Friday, 1 September 2017
यहाँ 'चोदना' शब्द का अर्थ है-विध
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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 513

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह: ॥18॥
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-यह तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा है और कर्ता, करण तथा क्रिया-यह तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है।18॥
भावानुवाद- अतएव श्रीभगवान् के मत से सात्तिवक त्याग ही ज्ञानियों के लिए संन्यास है। किन्तु, भक्तों के लिए स्वरूपतः कर्मयोग का त्याग जाना जाता है। श्रीमद्भागवत[1]में श्रीभगवान् ने कहा है- ‘‘मेरे द्वारा कहे गये वेद रूप में आदिष्ट स्वधर्म का परित्यागकर एवं धर्म-अधर्म के गुण-दोष का भलीभाँति विचारकर जो व्याक्ति मेरा भजन करते है, हे उद्धव! वे ही सत्तम हैं।’’ पूज्यपाद श्रीधरस्वामी ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है- ‘‘मेरे द्वारा वेदरूप में आदेश दिये गये स्वधर्म को भी भलीभाँति त्याग कर जो मेरा भजन करते हैं, वे सत्तम हैं। यदि प्रश्न हो कि क्या ऐसा अज्ञानवश होता है अथवा नास्तिकता के कारण होता है, तो इसके उत्तर में कहते हैं- नहीं, धर्म के आचरण के विष में सत्त्व-शुद्धि आदि गुणसमूह एवं दूसरी ओर दोष समूह अर्थात् प्रत्यवाय समूह से अवगत होकर और उन्हें मेरे ध्यान के लिए विक्षेपक जानकर, मेरी (भगवान् की) भक्ति द्वारा ही सभी सिद्ध होंगे- ऐसा दृढ़निश्चयकर धर्मसमूह परित्यागकर मेरा भजन करते हैं।’’ वे ‘धर्म’ अर्थात् धर्मफल समूह का परित्याग कर मेरा भजन करते हैं।’’- यहाँ ऐसी व्याख्या नहीं होगी, क्योंकि ऐसा समझना चाहिए कि धर्मफल-त्याग से कोई दोष नहीं होता। भगवान् के वचन और उसकी व्याख्या करनेवालों का यही विचार है। क्योंकि ज्ञान निश्चय ही चित्तशुद्धिकी अपेक्षा करता है; निष्काम-कर्म द्वारा चित्तशुद्धिका तारतम्य होता है और चित्तशुद्धि के अनुसार ही ज्ञान के उदय का भी तारतम्य उपस्थित होता है, जो अन्यथा नहीं है। अतः सम्यक् ज्ञानोदय के लिए संन्यासियों के लिए भी निष्काम कर्म का साधन एकान्त कर्त्तव्य है। कर्म द्वारा भलीभाँति चित्त की शद्धि होने पर उन्हें कर्म की और आवश्यकता नहीं है।
जैसा कि गीता[2] में भी कहा गया है- ‘‘ज्ञानयोग की कामना करने वालों के लिए उसे प्राप्त करने का कारण (साधन) कर्म है, किन्तु ज्ञान भूमिका में आरूढ़ होने पर विक्षेपक कर्मत्याग ही उसका साधन है।’’ ‘‘जो आत्मा में ही प्रीतिवान् हैं, आत्मा में ही तृप्त और सन्तुष्ट हैं, उनके लिए कोई कर्त्तव्य कर्म नहीं हैं।[3] किन्तु भक्ति परम स्वतन्त्र और महाप्रबल है। यह चित्तशुद्धि की अपेक्षा नहीं करती है। जैसा कि श्रीमद्भागवत [4]में कथित है- ‘‘जो श्रद्धान्वित होकर व्रज वधुओं के साथ कृष्ण की लीला सुनते हैं, वे भगवान् की पराभक्ति लाभकर शीघ्र ही कामरूप हृदय रोग को दूर करते हैं।’’ यदि संशय हो कि ऐसा किस प्रकार होता है, तो इसके उत्तर में कहते हैं- ‘‘काम आदि से युक्त व्यक्ति के हृदय में अथवा अधिकारियों के हृदय में पहले परम भक्ति प्रवेश करती है और बाद में वहाँ काम आदि का नाश होता है।’’ श्रीमद्भागवत[5]में और भी कहा गया है- ‘‘कृष्ण भक्तों के श्रवणपद से भावपद्म रूप हृदय में प्रवेश कर उनके समस्त मलको उसी प्रकार दूर करते हैं, जिस प्रकार शरद ऋतु नदी के कीचड़ को दूर करती है।’’ अतएव भक्ति द्वारा ही यदि इस प्रकार चित्तशुद्धि होती है, तो भक्तगण कर्मका अनुष्ठान क्यों करेंगे? यहाँ आलोच्य श्लोक का अनुसारण कर रहे हैं,- देह आदि के अतिरिक्त केवल आत्मज्ञान ही ज्ञान नहीं है, बल्कि उसी प्रकार आत्मतत्त्व भी ज्ञेय है अर्थात् आत्मतत्तवको भी जानना चाहिए। जिन्होंने ऐसे ज्ञान का आश्रय किया हे, वे ही ज्ञानी हैं, किन्तु इन तीनों में भी कर्म-समबन्ध वर्तमान है, यह जानना भी संन्यासियों का कर्त्तव्य है इसीलिए ‘ज्ञानम्’ इत्यादि कह रहे हैं। यहाँ ‘चोदना’ शब्द का अर्थ है-विध। भट्ट कहते हैं कि चोदना, उपदेश और विधि- ये सब एकार्थवाचक हैं। अपने श्लोक के आधे अंशकी व्याख्या स्वयं कर रहे हैं- ‘करणं’ इत्यादि। जिसके द्वारा जाना जाय, वही ज्ञान है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार ज्ञान करण कारक है, ‘ज्ञेय’ अर्थात् जीवात्मतत्तव ही कर्म कारक है। जो इसे जानने वाला है, वही परिज्ञाता है अर्थाता वही ज्ञाता हैं करण, कर्म तथा कर्त्ता- ये तीन कारक हैं अर्थात् ‘कर्मसंग्रह’ हैं। ‘कर्मसंग्रहः’ -[6]निष्काम कर्म द्वारा ही संग्रहीत होने के कारण। यह ‘कर्मचोदना’ पदकी व्याख्या है। ‘ज्ञानत्व’, ‘ज्ञेयत्च’ और ‘ज्ञातत्त्व’- ये तीनों निष्काम-कर्मानुष्ठान मूलक हैं।।18।।

टीका-टिप्पणी और संदर्भ
↑ 11/111/32
↑ 6/3
↑ गीता 3/17
↑ 10/33/39
↑ 2/8/5
↑ कर्मणा-संग्रह
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अध्याय
नाम
पृष्ठ संख्या
पहला
सैन्यदर्शन
1
दूसरा
सांख्यायोग
28
तीसरा
कर्मयोग
89
चौथा
ज्ञानयोग
123
पाँचवाँ
कर्मसंन्यासयोग
159
छठा
ध्यानयोग
159
सातवाँ
विज्ञानयोग
207
आठवाँ
तारकब्रह्मयोग
236
नवाँ
राजगुह्मयोग
254
दसवाँ
विभूतियोग
303
ग्यारहवाँ
विश्वरूपदर्शनयोग
332
बारहवाँ
भक्तियोग
368
तेरहवाँ
प्रकृति-पुरूष-विभागयोग
397
चौदहवाँ
गुणत्रयविभागयोग
429
पन्द्रहवाँ
पुरूषोत्तमयोग
453
सोलहवाँ
दैवासुरसम्पदयोग
453
सत्रहवाँ
श्रद्धात्रयविभागयोग
485
अठारहवाँ
मोक्षयोग
501
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