श्रीमद्वल्लभाचार्यजी और प्रेम का पन्थ पुष्टिमार्ग ARCHANA AGARWAL 6 MAR 2016 भाग्यन वल्लभ भूतल आये। कर करुणा लक्ष्मण गृह कलि में व्रजपति प्रकट कराये। चिंता तजो भजो इनके पद महापदारथ पाये। दास जनन के सकल मनोरथ पूरेंगे मन भाये। साधन कर जिन देह दुखावो ये फलरूप बताये। रहो शरण पर दृढ़ मन कर सब अब आनन्द बधाये। तन मन धन न्योछावर इन पर कर क्यों न देहो उडाये। रसिकदास बड़भागी तेजे श्रीवल्लभ गुण गाये।। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव भारतभूमि पर उस समय हुआ जब भारतीय संस्कृति संक्रान्तिकाल से गुजर रही थी। भारतीय संस्कृति पर चारों ओर से यवनों के आक्रमण हो रहे थे। समाज में भगवान के प्रति अनास्था, संघर्ष व अशान्ति फैली हुई थी। लोगों के जीवन में आनन्द तो दूर रहा, कहीं भी न तो सुख था और न शान्ति। ऐसे समय में साक्षात् भगवदावतार श्रीमन्महाप्रभुजी श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने अवतरित होकर भारतवासियों के जीवन को रसमय और आनन्दमय बना दिया।  श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ‘अग्नि अवतार’ (वैश्वानरावतार) एवं भगवान श्रीनाथजी के वदनावतार प्रत्येक अवतार में अलौकिकता विद्यमान रहती है। उसमें प्रादुर्भाव भी आश्चर्यजनक होता है और गमन भी आश्चर्यजनक। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के पूर्वज दक्षिण भारत के आन्ध्रप्रदेश में कृष्णानदी के तट पर बसे काँकरवाड़ गाँव में निवास करते थे।इनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मणभट्ट और माता का नाम श्रीइलम्मागारू था। वे तैलंग ब्राह्मण थे और कृष्ण यजुर्वेद की तैतरीय शाखा के अंतर्गत आपका गोत्र भारद्वाज और सूत्र आपस्तम्ब था। श्रीवल्लभ के पूर्वज बालगोपाल की भक्ति करते थे। श्रीलक्ष्मणभट्टजी की सातवीं पीढ़ी से सभी लोग सोमयज्ञ करते चले आ रहे थे। कहा जाता है कि जिसके वंश में सौ सोमयज्ञ पूरे हो जाते हैं, उसके कुल में भगवान का या भगवदीय महापुरुष का आविर्भाव होता है। ऐसे 32 सोमयज्ञ पूरे हुए तब यज्ञकुण्ड में से दिव्य वाणी प्रकट हुई कि जब 100 सोमयज्ञ पूर्ण होंगे तब आपके कुल में साक्षात् श्रीपुरुषोत्तम प्रकट होंगे। श्रीलक्ष्मणभट्टजी के समय में 100 सोमयज्ञ पूर्ण होने से श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के रूप में भगवान आपके यहां प्रकट हुए। इनके जन्म के विषय में कहा जाता है कि इनके पिता श्रीलक्ष्मणभट्टजी तीर्थयात्रा के लिए उत्तर भारत का भ्रमण कर रहे थे। काशी पर यवनों का आक्रमण होने के कारण वे काशी छोड़कर अपने यात्रा दल के साथ मध्यप्रदेश के चम्पारण्य (अब छत्तीसगढ़ में) नामक स्थान पर पहुँचे। वहां इनकी माता श्रीइलम्मागारूजी को प्रसववेदना हुई। वे वहीं एक अरण्य में रुक गये। वहां विक्रम संवत 1535 वैशाख कृष्ण एकादशी शनिवार को एक शमी वृक्ष के नीचे सात माह का बालक प्रकट हुआ। बालक को चेष्टाविहीन देखकर माता-पिता ने उन्हें मृत समझकर पत्तों में लपेटकर शमीवृक्ष के कोटर में रख दिया और आगे चौड़ा गांव चले गये। वहां रात्रि में उन्हें स्वप्न में ज्ञात हुआ कि जिस नवजात शिशु को मृत समझकर पत्तों में लपेटकर अरण्य में छोड़ आये हैं, वह तो सौ सोमयज्ञों के बाद होने वाला भगवान का प्राकट्य है। वे पुन: लौटकर चम्पारण्य आये। माता श्रीइलम्मागारूजी अपने पति को साथ लेकर शमीवृक्ष के पास पहुँची तो देखा कि एक सुन्दर बालक सकुशल अग्नि के घेरे में खेल रहा है। बालक की सुन्दरता मन को मोह रही थी। माता उसे लेने आगे बढ़ी तो अग्निदेव ने रास्ता दे दिया। तत्क्षण माता ने बालक को गोद में उठा लिया। वही बालक आगे चलकर श्रीमन्महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वयं अग्निदेव ने प्रकट होकर श्रीलक्ष्मणभट्टजी से कहा कि मैं ही तुम्हारे पुत्ररूप में प्रकट हुआ हूँ। इसीलिए श्रीमद्वल्लभाचार्यजी पुष्टिसम्प्रदाय में वैश्वानरावतार माने जाते हैं।  कवि हरिजीवन ने श्रीमन्महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी की वंदना करते हुए कहा है– आज जगती पर जय जयकार। अधम उधारन करुणासागर प्रगटे अग्नि-अवतार।। एक अन्य आश्चर्यजनक बात यह है कि जब चम्पारण्य में माँ श्रीइलम्मागारूजी की कोख से श्रीमद्वल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव हुआ; ठीक उसी दिन, उसी समय श्रीगोवर्धन पर्वत पर प्रभु श्रीनाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ। इसीलिए श्रीमद्वल्लभाचार्यजी को प्रभु श्रीनाथजी का ‘वदनावतार’ कहा गया है। भक्त सगुणदास ने भी ‘प्रगटे जान पूरन पुरुषोत्तम’ कहकर आपके अवतार की पुष्टि की है। प्रगटे कृष्णानन द्विज रूप। माधव मास कृष्ण एकादशी आये अग्नि सरूप। दैवी जीव उद्धारण कारण आनन्दमय रस रूप। वल्लभ प्रभु गिरिधर प्रभु दोऊ तेई एई एक स्वरूप।। बालक वल्लभ अद्भुत प्रतिभा और सौंदर्य से सम्पन्न होने के कारण सबका प्रिय था। पाँच वर्ष की आयु से श्रीवल्लभ ने पिता के पास विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। छठे वर्ष में उन्हें पिताजी ने श्रीगोपालमन्त्र सहित विष्णुस्वामी सम्प्रदाय की दीक्षा प्रदान की। विष्णुचित्, तिरुम्मल और माधव यतीन्द्र की शिक्षा से बाल्यावस्था में ही श्रीवल्लभ समस्त वैष्णव-शास्त्रों में पारंगत हो गये और लोगों ने उन्हें ‘बालसरस्वती वाक्पति’ कहना आरम्भ कर दिया। तेरह साल की अवस्था में वे वेद, वेदांग, पुराण, धर्मशास्त्र आदि में पारंगत हो गये। श्रीवल्लभाचार्यजी के चरित्र-विकास पर विष्णुस्वामी-सम्प्रदाय के भक्ति सिद्धान्तों का अधिक प्रभाव पड़ा। श्रीवल्लभाचार्यजी दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। जब इनकी अवस्था सोलह वर्ष की थी तब इनके पिता का वैकुण्ठवास हो गया। अपनी मां को साथ लेकर ये कुछ समय जगन्नाथजी में रहे जहां इन्हें दो अनुयायी मिले–दामोदरदास हरसानी एवं कृष्णदास मेघन। उन दोनों को साथ लेकर वे तीर्थाटन पर निकले। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने पुष्टिमार्ग और भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार करने के लिए भारतवर्ष की तीन परिक्रमाएं नंगे पैरों से कीं। प्रत्येक परिक्रमा में भगवान श्रीकृष्ण के अलग-अलग स्वरूप उनके साथ थे। इस प्रकार भ्रमण करते हुए श्रीमद्भागवत को आपने जन-जन तक पहुँचाया और विद्वत्समाज में यह विश्वास जगा दिया कि श्रीकृष्ण ही सनातन ब्रह्म हैं। काशी में उस समय शैव और वेदान्ती विद्वानों का बोलबाला था। वे वैष्णव सिद्धान्तों के प्रतिकूल थे। इसके लिए श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने ’पत्रावलम्बन’ नामक ग्रन्थ की रचना की और उसे काशीविश्वनाथ मंदिर में रख दिया जिस पर शिवजी ने स्वयं सम्मति प्रदान की थी। और इस तरह आपने ब्रह्मवाद को सिद्ध कर दिखाया। उसके बाद श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने विजयनगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित होकर वहाँ बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराया और वहां ब्रह्मवाद की विजयपताका पहरा दी और आपको ‘वाचस्पति’ स्वीकार कर लिया। सभी पंडितों ने मिलकर आपका कनकाभिषेक किया और बहुत-सा सोना भेंट किया। आपने उसे स्नान के जल के समान अस्पर्श्य मानकर ब्राह्मणों में बाँट दिया। राजा ने पुन: थाल भरकर स्वर्णमुद्राएं समर्पित कीं किन्तु उसमें से भी आपने केवल सात मुद्राएं स्वीकार कीं और उनके नूपुर बनवाकर ठाकुरजी को अर्पित कर दिए। राजा कृष्णदेवराय ने विद्वानों व आचार्यों की सहमति से श्रीमद्वल्लभाचार्यजी को ‘अखण्डभूमण्डलाचार्यवर्य जगद्गुरु श्रीमदाचार्य श्रीमहाप्रभु’ की उपाधि से विभूषित किया। स्वयं राजा कृष्णदेवराय परिवार सहित पुष्टिमार्ग के अनुयायी हुए। इस उपाधि के अतिरिक्त श्रीमद्वल्लभाचार्यजी को ‘बालसरस्वती’, ‘वाचस्पति’, ‘दिग्विजयी’, ‘अदेयदानदक्ष’ तथा ‘धर्म के मूर्तिमान स्वरूप’ आदि उपाधियां भी मिलीं पर वे परम संत की तरह रहते थे। राजा से लेकर रंक तक आपकी सरस वाणी, मोहक व्यक्तित्व, असाधारण पाण्डित्य, स्पष्ट विचारधारा और अनूठी भगवत्सेवा प्रणाली से प्रभावित थे। जिस पथ से श्रीमहाप्रभुजी पधारते थे, उस पथ पर अंकित उनके चरणों की धूलि को लोग अपने सिर पर चढ़ाते थे। गृहस्थाश्रम में प्रवेश श्रीवल्लभाचार्यजी जब पंढरपुर पधारे तो भगवान श्रीविठोबा ने उन्हें गृहस्थधर्म में प्रवेश करने की आज्ञा दी। ऐसा कहा जाता है कि एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर इनका पुत्र बनने की इच्छा प्रकट की, जिससे अट्ठाईस वर्ष की अायु में इन्होंने भगवान के निर्देशानुसार काशी स्थित श्रीदेवेनभट्ट की पुत्री श्रीमहालक्ष्मीजी से विवाह किया। श्रीवल्लभाचार्यजी का परिवार प्राय: प्रयागतीर्थ के समीप अडेल ग्राम में निवास करता था। आपके यहां दो पुत्र प्रकट हुए–श्रीगोपीनाथजी एवं श्रीविट्ठलनाथजी। श्रीविट्ठलनाथजी को गुँसाईंजी भी कहते हैं, जो श्रीविठोबा के अवतार माने जाते हैं। श्रीगुँसाईजी के यहां सात पुत्र पैदा हुए। इन सबको एक-एक घर का अधिपति बनाया गया और एक-एक भगवत्स्वरूप की सेवा सौंपी गयी। जो आज सात गृह (उपपीठ) और सात स्वरूप के रूप में माने जाते हैं। ये विभिन्न स्थानों पर विराजते हैं और निधिस्वरूप माने जाते हैं। ये हैं– श्रीमथुरेशजी–कोटा, 2. श्रीविट्ठलनाथजी–श्रीनाथद्वारा, 3. श्रीद्वारकाधीशजी–कांकरोली, 4. श्रीगोकुलनाथजी–गोकुल, 5. श्रीगोकुलचन्द्रमाजी–कामावन, 6. श्रीबालकृष्णजी–सूरत एवं 7. श्रीमदनमोहनजी–कामावन। श्रीमहाप्रभुजी की बैठकें श्रीमद्वल्लभाचार्यजी विजयनगर से उज्जैन आए और शिप्रा नदी के तट पर एक पीपलवृक्ष के नीचे निवास किया। यह स्थान आज भी उनकी बैठक के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीमहाप्रभुजी नित्य ही श्रीमद्भागवत का पाठ करते थे। जिन पवित्र 84 स्थानों पर विराजकर आपने सम्पूर्ण भागवत का सात दिन में पारायण किया, वे स्थान 84 बैठकजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन बैठकों की देखभाल उनके वंशज गुसांईगण करते हैं। पुष्टिमार्गीय वैष्णव बड़ी श्रद्धा के साथ इन स्थानों का दर्शन, झारी भरना, चरणस्पर्श आदि करते हैं। इस प्रकार श्रीमद्वल्लभाचार्यजी की शुद्धादैत परम्परा उनके सुपुत्र श्रीविट्ठलनाथ गुँसाईजी के सात पुत्र एवं उनके वंशज गुँसाई परिवार द्वारा सात पीठों, चौरासी बैठकों के माध्यम से व समस्त भारत में हवेली मन्दिरों द्वारा अविरल बह रही है। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी और पुष्टिमार्ग श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की तथा प्रेमलक्षणा भक्ति पर विशेष जोर दिया। ‘पुष्टि’ अर्थात् पोषण का अर्थ है–’भगवान श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा’। भगवान का विशेष अनुग्रह होने पर ही जीव को पुष्टि भक्ति प्राप्त होती है। जिसे भगवत्कृपा रूप पुष्टि भक्ति प्राप्त हो जाती है, उसके जीवन में अन्य कोई कामना शेष नहीं रह जाती। केवल एक ही कामना रहती है–भगवान के स्वरूप की प्राप्ति की। इस प्रकार भगवत्स्वरूप की प्राप्ति का आनन्द ही पुष्टि भक्ति का एकमात्र फल है। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने वात्सल्यरस से ओतप्रोत भक्ति पद्धति की सीख दी। भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र अनन्य आश्रय मानना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की आवश्यक शर्त है। ‘श्रीकृष्ण शरणं मम’ इस आत्मनिवेदन मन्त्र की दीक्षा से भक्त अपने को भगवान में अर्पित कर देता है। श्रीमहाप्रभुजी ने कहा– सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिप:। स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्य: क्वापि कदाचन।। अर्थात्–सदा-सर्वदा पति, पुत्र, धन, गृह–सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं– इस भाव से व्रजेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है। इसके अतिरिक्त किसी भी देश, किसी भी वर्ण, किसी भी आश्रम, किसी भी अवस्था में और किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है। पुष्टिमार्ग में प्रवेश श्रीवल्लभ-कुल के गोस्वामी (महाराजश्री) द्वारा ब्रह्म-सम्बन्ध लेने पर ही होता है, और वह ब्रह्म-सम्बन्ध तब होता है जब श्रीयमुनाजी की कृपा होती है। अन्य मार्गों में भगवान की अर्चना को ‘पूजा’ कहा जाता है। परन्तु पुष्टिमार्गीय प्रभु की अर्चना को ‘सेवा’ कहा जाता है। सेवा के अंग हैं–भोग, राग तथा श्रृंगार। भोग में विविध व्यंजनों का भोग प्रभु को लगता है। राग में वल्लभीय भक्त कवियों के पदों का कीर्तन होता है तथा श्रृंगार में ऋतुओं के अनुसार भगवान के विग्रह का श्रृंगार होता है। पुष्टिसम्प्रदाय में बालभाव एवं गोपीभाव से प्रभु की सेवा होती है। प्रभु को आरती, स्नान, भोग, वस्त्रालंकार, पुष्पमाला, कीर्तन और विभिन्न उत्सव आदि से रिझाया जाता है। श्रीमहाप्रभुजी ने तनुजा-वित्तजा एवं मानसी सेवा को महत्त्व दिया है। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी की दृष्टि में नारी भगवान को सरलता से पा सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से वह पुरुष से उन्नत है। गोपियों को प्रेम की ध्वजा और प्रेम-मार्ग की गुरु माना गया है। भगवान की निकुंज लीला में सखियों का ही प्रवेश है, सखाओं का नहीं। इस प्रकार पुष्टिभक्ति में स्त्री को विशेषाधिकार है। पुष्टिमार्ग का दूसरा नाम प्रेममार्ग है। प्रेम पद्धति से आराधना चिंतन करने पर भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात्कार इसी मार्ग में होता है। जब भगवान की कृपा से किसी मनुष्य में भगवत्प्रेम का बीज-भाव स्थापित कर दिया जाता है तो प्रेमपन्थ–पुष्टिमार्ग में उसकी अत्यन्त रुचि होती है। पुष्टिमार्गीय वैष्णव भक्त भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी डंके की चोट कहते हैं–’हम प्रेम पंथ के व्यौपारी।’ जब श्रीमद्वल्लभाचार्यजी दक्षिण-यात्रा के लिए निकले तब व्रज में श्रीगिरिगोवर्धन पर प्रकटे देवदमन श्रीनाथजी ने इन्हें आज्ञा दी कि तुम अपनी यात्रा यहीं रोककर सर्वप्रथम गिरिगोवर्धन पर आकर मुझसे मिलो। आचार्यचरण श्रीमद्वल्लभाचार्यजी इस भगवदाज्ञा को सुनकर आश्चर्यचकित हो गये और तत्काल ही अपने भक्तों और व्रजवासियों के साथ गिरिगोवर्धन की ओर प्रस्थान किया। श्रीमहाप्रभुजी कुछ ही ऊपर चढ़े होंगे कि उसी क्षण सबके देखते-देखते प्रभु श्रीनाथजी अपनी गिरि-कन्दरा से बाहर आ गये और श्रीमद्वल्लभाचार्यजी से गले लगकर मिलने लगे। उस समय सभी व्रजवासी प्रभु और महाप्रभु के इस अद्भुत मिलन को देखकर जय-जयकार करने लगे। तब श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने व्रजवासियों को बताया कि गर्गसंहिता में ऋषि गर्गाचार्य की भविष्यवाणी के अनुसार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का ही प्राकट्य हुआ है और कलियुग में ये श्रीनाथजी के नाम से पूजित होंगे। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी आन्यौर ग्राम पधारे। रामदास चौहान को आपने श्रीनाथजी की सेवा सौंपी। सद्रू पांडे और माणक पांडे को सेवा के लिए सामग्री जुटाने का कार्य सौंपा। सबसे पहले श्रीनाथजी को धोती, पाग, चन्द्रिका व गुंजामाला का श्रृंगार धराया। बेजड़ की रोटी और टेंटी का साग भोग में धराया। एक समय विक्रम संवत 1563 श्रावणमास के शुक्लपक्ष की एकादशी गुरुवार को व्रज में गोकुल के श्रीगोविन्दघाट पर श्रीवल्लभाचार्यजी विश्राम कर रहे थे और चिन्तन कर रहे थे कि जीव स्वभाव से ही दोषों से भरा हुआ है, उसे पूर्ण निर्दोष कैसे बनायें। तब मध्यरात्रि में उनके समक्ष भगवान श्रीकृष्ण गोकुलचन्द्रमाजी के रूप में प्रकट हुए। आचार्यजी ने उनके दर्शन करके सूत का पवित्रा (माला) और मिश्री प्रभु को अर्पित की और मधुराष्टक के द्वारा प्रभु की स्तुति की। भगवान श्रीकृष्ण ने आज्ञा दी कि आप ब्रह्मसम्बन्ध द्वारा जीवों को दीक्षा देकर शरण में लीजिए, इससे जीवों के सभी प्रकार के दोषों की निवृति हो जायेगी। यह एकादशी आज भी पुष्टिसम्प्रदाय में पवित्रा एकादशी के नाम से विशेष महत्व रखती है। उस दिन सभी वैष्णव ठाकुरजी को रंग-बिरंगे पवित्रा धारण करवाते हैं। दूसरे दिन श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने दामोदरदास हरसानी को ब्रह्मसम्बन्ध की दीक्षा दी और तभी से पुष्टिसम्प्रदाय में दीक्षा की परम्परा शुरु हो गयी। फिर अनेक वैष्णवों ने दीक्षा ली उनमें 84 वैष्णव मुख्य हैं। ब्रह्मसम्बन्धी मन्त्र का सार ब्रह्मसम्बन्धी मन्त्र का सार यही है कि ‘मैं हजारों वर्षों से श्रीकृष्ण से बिछुड़ गया हूँ, उनके विरह-ताप से क्लेश, आनन्द तिरोहित हो गया है। गोपीजनवल्लभ श्रीकृष्ण को देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्त:करण एवं उनके धर्म, स्त्री, गृह, पुत्र एवं स्वयं को समर्पित करता हूँ। हे प्रभु श्रीकृष्ण ! मैं आपका दास हूँ।’ इस दीक्षामन्त्र द्वारा प्रभु को सर्वसमर्पण का भाव है। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी गिरिराज गोवर्धन में रहकर प्रभु श्रीनाथजी की सेवा करने लगे। एकदिन श्रीनाथजी ने श्रीमद्वल्लभाचार्यजी को दुग्ध-पान हेतु गाय खरीदने की आज्ञा दी। भगवान की आज्ञा मानकर श्रीमहाप्रभुजी ने एक गाय खरीदी। अपने एक भक्त से कहकर श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने श्रीगिरिराजजी पर मन्दिर बनवाया और उसमें धूमधाम से प्रभु श्रीनाथजी की स्थापना की। ये मन्दिर श्रीगोवर्धन की चोटी पर है। श्रीनाथजी का असल स्वरूप श्रीनाथद्वारा में है। (साभार पुष्टिमार्गीय पंचामृत से) आचार्य श्रीवल्लभ ने व्रज एवं गिरिराज आदि में रहकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेममयी आराधना की। अनेक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर इन्हें दर्शन दिए। इनकी अष्टयाम-सेवा बड़ी ही सुन्दर है, उसमें माधुर्यभाव का बड़ा सुन्दर प्रकाश हुआ है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हें वात्सल्यभाव से उपासना करने का प्रचार करने की आज्ञा दी। अष्टछाप के कवि श्रीवल्लभाचार्यजी ने प्रभु श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा के लिए उस समय के चार प्रमुख गायकों–भक्तकवि सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्ददास और कृष्णदास को सेवा में नियुक्त किया और श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा का शुभारम्भ किया। श्रीसूरदास–प्रभु श्रीनाथजी की सेवा-व्यवस्था सुनिश्चित करके श्रीवल्लभाचार्यजी भारत परिक्रमा पर चले गये और श्रीनाथजी के मुखियाजी से कह गये कि ‘भक्त सूरदास वैसे तो जन्मान्ध हैं पर प्रभु श्रीनाथजी की सेवा में कीर्तन करते समय इन्हें प्रभु के साक्षात दर्शन होते हैं। अत: तुम कभी इनकी परीक्षा मत लेना।’ परन्तु मुखियाजी के मन में संदेह हो गया। उसने परीक्षा लेने के लिए प्रभु को केवल हल्का-फुल्का मोतियों का श्रृंगार धारण कराकर सूरदासजी से झूठ-मूठ भारी श्रृंगार पहनाने की बात कह दी। भक्त सूरदास ने तानपूरा उठाया और उस दिन प्रभु श्रीनाथजी ने जो श्रृंगार अंगीकार किया था, उसका वर्णन एक पद में किया– देखे री हरि नंगमनंगा। जल-सुत भूषन अंग विराजत, बसनहीन छवि उठत तरंगा।। मुखिया इस पद को सुनकर दंग रह गये। जब श्रीमहाप्रभुजी भारत-यात्रा करके गिरिगोवर्धन पधारे, तब उनसे अपने किये की क्षमा मांगी। सूरदासजी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में अनेक पद जो सूरदासजी ने प्रारम्भ किये थे, बाद में श्रीकृष्णस्वरूप प्रभु श्रीनाथजी ने उन्हें पूरे किये। उन पर ‘सूरस्याम’ की छाप लगी है। श्रीकुम्भनदास–श्रीकुम्भनदास ने ब्रह्मसम्बन्ध की दीक्षा लेकर श्रीमहाप्रभुजी की शिष्यता स्वीकार की थी। श्रीमहाप्रभुजी ने इनके संगीत पर रीझकर इन्हें कीर्तन-सेवा में नियुक्त किया। श्रीकुम्भनदासजी की प्रभु श्रीनाथजी के श्रृंगार सम्बन्धी पदों की रचना में विशेष अभिरुचि थी। श्रीपरमानन्ददास–श्रीपरमानन्ददास ने एक बार प्रयाग में संगम के तट पर भजन करते हुए देखा कि श्रीमहाप्रभुजी के सेवक कपूरजलघरिया की गोद में प्रभु श्रीनाथजी बालक बनकर बैठे हैं और तल्लीनता से उसका भजन सुन रहे हैं। इस अनोखी लीला ने श्रीपरमानन्ददास को महाप्रभुजी का शिष्य बनाकर प्रभु श्रीनाथजी की कीर्तनसेवा में प्रवेश दिला दिया। श्रीकृष्णदास–श्रीकृष्णदासजी श्रीमहाप्रभु वल्लभाचार्यजी के शिष्य थे। श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीनाथजी की सेवा का सम्पूर्ण भार इन्हें सौंपा था। एक बार सूरदासजी ने इनसे विनोद में कहा कि आप कोई ऐसा पद बनाकर गाइये, जिसमें मेरे पदों की छाया न हो। श्रीकृष्णदासजी ने पांच-सात पद गाये पर सभी में सूरदासजी के पदों की छाया थी। इन्हें बहुत क्षोभ हुआ। श्रीकृष्णदासजी के सोच का निवारण करने के लिए स्वयं प्रभु श्रीनाथजी ने एक अत्यन्त सुन्दर पद बनाकर श्रीकृष्णदासजी की शय्या पर रख दिया। जब ये सोने गये तो वहां श्रीप्रभु के करकमलों से लिखा पद पाया। प्रात: जब इन्होंने वह पद श्रीसूरदासजी को सुनाया तो वह समझ गये कि यह पद प्रभु श्रीनाथजी ने स्वयं लिखा है। बाद में श्रीवल्लभाचार्यजी के सुपुत्र श्रीगुँसाईजी श्रीविट्ठलनाथजी महाराज ने चार और गायक–भक्तकवि नन्ददास, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी और छीतस्वामी को रखकर ‘अष्टछाप’ की स्थापना करके भक्ति-संगीत की धारा प्रवाहित कर दी। श्रीनन्ददास–अष्टछाप के कवियों में नन्ददास गुँसाईजी श्रीविट्ठलनाथजी के शिष्य थे। ये उच्चकोटि के भावुक कवि थे। इनकी रचनाओं में गोपीकृष्ण व राधाकृष्ण की रासलीला का बड़ा ही सरस व मधुर वर्णन है। श्रीचतुर्भुजदास–ये श्रीकुम्भनदास के पुत्र थे। गुँसाईजी श्रीविट्ठलनाथजी ने इन्हें जन्म के इक्तालीस दिनों के बाद ही ब्रह्म-सम्बन्ध दे दिया था। श्रीनाथजी में उनकी भक्ति सखाभाव की थी। भगवान उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर साथ में खेला करते थे। इन्हें श्रीनाथजी के नित्य सखा ‘विशाल’ का अवतार माना जाता है। अपने काव्य में कृष्ण की बाललीला का वर्णन इन्होंने बड़े ही स्वाभाविक और सूक्ष्म दृष्टि से किया है। श्रीगोविन्दस्वामी–प्रभु श्रीनाथजी के साथ श्रीगोविन्दस्वामी का हास्य-विनोद चलता रहता था। कभी किसी कारण यदि श्रीगोविन्दस्वामी सेवा में नहीं आते तो प्रभु श्रीनाथजी अवकाश पाकर उनकी कुटिया पर पहुँच जाते थे। एक बार प्रभु श्रीनाथजी श्रीगोविन्दस्वामी के घर पहुँच गये और वहां वृक्ष की टहनी पर बैठकर वंशी बजाने लगे। इसी बीच मंदिर में उत्थापन-दर्शन का समय हो गया तो प्रभु वृक्ष के ऊपर से ही कूदे। प्रभु श्रीनाथजी का वस्त्र वृक्ष की टहनी में उलझकर फट गया। उत्थापन में गुँसाईजी ने प्रभु का फटा वस्त्र देखकर गोविन्दस्वामी से इसका कारण पूछा। गोविन्दस्वामी से सच जानकर गुँसाईजी को ठाकुर की लीला पर बड़ा आश्चर्य हुआ। श्रीछीतस्वामी–अष्टछाप के कवि श्रीछीतस्वामी मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। वीर प्रकृति के कारण लोग इन्हें गुंडा पंडा कहते थे। एक बार जब ये बीस वर्ष के थे, इन्होंने अपनी मित्र-मंडली के साथ गुँसाई श्रीविट्ठलनाथजी की परीक्षा लेने की सोची। भेंट के लिए सूखा-थोथा नारियल और एक खोटा सिक्का लेकर गोकुल पहुंचे। अपने मित्रों को बाहर बैठाकर स्वयं गुँसाईजी से मिलने अंदर गये तो वहां गुँसाईजी का दिव्यस्वरूप देखकर इन्हें मन में ग्लानि हुई कि मैं एक महापुरुष की परीक्षा लेने आया। इन्होंने भेंट का सामान छिपा लिया और गुँसाईजी को दण्डवत प्रणाम किया। गुँसाईंजी ने कहा–’तुम तो मथुरा के चौबे हो, सिद्ध पुरुष हो, मुझे दण्डवत प्रणाम क्यों करते हो?’ तब छीतस्वामी ने कहा–’मैं आपका दास बनना चाहता हूँ। मेरे मन में बहुत कुटिलता थी, वह आपके दर्शनों से दूर हो गयी।’ गुँसाईजी ने इनके शुद्धभाव को जानकर इन्हें अपना बना लिया।उसी समय इनकी कवित्व शक्ति जग गयी। गुँसाईजी ने छीतस्वामी से कहा–’हमारी भेंट लाये हो, उसे लाओ।’ डरते-डरते इन्होंने भेंट रखी। गुँसाईजी ने नारियल को फोड़कर भगवान का भोग धराया। नारियल में से अति उत्तम गिरी निकली और खोटा सिक्का भी चल गया। तब इन्होंने सोचा–कोई भी चीज गुरु व भगवान के योग्य नहीं है, सब कुछ खोटा है। भगवान को अर्पण होकर ही जीव व वस्तु खरा होता है। श्रीविट्ठलनाथजी ने इन्हें अष्टछाप में स्थान दिया और श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा सौंपी। श्रीमहाप्रभुजी द्वारा रचित धर्मग्रन्थ श्रीमहाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा लिखे गये ग्रन्थ वल्लभ-सम्प्रदाय की अमूल्य धरोहर हैं। उनके लिखे धर्मग्रन्थों में ‘श्रीसुबोधिनीजी’ (श्रीमद्भागवत की टीका) का नाम सर्वोपरि है। श्रीमहाप्रभुजी ने इसमें अपना हृदय स्थापित कर दिया है। श्रीसुबोधिनीजी को सुनने के लिए स्वयं वेदव्यासजी श्रीमहाप्रभुजी के सामने प्रकट हो गये और सम्पूर्ण सुबोधिनीजी का श्रवण किया। श्रीवल्लभ-सम्प्रदाय के वैष्णवों के लिए तो श्रीसुबोधिनीजी प्राणाधार है। श्रीमद्भागवत के गूढ़ अर्थ का विवेचन करने के लिए ही श्रीमहाप्रभुजी का भूतल पर आविर्भाव हुआ था। श्रीमद्भागवत के चार प्रकार के अर्थों–शास्त्रार्थ, स्कन्धार्थ, प्रकरणार्थ और अध्यायार्थ–का विवेचन आपने ‘भागवतार्थनिबन्ध’ में किया है। ‘वेदवल्लभ’ नामक ग्रन्थ में श्रीमहाप्रभुजी ने वेदों की महिमा गायी है। ‘गायत्रीभाष्य’ में गायत्री वेदमाता हैं, यह दर्शाया है। इसके अतिरिक्त श्रीमहाप्रभुजी ने ‘श्रुतिगीता’, ‘पूर्वमीमांसाकारिका’ व ‘सप्रकाशतत्त्वार्थदीपनिबन्ध’, ‘भागवत-एकादश-स्कन्धार्थ-निरूपणकारिका’, ‘त्रिविध-नामावली’, ‘भगवत्पीठिका’, ‘न्यासादेश’, ‘पंचश्लोकी’, व्याससूत्रबृहदभाष्यम् आदि ग्रन्थों की रचना की। ‘मधुराष्टक’ में प्रभु श्रीकृष्ण के रूप और लीला की मधुरता है। अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्। हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।। श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीमद्भागवतरूपी महासागर से भगवान विष्णु के सहस्त्रनाम रूपी मोतियों का संकलन अपने ‘पुरुषोत्तमसहस्त्रनाम’ नाम के ग्रन्थ में किया है। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर बड़ा सुन्दर ‘अणुभाष्य’ लिखा। श्रीमहाप्रभुजी ने अपने पुष्टिसेवकों को उनकी कठिनाई के समय मार्गदर्शन के लिए षोडशग्रन्थ (यमुनाष्टक, बालबोध, सिद्धान्तमुक्तावली, पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद, सिद्धान्तरहस्यम्, नवरत्नम्, अंत:करणप्रबोध, विवेकधैर्याश्रयनिरूपणम्, श्रीकृष्णाश्रय:, चतु:श्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पंचपद्यानि, संन्यासनिर्णय, निरोधलक्षणम् एवं सेवाफलम्) के रूप में उपदेश दिए हैं। वैष्णवजन इनका नित्य पाठ करते हैं। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने उस समय दिग्भ्रमित भारतवासियों को श्रीकृष्णसेवा का मंगलमय मार्ग दिखाया। उन्होंने अपनी ‘चतु:श्लोकी’ में कहा है कि प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र को पूर्ण समर्पण करके उनकी ही शरण में रहने से मानवमात्र का कल्याण हो सकता है। पुष्टिमार्गे हरेर्दास्यं धर्मोऽर्थो हरिरेव हि। कामो हरेर्दिदृक्षैव मोक्ष: कृष्णस्य चेद् ध्रुवम्।। अर्थात्–पुष्टिमार्ग में साक्षात् परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति दास्य (सेवा) भाव ही धर्म है। श्रीहरि ही अर्थ अर्थात् सम्पत्ति, निधि और अपने सर्वस्व हैं। प्रभु के दर्शन की इच्छा ही काम है और श्रीकृष्णचन्द्र का हो जाना–उनको ही प्राप्त कर लेना मोक्ष है। श्रीमहाप्रभुजी ने अपने जीवन में कभी भी श्रीकृष्णचन्द्र नाम का विस्मरण नहीं किया। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के जीवन की चमत्कारी घटनाएं श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के जीवन की कई ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। एक बार श्रीमद्वल्लभाचार्यजी प्रवास के लिए जगन्नाथपुरी आए। उस समय वहां विद्वानों की सभा हो रही थी। राजा स्वयं सभा में उपस्थित थे। सभा में चार प्रश्न पूछे गये– मुख्य शास्त्र कौन-सा है? मुख्य देव कौन है? मुख्य मन्त्र क्या है? मुख्य कर्म क्या है। इन प्रश्नों का कोई भी सही उत्तर नहीं दे पा रहा था। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने जो उत्तर दिये, वे पंडितों ने नहीं माने। तब श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने प्रस्ताव रखा कि भगवान श्रीजगन्नाथजी जिसे सम्मति दे वही मान्य है। उन्होंने पत्र में एक श्लोक लिखकर पुजारियों द्वारा भगवान के सम्मुख रखा और मंदिर के कपाट बंद करवा दिए। वह श्लोक है– एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीत मेको देवो देवकीपुत्र एव। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। श्रीवल्लभाचार्यजी की प्रार्थना पर साक्षात् श्रीजगन्नाथजी ने अपने हस्ताक्षर सहित प्रमाण दे दिया कि– भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गायी गई श्रीमद्भगवद्गीता ही एकमात्र शास्त्र है। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मन्त्र है। भगवान श्रीकृष्ण की सेवा ही एकमात्र कर्म है। अब तो सभी ने नतमस्तक होकर इस बात को स्वीकार कर लिया। अपने असाधारण ज्ञान व अनुपम मेधाशक्ति के कारण श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ‘बालसरस्वती’ कहे जाने लगे। एक बार एक व्यक्ति शालिग्रामशिला व प्रतिमा दोनों की एक साथ पूजा कर रहा था पर उसके मन में भेदभाव था। वह शालिग्रामशिला को अच्छा व प्रतिमा को निम्नश्रेणी का समझता था। आचार्य श्रीवल्लभ ने उन्हें भेदभाव न करने के लिए समझाया पर वह नहीं माना। रात्रि में उसने अकड़कर प्रतिमा की छाती पर शालग्रामजी को पधरा दिया। प्रात:काल देखा तो शालिग्रामशिला चूर-चूर हो गयी थी। उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उसने जाकर आचार्य श्रीवल्लभचरणों से क्षमा माँगी। तब श्रीवल्लभाचार्यजी ने भगवान के चरणामृत में उस चूर्ण को भिगोकर गोली बनाने को कहा। ऐसा करने पर शालिग्रामशिला फिर ज्यों-की-त्यों हो गयी। एक बार एक संत भगवान के दर्शन के लिए गोकुल गये। वहां गौशाला में गायों का, मंदिरों का दर्शन करते समय उन्होंने अपना ठाकुर-बटुवा (झोला) एक छोंकर के पेड़ पर लटका दिया और जाकर श्रीवल्लभाचार्यजी के दर्शन किए। वापिस आकर देखा तो वहां पेड़ पर उनका ठाकुर-बटुवा नहीं था। तब वे संत श्रीवल्लभाचार्यजी के पास गये और बटुवा न मिलने की बात सुनायी। आचार्यजी ने कहा कि वहीं जाकर देखिए। संत ने जाकर देखा तो वहां पेड़ पर अनेक बटुवे लटके हुए थे। फिर उन संत ने आचार्यजी के पास जाकर कहा–’प्रभु ! वहां तो अनेक बटुवे हैं।’ आचार्यजी ने कहा–’आप अपना बटुवा पहचान लीजिए, आप तो नित्य सेवा-पूजा करते हैं। आप अपने ठाकुरजी को नहीं पहचानते !’ इस घटना से संत समझ गये कि यह आचार्यजी की ही लीला है। उनकी आंखें खुल गईं। उन्होंने आचार्यजी से उपाय बताने की प्रार्थना की। आचार्यजी ने कहा–’हृदय से प्रेम करो, भाव-भक्तिपूर्वक सेवा किया करो; क्योंकि यह प्रेममार्ग अतिविचित्र एवं सुन्दर है। आप वहीं छोंकर के वृक्ष के पास जाकर देखो।’ इस बार उन्होंने जाकर देखा तो उन्हें केवल अपने ही ठाकुरजी दिखायी पड़े। उन्होंने ठाकुरजी को हृदय से लगा लिया। आचार्यजी की कृपा से उन्होंने भक्ति के स्वरूप को जान लिया। श्रीमद्वल्लभाचार्यजी का परमधाम गमन आचार्य श्रीवल्लभ के परमधाम पधारने के विषय में एक घटना प्रसिद्ध है। ये अपने जीवन के अंतिम दिनों में संन्यास ग्रहण कर हनुमानघाट काशी में रहते थे। आपने मौनव्रत धारण कर लिया था। अपनी तिरोधान लीला के पूर्व अपने दोनों पुत्रों–श्रीगोपीनाथजी एवं श्रीविट्ठलनाथजी की प्रार्थना पर श्रीमहाप्रभुजी ने गंगा की पावन रेत में ही साढ़े तीन श्लोक लिख दिये जो शिक्षा-श्लोक के नाम से प्रसिद्ध हैं। जिनका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है– ‘यदि किसी भी प्रकार तुम भगवान से विमुख हो जाओगे तो काल-प्रवाह में स्थित देह तथा चित्त आदि तुन्हें पूरी तरह खा जायेंगे। यह मेरा दृढ़ मत है। भगवान श्रीकृष्ण को लौकिक मत मानना। भगवान को किसी लौकिक वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं है। सब कुछ भगवान ही है। हमारा लोक और परलोक भी उन्हीं से है। मन में यह भाव बनाये रखना चाहिए। इस भाव को मन में स्थिर कर सर्वभाव से गोपीश्वर प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा करनी चाहिए। वे ही तुम्हारे लिए सब कुछ करेंगे।’ विक्रम संवत 1587 आषाढ़ शुक्ल द्वितीया रथयात्रा के दिन काशी में वे श्रीहनुमानघाट पर गंगाजी के प्रवाह में स्थिर हो गये। जहाँ वे खड़े थे वहाँ से एक उज्जवल अग्नि-ज्योति उठी और सभी लोगों के सामने आचार्य श्रीवल्लभ सदेह ऊपर उठने लगे और देखते-ही-देखते आकाश में जाकर भुवनभास्कर में विलीन हो गए। गंगातट पर सैंकड़ों नर-नारी इस अद्भुत दृश्य को देखकर भौचक्के रह गये। इस प्रकार 52 वर्ष की आयु में भगवान की आज्ञानुसार अलौकिक ढंग से परमधाम गमन किया। श्रीसूरदासजी ने अपने अंतिम समय में श्रीवल्लभाचार्यजी की शरणागति में निम्नलिखित प्रसिद्ध पद रचा था– दृढ़ इन चरनन केरो, भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभनख चन्द्र छटा बिनु, सब जग माँझ अन्धेरो।। साधन और नहीं या कलि में, जासों होत निबेरो। सूर कहा कहे द्विविध आँधरो, बिना मोल को चेरो।। भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। पुष्टिमार्ग में वे आज भी साक्षात् हैं। प्रभु श्रीनाथजी की सेवा में वे नित्य विराजमान हैं।
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