Saturday, 9 September 2017
बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र

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बृहस्पति ऋषि

 बृहस्पति एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- बृहस्पति (बहुविकल्पी)
देवगुरु बृहस्पति पीत वर्ण के हैं। उनके सिर पर स्वर्णमुकुट तथा गले में सुन्दर माला हैं वे पीत वस्त्र धारण करते हैं तथा कमल के आसन पर विराजमान है। उनके चार हाथों में क्रमश: दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र और वरदमुद्रा सुशोभित है।
महाभारत [1] के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ-भाग प्राप्त करा देते हैं। असुर यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को भूखों मार देना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में देवगुरु बृहस्पति रक्षोन्घ मन्त्रों का प्रयोग कर देवताओं की रक्षा करते हैं तथा दैत्यों को दूर भगा देते हैं।
इन्हें देवताओं का आचार्यत्व और ग्रहत्व कैसे प्राप्त हुआ, इसका विस्तृत वर्णन स्कन्द पुराण में प्राप्त होता है। बृहस्पति ने प्रभास तीर्थ में जाकर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें देवगुरु का पद तथा ग्रहत्व प्राप्त करने का वर दिया।
बृहस्पति एक-एक राशि पर एक-एक वर्ष रहते हैं। वक्रगति होने पर इसमें अन्तर आ जाता है। [2]
ऋग्वेद के अनुसार बृहस्पति अत्यन्त सुन्दर हैं। इनका आवास स्वर्ण निर्मित है। ये विश्व के लिये वरणीय हैं। ये अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें सम्पत्ति तथा बुद्धि से सम्पन्न कर देते हैं, उन्हें सन्मार्ग पर चलाते हैं और विपत्ति में उनकी रक्षा भी करते हैं। शरणागत वत्सलता का गुण इनमें कूट-कूटकर भरा हुआ है। देवगुरु बृहस्पति का वर्ण पीत है। इनका वाहन रथ है, जो सोने का बना है तथा अत्यन्त सुखकर और सूर्य के समान भास्वर है। इसमें वायु के समान वेग वाले पीले रंग के आठ घोड़े जुते रहते हैं। ऋग्वेद के अनुसार इनका आयुध सुवर्ण निर्मित दण्ड है।
देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से सात कन्याएँ उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती।
तारा से सात पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं।
बृहस्पति धनु और मीन राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा सोलह वर्ष की होती है।
महर्षि अंगिरा की पत्नी अपने कर्मदोष से मृतवत्सा हुईं। प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा जी ने उनसे पुंसवन व्रत करने को कहा। सनत्कुमार से व्रत-विधि जानकर मुनि-पत्नी ने व्रत के द्वारा भगवान को सन्तुष्ट किया। भगवान विष्णु की कृपा से प्रतिभा के अधिष्ठाता बृहस्पति जी उनको पुत्र रूप से प्राप्त हुए।
पीतवर्ण, तेजोमय, ज्योतिर्विज्ञान के आधार देव गुरु का आह्वान किये बिना यज्ञ पूर्ण नहीं होता। श्रुतियों ने इन्हें सूर्य एवं चन्द्र का नियन्ता बताया है। सम्पूर्ण ग्रहों में ये सर्वश्रेष्ठ, शुभ प्रद माने जाते हैं। ये आठ घोड़ों से जुते अपने नीति घोष रथ पर आसीन होकर ग्रह-गति का नियन्त्रण करते हैं। महर्षि भारद्वाज बृहस्पति के औरस पुत्र हैं।
'बृहस्पति-संहिता' देवगुरु का इन्द्र को दिया हुआ दान धर्म पर विस्तृत उपदेशों का संग्रह था। उसका बहुत सूक्ष्म अंश प्राप्त है। कुछ आचार्यों का मत है कि असुरों को यज्ञ, दान, तप आदि से च्युत करके शक्तिहीन बनाने के लिये चार्वाकमत का उपदेश भी इन्हीं देव गुरु बृहस्पति जी ने किया था।

शान्ति के उपाय
इनकी शान्ति के लिये प्रत्येक अमावास्या को तथा बृहस्पति को व्रत करना चाहिये और पीला पुखराज धारण करना चाहिये। ब्राह्मण को दान में पीला वस्त्र, सोना, हल्दी, घृत, पीला अन्न, पुखराज, अश्व, पुस्तक, मधु, लवण, शर्करा, भूमि तथा छत्र देना चाहिये।
वैदिक मन्त्र
इनकी शान्ति के लिये वैदिक मन्त्र-
'ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्॥',
पौराणिक मन्त्र
'देवानां च ऋषीणां च गुरुं कांचनसंनिभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥',
बीज मन्त्र
बीज मन्त्र-'ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम:।', तथा
सामान्य मन्त्र
सामान्य मन्त्र- 'ॐ बृं बृहस्पतये नम:' है। इनमें से किसी एक का श्रद्धानुसार नित्य निश्चित संख्या में जप करना चाहिये। जप का समय सन्ध्याकाल तथा जप संख्या 19000 है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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