राजपुताना इतिहास के विलुप्त अध्याय  ▼  ▼ Monday, 29 July 2013 विश्वामित्र क्षत्रिय प्रजावत्सल नरेश विश्वामित्र क्षत्रिय प्रजावत्सल नरेश अन्य नाम विश्वरथ वंश-चन्द्रवँशी क्षत्रिय गोत्र कुशिक गोत्रोत्पन्न 'कौशिक' पिता महाराज गाधि समय-काल रामायणकाल संताने सौ पुत्रों के पिता थे। विद्या पारंगत धनुर्विद्या रचनाएँ विश्वामित्रकल्प', 'विश्वामित्रसंहिता', 'विश्वामित्रस्मृति' प्रसिद्ध घटनाएँ वसिष्ठ ऋषि से कामधेनु माँगना,अप्सरा मेनका से प्रेम,त्रिशंकु की स्वर्ग जाने की इच्छा। यशकीर्ति ऋग्वेद के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं इन सभी सूक्तों के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही हैं। अपकीर्ति वसिष्ठ द्वारा कामधेनु न देने पर उनसे युद्ध और फिर पराजय। अन्य जानकारी विश्वामित्र तपस्या के धनी थे। इन्हें गायत्री-माता सिद्ध थीं और इनकी पूर्ण कृपा इन्होंने प्राप्त की थी। नवीन सृष्टि तथा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग आदि भेजने और ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने जैसे असम्भव कार्य विश्वामित्र ने किये। विश्वामित्र गाधि के पुत्र थे। पौराणिक धर्म ग्रंथों और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि उन्होंने कई वर्ष तक सफलतापूर्वक राज्य किया था। विश्वामित्र अपने समय के वीर और ख्यातिप्राप्त राजाओं में गिने जाते थे। लम्बे समय तक राज्य करने के बाद वे पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकले। पुरुषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप की गरिमा के रूप में महर्षि विश्वामित्र के समान शायद ही कोई हो। इन्होंने अपने पुरुषार्थ से, अपनी तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्त किया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, देवताओं और ऋषियों के लिये पूज्य बन गये। विश्वामित्र को सप्तर्षियों में अन्यतम स्थान प्राप्त हुआ था। अपनी तपस्या के बल और योग से वे सभी के लिए वन्दनीय भी बन गय थे।पुरुषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप की गरिमा के रूप में महर्षि विश्वामित्र के समान शायद ही कोई हो। इन्होंने अपने पुरुषार्थ से, अपनी तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्तकिया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, देवताओं और ऋषियों के लिये पूज्य बन गये और उन्हें सप्तर्षियों में अन्यतम स्थान प्राप्त हुआ। साथ ही सबके लिये वे वन्दनीय भी बन गये। इनकी अपार महिमा है। इन्हें अपनी समाधिजा प्रज्ञा से अनेक मन्त्रस्वरूपों का दर्शन हुआ, इसलिये ये 'मन्त्रद्रष्टा ऋषि' कहलाते हैं। ऋग्वेद के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं इन सभी सूक्तों (मन्त्रों का समूह) के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही हैं। इसीलिये तृतीय मण्डल 'वैश्वामित्र-मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में इन्द्र, अदिति, अग्निदेव, उषा, अश्विनी तथा ऋभु आदि देवताओं की स्तुतियाँ हैं और अनेक ज्ञान-विज्ञान अध्यात्म आदि की बातें विस्तृत हैं। अनेक मन्त्रों में गौ-महिमा का वर्णन है। तृतीय मण्डल के साथ ही प्रथम नवम तथा दशम मण्डल की कतिपय ऋचाओं के द्रष्टा विश्वामित्र के मधुच्छन्दा आदि अनेक पुत्र हुए हैं। वैसे तो वेद की महिमा अनन्त है ही किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट यह तृतीय मण्डल विशेष महत्त्व का है क्योंकि इसी तृतीय मण्डल में ब्रह्म- गायत्री का जो मूलमन्त्र है। वह उपलब्ध होता है। इस ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र ही हैं। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है जो इस प्रकार है- तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यधीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्॥ यदि महर्षि विश्वामित्र न होते तो यह मन्त्र हमें उपलब्ध न होता उन्हीं की कृपा से साधना से यह गायत्री-मन्त्र प्राप्त हुआ है। यह मन्त्र सभी वेदमन्त्रों का मूल है बीज है इसी से सभी मन्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिये गायत्री को 'वेदमाता' कहा जाता है। यह मन्त्र सनातन परम्परा के जीवन में किस तरह अनुस्यूत है तथा इसकी कितनी महिमा है यह तो स्वानुभव-सिद्ध है। उपनयन-संस्कार में गुरुमुख द्वारा इसी मन्त्र के उपदेश से द्विजत्व प्राप्त होता है और नित्य-सन्ध्याकर्म में मुख्य रूप से प्राणायाम सूर्योपस्थान आदि द्वारा गायत्री-मन्त्र के जप की सिद्धि में ही सहायता प्राप्त होती है। इस प्रकार यह गायत्री-मन्त्र महर्षि विश्वामित्र की ही देन है और वे इसके आदि आचार्य हैं। अत: गायत्री-उपासना में इनकी कृपा प्राप्त करना भी आवश्यक है। इन्होंने गायत्री-साधना तथा दीर्घकालीन संध्योपासना की तप:शक्ति से कामक्रोधादि विकारों पर विजय प्राप्त की और ये तपस्या के आदर्श बन गये। महर्षि ने केवल वैदिक मन्त्रों के माध्यम से ही गायत्री-उपासना पर बल दिया अपितु उन्होंने अन्य जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया उनमें भी मुख्य रूप से गायत्री-साधना का ही उपदेश प्राप्त होता है। 1.'विश्वामित्रकल्प,' 2.'विश्वामित्रसंहिता' तथा 3.'विश्वामित्रस्मृति' आदि उनके मुख्य ग्रन्थ हैं। इनमें भी सर्वत्र गायत्री देवी की आराधना का वर्णन दिया गया है और यह निर्देश है कि अपने अधिकारानुसार गायत्री-मन्त्र के जप से सभी सिद्धियाँ तो प्राप्त हो ही जाती हैं। इसीलिये केवल इस मन्त्र के जप कर लेने से सभी मन्त्रों का जप सिद्ध हो जाता है। महामुनि विश्वामित्र तपस्या के धनी हैं। इन्हें गायत्री-माता सिद्ध थीं और इनकी पूर्ण कृपा इन्होंने प्राप्त की थी। इन्होंने नवीन सृष्टि तथा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग आदि भेजने और ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने सम्बन्धी जो भी असम्भव कार्य किये उन सबके पीछे गायत्री-जप एवं संध्योपासना का ही प्रभाव था। भगवती गायत्री कैसी हैं। उनका क्या स्वरूप है। उनकी आराधना कैसे करनी चाहिये, यह सर्वप्रथम आचार्य विश्वामित्र जी ने ही हमें बताया है। उन्होंने भगवती गायत्री को सर्वस्वरूपा बताया है और कहा है कि यह चराचर जगत स्थूल-सूक्ष्म भेद से भगवती का ही विग्रह है तथापि उपासना और ध्यान की दृष्टि से उनका मूल स्वरूप कैसा है। इस विषय में उनके द्वारा रचित निम्न श्लोक द्रष्टव्य है जो आज भी गायत्री के उपासकों तथा नित्य सन्ध्या- वन्दनादि करने वालों के द्वारा ध्येय होता रहता है।जो मोती मूँगा, सुवर्ण, नीलमणि तथा उज्ज्वल प्रभा के समान वर्ण वाले पाँच मुखों से सुशोभित हैं। तीन नेत्रों से जिनके मुख की अनुपम शोभा होती है। जिनके रत्नमय मुकुट में चन्द्रमा जड़े हुए हैं, जो चौबीस वर्णों से युक्त हैं तथा जो वरदायिनी गायत्री अपने हाथों में अभय और वर मुद्राएँ, अंकुश, पाश, शुभ्र कपाल, रस्सी, शंख, चक्र और दो कमल धारण करती हैं।हम उनका ध्यान करते हैं।इस प्रकार महर्षि विश्वामित्र का इस जगत पर महान उपकार ही है। महिमा के विषय में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि साक्षात भगवान जिन्हें अपना गुरु मानकर उनकी सेवा करते थे।महर्षि ने सभी शास्त्रों तथा धनुर्विद्या के आचार्य श्री राम को बला, अतिबला आदि विद्याएँ प्रदान कीं सभी शास्त्रों का ज्ञान प्रदान किया और भगवान श्रीराम की चिन्मय लीलाओं के वे मूल-प्रेरक रहे तथा लीला-सहचर भी बने। क्षमा की मूर्ति वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का जो विवाद प्रतिस्पर्धा हुई वह भी लोकशिक्षा का ही एक रूप है। इस आख्यान से गौ-महिमा, त्याग का आदर्श, क्षमा की शक्ति, तपस्या की शक्ति, उद्यम की महिमा, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न की दृढ़ता, कर्मयोग, सच्ची लगन और निष्ठा एवं दृढ़तापूर्वक कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। इस आख्यान से लोक को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि काम, क्रोध आदि साधना के महान बाधक हैं। जब तक व्यक्ति इनके मोहपाश में रहता हैँ।उसका अभ्युदय सम्भव नहीं किंतु जब वह इन आसुरी सम्पदाओं का परित्याग कर दैवी-सम्पदा का आश्रय लेता है तो वह सर्वपूज्य, सर्वमान्य तथा भगवान का प्रियपात्र हो जाता है। महर्षि वसिष्ठ से जब वे परास्त हो गये तब उन्होंने तपोबल का आश्रय लिया काम-क्रोध के वशीभूत होने का उन्हें अनुभव हुआ अन्त में सर्वस्व त्याग कर वे अनासक्त पथ के पथिक बन गये और जगद्वन्द्य हो गये। ब्रह्माजी स्वयं उपस्थित हुए उन्होंने उन्हें बड़े आदर से ब्रह्मर्षिपद प्रदान किया। महर्षि वसिष्ठ ने उनकी महिमा का स्थापन किया और उन्हें हृदय से लगा लिया। दो महान संतों का अद्भुत मिलन हुआ। देवताओं ने पुष्पवृष्टि की। सत्यधर्म के आदर्श राजर्षि हरिश्चन्द्र महर्षि विश्वामित्र की दारुण परीक्षा से ही हरिश्चन्द्र कीसत्यता में निखार आया उस वृत्तान्त में महर्षि अत्यन्त निष्ठुर से प्रतीत होते हैं किंतु महर्षि ने हरिश्चन्द्र को सत्यधर्म की रक्षा का आदर्श बनाने तथा उनकी कीर्ति को सर्वश्रुत एवं अखण्ड बनाने के लिये ही उनकी इतनी कठोर परीक्षा ली।अन्त में उन्होंने उनका राजैश्वर्य उन्हें लौटा दिया रोहिताश्व को जीवित कर दिया और महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा रूपी कृपा प्रसाद से ही हरिश्चन्द्र राजा से राजर्षि हो गये। सबके लिये आदर्श बन गये। ऐतरेय ब्राह्मण आदि में भी हरिश्चन्द्र के आख्यान में महर्षि विश्वामित्र की महिमा का वर्णन आया है। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल में 30वें, 33वें तथा 53वें सूक्त में महर्षि विश्वामित्र का परिचयात्मक विवरण आया है। वहाँ से ज्ञान होता है कि ये कुशिक गोत्रोत्पन्न कौशिक थे।ये कौशिकराज महान ज्ञानी थे सारे संसार का रहस्य जानते थे। ऋग्वेद 53वें सूक्त के 9वें मन्त्र से ज्ञात होता है कि महर्षि विश्वामित्र अतिशय सामर्थ्यशाली, अतीन्द्रियार्थद्रष्टा, देदीप्यमान तेजों के जनयिता और अध्वर्यु आदि में उपदेष्टा हैं तथा राजा सुदास के यज्ञ के आचार्य रहे हैं। त्रिय प्रजावत्सल नरेश विशवामित्र जी महाराज मिथिला के राजपुरोहित शतानन्द राम से विशेष रूप से प्रभावित हुये। शतानन्द जी ने कहा हे राम! आपका बड़ा सौभाग्य है कि आपको विश्वामित्र जी गुरु के रूप में प्राप्त हुये हैं। ऋषि विश्वामित्र बड़े ही प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष हैं। ऋषि धर्म ग्रहण करने के पूर्व ये बड़े पराक्रमीऔर प्रजावत्सल नरेश थे। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधिथे। ये सभी शूरवीर, पराक्रमी और धर्मपरायण थे। विश्वामित्र जी उन्हीं गाधि के पुत्र हैं। एक दिन राजा विश्वामित्र अपनी सेना को लेकर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये। उस समय वशिष्ठ जी ईश्वर भक्ति में लीन होकर यज्ञ कर रहेथे। विश्वामित्र जी उन्हें प्रणाम करके वहीं बैठ गये। यज्ञ क्रिया से निवृत होकर वशिष्ठ जीने विश्वामित्र जी का खूब आदर सत्कारकिया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रहकर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह विचार करके कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा विश्वामित्र जी ने नम्रता पूर्वक अपने जाने की अनुमति माँगी किन्तु वशिष्ठ जी के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। "वशिष्ठ जी ने कामधेनु गौ का आह्वान करके उससे विश्वामित्र तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार के सुख सुविधा की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके कामधेनु गौ ने सारी व्यवस्था कर दिया। वशिष्ठजी के आतिथ्य से विश्वामित्र और उनकेसाथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्नहुये। "कामधेनु गौ का चमत्कार देखकर विश्वामित्र ने उस गौ को प्राप्त करने के विचार से वशिष्ठ जी से कहा किमुनिवर! कामधेनु जैसी गौएँ वनवासियों के पास नहीं राजा महाराजाओं के पास शोभा देती हैं। अतःआप इसे मुझे दे दीजिये। इसके बदलेमें मैं आपको सहस्त्रों स्वर्ण मुद्रायें दे सकता हूँ। इस पर वशिस्ठजी बोले राजन यह गौ मेरा जीवन है और इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता। वशिष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र ने बलात् उस गौ को पकड़ लेने का आदेश दे दिया और उसके सैनिक उस गौ को डण्डे सेमार मार कर हाँकने लगे। कामधेनु गौ क्रोधित होकर उन सैनिकों से अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ जी के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ जी बोले कि हे कामधेनु यह राजा मेरा अतिथि है इसलिये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता और इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहींकर सकता। मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रहा हूँ। उनके इन वचनों को सुन कर कामधेनु ने कहा कि हे ब्रह्मर्षि आप मुझे आज्ञा दीजिये मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेनासहित नष्ट कर दूँगी। और कोई उपायन देख कर वशिष्ठ जी ने कामधेनु को अनुमति दे दी। "आज्ञा पाते ही कामधेनु ने योगबल से पह्नव सैनिकों की एक सेना उत्पन्न करदिया और वह सेना विश्वामित्र की सेनाके साथ युद्ध करने लगी। विश्वामित्र जी ने अपने पराक्रम से समस्त पह्नव सेना का विनाश कर डाला। अपनी सेना का नाश होते देखकर कामधेनु ने सहस्त्रों सैनिक उत्पन्न कर दिये। जब विश्वामित्र ने उन सैनिकों का भी वध कर डाला तो कामधेनु ने अत्यंत पराक्रमी मारक शस्त्रास्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्नकिया जिन्होंने शीघ्र ही शत्रु सेना को गाजर मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ जी को मारने दौड़े। वशिष्ठ जी ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया।अपनी सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वामित्र जी ने महादेव जी को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र बदला लेनेके लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे। उन्हें ललकार कर विश्वामित्र ने अग्निबाण चला दिया। अग्निबाण से समस्त आश्रम में आग लग गई और आश्रमवासी भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले कि मैं तेरे सामने खड़ा हूँ तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बतादूँगा कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ दिया जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर मानव, मोहन, गान्धर्व, जूंभण, दारण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्रौंच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदिसभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके ब्रह्मास्त्र छोड़ने का लिये जब अपना धनुष उठाया तो सब देव किन्नर आदि भयभीत हो गये। किन्तु वशिष्ठ जी तो उस समय अत्यन्त क्रुद्ध हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मास्त्र छोड़ ही दिया।ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आजप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थाना से द्रवित होकर उन्होंनेब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया। विशवामित्रजी के द्वारा एक्ष्वाकु वँशी राजा त्रिशँकु को स्वर्ग भेजना  वशिष्ठ से पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देय क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नी सहित दक्षिण दिशा की और चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी यह सोचकर कि ब्रह्माजी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये। त्रिशंकु: मिथिला के राजपुरोहित शतानन्द जी ने अपनी वार्ता जारी रखते हुये कहा इस बीच इक्ष्वाकु वंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये। त्रिशंकु ने वशिष्ठ जी से कहा कि वे सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः आप इसके लिये यज्ञ करें। वशिष्ठ जी बोले कि मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि मैं किसी व्यक्ति को शरीर सहित स्वर्ग भेज सकूँ। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की जो दक्षिण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि अरे मूर्ख जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके तू उसे हम से कराना चाहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तू हमारे पिता का अपमान करने के लिये यहाँ आया है। उनके इस प्रकार कहने से त्रिशंकु ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी के पुत्रों को अपशब्द कहे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया। शाप के कारण त्रिशंकु का सुन्दर शरीर काला पड़ गया। सिर के बाल चाण्डालों जैसे छोटे छोटे हो गये। गले में हड्डियों की माला पड़ गई। हाथ पैरों में लोहे की कड़े पड़ गये। त्रिशंकु का ऐसा रूप देखकर उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर बोले कि ऋषिराज आप महान तपस्वी हैं। मेरी इस इच्छा को पूर्ण करके मुझे कृतार्थ कीजिये। विश्वामित्र ने कहा कि हे राजन् तुम मेरी शरण में आये हो। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा।इतना कहकर विश्वामित्र ने अपने उन चारों पुत्रों को बुलाया जो दक्षिण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।आज्ञा पाकर वे निमन्त्रण देने के लिये चले गये। उन्होंने लौटकर बताया कि सब ऋषि-मुनियों ने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर निमन्त्रण अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर कहा कि उन्होंने अकारण ही मेरा अपमान किया है। मैं उन्हें शाप देता हूँ कि उन सबका नाश हो। आज ही वे सब कालपाश में बँध कर यमलोक को जायें और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करें। उन्हें खाने के लिये केवल कुत्ते का माँस मिले और सदैव कुरूप बने रहेँ। इस प्रकार शाप देकर वे यज्ञ की तैयारी में लग गये।कथा को आगे बढ़ाते हुये शतानन्द जी ने कहा हे राघव विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्ध्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर केबल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे। इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।  विशवामित्रजी के द्वारा बह्रर्षि पदवी प्राप्त करना ब्राह्मणत्व की प्राप्ति: शतानन्दजी कहने लगे हे रामचन्द्र देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे। बिना अन्न जल ग्रहण किये वर्षों तक तपस्या करते करते उनकी देह सूख कर काँटा हो गई इस तपस्या को भंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित हुए किन्तु उन्होंने बिना क्रोध किये ही उन सबका निवारण किया।तपस्या की अवधि समाप्त होने पर जब वे अन्न ग्रहण करने के लिए बैठे।तभी ब्राह्मण भिक्षुक के रुप में आकर इन्द्र ने भोजन की याचना की विश्वामित्र ने सम्पूर्ण भोजन उस याचक को दे दिया और स्वयं निराहार रह गये इन्द्र को भोजन देने के पश्चात विश्वामित्र के मन में विचार आया कि सम्भवत: अभी मेरे भोजन ग्रहण करने का समय नहीं आया है इसीलिये याचक के रूप में यह विप्र उपस्थित हो गया। मुझे अभी और तपस्या करना चाहिये। अतएव वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वाँस रोक कर महादारुण तप किया। इस तप से प्रभावित देवी देवताओं ने ब्रह्माजी से निवेदन किया कि हे भगवन विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुँच गई है।अब वे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गये हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है। सूर्य और चन्द्रमा का तेज भी इनके तेज के सामने फीका पड़ गया है। अतएव आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन से देवताओं को साथ लेकर विश्वामित्र जी के पास पहुँचे और बोले कि हे विश्वामित्र तुम्हारी तपस्या निःसन्देह प्रशंसनीय है। हम तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हैं और तुम्हें सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण की उपाधि प्रदान करते हैं। तुम संसार में महान यश के भागी बनोगे। ब्रह्मा जी से यह वरदान पाकर विशवामित्र ने कहा कि हे भगवन जब आपने मुझे यह वरदान दिया है तो मुझे ओंकार,षट्कार तथा चारों वेद भी प्रदान कीजिये। प्रभो अपनी तपस्या को मैं तभी सफल समझूँगा जब वशिष्ठ जी मुझे ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि मान लेंगे।विश्वामित्र की बात सुन कर सब देवताओं ने वशिष्ठ जी का पास जाकर उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। उनकी तपस्या की कथा सुनकर वशिष्ठ जी विश्वामित्र के पास पहुँचे और उन्हें अपने हृदय से लगा कर बोले कि विश्वामित्र जी आप वास्तव में ब्रह्मर्षि हैं। मैं आज से आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ। हे रघुनन्दन इतनी कठोर तपस्याओं एवं भारी संघर्ष के पश्चात विशवामित्र जी ने यह महान पद प्राप्त किया है। ये बड़े विद्वान, धर्मात्मा, तेजस्वी एवँ तपस्वी हैं। उस समय राजा जनक भी शतानन्द द्वारा वर्णित विश्वामित्र जी की कथा सुन रहे थे। वे बोले हे कौशिक मैं आपको और इन राजकुमारों को मिथिला में पाकर कृतार्थ हो गया हूँ। अब अधिक समय हो गया है। भगवान भास्कर अस्ताचल की ओर जा रहे हैं। सन्ध्या उपासना का समय हो गया है। इसलिये मुझे आज्ञा दीजिये। प्रातःकाल फर आपके दर्शन के लिये आउँगा। इतना कहकर मुनि से आज्ञा ले राजा जनक अपने मन्त्रियों सहित विदा हये। विश्वामित्र जी भी दोनों राजकुमारों के साथ अपने निश्चित स्थान के लिये चल पड़े। टीका टिप्पणी और संदर्भ 1.↑ऋग्वेद(3।26।2-3)। 2.↑ 2.0 2.1 2.2 विश्वामित्र की कथा। 3. ↑बाल्मीकि रामायण, बाल कांड,सर्ग 52 1-23, सर्ग 53, 1-25, सर्ग 54,1-23, सर्ग 55, 1-28, सर्ग 56, 1-24, सर्ग 57 श्लोक 1-9  राजपुताना इतिहास के विलुप्त अध्याय at 04:23 Share  3 comments:  jagmalsingh81@gmail.com29 July 2013 at 13:34 बहुत ही ज्ञान वृधक जय क्षात्र धरम Reply  राजपुताना इतिहास के विलुप्त अध्याय9 August 2013 at 07:11 धन्यवाद सा Reply  SEODIGITALMARKETING Training In JAIPUR sikar3 July 2017 at 23:16 Shekhawati news sikar news khatushyam temple Rajasthan news Shekhawati University results Shekhawati University admit card khatushyam temple live khatushyamji news live khatushyam temple darshan Online farming tips >|live t20 cricket score Salasar temple live darshan Salasar Hanuman temple|Salasar Balaji Temple Reply  ‹ Home View web version Powered by Blogger. 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