकुल जाति का।’ जिसका अर्थ है दूसरी जाति का व्यक्ति सैनिक एवं राजकुल जाति का।’ इसी दावे का समर्थन सर जार्ज कैम्पवेल ने भी किया है। उनके अनुसार मुझे ऐसा सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि वे (खत्री) वास्तव में उस सम्मान के श्रेष्ठतम दावेदार है। रेवरेण्ड शेरिंग ने अपनी पुस्तक हिन्द टाइब्स एण्ड कास्ट्स में स्पष्ट कहा है कि ”खत्री मूलतः पंजाब से आये जहाँ खत्री एवं क्षत्रिय इन दोनों नामों में कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता है।“ उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि ”खत्री“ शब्द संस्कृत के ”क्षत्रिय“ शब्द का आधुनिक रूप है और जब तक मानव विज्ञान तथा व्याकरण के नियमों की पूर्ण उपेक्षा न की जाये यह नहीं कहा जा सकता कि नाम सम्बन्धी समरूपता संयोग मात्र है। राजपूत यदि अपने को ही शुद्ध क्षत्रिय मानते हैं तो यह भ्रामक है। फारसी में लिखित भारत का इतिहास तारीख-ए-फरिश्ता में लिखा है ”ब्राह्मण और क्षत्रिय वैदिक कालीन वंश हैं। राजपूत एक आधुनिक वंश है। यह एक तथ्य है कि महान राजपूतों के किसी वंश का उल्लेख चतुर्थ शताब्दी से पहले नहीं मिलता।“ श्री रमेश चन्द दत्त ने भी अपनी पुस्तक हिस्ट्री आॅफ सिविलाइजेशन इन इंडिया में लिखा है कि ”राजपूत लोग भारत पर आक्रमण करने वाले सिथियानों के वंशज हैं जो क्रमागत अनेक शताब्दियों तक भारत में आते रहें।“ सर्वप्रथम ईश्वर का स्मरण करके प्रश्नोत्तर के माध्यम से अपनी बुद्धि के अनुसार खत्रियों/क्षत्रियों के हितार्थ रीति-रिवाज़ लिपिबद्ध कर रहा हूँ। आशा करता हूँ कि यह सभी खत्री भाइयों व शक्तिरूपा माओं के लिए लाभकारी सिद्ध होंगी। भाषा खत्री द्वारा बोली जाने वाली भाषा से दूसरे राज्य में भिन्नता है। पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में, पंजाबी, उनकी पहली भाषा है, और गुरुमुखी लिपि इसे लिखने के लिए प्रयोग किया जाता है| हालांकि, जम्मू- कश्मीर राज्य में हैं, वे भी डोगरी और Bhadrawahi बोलते हैं। हिंदी, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में प्राथमिक भाषा है, देवनागरी लिपि इसे लिखने के लिए प्रयोग किया जाता है| वे बिहार में मैथिली बात करते हैं, मेवाड़ी या मारवाड़ी, राजस्थान में, हिमाचल प्रदेश में पहाड़ी और गुजरात में Kacchi का प्रयोग किया जाता है | अधिकांश खत्री भी हिन्दी भाषा में धाराप्रवाह हैं और कई धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हैं। विभिन्न कुल खत्रियों के विभिन्न कुल हैं। माना जाता है यह कुल शुरू में ढाई घर, चार घर, पंच जटिया , छह जातीय खत्री थे । धीरे धीरे, व्यवसायों की विविधता, क्षेत्र की विविधता , भाषा की विविधता, आदि की वजह से कई अन्य कुल बने जो बारह घर खत्री , Bavanjai खत्री , अरोड़ा खत्री , भाटिया खत्री , Dilwali खत्री , सरीन खत्री , Khukran खत्री , Lohane खत्री , Bahubal खत्री , सूद खत्री , Barhmakshatri खत्री , अग्रवाल खत्री आदि थे । खत्रियों के कुछ अल्लें, कुलदेवता, गोत्र, वेद व पुरोहितों के नाम निम्न प्रकार हैं ढाई व चार घर खत्री अल्लकुलदेवतागोत्रवेदपुरोहित कपूर/चंन्द्रवंशीचंडिकाजीकौशिकयजुर्वेदसारस्वत सेठ/चंन्द्रवंशीबाबा शिबाऊवत्सयजुर्वेदकुमड़िये मेहरे/सूर्यवंशीशिवाकौशल्ययजुर्वेदजेतली रवन्ने/अग्निवंशीचंडिकाजी व बाबालालूजसरायकौशलयजुर्वेदझिंगरन पंजा जातीय खत्री अल्लकुलदेवतागोत्रवेदपुरोहित वाहीचंडिकाजीकश्यपयजुर्वेदहांसले विज्ज/विज़चंडिकाजीभार्गवयजुर्वेदहांसले बहलचंडिकाजीभारद्वाजयजुर्वेदभारते बेरीचंडिकाजीऔलश्ययजुर्वेदबग्गे सहगलचंडिकाजीकौशल्ययजुर्वेदमोहितो छः जातीय खत्री अल्लकुलदेवतागोत्रवेदपुरोहित बैजल एवं तालवाड़सेठ/चंद्रवंशीवाराही माताहंसलसयजुर्वेदत्रिक्खे विज्ज/विज़शिवाऊवत्सयजुर्वेदकुमड़िये बहलयोगमायाऋषिश्रंगयजुर्वेदकालिये बेरीचंडिकाजीअंगरिसयजुर्वेदझिंगरन सहगलशिवावत्सयजुर्वेदभटूरिये सहगलचंडिकाजी, दियावजी, वरूणदेवकश्यपयजुर्वेददुब्बे, जोशी खत्रियों का जाति-गत परिचय आधुनिक विद्वानों ने खत्रियों का मूल सम्बन्ध आर्य जाति से निर्धारित किया है। इन विद्वानों का मानना हैं कि खत्री जाति की उत्पत्ति आर्यों की किसी जनजाति से हुई थी। जो प्राचीनकाल में सरस्वती नदी को घाटी में बस गई थी। वह बड़ी वीर, साहसी तथा युद्ध-कुशल जाति थी। आर्यों के इतिहास के प्रारम्भिक दौर में जन्मना जाति की व्यवस्था स्थापित नहीं हुई थी तथा द्विज आवश्यकतानुसार कर्म के द्वारा एक वर्ण से दूसरे वर्ण में स्थान पा सकते थे। क्षत्रिय क्रियात्मक वर्ण माना जाता है। इस देश की समुन्नत जातियों में परम्परा से ही खत्री जाति का अपना सम्मानित स्थान रहा है। वैदिक आर्य क्षत्रियों के प्रारम्भिक काल में सूर्यवंश और चन्द्रवंश दो ही कुल थे। आगे चलकर ऋषि अंगिरा ने अपनी प्रतिभा से प्रसिद्धि पाई और सूर्यवंश, चन्द्रवंश के अनेक परिवार उनके अनुयायी बनते गये तथा आगे चलकर अग्निकुल के नाम से यह तीसरा कुल प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रकार चन्द्रवंश के राजा नहुष के परिवार में जन्में ययाति के पुत्र यदिु से एक अलग शाखा चली जो आगे चलकर यदुवंशी कहलाये। इस प्रकार वैदिक आर्य क्षत्रियों के सूर्यवंश, चन्द्रवंश (सोमवंश) अग्निवंश और यदुवंश चह चार कुल प्रसिद्ध हुए। क्षत्रियों के आपसी युद्धों के कारण इनके प्रताप के क्षीण होते जाने से, ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच संघर्ष, बौद्धधर्म के बढ़ते प्रभाव एवं बौद्धधर्म के राज्यधर्म होने से, क्षत्रियों के बीच संघर्ष, बौद्धधर्म के बढ़ते प्रभाव एवं बौद्धधर्म के राज्यधर्म होने से, क्षत्रियों और ब्राह्मण दोनों को उनके प्रति फल भोगने पड़े। क्षत्रियों के राज्य छीने गये और उन पर भीषण अत्याचार हुए। जिन क्षत्रियों ने इन बौद्ध राजाओं (जिनमें शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न पुत्र महापद्मनन्द भी था) से पारिवारिक रिश्ते कायम करने का विरोध किया, उन्हें विशेष रूप से उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। अपमानों के कड़वे घूँट पीते-पीते और अत्याचारों संघर्ष करते हुए बहुत से वैदिक परिवार पंजाब में आकर बस गये। अपने वैदिक धर्म तथा रक्त की रक्षा हेतु इन्होंने अपने को क्षत्रिय का प्राकृत रूप खत्री कहना प्रारम्भ किया। अपने वंश को भी छिपाये रखने के लिये इन्होंने सूर्यवंश के स्थान पर सूर्य के ही दूसरे नाम ‘मिहिर’ को अपनाकर अपने को मिहिरोत्तर या मेहिरोत्तर (अर्थात सूर्यवंश के उत्तराधिकारी) कहना प्रारम्भ किया। जो आगे चलकर मेहरोत्रा, मल्होत्रा और मेहरा नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार चन्द्रवंशी क्षत्रियों ने चन्द्रमा का दूसरा नाम कर्पूर अपना लिया जो आगे चलकर कपूर नाम से प्रसिद्ध हुआ। अग्निवंश का भी आगे चलकर विभाजन हुआ और जो परिवार ब्राह्मण रहे, वे अग्निहोत्री कहलाये और जो क्षत्रिय बने वे खण्ड परिवार के सदस्यों के रूप में जाने गये जो आगे चलकर खन्ने कहे जाने लगे। चूँकि यह परिवार खण्ड हुआ था। इस कारण इसे आधा भी माना गया, इस प्रकार सूर्यवंश, चन्द्रवंश और अग्निवंश को ढाई कुल भी कहा गया, परन्तु वास्तव में ये तीन कुल ही थे। यदुवंशी कुल को हैहय और तालङ्घ दो प्रमुख शाखाएँ प्रसिद्ध हुई इन्हीं में आगे चलकर राजा ऋषि ‘अन्धक’ बड़े प्रभावशाली राजा हुये हैं। इनके चार पुत्रों में एक ‘कुक्कर’ नाम का पुत्र था इनके वंशल कौक्कुर नाम से प्रसिद्ध हुए। यही शब्द बिगड़कर कक्कड़ बन गया। इस प्रकार क्षत्रियों के सूर्यवंश, चन्द्रवंश और अग्निवंश की भाँति क युदुवंश भी प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध वंश था और ऊपर के तीन वंशों के साथ इस चैथे वंश का मेल आवश्यक समझा गया। इस प्रकार कक्कड़ों के जो परिवार इस समूह में आकर मिलते गये वे ‘श्रेष्ठ’ कहलाये जो आगे चलकर ‘सेठ’ नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार वैदिक आर्य क्षत्रियवों के चारों कुल सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, अग्निवंशी और यदुवंशी के उत्तराधिकारियों के रूप में जो समूह बना वे मेहरोत्रा, कपूर, खन्ना और सेठ के रूप में ‘चैजातीय खत्री’ कहलाये। वैसे समस्त खत्री जाति के पूर्व सम्बन्ध क्षत्रियों के इन चार कुलों से ही है। वंशवृद्धि, सैनिक क्षेत्र के अलग-अलग विभागों में प्राप्त ख्याति, स्थानीय नामों से बनने वाली पहचान तथा जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अनेक परिवारों की प्रसिद्धि से खत्रियों की सैकड़ों नयी-नयी अल्लें बन गयी। नयी-नयी अल्ले इस प्रकार बनती हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण नेहरू परिवार है:- श्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है ‘यश और धन’ कमाने के इरादे से काश्मीर की सुन्दर घाटियों से नीचे मैदानों में हमारे जो पुरखे सबसे पहले आये उनका नाम था ‘राजकौल’। राजकौल को एक मकान और कुछ जागीर दी गई। मकान नहर के किनारे था इसी से उसका नाम ‘नहर रू’ पड़ गया। कौल जो उनका कौटुम्बिक नाम था बदलकर कौल-नहरू हो गया और आगे चलकर कौल तो गायब हो गया और हम महज नहरू रह गये। वैदिक आर्य क्षत्रियों की मूल सन्तानें होते हुए भी जिस प्रकार खत्रियों की नयी-नयी अल्लें बनती गई, उसी प्रकार खत्रियों के अनेक बड़े-बड़े समूह भी बनते गये। आगे चलकर इन समूहों ने स्वतंत्र समूह के रूप में ख्याति प्राप्त की। इनके प्रमुख समूह थे पूर्विये खत्री, पछहियाँ खत्री (लहौरिये चैजाति), दिलवालिये खत्री, आगरे वाले खत्री, पंजाजाती खत्री, छह जाती खत्री, वारहजाती खत्री, सिखड़ा खत्री सरीन खत्री, खुखुरान खत्री, अरोड़ा खत्री, भाटिया खत्री, लोहणे खत्री, बाहुबल खत्री, सूद खत्री एवम् ब्रह्म क्षत्री आदि। कुछ दशक पूर्व तक खत्री समाज की यह दशा हो गई कि सभी खत्री एक ही मूल धारा की उत्पत्ति होते हुए तथा सभी के पुरखे पंजाब के आदि निवासी होने पर भी विभिन्न पेशों को अपनाने, अलग-अलग स्थानों पर बसने तथा अन्य विभिन्न कारणों से ये समूह अलग-अगल से लगने लगे। अपने पुरातन सम्बन्धियों से इतने दूर हो जाने तथा आपस में बहुत समय तक कोई सम्बन्ध न रहने के कारण, एक समूह दूसरे के साथ वैवाहिक सम्बन्ध करने में भी संकोच करने लगा। खत्रियों के विभिन्न समूहों का संक्षिप्त परिचय पूर्विये खत्री पिछली कई शताब्दियों पूर्व से 16वीं शताब्दी तक पंजाब से आकर पूरब के मैदानी इलाकों में बस जाने वाले खत्रियों के वंशज पूर्विये खत्री कहे जाने लगे। पूर्विये का सामान्य अर्थ है: पूर्व की ओर पहले आने वाले। पछैयें खत्री 17वीं शताब्दी से 19वी शताब्दी के मध्य पंजाब से आकर पूरब में कलकत्तें तक बस जाने वाले परिवार पछहियाँ खत्री कहलाने लगे। इन्हें लाहौरिया चैजाति भी कहते हैं। इनमें मेहरोत्रा, कपूर, खन्ने और सेठ अल्लों के परिवार हैं। पछैयें का सामान्य अर्थ है: पश्चिम से पूर्व की ओर बाद में आने वाले अथवा पश्चात् (पीछे) आने वाले। दिलवाली खत्री कुछ लोगों का कथन है कि सभी प्रान्तों से आकर दिल्ली में बस जाने के कारण यह परिवार दिलवाली खत्री कहलाये, परन्तु विद्वानों का मत है कि प्राचीन सीमाप्रान्त में एक दिलवाल नाम स्थान था। वहाँ के निवासी खत्री परिवार ही दिलवाली खत्री कहलाते हैं। इनमें सात अल्लें सम्मिलित हैं। मेहरा, कपूर, सेठ, टण्डन, कक्कड़, सेठ-कक्कड़ तथा महेन्द्र। आगरावाल खत्री यह भी चैजाति खत्री हैं और इनमें भी ढाई घर, चार घर होते हैं। लाहौरियों से इनमें भेद इतना है कि पछहियों में सेठ शामिल हैं। जबकि आगरावाल में मेहरोत्रा, कपूर, खन्न और टण्डन होते हैं। राजा टोडर मल टण्डन आगरावाल खत्री थे, ऐसा माना जाता है। पंजाजाती खत्री पंचनद प्रदेश के आदि निवासियों के वंशज इस नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें पाँच अल्ले हैं-बेरी, बहल, बिज तथा सहगल। इनकी भाषा, कार्य-व्यवहार और प्रथायें लाहौरिये-चैजाती समूह के अति निकट मानी जाती है। छह जाति खत्री अमृतसर तथा लाहौर के कुछ खत्री छह जाती खत्री हैं, इनकी अल्ले हैं-टण्डन, धवन, चोपड़ा, तलवार, कक्कड़ तथा बोहरा तथा बहोरे। बारहजाती खत्री बारह जाती खत्रियों में है-टंडन, तलवार, धवन, कक्कड़, महेन्द्र बहल, बिज, चोपड़ा, सहगल, बोहरा, बधावन तथा सूर। सिखड़ खत्री जिन परिवारों ने गुरू नानक जी व गुरू गोविन्द सिंह जी का सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया, वे सभी सिखड़ा खत्री कहलाये। सरीन खत्री ‘अशरफुल तवारीख’ ग्रन्थ के अनुसार सरीन ‘शरअ ए आईन’ का अपभ्रंश है जिसका अथ है मुसलमानी कानून के मानने वाले। विधवा-विवाह के सम्बन्ध में सम्राट अलाउद्दीन खिलजी की राजाज्ञा पर उनके मंत्री उधारमल खत्री एवं अन्य जिन परिवारों ने अपनी स्वीकृति अथवा हस्ताक्षर कर दिये, उन्हे विधवा-विवाह के विरूद्ध संघर्षरत खत्री परिवार नींची निगाह से देखने लगे तथा उन्हें ‘शरअ ए आइन’ कहने लगे। यही शब्द बाद में सरीन हो गया। यह भी सच है कि स्वीकृति देने के बाद भी उस समय इन परिवारों ने भी विधवा-विवाह को कार्य रूप नहीं दिया सरदार बहादुर अमीन चन्द ने भी अपने ग्रन्थ ”तवारीखे कौम क्षत्रियान“ में भी इसी प्रकार लिखा है। खुखरान खत्री पंजाब में खोखर नामक एक ग्राम था। वहां के निवासी होने के कारण उन परिवारों के वंशज खुखरान खत्री कहलाये। इनके 9 अल्लों के खत्री हैं - आनन्द, भसीन, सूर, साहनी, चढ्ढा, कोहली, सेठी, केरी और सब्बरवाल। देश-विभाजन के पूर्व इनकी बड़ी संख्या अफगानिस्तान, फारस की खाड़ी के देशों, सीमाप्रान्त और पश्चिमी पंजाब में बसी थी। पेशावर और लाहौर दो इनके प्रसिद्ध गढ़माने जाते थे। बँटवारे के समय इन्हें बहुत कष्ट सहने पड़े। हजारों खुखरान खत्री कट मरे, बहुतों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। आज भी मुस्लमान कबाइली, अफरीदियों मे अब्दुल रज्जाक साहनी, अब्दुल रहमान कोहली और सुलेमान चढ्ढा आदि नाम मिलते हैं। मुस्लिम प्रदेशों में रहने तथा निकट सम्पर्क के कारण इनकी पोशाक तथा रहन-सहन यहाँ के खत्रियों से भिन्न भले ही हों, परन्तु हिन्दुत्व की भावना इन परिवारें में कूट-कूट कर भरी है। अरोड़ा खत्री पंडित हीरा चन्द्र ओझा, श्री मोहन प्रसाद जी (वकील हजारीबाग) तथा श्री नारयण प्रसाद जी अरोड़ा के अनुसार अरोडे़े पंजाब में बसे खत्रियों की एक शाखा है। पंजाब से उखड़ने पर जो खत्री सिन्धु में बस गये और उन्होंने वहाँ अपने राज्य स्थापित किये। उन्हीं में से एक राजा था ‘शात्य’ उसने अपने राज्यकाल में सिन्धु नदी के तट पर एक नगर बसाया जिसका नाम उसने अरोर या अरोड़ रखा जिसकी राजधानी अलौर थी। इनके वंशज अरोड़ नामक स्थान के निवासी होने कारण अरोड़वंशी या अरोड़ा कहलाये। खत्रियों और अरोड़ों में सामाजिक सामान्यतायें बहुत अधिक हैं और वे एक समान संस्कारों का पालन भी करते हैं। समस्त अरोड़ों का गोत्र ‘कश्यप’ है। भाटिया खत्री जो भाटिये पंजाब के हैं, वे अपने को खत्री मानते हैं और जो भाटिये राजपूताने के हैं, वे अपने को राजपूत मानते हैं। पंजाब के खत्री भाटिये राजपूत कहे जाने वाले भाटियों से विवाह-सम्बन्ध नहीं करते हैं। भाटिया शब्द की उत्पत्ति की एक कथा के अनुसार परशुराम के भय से कुछ क्षत्रिय परिवार भाग कर भटनेर ग्राम में जा छिपे थे, उसी स्थान के नाम पर उनके वंशज भाटियां कहलायें। लोहाणे खत्री यह खत्री नागपुर की ओर के हैं। इनकी अल्लों में सेठ, खन्ना, कपूर, चोपड़ा तथा नन्दा हैं। सारस्वत ब्राह्मण इनके पुरोहित हैं। लोहाणे नाम पड़ने की कथा कुछ इस प्रकार है। सिन्ध देश में कुछ क्षत्रिय राजा जयचन्द्र के प्रतिकूल हो गये थे। दुर्गा दत्त नाम सारस्वत ब्राह्मण ने 84 क्षत्रियों के साथ 21 दिनो तक एक लोहे के किले में रह कर तपस्या की। तपस्या के बाद बाहर निकलने पर इन क्षत्रियों के परिवार लोहाणें कहलाने लगे। बाहुबल खत्री इनके बारे में कोई प्रमाणिक लिखित विवरण प्राप्त नहीं हो सका है। सूद खत्री सूद भी अपने को खत्री मानते हैं। सन् 1815 ई. में लुधियाना से प्रकाशित ‘रिसालये सूद’ पत्र के अनुसार इनका रूप-रंग, इनके संस्कार, शूरता, बुद्धि, प्रतिभा तथा व्यवहार कुशलता सब खत्रियों की ही भाँति है। खत्रियों से बहुत दिनों तक इनका सम्बन्ध टूटा रहा, परन्तु इनका अस्तित्व पुराना है। और यह खत्री ही हैं। ब्रह्मक्षत्री खत्री भारत में खत्रियों की कई उप जातियाँ हैं। उनमें ब्रह्म क्षत्री भी एक उपजाति है। इनकी विशेष बस्ती, पंजाब, कच्छ, काठियाबाड़, गुजारात, मध्यभारत, बम्बई और मारवाड़ में है। निवास-स्थान परिवर्तन से इनके रहन-सहन में विभिन्नता आ गई है, तो भी जनेऊ, विवाह आदि संस्कारों और रीति-रिवाज इनके खत्रियों के समान ही हैं। ब्रह्मक्षत्री खत्री परिवारों में भी विवाह के समय तलवार या कटार धारण करते हैं, सेहरा बांधते हैं और विवाह के पूर्व कन्य वर को वरमाला पहनाती है। इनकी जाति-परम्परा क्षत्रित्व की सर्वोत्कृष्ट स्मारक है। सारस्वत ब्राह्मण ही इनके कुल पुराहित होते हैं। साधरणतः ब्रह्मक्षत्री खत्री, देवी के उपासक होते हैं। ब्रह्मक्षत्रियों की व्युत्पत्ति की अनेक कथायें हैं, परन्तु आधुनिक लेखकों का मत है कि बौद्धों के आतंक और यवनकाल के उत्पीड़न से अपने शुद्ध खत्री रक्त की रक्षा करने के लिए कुछ खत्री परिवार दक्षिण भारत तथा गुजरात में बस गये। मुस्लिमों के दक्षिण और गुजरात विजय के उपरान्त वर्णसंकर जातियों से अपने रक्त की रक्षा करने के लिए इन क्षत्रियों (खत्रियों) ने अपने को ब्रह्मक्षत्री घोषित किया। उत्तर भारत के खत्रियों और ब्रह्मक्षत्रियों में बहुत कम भेद हैं। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि खत्री समाज में समूहों के आधार पर हुये विभाजन के कारण समाज में संकीर्णता का दायरा छोटा होता गया और एक समय वह आया जब खत्रियों में अपने-अपने समूह के अन्दर ही पारिवारिक और वैवाहिक रिश्ते सीमित रखने का नियम बन गया। खत्री समाज को इस अधोगति से बाहर निकालने के लिए अखिल भारतीय खत्री महासभा को सन् 1936 के अपने लखनऊ सम्मेलन में निम्नांकित प्रस्ताव पारित करना पड़ा। खत्री संगठन अखिल भारतीय खत्री महासभा के सत्र 1916, 1936, 1952 में लखनऊ में आयोजित की गई और 1980 लखनऊ खत्री सभा 1927 में पत्रिका के प्रकाशन , "Khatri Hitaishi" 1936 में शुरू किया गया था स्थापित किया गया था।  Home Contact us

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