Wednesday, 23 August 2017
यहाँ सच बोलना मना है
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SACH BOLNA MANA HAI
यहाँ सच बोलना मना है
POSTED IN संस्कृतम्- भारतस्य जीवनम्
वेदानां विषये कानिचन् रोचकं महत्तत्वानि- अवश्यं पठेयु:।।

।। हिन्दी भाषायां पठितुं अत्र बलाघात: करणीय: ।।
सनातन धर्मस्य प्राणवत्, विश्वस्य महानतम: आदिग्रन्थ: ''वेद'' न केवलं हिन्दुधर्मस्य अपितु सर्वेषां धर्माणां मूलम् अस्ति । ''वेदोखिलो धर्ममूलम्'' अर्थात् समेषां धर्माणां उत्पत्ति: अनेन एव अभवत् इति ।
अद्य अस्मिन् लेखे अहं वेदानां विषये केचन महत्वपूर्ण तथ्यानां उद्घाटनं करोमि । एते विषया: ते सर्वे ज्ञायेयु: ये धर्मविषये जिज्ञासमाना: सन्ति, इत्यपि उक्तमेव अस्ति- ''धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:'' ।
वस्तुत: वेदानां प्रादुर्भाव: श्रृष्ट्यारम्भे एव अभवत किन्तु केचन् पाश्चात्यीयानां दुराग्रहकारणात् एव अस्माकं विद्वान्स: अपि वेदानां रचनाकालं केवलं विगत चतुर्पंच सहस्र वर्षाणि एव मन्यन्ते । ते अवधानं न ददति यत् वेदानां परम्परा अपि वर्णिता अस्ति । अनेन क्रमेण ईश्वरेण ब्रह्मा, तेन वशिष्ठ अपि च अनेनेव क्रमेण शक्ति, पराशर , द्वैपायन: च वेदानां ज्ञानं प्राप्तवान् । वेदानां विस्तारकारणात् एव तस्य नाम वेदव्यास: इति अभवत ।
वेदेषु प्राचीनतम: ऋग्वेद: अस्ति । इत्यपि प्राप्यते यत् सर्वप्रथम: केवलं ऋग्वेद: एव आसीत् , पठन-पाठनसारल्यहेतु: एव द्वैपायन: अस्य विस्तारं चतुर्षु वेदेषु कृतवान अत: तस्य नाम व्यास इति अभवत् । अत्र अहं ऋग्वेद विषये कानिचन् महत्तत्वानां उद्घाटनं करोमि । विज्ञा: स्वविचारान अवश्य दद्यु: ।
महाभाष्य (पश्पसाह्निक) अनुसारं ऋग्वेदस्य एकविंशति: (21) शाखा: आसन् । एताषु शाखासु चरणव्यूह ग्रन्थानुसारं पंच (5) शाखा: (शाकल, बाश्कल, आश्वलायन, शांखायन, माण्डूकायन) मुख्या: सन्ति । यासु साम्प्रतं केवलं शाकल शाखा एव प्राप्यते ।
ऋग्वेदस्य (शाकल शाखा) विभाजनं द्विधा, अष्टक क्रमेण, मण्डल क्रमेण च कृतं अस्ति ।
अष्टक क्रमे , अष्ट अष्टकेषु अष्ट-2 अध्याया: , प्रत्येकस्मिन् अध्याये केचन् वर्गा: , प्रत्येकवर्गे केचन ऋचा: सन्ति । अनेन क्रमेण सम्पूर्ण 2006 वर्गा: 10417 ऋचा: च सन्ति । शौनकाचार्यस्य अनुक्रमण्यां अस्य पूर्णसंख्या 10580-1/4 इति अस्ति । ''ऋचां दशसहस्राणि ऋचां पंचशतानि च, ऋचामशीति: पादश्च पारणं सम्प्रकीर्तितम्'' ।
मण्डल क्रम: अतिप्रचलित: अस्ति । एतस्यानुसारं ऋग्वेद: दश मण्डलेषु विभक्त: अस्ति । प्रत्येकेषु मण्डलेषु विभिन्न अनुवाका: , तेषु कानिचन् सूक्तानि, प्रत्येकेषु सूक्तेषु केचन् मन्त्रा: सन्ति । औसतसंख्या पंच अस्ति । एवं विधा सम्पूर्णं 1028 सूक्तानि सन्ति येषु 11 खिल सूक्तानि सन्ति ।
प्रथम मण्डलस्य द्रष्टार: शतार्चिननामधारिण: सन्ति ।
2 त: 8 पर्यन्तं वंशमण्डल इति संज्ञया अभिहिता: ।
नवम मण्डलं सोम, पवमान मण्डलं वा कथ्यते । अस्य मण्डलस्य सर्वाणि सूक्तानि सोम देवं समर्पितमस्ति ।
दशम मण्डलस्य नासदीय सूक्तपर्यन्तं सूक्तानि महासूक्तानि, अनन्तरं क्षुद्रसूक्तानि इति अथ च एतेषां द्रष्टार: अपि एतया संज्ञया एव अभिहिता: ।
ऋग्वेदस्य प्रधानदेव: इन्द्र: अस्ति । अस्य 250 सम्पूर्णसूक्तेषु अपि च अन्येषु आंशिकरूपेण अर्चना कृता अस्ति ।
ऋग्वेदे समस्तमण्डलानां प्रारम्भिकसूक्तानि अग्निं समर्पितमस्ति । अग्नि: ऋग्वेदस्य द्वितीय: प्रधानदेव: अस्ति । अस्य 200 सम्पूर्ण सूक्तेषु अन्यत्र च आंशिक रूपेण अर्चना कृतास्ति ।
ऋग्वेदस्य रक्षार्थं, अपरिवर्तनीयं भूयात् अत: अपि सूक्तानां शब्दानाम् अपि गणना कृतास्ति । शौनकानुक्रमणी मध्ये एषा संख्या 153826 अस्ति । ''शाकल्यदृष्टे: पदलक्षमेकं सार्धं च वेदे त्रिसहसयुक्तम् , शतानि चाष्टौ दशकद्वयं च पदानि षट् चेति हि चर्चितानि ।'' (अनुक्रमणी 45)
शब्दानां एव न अपितु वर्णानाम् अपि गणना कृता अस्ति । अनुक्रमणी अनुसारं एषा संख्या 432000 अस्ति । ''वृहतीसहस्राण्येतावत्यो हर्चो या: प्रजापति सृष्टा:'' (शत0 ब्रा0-10,4,2,23), ''चत्वारिंशतसहस्राणि द्वात्रिंशच्चाक्षरसहस्राणि'' – (शौनक-वाकानुक्रमणी)
ऋग्वेदस्य प्रथम अध्यापनं वेदव्यास: स्वशिष्यं पैलं प्रति कृतवान् । ''तत्रगर्वेदधर: पैल:'' ।
ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य ऋषय: एव तस्य देवतार: अपि सन्ति ।
मन्त्राणां दर्शने महिलानाम् अपि सहयोग: अस्ति । तासु अगस्त्यपत्नी लोपामुद्रा, महर्षि अम्भृणपुत्री वाक् इत्ययो: नाम विशेष उल्लेखनीय: अस्ति ।
एवंविधा ऋग्वेदविषये अत्र दत्त: सन्ति केचन् महद्विषया: । पाठकानां विचाराणां स्वागतमस्ति ।
।। जयतु वेदान् । जयतु भारतम् ।।
मई 9, 2010Leave a reply

 [संस्कृतं- भारतस्य जीवनम्] अग्रिम जनगणनार्थं एकं आवश्यकनिर्देश:
सर्वे भारतीयानां प्रति मम एकं निवेदनं अस्ति । यदि भवन्त: स्वीकरिष्यन्ति चेत् न केवलं संस्कृतस्य अपितु सम्पूर्ण भारतस्य, भारतीय संस्कृते: च कल्याणाय एव भविष्यति।
आगामी जनगणनायां सर्वे संस्कृतज्ञा: कृपया स्व मातृभाषास्थाने संस्कृतम् एव लिखेयु: तथा ये स्वकीयं अल्पसंस्कृतविज्ञ: इति मन्यन्ते तेषां प्रति मम कथनं अस्ति यत् वयं सर्वे दैनिक जीवने कस्याचित् अपि भाषाया: वाचने संस्कृत शब्दानां प्रयोग: कुर्म: एव । न केवल भारतीय भाषासु अपितु वैदेशिकभाषासु अपि संस्कृतस्य शब्दा न्यूनाधिका: गृहीता: एव सन्ति यथा आग्लभाषाया: गो शब्द:- इत्यस्य अर्थ: गमनं इति भवति खलु । गो इत्यस्य संस्कृत व्युत्पत्ति: गच्छति इति गो इति अस्ति ।
अत: यदि वयं संस्कृतम् इति अस्माकं मातृ अथवा द्वितीय भाषा इति लिखाम: चेत् न कापि हानि: अपितु लाभाय एव ।
अत्र मम किमपि दुराग्रह: नास्ति अपितु अहं केवलं अस्माकं भारतस्य, भारतीयसंस्कृते: च विषये एव चिन्तयन् एवं निर्दिशामि ।
मम आशय: केवलं एष: एव यत् यत् सम्मानं वयं विदेशी भाषानां कृते दद्म: तत् सम्मानं अस्माकं भारतीय भाषाम् एव मिलेत इति ।
संस्कृत भाषा अस्माकं जननी चेत् यदि वयं अस्या: संरक्षणं न कुर्म: तर्हि अस्माकं दौर्भाग्यं एव ।
भवन्त: सर्वे मम निवेदनं स्वीकरिष्यन्ति इति आशामहे ।
हिन्दी भाषायां पठितुं अत्र बलाघात: करणीय:
।। भवतां आभार:।।
मई 8, 2010Leave a reply
आगामी जनगणना से संबन्धित एक आवश्यक निर्देश ।

आज आपके सामने जिस निवेदन को लेकर उपस्थित हुआ हूं उसके चरितार्थ होने पर सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति लाभान्वित होगी।
संस्कृत देवभाषा है ये तो हम सब भी मानते हैं और साथ ही साथ आज सम्पूर्ण विश्व भी ये बात स्वीकार करने को बाध्य है ।
संस्कृत न केवल सर्वप्राचीन भा षा है अपितु सबसे वैज्ञानिक भाषा है और सभी भाषाओं की मां अर्थात जननी है ।
संस्कृत भाषा ही भारतीय संस्कृति की पोषक और रक्षक है अत: इसकी रक्षा हमारा परम कर्तब्य है ।
अत: निवेदन ये है कि आगामी जनगणना में आप सभी बन्धु संस्कृत भाषा को अपनी भाषा के रूप में नामित करें ।
जो जन संस्कृत विज्ञ हैं और संस्कृत बोलना, लिखना तथा पढना जानते हैं वो आगामी जनगणना में अपनी मातृभाषा संस्कृत ही लिखें । तथा जो संस्कृत नहीं जानते या स्वयं को अ ल्पज्ञ समझते हैं उनसे मैं ये कहना चाहूंगा कि हम सभी हिंदी भाषी या किसी भी भारतीय भाषा के बोलने वाले अपनी भाषा में 20 प्रतिशत शब्द संस्कृत के ही बोलते हैं फिर चाहे हम मराठी, गुजराती, उर्दू, पंजाबी या कोई भी भारतीय भाषा बोलते हों । इतना ही नहीं हम जिन विदेशी भाषाओं को बोलते हैं उनमें भी संस्कृत से ही शब्द गृहीत हैं। एक उदाहरण दे रहा हूं ।- अंग्रेजी भाषा का शब्द गो जिसका अर्थ जाना होता है ज्यों का त्यों संस्कृत भाषा से ही उठाकर रख दिया गया है । गो की संस्कृत में व्युत्पत्ति गच्छति इति गो है । ऐसे ही और भी बहुत से शब्द हैं जो संस्कृत से ही गृहीत हैं । अत: जो संस्कृत में अपना अधिक सामर्थ्य नहीं मानते वो संस्कृत को अपनी दूसरी भाषा के रूप में उद्धृत करें । इससे हमारी तो कोई हानि न होगी पर हमारी संस्कृति का उद्धार होगा ।
विश्वास मानिये इससे न केवल संस्कृत भाषा का अपितु सभी भारतीय भाषाओं को लाभ होगा , क्यूकि संस्कृत सबकी मां है और अगर मां पुष्ट होगी तो बच्चे तो अपने आप ही पुष्ट होंगे , या यूं कहें कि मां कभी भी अपने से पहले अपने बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है और इस तरह यदि संस्कृत भाषा बढेगी तो अन्य सभी भाषाओं का भी उपकार ही होगा ।
इस निवेदन में मेरा कोई ब्यक्तिगत स्वार्थ तो नहीं ही है ये बात तो आप सब समझते ही है फिर भी मैं ये निवेदन सिर्फ इसलिये कर रहा हूं कि जनगणना में आप अपनी प्रथम भाषा और द्वितीय भाषा के तौर पर किसी न किसी भाषा का नाम तो देंगे ही । फिर किसी भी विदेशी यथा अंग्रजी आदि भाषाओं को अपनी पहली या दूसरी भाषा क्यूं बनाई जाए । हम कितने भी दिन विदेशों में बिता लें पर हमारी मां तो वही रहेगी जो बचपन से हमारी मां है, जिसने हमें पैदा किया है । तो फिर हमें अपनी मां को मां कहने में शर्म क्यूं हो जबकि हमारी मां दुनिया की सर्वश्रेष्ठ मां है ।
आशा है आप सभी बन्धु मेरे इस निवेदन को स्वीकार करेंगे।।
आपका आभार
मई 8, 2010Leave a reply
कोई भी ग्रन्थ अप्रासंगिक नहीं है अपितु हमारे विचार ही अप्रासंगिक हैं।।- भाग -2

प्रिय महक जी
आपकी शेष शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर रहा हूं।
आशा है आप इन पर भी अपने विचारों को पुष्ट कर पाएंगे।।
आपकी अगली शंका है कि मनुस्मृति में मांस भक्षण निशिद्ध है 5,51 मगर फिर भी प्रतिदिन मांस भक्षण करने वालों के लिये अनुचित नहीं कहा गया है 5,30 ।।
इस विषय में भी आपकी शंका अन्य श्लोकों को ध्यान से न पढने के कारण ही है।
अगर आप इसी अध्याय का 29वां श्लोक भी देखते तो आपकी ये शंका स्वयं ही समाधित हो जाती।।
श्लोक का भावार्थ नीचे दे रहा हूं।।
चरणामन्नमचरा,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, भीरव:।।
चर जीवों (गाय, भैंस आदि) के लिये अचर (पेड, पौधे) , बडे दांत (सिंह, व्याघ्र आदि) वालों के लिये छोटे दांत वाले (हिरण आदि), हांथ वाले जीवों के लिये बिना हांथ वाले जीवों तथा साहसी जीवों के लिये कायर जीवों को भोजन के रूप में बनाया जाता है।
इस श्लोक में कदाचित हांथ वाले जीवों को आप मनुष्य भी समझ लें तो यह उन जंगली मनुष्यों के लिये कहा गया है जो प्रारम्भ से ही पशुओं का सा ही जीवन बिता रहे हैं तथा जिन्हे ये तक नहीं पता कि मनुष्य जाति क्या होती है अपितु जो स्वयं को अन्य जंगली पशुओं की भांति ही समझते हैं । आप आज भी इस तरह के लोगों का उदाहरण देख सकते हैं, अत: श्लोक संख्या 30 में इन्ही लोगो के लिये ये विधान किया गया है जो नित्य मांस खाने वाले हैं उन्हे पाप नहीं लगता।
यहां आप ध्यान दें तो ये उचित ही प्रतीत होता है, भला जो व्यक्ति भक्ष्य अभक्ष्य तो क्या स्वयं अपने ही बारे में न जानता हो उसके लिये पाप क्या और पुण्य क्या।
श्लोक संख्या 27 जहां आप की शंका है कि ब्राह्मण को मांस प्रोक्षण विधि द्वारा ही खिलाया जाए।।
इस शंका का समाधान स्वयं ही हो जाता अगर आप मांस शब्द के अन्य अर्थों पर भी ध्यान देते।
मांस का अर्थ द्विधा है- पहला किसी भी प्राणि का मांस, दूसरा गूदेदार फल (अमरकोष,निरूक्त तथा आप्टे कोश के अनुशार )
अब इस अर्थ को जान लेने के पश्चात मुझे नहीं लगता कि आपकी ये शंका बची होगी।
वस्तुत: संस्कृत शब्दों के पुरातन प्रयोग अगर आज उसी रूप में भी रखे जाते हैं तो भी शब्दार्थ का एकधा ज्ञान होने के कारण ही ब्यक्ति शंकित हो जाता है।
कुछ बहुप्रचलित उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जिनका आप लोक में भी बहुधा प्रयोग देखते होंगे पर आज उनका सामान्य रूप से प्रयोग किये जाने पर दुर्घटनाएं जन्म ले सकती हैं।
1-सैन्धव शब्द का दो अर्थ क्रमश: घोडा तथा नमक होता है।
कोई ब्यक्ति भोजन पर बैठा है और सैन्धवमानय यह आदेश देता है तो वहां अगर हम नमक के बदले घोडा ले जाएं तो द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।
2-गायत्रीमंत्र में प्रयुक्त शब्द प्रचोदयात
प्रचोदयात शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक चुद् धातु से बना है जिसका अर्थ प्रेरित करना होता है। इसके रूप पठ के सदृश ही चलते हैं।
अब आज आप अगर इस धातु का प्रयोग (त्वं पठितुं स्व बालिकां चुदसि- तुम पढने के लिये अपनी बालिका या पुत्री को प्ररित करते हो) आप लोक में कर दें तो आप पर लाठियां भी बरस सकती हैं।
3-अभिज्ञान शाकुन्तल के चतुर्थ अध्याय में प्रयुक्त शब्द (चूतशाखावलम्बिता)
चूत का अर्थ आम या आम के पेड से है मगर आज आप इनका प्रयोग जनसामान्य में कर दीजिये तो जाने क्या गजब हो जाए।
ऐसे ही कई और शब्द हैं जिनका प्रयोग आज अप्रासंगिक है पर पहले जो काव्य की शोभा या लालित्य बढाने के लिये प्रयुक्त होते थे, और क्यूंकि तब संस्कृत जनभाषा थी अत: लोग इनका उचित अर्थ ही ग्रहण करते थे जो आज नहीं है , अब आप ही बताइये इसमें किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकार की क्या गलती।
आज के परिवेश में आप प्यार शब्द का खूब प्रयोग करते हैं , पर जिस तरह से प्यार में विकृतियां आती जा रही है निश्चित ही भविष्य में इसका प्रयोग भी गाली मान लिया जाएगा तो क्या आज के सारे लेखक रचनाकार गलत हो जाएंगे और उनकी रचनाओं का भी कामुक अर्थ ही लगा लेना उचित होगा।।
इसी तरह मैं आपको पशु शब्द का भी अर्थ बता दूं तो शायद आपकी अग्रिम शंका का समाधान हो जाए।।
पशु की व्युत्पत्ति पोषयति, पोषणं ददाति इति पशु: अर्थात जो पोषण करता हो वह पशु है।
पशु के अर्थों में प्राय: अन्न (नृणां ब्रीहिमय: पशु:), इन्द्रियां, आदि पशु हैं, इसी क्रम में देवों को भी पशु कहा गया है, वायु: पशुरासीत् तेनायजन्त,सूर्य: पशुरासीत् तेनायजन्त, अग्नि- पशुरासीत् तं देवा अलभन्त।।
पुरूष सूक्त में विराट पुरूष को पशु कहा गया है, अबध्नन् पुरूषं पशुं।।
इस तरह अगर उपरोक्त स्थानों पर पशु के ये अर्थ प्रयोग किये जाएं तो अर्थ उचित आ जाएगा।
यहां आप प्रश्न कर सकते हैं कि उन श्लोकों के व्याख्याकारों ने तो यही व्याख्या लिखी है तो मैं केवल एक बात ही कहना चाहूंगा , वस्तुत: 10वीं शती से 19वीं शदी तक भारत द्वन्द्वों से जूझता रहा और संस्कृत का अध्ययन धीरे धीरे समाप्त सा होता रहा। समाज में केवल भावार्थ और उसमें भी जो ज्ञात है उसी को लिखने की परम्परा चल पडी , किसी ने अमरकोष, निरूक्त या निघण्टु आदि शब्दकोषों को देखने तक की हिम्मत न जुटाई क्यूंकि तब अपने जीवन काल में भी कोई एक व्यक्ति 2 या 4 ग्रन्थों से अधिक का भावार्थ न दे पाता। इस तरह जिसने जो पाया वही लिख दिया, रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी की जो वेदादि के कुप्रचार हेतु ही अध्ययन करते थे।
शोध की परम्परा भी यही कुछ रही थी कि व्यक्ति पहले की लिखी पुस्तकों से अपने काम भर का संकलन कर के अपना ग्रन्थ तैयार कर लेता था।
ये तो आचार्य श्री सातवलेकर आदि के सदृश विद्वानों का अथक परिश्रम ही है जो आज भी वेदों को दूषित होने से बचा रहा है अन्यथा वेदादि ग्रन्थों के कुप्रचार में किसी ने कोई कसर नहीं रखी थी।
पितरों के श्राद्ध में मांस सर्वथा वर्जित था (हेमियं च मांसवर्जनं- एतरेय ब्राह्मण), (आह्वनीय मांस प्रतिषेध:-आश्वलायन सूत्र)
इस तरह से 3सरे अध्याय में जो भी दिया गया है वो सांकेतिक मात्र है, उससे किसी भी मांस का कोई तात्पर्य नहीं है। इन सभी की एकाधिक शब्दार्थ भिन्नता तथा व्यंजना प्रयोग के कारण ही इन शब्दों का प्रयोग है।
जैसे यज्ञों में मांस सर्वथा वर्जित है तथापि पशु, लोम, अस्थि, मज्जा, मेध, आलभन आदि द्वयार्थक शब्दों के प्रयोग इन्हें भ्रामक बनाते रहे हैं तथा इनका लोक में प्रचलित शब्दार्थ ही ग्रहण करने के कारण इनका कुप्रचार हुआ है।।
इन सब शब्दों का भ्रामक प्रयोग और सम्यक प्रयोग इसके पहले के लेख में भी सम्पादित किया जा चुका है अत: यहां पुनरूक्ति करने की आवश्यकता नहीं अनुभूत है।
परलोक के बारे में आपका भ्रम
वस्तुत: विभिन्न ग्रन्थों तथा विभिन्न धर्मो ने इसकी व्याख्या अपन अनुयाइयों की आत्मतुष्टि के लिये ही की है। चार्वाक दर्शन तो इन सब बातों को मानता ही नहीं है, उसका तो कहना ही है यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् तो अगर सम्पूर्ण विश्व चार्वाक दर्शन की बात मानकर केवल ऋण पर ही गुजारा करने लगे तो कौन सा दृष्य उत्पन्न होगा आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं। अत: आप इस विषय पर वेदों को सत्य मान सकते हैं क्योंकि इस तरह से कम से कम आप बुरे कर्म करने से तो डरेंगे।
यहां आप ये भी तर्क दे सकते हैं कि इस बारे में कुरान की ही बात क्यूं न मान ली जाए कि कयामत के दिन ही खुदा सब के दण्ड का निर्धारण करेगा तो मैं तो कहूंगा कि बात घुमा फिरा के वहीं पर आती है, भला कयामत का दिन क्या हो सकता है मौत के सिवाय, तो वेद भी तो यही कहता है कि मरने के बाद भी यहां के किये कर्मो का फल मिलता ही है।
रही स्वर्ग नरक की बात तो इस्लाम में भी दोजख और जन्नत कहा है, इसाइयों ने भी हैवेन और हेल कहा है, मतलब ये कि अगर मृत्यु के बाद स्वर्ग और नर्क की मान्यता किसी धर्म में न हो तो इससे सम्बन्धित शब्द ही क्यूं गढे जाएंगे अर्थात् सारे धर्म एक ही बात को अलग अलग तरीके से कहते हैं पर मानते सभी एक ही बात को हैं।
रही बात कर्मों के फल के द्वारा उत्पत्ति की तो इसे भी सामाजिक व्यवस्था को सुद्ढ करने का एक साधन ही कह लीजिये , पर हां जहां धर्मग्रन्थों की बात चले वहां विज्ञान को बीच में न लाएं तो ही उचित है। क्यूंकि प्राय: पाश्चात्य विज्ञानियों ने जितने भी तथ्य सम्पादित किये हैं सृष्टि से सम्बन्धित, वो सब उन्होने हिन्दू धर्मग्रन्थों से ही चुराए हैं , फर्क बस इतना है कि उन्होने अपनी तरफ से थोडा सा तोड मरोड भी कर दिया है और विडम्बना ये कि हम अपन ग्रन्थों के ज्ञान से खुद ही अपरिचित हैं । डार्विन का प्रशिद्ध सिद्धान्त भी विष्णु पुराण, महाभारत तथा कुछ अन्य वैदिक व लौकिक साहित्यों से चुराया हुआ है। संयोग वशात् मेरा ये संकलन कहीं खो गया है तथा अभी वेदों पर ही शोध में प्रवित्त होने के कारण मै इनका फिलहाल तो फिर से संकलन नहीं कर पाउंगा पर ये दावा है कि यथासम्भव मैं इनकी वास्तविकता से आपको अवगत कराउंगा।
इस जीवोत्पत्ति के सिद्धान्त तथा कर्मो के फल के विषय में चर्चा इतनी आसान व छोटी नहीं है कि मै इसका सम्पूर्ण विवरण आपको मेल के द्वारा ही दे पाउं अत: फिलहाल तो आप इसको केवल जनमानस को अच्छे कार्यो में प्रवित्त करने व बुरे कार्यो से हटने के लिये प्रतिपादित किया गया एक नियम ही मान सकते हैं।
वृहदारण्यक के विषय में भ्रान्ति निवारण-
वृहदारण्यक के मन्त्र का गलत अर्थ आज के युग में लगाया ही जा सकता है, हमने पिछले लेख में इस बात का उल्लेख भी किया था कि समय के अनुसार ही ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं तथा अगर अन्य समय में उन्ही शब्दों का अर्थ या भाव प्रयोग किया जाए तो अनर्थ के अलावा शायद कोई हल नहीं निकलता।
वैदिक काल में स्त्री के साथ सम्बन्ध भोग के लिये नहीं अपितु योग की तरह से मात्र पित्रृ ऋण चुकाने के लिये ही किया जाता था, इस बात से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि स्त्री के साथ संभोग मात्र पुत्र उत्पादन तक ही सीमित था, पर हां पुत्रोत्पादन के लिये स्त्री के साथ संभोग अनिवार्य था। अत: उक्त मन्त्र में इस तरह की बातें की गयी हैं। इनका तात्पर्य सिर्फ ये है कि विवाह के पश्चात् यदि पत्नी किसी अन्य की इच्छा या पति के प्रति अरूचि के कारण कभी भी उसके साथ संभोग न करना चाहे तो ऐसे में उक्त प्रकार्यों का प्रयोग उचित था। इसी अध्याय के प्रथम व द्वितीय मन्त्र में स्त्री को यज्ञ की तरह पवित्र भी कहा गया है , अब आप खुद ही सोंच सकते हैं कि यज्ञ की उपमा पाने वाली स्त्री के साथ उक्त विधान क्यूं किया गया था।
गर्भाधान हेतु प्रयुक्त मन्त्रों के विषय में भी आपकी शंका केवल गलत या भ्रामक अध्ययन के कारण ही हुई है।
जिन मंन्त्रों को आप गलत अर्थ वाला मान रहे हैं उनका क्रमश: शब्दार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं।
सूक्त 184
1-विष्णुर्योनिं ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, दधातु ते।
विष्णुदेव नारी या प्रकृति को गर्भाधान की क्षमता से युक्त करें, त्वष्टादेव उसके विभिन्न अवयवों का निर्माण करें, प्रजापति सेचन की प्रक्रिया में सहायक हों, तथा धाता गर्भधारण में सहायक हों।।
2-गर्भ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, पुष्करस्रजा।।
हे सिनीवालि । आप गर्भ को संरक्षण प्रदान करें, हे सरस्वति देवि, आप गर्भ धारण मे सहायक हों, हे स्त्री, स्वर्णिम कमल के आभूषण के धारणकर्ता अश्विनी कुमार आप में गर्भ को स्थिर करें।।
क्रमश:
इन उपरोक्त मंत्रों में मुझे तो एसा कुछ भी नहीं मिला जिससे आजकी स्त्री लज्जा के मारे मर जाए।।
आज जबकि खुलेआम कण्डोम, वियाग्रा आदि का खुला प्रचार ही नहीं अपितु चौराहों पर लगभग वस्त्रविहीन पोस्टर्स देखकर भी स्त्रियां शर्म से नहीं मरती तो इन मन्त्रों मे तो केवल मंगलकामनाएं ही की गई हैं तो बुरा क्या है।
फिर आपने जो सबके पैर छूने की बात की है तो ये बात तो आज भी सभ्य घरों की पहचान रूप में है। शहरों में तो नहीं कह सकता पर गांवों में आज भी ये परम्परा है कि शादी के तुरन्त बाद केवल स्त्री ही नहीं अपितु पुरूष भी अपने सभी ज्येष्ठों के चरण स्पर्श करता हैं। इन्हीं कुछ पवित्र परम्पराओं के कारण तो भारत विश्ववन्द्य था और आज भी है, फिर इन परम्पराओं में तो कोई दोष नहीं दिखता।
एक बात और ये सारे प्रक्रम किसी के रूग्ण होने पर नहीं करवाये जाते थे, ये तभी चरितार्थ होते थे या हैं जब कि पुरूष या स्त्री स्वस्थ हो अन्यथा इसे अगले अन्य दिनों के लिये टाल दिया जाता।।
आशा है आपकी भ्रान्तियां समाप्त हुई होंगी। अगर श्रद्धा रखेंगे तो भविष्य में कोई भी अन्य शंका उत्पन्न भी नहीं होगी। और फिर कभी कभी विषयानुरूप कुछ अनुचित कार्य भी उचित होते हैं, वेदादि ग्रन्थों ने झूठ बोलना भी निशिद्ध किया है पर वहीं यह भी आदेश है कि किसी के प्राण बचाने के लिये झूठ बोलें तो भी पाप नहीं लगता । अब अगर हम श्रद्धा से इन्हें स्वीकारें तो कोई भी दुविधा उत्पन्न नहीं होती पर अगर हम तर्क का प्रयोग करने लग जाएं तो इसे भी हम अनुचित ठहरा सकते हैं पर हमारी इन शंकाओं को कोई मत्त ही उचित ठहरायेगा।
एक लौकिक उदाहरण से समझाता हूं
आप के 2 साल के बच्चे ने आप से पूंछा – पिता जी मैं कैसे पैदा हुआ, आप क्या उत्तर देंगे।
क्या आप सच बताने का साहस करेंगे,
आपका पुत्र आपसे इस बात पर नाराज है कि आप उसे अपनी शादी में नहीं ले गये थे,
अब आप क्या कह कर उसे समझाएंगे।।
इन सब बातों से आप की शंकाओं का पूर्ण समाधान हो ही जाना चाहिये, एसा मै मानता हूं।
अन्त में एक ही बात कहूंगा- वेद सनातन धर्म के प्राण हैं, अत: इनपर कभी शंका न करें, जैसे कि कोई भी पिता पूरे निश्चय से अपन पुत्र को अपना नहीं कह सकता फिर भी अपनी पत्नी के विश्वास के आधार पर ही कहता है, ठीक उसी प्रकार हर बात में तर्क के आधार का प्रयोग ही उचित नहीं होता है, हमें अपनी श्रद्धा का प्रयोग भी करना पडता है।
वेद भगवान को प्रणाम करते हुए अपनी बात को समाप्त करता हूं।
सत्य सनातन धर्म की जय
जय हिन्द
—
ANAND
मई 5, 2010Leave a reply
महक जी द्वारा पूछे गये वेद विषयक भ्रान्तियों का समाधान

संस्कृति की रक्षा संस्कृत भाषा का प्रचार- यहां चटका लगायें।।
प्रिय महक जी
अच्छा लगा कि ये सारे तथ्य आपकी जिज्ञासा के अंग मात्र हैं।
मैं आपके सारे शंकाओं का समाधान करना चाहूंगा किन्तु मेरी लिखने की गति थोडा कम है अत: ये समाधान मैं आपको टुकडो में दूंगा।
सब से पहले मनुस्मृति जनित शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर रहा हूं।
किन्तु यहां किसी भी शंका को समाधित करने से पहले मैं एक बात अवश्य चाहूंगा कि आप इन्हे समसामयिक युग के दृष्टि कोण से देखें क्यूकि कोई भी ग्रन्थ अपने प्रणयन के काल की समसामयिक समस्याओं के निदान हेतु ही लिखा जाता है जो कि जरूरी नहीं कि हर काल में चरितार्थ हो और दूसरी बात यह कि कोई भी परम्परा समाज को सुधारने या सही मार्ग पर ले जाने के लिये आती है, हां ये अलग बात है कि उस परम्परा को लोग धीरे -2 रूढि कर देते हैं जो समाज के अहित का कारण भी बनने लग जाती है पर इसमें उस परम्परा या उस परम्परा का विधान करने वाले लोगों का कोई दोष नहीं निकाला जाना चाहिये।
मै आपको एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा।
सती प्रथा हमारे समाज का अभिषाप मानी जाती है जिसका उन्मूलन बडे विवादों के वाद किया जा सका।
इस प्रथा को आज के समय में कोई भी संभ्रान्त व्यक्ति उचित नहीं ठहरायेगा पर थोडा सा सोंचकर बताइये कि क्या ये उस समय भी इतना ही बुरा था जब लोगों की पत्नियों को आक्रमणकारी सेनायें बुरी तरह से यौनाचार हेतु प्रयोग करती थीं।
जबतक पति जीवित रहता था तबतक तो कदाचित वो पत्नी के सम्मान की रक्षा कर लेता था पर मरने के बाद तो नहीं कर सकता था तो उस समय अगर ये व्यवस्था लागू थी तो इसका क्रियान्वयन करने वाला व्यक्ति प्रमत्त तो नहीं कहा जा सकता।
यहां ये भी प्रश्न उठ सकता है कि बहुत से लोग इस परिस्थिति से समझौता कर लेते रहे होंगे तो उनकी पत्नियों के लिये जबरदस्ती क्यूं की जाती थी तो इसका उत्तर सिर्फ इतना है कि अगर एक स्त्री को इस तरह की छूट दे दी जाती तो कदाचित और भी औरतें मृत्यु के डर से आक्रान्ताओं की रखैल बनने के लिये तैयार हो जातीं और फिर आप कल्पना कर सकते हैं कि आज का भारत कैसा होता या आज की स्थिति क्या होती। शायद भारतीय संस्कृति का नाम भी मिट गया होता।
अब उस समय की पुस्तकों में सती प्रथा या बाल विवाह की बहुत ही बडाई होती रही होगी तो अगर आज के परिवेश में हम उन पुस्तकों को देखें तो हमे खासा अनुचित लगेगा पर क्या हम उन पुस्तकों को बिल्कुल ही गलत ठहरा सकते हैं | नहीं ,,, हमें उन्हें गलत कहने का अधिकार नहीं है। पर हां हम आज उन पुस्तकों की मान कर सतीप्रथा या बाल विवाह भी नहीं ला सकते अत: हमें उनसे केवल समसामयिक विषयों पर चरितार्थ हो रहे विषयों का चयन ही करना चाहिये।
ठीक इसी क्रम में मै अब आपके मनुस्मृति जनित शंकाओं का समाधान करता हूं।
वस्तुत: आज जो मनुस्मृति ग्रन्थ प्राप्त होता है वह प्राचीन मनुस्मृति का प्रतिनिधि मात्र करता है। इस ग्रन्थ्ा के साथ बहुतों ने बहुत ही खिलवाड किया ।
फिर भी अगर यही इसका मूल रूप रहा हो तो भी इसके विषय में कुप्रचार इसकी प्राय: गलत ब्याख्या के कारण हुई।
आपको इस बात की आपत्ति है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख से क्यूं उत्पन्न हुआ और शूद्र पैरों से तो इससे क्या शूद्र की समाज में महत्ता समाप्त हो जाती है।
कतई नहीं।
जरा आपके शरीर में ही ये व्यवस्थाएं लागू करके देखते हैं।
अगर ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है और शूद्र सर्वथा महत्व हीन तो आपके शरीर से शूद्र हटा दिये जाएं और उसके बदले आपको एक ब्राह्मण और दे दिया जाए।
अर्थात् अब आपको दो मुख हो गये और आपके पैर हटा दिये गये । कल्पना कीजिये क्या आप बहुत सहज महसूस कर रहे हैं।
आपके पहले प्रश्न का यही उत्तर बन पडता है ।
दूसरी बात आपने इस ब्यवस्था को जाति व्यवस्था कहीं नहीं सुना होगा क्यूकि ये वर्ण व्यवस्था थी जो ब्यक्तियों के कार्य के अनुसार निर्धारित होती थी। अर्थात् जिसके जो कर्म होते थे उनको उसी तरह के कार्य दे दिये जाते थे और उसको उसी वर्ग का मान लिया जाता था। अगर किसी ब्राह्मण का पुत्र भी किसी शूद्र की भांति प्रवित्त होता था तो उसे शूद्र की ही संज्ञा दे दी जाती थी पर बाद में इस वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था मान लिया गया तो इसमें महाराज मनु या उनके सिद्धान्त गलत क्यूं कहे जाएं।
वर्ण व्यवस्था का एक अद्भुत उदाहरण दे रहा हूं
कारूरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना।
नानाधियो वसूयवोनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव।। ऋग्वेद 9,112,3
उपरोक्त मन्त्र में एक ही परिवार के लोगों को भिन्न -2 कर्म का सम्पादन करते हुए दिखाया गया है।
मन्त्रार्थ- मैं मन्त्रों का सम्पादन करता हूं1। हमारे पुत्र वैद्य हैं2, मेरी कन्या बालू से जौ आदि सेंकती है3 इस तरह भिन्न-2 कार्यो का सम्पादन करते हुए भी जिस तरह गोपालक गौ की सेवा करते है उसी तरह हे सोमदेव हम आपकी सेवा करते हैं। आप इन्द्रदेव के निमित्त प्रवाहित हों।
इस मन्त्र में एक ही परिवार में तीन कर्म दिये हैं और किसी को भी किसी से श्रेष्ठ या निम्न नहीं माना गया है।
कहना सिर्फ इतना है मित्र कि थोडा सा वैशम्य देखकर किसी बात का गलत अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये और सम्भव है अब आपकी इस समस्या का निराकरण हो गया हो कि किसी जाति परम्परा को उंच या नीच नहीं कहा गया, मतलब अगर कोई शूद्र है तो जरूरी नहीं उसका सत्कर्म करने वाला पुत्र भी शूद्र श्रेणी ही ग्रहण करे।
आपकी दूसरी समस्या
श्रीराम ने शम्बूक नामक शूद्र का वध क्यूं किया , जबकि वो तप कर रहा था।
आप के इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-
श्री राम के राज्य में सर्वत्र कार्यप्रणाली का श्रेष्ठतम प्रतिपादन था अर्थात जिस के हिस्से में जो कार्य था वो अपने कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित था अत: राज्य में अकाल मृत्यु नहीं होती थी।
शम्बूक एक ब्राह्मण द्रोही शूद्र था और तब के ब्राह्मण आज के ब्राह्मणों की तरह नहीं थे जो कर्म से तो शूद हों और ब्राह्मण होने का आडम्बर करें।
शम्बूक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिये नहीं अपितु ब्राह्मण वर्ग को नीचा दिखलाने के लिये तप कर रहा था।
और तो और उसके तप का माध्यम हठयोग था तथा वह मांसाहार तथा अभक्ष्यादिकों से तप का पोषण कर रहा था। इस तरह किया गया तप रामराज्य के लिये घातक सिद्ध हुआ और एक ब्राह्मण पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई । इस कारण श्री राम ने उसका वध कर दिया। किसी को नीचा दिखाने के लिये किया गया कोई महान कार्य भी निरा तुच्छ माना जाता है।
आपने दक्ष प्रजापति के यज्ञ के विषय में जरूर सुना होगा, दक्ष तो ब्रह्मा का पुत्र था फिर भी शिव की दुर्भावना वश किया हुआ उसका यज्ञ नष्ट कर दिया गया और उसकी दुर्गति हुई।
शम्बूक की तरह ही रावण का प्रसंग ले सकते हैं।
रावण तो महर्षि पुलत्स्य (सप्तर्षियों मे से एक ऋषि) का नाती था, पर उसके आचार विचार निरा राक्षसों के थे अब अगर कोई ये कहे कि राम क्षत्रिय थे अत: ब्राह्मण का उत्थान देख नहीं सके और उसका वध कर दिया तो इसे आप क्या कहेंगे।
ये तो एकांगी विचार का ही परिपोषण है।
फिर आप ये क्यूं नहीं देखते कि राम ने शस्त्र विद्या महर्षि विश्वामित्र से ली थी जो एक क्षत्रिय थे ।फिर भी स्वयं महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें ब्रह्मर्षि कहा था और श्री राम उन्हें नत होते थे। क्या इस प्रसंग से जाति व्यवस्था का लेश भी दिखाई देता है।
तो जिन श्रीराम ने एक क्षत्रिय को गुरू माना , एक ब्राह्मण को मृत्युदण्ड दिया अगर उन्होंने शम्बूक को मारा तो क्या उनकी व्यवस्था में खोट आ गयी। आप स्वयं विचार कीजियेगा , उत्तर आपका अपना मन ही दे देगा।
तीसरी शंका आपके मन्त्रार्थ के गलत अध्ययन के कारण है
यहां मैं मन्त्रार्थ दे रहा हूं।
वैश्य:,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, चार्हति ।।374
जो वैश्य परस्त्री को एक वर्ष तक घर मे रखे उसे सर्वस्व हरण का दण्ड देना चाहिये, क्षत्रिय द्वारा एसा करने पर सहस्र पणों का तथा शूद्र द्वारा एसा करने पर मूत्र से सिर मुडाने का दण्ड देना चाहिये।
उभावपि,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, कटाग्निना।।375
जो वैश्य और क्षत्रिय रक्षित ब्राह्मणी से संभोग करते हैं उन्हे वही दण्ड देना चाहिये जो इस कृत्य के लिये शूद्र को मिलती है या फिर उन्हें चटाई में लपेटकर आग में झोंक देना चाहिये।
इसी तरह से अन्य के भी मन्त्रार्थ वैभिन्य के कारण ही आपकी ये शंका उत्पन्न हुई है अत: इसमें आपकी कोई भी गलती नहीं मानता हूं।।
रही बात इनके शवों को अलग-2 दिशाओं से ले जाने की तो इसमें कोई भी दुर्भावना नहीं दिखती क्यूकि आज भी ज्यादातर ग्रामों मे शूद्रों की बस्तियां दक्षिण में ही होती है अत: यह केवल इस लिये ही नियमित किया गया कि कदाचित कोई भी वर्गद्वन्द्व न होने पाये। वस्तुत: ग्रन्थ का आशय केवल समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने से ही है अत: कुछ नियम ऐसे भी बने थे जो आज अप्रासंगिक होते दिख रहे हैं।
दण्ड विधान वैभिन्य इस कारण था कि एक ब्राह्मण जो समाज में उच्च पदासीन था, लोगों के मानस पटल पर जिसका सम्मानित प्रतिबिम्ब था उसको समाज के मध्य अपमानित करना ही मृत्यु के समान था पर क्रम नीचे जाने पर अगर आप एक शूद्र को उसके किसी जघन्य कृत्य के लिये केवल अपमानित कर के छोड दिया जाता तो उसकी कोई हानि न होती क्यूंकि समाज उससे ब्राह्मण का सा सम्मानित व्यवहार नहीं करता था , और इस थोडे से दण्ड प्राप्त होने पर वह वही कृत्य दुवारा भी उतने ही सानन्द करता इसलिये कठोर दण्ड के नियम यथोक्त निर्मित हुए।।
प्रिय महक जी
आशा है आपकी जिज्ञासा का कुछ तो समन कर सका हूंगा।
आपके शेष प्रश्नों का उत्तर भी इसी क्रम में देता रहूंगा पर अगर मेरे द्वारा दिये गये इन उत्तरों में आपकी जरा सी भी श्रद्धा दिखी तो।
एक बात और कहना चाहूंगा । आज हमारे देश की जो स्थिति है वो आप स्वयं ही देख रहे हैं । इसमें बताने जैसा कुछ भी नहीं है। हमारे देश के नेतागण ही इस देश को नष्ट करने पर लगे हैं, और फिर उपर से पाकिस्तान , बांग्लादेश, चीन , अफगान आदि देशों की सीमाओं से कुछ न कुछ अनिष्ट हो ही रहा है तो हमारा आज कर्तब्य ये बनता है कि हम भारत को भारत ही रहने दे इसे हिन्दू या मुस्लिम कौम में न बांटें और ये कार्य तभी सम्भव हो सकेगा जब हम अपने किसी भी धर्मग्रन्थ पर कटाक्ष न करें। चाहे वो वेद हों, पुराण हों, कुरान हों या गुरूग्रन्थ साहब हो । ये सारे ग्रन्थ बडे पवित्र हैं तथा इनमें हमारे प्राण बसते हैं अत: इनपर कुछ भी कटाक्ष करने से हमें तो कुछ नहीं मिलने वाला अपितु आपसी द्वेष ही बढेगा।
और जरा ये बताइये कि क्या समाज इन ग्रन्थों के हिसाब से आज या कभी भी चला है, अर्थात् क्या वो सारी व्यवस्थाएं लोगों द्वारा पालित हैं, और अगर नहीं तो क्यूं बिना वजह इन ग्रन्थों की टांग खींची जाए कि इनमें ये लिखा है , उनमें वो लिखा है। इसका क्या मतलब बनता है।
आज का जो कानून बना है क्या लोग उसका शत् प्रतिशत् पालन करते हैं या कि आज के कानून में जो लिखा है वो सब सही ही लिखा है, और अगर एसा नहीं है फिर भी तो लोग उसे मानते तो हैं ही न। क्यूं नहीं कोई इस पूरी कानून ब्यवस्था की कमियों के खिलाफ बगावत करता है।
कई बार हमें हमारे मां पिता तक से कुछ अप्रत्याशित् या अनुचित दण्ड प्राप्त हो जाता है या कुछ ऐसा व्यवहार होता है जिसकी हम आशा भी नहीं करते होते हैं तो क्या यह उचित है कि हम उनका समाज के बीच में अपमान करें या प्रतिरोध करें।।
अगर आप इन बातों से सहमत हैं तो शायद फिर आपको उन प्रश्नों के उत्तर की आशा न रहेगी।
शेष आपकी इच्छा।
आखिर में एक निवेदन सभी ब्लागर मित्रों से है कि कृपया अपनी तर्कशक्ति तथा लेखन शक्ति का प्रयोग व अपनी उर्जा को समाज के निर्माण में तथा भारत की उन्नति हेतु लगायें इससे हमारे व्यक्तित्व का विकास तो होगा ही , साथ ही साथ हमारा भारत, अखण्ड भारत बनेगा ।
कभी भी किसी भी धर्म या धार्मिक ग्रन्थों पर कटाक्ष करने से पहले ये जरूर विचार करियेगा कि जब भी देश पर संकट पडा है तो सारे भारतीय केवल भारतीय होते हैं न कि हिन्दू, मुसलमान । आजादी की लडाई भी हमने साथ ही लडी है।
धर्मवाद और जातिवाद तो कमीने नेताओं का शगल है। हमें तो जो भी वाद चलाना है वो हमारे भारत के लिये ही चलाना है अत: हांथ जोडकर निवेदन करता हूं कि संयुक्त भारत परिवार को विघटित न होने दें अन्यथा परिणाम किसी भी व्यक्ति के लिये हितकर नहीं होगा।।
आप लोगों का सहयोग एक सुरक्षित भारत का निर्माण करेगा।।
जय हिन्द
मई 4, 2010Leave a reply
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