Friday, 25 August 2017
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21. कान्तिः कीर्ति र्मतिः क्षान्तिः
(सुभाषित/अन्य)
कान्तिः कीर्ति र्मतिः क्षान्तिः शान्ति र्नीति र्गती रतिः उक्तिः शक्तिः द्युतिः प्रीतिः प्रतीतिः श्री र्व्यव स्थितिः । न पश्यति न जानाति न श्रुणोति न जिघ्रति न स्पृशति न वा वक्ति भोजने न विना जनः ॥ कांति, ...
बुधवार, 21 जुलाई 2010

22. जीवन्तोऽपि मृताःपञ्च
(सुभाषित/अन्य)
जीवन्तोऽपि मृताःपञ्च व्यासेन परिकीर्तिताः । दरिद्रो व्यधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ॥ दरिद्री, बीमार, मूर्ख, प्रवासी और कायमी नौकर, ये पाँच जिंदा मुर्दे है, ऐसा श्री व्यासमुनि ने कहा है । ...
बुधवार, 21 जुलाई 2010

23. विप्राणां दैवतं शम्भुः
(सुभाषित/भक्ति)
विप्राणां दैवतं शम्भुः क्षत्रियाणां च माधवः । वैश्यानां तु भवेद् ब्रह्मा शूद्राणां गणनायकः ॥ ब्राह्मणों के आराध्य देव शिवजी, क्षत्रियों के श्री कृष्ण, वैश्यों के ब्रह्मा, और शूद्रों के आराध्य श्री गणेश ...
मंगलवार, 20 जुलाई 2010

24. केचिद्वदन्ति धनहीनजनो
(सुभाषित/भक्ति)
... पर, सभी वेद-पुराण जाननेवाले श्रीव्यास मुनि कहते हैं कि नारायण का (भगवान का) स्मरण न करनेवाले क्षुद्र हैं । ...
मंगलवार, 20 जुलाई 2010

25. कृष्णो योगी शुकस्त्यागी
(सुभाषित/चरित्र पूजन)
कृष्णो योगी शुकस्त्यागी राजानौ जनकराघवौ । वसिष्ठः कर्मकर्ता च पञ्चैते ज्ञानिनः स्मृताः ॥ योगी श्री कृष्ण, त्यागी शुकदेवजी, राजाओं में जनक और श्री राम, और कर्मरत वसिष्ठ – ये पाँच ज्ञानी माने गये हैं ...
मंगलवार, 20 जुलाई 2010

26. अचतुर्वदनो ब्रह्मा
(सुभाषित/चरित्र पूजन)
... भगवान श्री बादरायण (व्यास मुनि) है । ...
मंगलवार, 20 जुलाई 2010

27. उपभोक्तुं न जानाति श्रियं
(सुभाषित/दान )
उपभोक्तुं न जानाति श्रियं प्राप्यापि मानवः आकण्ठं जलमग्नोऽपि श्वा हि लेढ्येव जिह्वया । जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ॥ श्री प्राप्त करने के ...
मंगलवार, 20 जुलाई 2010

28. देयं भो ह्यधने धनं सुकृतिभिः
(सुभाषित/दान )
देयं भो ह्यधने धनं सुकृतिभिः नो सञ्चितं सर्वदा श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपते रद्यापि कीर्तिः स्थिता । आश्चर्यं मधु दानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितम् निर्वेदादिति पाणिपादयुगलं घर्षन्त्यहो मक्षिकाः ॥ निर्धन ...
मंगलवार, 20 जुलाई 2010

29. गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः
(सुभाषित/गुरु)
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ...
गुरुवार, 27 मई 2010

30. अज्ञान तिमिरान्धस्य
(सुभाषित/गुरु)
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार । ...
गुरुवार, 27 मई 2010

31. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य
(सुभाषित/ईश्वर)
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥ समग्र ऐश्वर्य, शौर्य, यश, श्री, ज्ञान, और वैराग्य इन छे गुणों से "भग" बनता है । ("भगवान" शब्द की व्युत्पत्ति) ...
गुरुवार, 27 मई 2010

32. मूर्खाः यत्र न पूज्यन्ते
(सुभाषित/मूर्ख)
मूर्खाः यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम् । दम्पतयोः कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ॥ जहाँ मूर्ख पूजे नहीं जाते, धन का सम्यक् संग्रह होता है, पति-पत्नी के बीच कलह नहीं होता, वहाँ लक्ष्मी अपने ...
बुधवार, 26 मई 2010

33. प्रायेणात्र कुलन्वितं कुकुलजाः
(सुभाषित/मूर्ख)
प्रायेणात्र कुलन्वितं कुकुलजाः श्री वल्लभं दुर्भगाः दातारं कृपणा ऋजूननृजस्तेजस्विनं कातराः । वैरूप्योपहताश्च कान्तवपुषं धर्माश्रयं पापिनो नानाशास्त्रविचक्षणं च पुरुषं निन्दन्ति मूर्खा जनाः ॥ ज़ादा करके ...
बुधवार, 26 मई 2010

34. रत्नाकरः किं कुरुते स्वरत्नैः
(सुभाषित/परोपकार)
रत्नाकरः किं कुरुते स्वरत्नैः विन्ध्याचलः किं करिभिः करोति । श्रीखण्डखण्डै र्मलयाचलः किं परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ समंदर को अपने रत्नों का क्या उपयोग ? विंध्याचल को उसके हाथीयों का क्या काम ? मलयाचल पर्वत ...
बुधवार, 26 मई 2010

35. श्रीमान् जनानिंद्यश्च
(सुभाषित/राजधर्म)
श्रीमान् जनानिंद्यश्च शूरश्चाप्यविकत्थनः । समदृष्टिः प्रभुश्चैव दुर्लभाः पुरुषस्त्रयः ॥ तीन तरह के लोग दुर्लभ है; जननिंदा को पात्र न हुआ श्रीमान, आत्मप्रशंसा न करनेवाला शूर, और सर्वत्र समदृष्टि रखनेवाला ...
बुधवार, 26 मई 2010

36. यत्रोत्साहसमारम्भो
(सुभाषित/उद्यम)
यत्रोत्साहसमारम्भो यत्रालस्य विहीनता । नयविक्रम संयोगस्तत्र श्रीरचला ध्रुवम् ॥ जहाँ उत्साह से कार्य का आरंभ होता है, जहाँ आलस्य नहि और जहाँ नीति और पराक्रम का संयोग है, वहाँ लक्ष्मी जरुर स्थिर रहती है ...
बुधवार, 26 मई 2010

37. त्रिविधा भवति श्रद्धा
(श्रीमद्भगवद्गीता /अ१७ श्रद्धात्रयविभागयोग )
श्री भगवानुवाच त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ॥ २ ॥ मनुष्यॉ मॅ स्वभाव से हि उत्पन्न श्रद्धा तीन प्रकार की होती है , सात्त्विक, राजसी किंवा तामसी, ...
मंगलवार, 25 मई 2010

38. ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वतथं
(श्रीमद्भगवद्गीता /अ१५ पुरुषोत्तमयोग )
श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वतथं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १ ॥ श्री भगवान बोले – जिसके मूल (परमात्मा) उपर (उच्च, उन्नत) है, शाखाएँ नीचे (निम्न, अधम) हैं, तथा वेद ...
मंगलवार, 25 मई 2010

39. परं भूयः प्रवक्ष्यामि
(श्रीमद्भगवद्गीता /अ१४ गुणत्रयविभागयोग )
अर्जुन उवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १ ॥ श्री भगवान् बोले - ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर ...
मंगलवार, 25 मई 2010

40. प्रकाशं च प्रवृत्तिं च
(श्रीमद्भगवद्गीता /अ१४ गुणत्रयविभागयोग )
श्रीभगवानुवाच प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ २२ ॥ वह पुरुष गुणों के प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकाङ्क्षा ...
मंगलवार, 25 मई 2010
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